पर हमें उस स्वभाव का पता ही नहीं चलता। हम उसमें ही उलझे रहते हैं, जो आता है और जाता है। वह जो मेजबान है, वह मेहमानों में खो गया है। घर का जो मालिक है, जो आतिथेय है, वह अतिथियों की सेवा करते-करते यह भूल ही गया है कि मैं भी हूँ- अतिथियों से अलग, भिन्न, पृथक।
ऐसे ही हम अतिथियों की सेवा करते-करते भूल ही गये हैं कि हम कौन हैं। दुःख जिसमें निवास कर लेता है, सुख जिसमें निवास कर लेता है, वह कौन है? वह कौन है जो अनुभव करता है कि मैं दुःखी हो रहा हूँ? वह कौन है जो अनुभव करता है कि मैं सुखी हो रहा हूँ?
निश्चित ही, वह सुख और दुःख से अलग है, क्योंकि अनुभव करने वाला अलग ही होगा। अनुभोक्ता पृथक ही होगा। मैं इस वृक्ष को देखता हूँ, तो मैं वृक्ष से अलग हो गया। मैं आपको देखता हूँ, तो मैं आपसे अलग हो गया। मैं अपने शरीर को देखता हूँ तो मैं अपने शरीर से अलग हो गया। वह जो देखने वाला है, वह दृश्य से अलग हो गया। हो ही जायेगा नहीं तो देख नहीं पायेगा। अगर द्रष्टा दृश्य से अलग न हो, तो देखेगा कैसे! देखने के लिये फासला चाहिये, दूरी चाहिये।
तो जिसे भी हम देख पाते हैं, उससे हम भिन्न हो जाते हैं। इसीलिये हम परमात्मा को देख नहीं पाते। क्योंकि उससे हम भिन्न नहीं है। उससे हम अभिन्न है। देखेगा कौन? देखेगा किसको? उसके साथ हम एक है। जिसे हम छू पाते हैं, उससे अलग हो जाते हैं, जिसे सुन पाते है, उससे अलग हो जाते हैं। इंद्रियाँ जो भी जानती है, उससे हम अलग हो जाते है। मन जो भी पहचानता है, उससे हम अलग हो जाते हैं।
सुख को भी जानते हैं। जब सुख आता है, तब आप भलीभांति जानते हैं कि सुख आया। दुःख आता है, भली भांति जानते हैं, दुःख आया। जाता है, तब भी जानते हैं कि दुःख जा रहा है। यह जो जानने वाला है, यह अलग है, यह भिन्न है। यही स्वरूप है।
जो व्यक्ति इस भीतर के स्वरूप में स्थिर हो जाता है, रमण को उपलब्ध हो जाता है, स्वयं में स्वस्थ हो जाता है, स्वयं में स्थित हो जाता है, ऐसा व्यक्ति सदैव आनन्द में डूबा रहता है। क्या फिर उसके ऊपर दुःख नहीं आते? क्या फिर बीमारी नहीं आती? क्या फिर मृत्यु नहीं आती?
