जो वास्तव में शिष्य बन गया वह गुरु से कभी दूर नहीं हो सकता, जिस प्रकार परछाई कभी वस्तु से दूर नहीं हो सकती ,उसी प्रकार शिष्य भी गुरु के सदैव करीब बना रहता है।
शिष्य के लिए गुरु सर्वस्व होता है। गुरु ही उसके लिए माता, पिता एवं सच्चा मित्र होता है। वास्तविक शिष्य के लिए संसार के सारे संबंध नगण्य हो जाते हैं क्योंकि वह पूर्णतः गुरु में समाहित हो जाता है।
शिष्य के लिए गुरु से बढ़कर कोई वेद, शास्त्र या ग्रंथ नहीं है। गुरु से बढ़कर कोई देव या इष्ट नहीं है। गुरु ही उसके लिए सर्वस्व है।
एक शिष्य के लिए गुरु चरणों के अतिरिक्त कोई मंदिर या तीर्थ नहीं, वह गुरु चरणों में ही समस्त देवी देवताओं एवं तीर्थों का दर्शन कर लेता है।
अधिक से अधिक गुरु सेवा करने की अदम्य इच्छा शिष्य में होनी चाहिए। गुरु सेवा ही समस्त साधना एवं सिद्धियों की कुंजी है।
शिष्य को चाहिए की वह हमेशा पुरुषार्थ एवं परिश्रम करने में तत्पर रहे और जो भी कार्य गुरु उसे सौंपे वह उसे शीघ्रता के साथ सम्पन्न करें।
योग्य शिष्य ही पहली और मुख्य कसौटी है कि वह गुरु के समक्ष घमण्ड प्रदर्शित न करे अपने कुल, धन का अभिमान न करे तथा तन, मन एवं धन से गुरु के चरणों में समर्पित रहे।
शिष्य को यह याद रखना चाहिए कि जब तक उसके देह में प्राण है, तब तक गुरु उसे कोई भी आदेश दे सकते हैं और उसका पालन करना उसका धर्म एवं परम कर्त्तव्य है।
केवल गुरु के पास बैठने मात्र से शिष्य के हृदय में ज्ञान का प्रकाश प्रस्फ़ुटित होता है, अतः कोशिश करके अधिक से अधिक समय गुरु के सान्निध्य में बिताना शिष्य का कर्तव्य है।
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