नहीं, मृत्यु तो फिर भी आती है, लेकिन उस पर नहीं आती अब। वह पार और दूर और अछूता खड़ा रह जाता है। दुःख तो अब भी आते हैं, बीमारियाँ अब भी आती है, पैरों में अब भी कांटे गड़ते हैं, बुढ़ापा अब भी आता है, लेकिन अब उस पर नहीं आता। वह दूर खड़ा रह जाता है, अस्पर्शित, कमल के पत्ते जैसा। पानी की बूंद उस पर पड़ी है, लेकिन फिर भी छूती नहीं। पानी में डूबा है पत्ता, फिर भी दूर। पानी और पत्ते के बीच एक बारीक फासला है।
स्वरूप को, आनन्द को अनुभव करने वाला व्यक्ति दुःख से घिर सकता है, लेकिन दुःख के तादात्म्य में नहीं पड़ता। अंधेरा उसे घेर ले सकता है, लेकिन वह स्वयं अंधकार कभी नहीं होता। हमारे और उसके बीच एक ही फर्क है। जो हमें घेरता है, हम उसके साथ अपने को एक ही मान लेते हैं। ऐसा नहीं कहते हम कि मुझ पर दुःख आया, कहते हैं, मैं दुःखी हो गया।
तादात्म्य को तोड़ना- बस यही साधना है। हम चीजों से जुड जाते हैं। और इतने जुड़ जाते हैं कि लगने लगता है, यही मैं हूँ। जैसे दर्पण में कोई तस्वीर बने और दर्पण समझ ले कि यह तस्वीर ही मैं हूँ। जैसे झील में चाँद दिखाई पड़े और झील कहने लगे, चाँद मैं हूँ, ऐसे हम हो जाते हैं।
दुःख छलकता है भीतर, छाया बनती है दुःख की, मैं दुःख हो जाता। सुख आता है, मैं सुख हो जाता। अशांति आती है, मैं अशांत बन जाता। अपने को पार नहीं रख पाता, दूर नहीं रख पाता कि जो आ रहा है, वह मैं नहीं हो सकता, क्योंकि मैं तो उसके आने के पहले से ही मौजूद हूँ। जब नहीं दुःख आया था, तब भी मैं था और जब दुःख चला जायेगा, तब भी मैं होऊंगा, तो मेरा होना दुःख के साथ एक नहीं हो सकता। कितना ही, कितना ही दुःख घेर ले, तब भी मैं किसी तल पर दूर ही खड़ा रह जाता हूँ।
इसी दूरी की प्रतीति, इस तादात्म्य का टूट जाना योग है। जिसे कहा गया है- योगेन, योग के द्वारा ही सदैव आनन्द-स्वरूप में स्थित, सदैव आनन्द का दर्शन करते रहते हैं।
क्षणभर को भी फिर आन्नद स्खलित नहीं होता। क्षणभर को भी आनन्द से सम्बन्ध नहीं टूटता। अभी भी टूटा नहीं है। सिर्फ स्मरण नहीं है। तादात्म्य स्मृति को नष्ट करता है, स्थिति को नहीं।
प्रत्येक व्यक्ति उस आनन्द को अनुभव कर सकता है, लेकिन योग के द्वारा। योग का अर्थ है वे प्रक्रियायें, जिनके द्वारा आप अपनी असली शकल को पहचान लेंगे। अपनी मौलिक दशा को समझ लेंगे। सब तादात्म्य तोड़ने पड़े, तो स्वरूप का पता चलता है। योग प्रक्रिया से ही हमारा मौलिक चेहरा उजागर हो सकता है, क्योंकि मौलिक चेहरा कभी मिटाने से नहीं मिटता है।
चेहरा बदलना जहाँ इतना आसान हो, वह चेहरा हमारा मौलिक चेहरा नहीं हो सकता। वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। तो एक बात ध्यान रखें कि जो भी बदला जा सकता है, वह हमारा स्वभाव नहीं है।
स्वभाव की प्राप्ति के लिये हमें प्रवेश करना है भीतर वहाँ, जहाँ कोई आवरण नहीं रह जाता। जहाँ सिर्फ वही रह जाता है, जो जानने की क्षमता है। बस, जानना मात्र एक ऐसी चीज है, जिससे हम अपने को अलग नहीं कर सकते, जिससे हमारा तादात्म्य नहीं है, जिससे हमारा स्वरूपगत, जो हमारा स्वरूप है, स्वरूप ही है। और जिस दिन कोई जानने की शुद्ध क्षमता को उपलब्ध होता है, उसी दिन आनन्द से भर जाता है और उसी दिन अमृत से भर जाता है।
और उपनिषद में उस स्थिति के लिये कहा है, सच्चिदानंद। सत, चित, आनन्द। सत का अर्थ है, वह जो सदा रहेगा- शाश्वत रूप से जो सत्य होगा। सत का अर्थ है, जो कभी भी अन्यथा नहीं होगा। चित का अर्थ है चैतन्य, ज्ञान, बोध। जो सदा बोध से भरा रहेगा, जिसका बोध कभी नहीं खोयेगा। और आनन्द का अर्थ है BLISS, जो सदा सुख-दुःख से पार, एक परम रहस्य में, आनन्द में, मस्ती में डूबा रहेगा। एक ऐसी मस्ती में, जो बाहर से नहीं आती, जिसके स्रोत भीतर हैं। उस स्वभाव को कहा है सच्चिदानंद।
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