भगवान श्रीराम का जीवन सर्वथा अनुकरणीय एवं सदाचार से समन्वित है, वेद विहित आचरण ही उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित करता है। उनका सम्पूर्ण जीवन मानवीय मूल्यों के लिये समर्पित रहा है।
उनके विराट व्यक्तित्व ने समाज को मर्यादा और धर्म का अनुसरण कर आदर्श युक्त जीवन जीने की प्रेरणा दी। केवल उनके जीवन चरित्र को पठन-पाठन के रूप में नहीं ग्रहण करना चाहिये, उनके आदर्श व मर्यादित जीवन के सुगुणों को हमारे व्यावहारिक जीवन में आत्मसात करने की आवश्यकता है। वास्तव में यदि उनके द्वारा स्थापित नियम और आदर्शों को हम अपने जीवन में जगह दें, आत्मसात करे तो जिस राम-राज्य की व्याख्या शास्त्रों में की गयी है, उसको मूर्त रूप दिया जा सकेगा।
श्रीराम के द्वारा स्थापित आदर्शों, गुणों में माता सीता का विशेष योगदान है, अथवा यह कहना भी उचित है कि सभी क्रियाओं के मूल में भगवती सीता ही है। जीवन की प्रत्येक अवस्था में माता सीता ने प्रभु राम को पूरा सहयोग प्रदान किया। यहाँ तक कि जब भगवान राम 14 वर्षों के लिये वनवास जा रहे थे, तब सीता ने राजसी सुख-सुविधाओं का त्याग कर श्रीराम के साथ वनवास जाने का निश्चय किया और प्रभु राम के सुख-दुःख की संगिनी बनी और लंका में हजारों वेदना, पीड़ा, दुःख सहने के पश्चात् भी अपने स्वामी से आत्मिक भाव से जुड़ी रही। कठोर समय में भी उनका चिन्तन, विचार, श्रद्धा, विश्वास तनिक भी विचलित नहीं हुआ।
अशोक वाटिका के असहनीय पीड़ा में भी वे प्रत्येक क्षण राम नाम की ही रट लगाती रही। रावण के अनेक प्रलोभन, भयभीत करना जैसे उपाय भी उन्हें जरा सा भी डग-मग नहीं कर सके।
श्री रामचरित मानस के प्रसंग अनुसार- जब भगवान श्रीराम और माता सीता ने विवाह के पश्चात् पहली बार बात की तो राम ने सीता को वचन दिया कि वे जीवन भर उनके प्रति निष्ठावान रहेंगे। उनके जीवन में पराई स्त्री नहीं आयेगी। सीता ने भी वचन दिया कि हर सुख और दुःख में वे उनके साथ रहेंगी। राम और सीता ने पहली बातचीत में भरोसे और समर्पण की प्रतिज्ञा ली थी। समर्पण राम का था तो सीता भी प्रत्येक कदम पर सहयोगी रहीं और यही कारण रहा कि इन दोनों के मध्य कभी व्यक्तिगत रूचियाँ अड़चन नहीं बनी और ना ही दोनों के बीच कभी अहंकार कोई कारण बना। दोनों एक-दूसरे के सुख की चिंता करते थे।
वर्तमान में सर्वाधिक रिश्ते व्यक्तिगत रूचि और अहंकार के कारण ही खण्डित होते हैं। रिश्तों में समर्पण की भावना समाप्त सी हो गई है, और यदि हम वैवाहिक जीवन के मूल तत्व समर्पण व भरोसे को पुन: जीवन्त बना लें, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से परे हटकर अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करें, तो हमारा गृहस्थ जीवन राम-सीता की तरह सफल-सुखद और शांतिदायक हो सकता है।
आज प्रत्येक भारतीय परिवार में अनेकों विकट परिस्थितियाँ देखने को मिलती है, जिसका मूल कारण यही है, कि मानवीय विचारों में मौलिक ह्रास हुआ है। व्यक्ति इतना अधिक स्वार्थी हो गया है कि वह अपने सिवाय किसी और के बारे में सोच भी नहीं पाता। पति-पत्नी के मध्य राम-सीता के जैसा कोई भाव, विचार, सिद्धान्त मुश्किल से ही देखने मिलते हैं और राम-भरत जैसा भाईयों के प्रति प्रेम कहीं देखने को मिलता है।
वर्तमान में बहुत सी स्त्रियां ऐसी मिल जायेंगी, जो पति की राय पर संतुष्ट नहीं होती है। उनकी इच्छायें नित्य बढ़ती ही रहती है। सास, बहू और बेटे के बीच मतभेद और कलह-क्लेश प्रतिदिन होते रहते हैं। इन सभी का कारण अधिकार और कर्त्तव्य निर्वाह मुख्य रूप से होता है, सभी लोग अपने-अपने अधिकार की बाते करते हैं, परन्तु कर्त्तव्य निर्वाह की ओर कम ही ध्यान जाता है, ये बाते पति-पत्नी, सास सभी पर समान रूप से लागू होती है। यदि किसी में भी कर्त्तव्य निर्वाह की भावना प्रबल रूप से है, तो उसे अधिकार स्वतः ही धीरे-धीरे प्राप्त हो जाता है। अधिकारों को प्राप्त करने के लिये किसी संघर्ष की आवश्यकता नहीं होती है। इसके लिये अनिवार्यता केवल इतनी ही है कि आप अपने कर्तव्य का निर्वाह निष्ठा पूर्वक करें।
पहले के समय में जहाँ माता-पिता की आज्ञा सर्वोपरि मानी जाती थी, वहीं आज के युग में अनेक माता-पिता को वृद्धाश्रम में ही रहना पड़ता है। युवा वर्ग में माता-पिता का सम्मान या सेवा का भाव समाप्त सा हो गया है। अर्थात् माता-पिता के उपकार को वर्तमान संतान पूरी तरह नकारने की ओर बढ़ रही है।
रामचरितमानस के इस प्रसंग से स्पष्ट उल्लेखित है कि पति-पत्नी के मध्य ठीक इसी प्रकार की समझ होनी चाहिये। दोनों के बीच ताल-मेल बहुत महत्वपूर्ण है, यह एक ऐसा तथ्य है जो सम्पूर्ण गृहस्थ जीवन को एक अलग ही आनन्द से युक्त करता है। वैवाहिक जीवन में दोनों की आपसी समझ जितनी मजबूत होगी, गृहस्थ जीवन उतना ही मधुर आनन्ददायक होगा।
राम सीता के गृहस्थ जीवन में ऐसे कई तत्व हैं, जिसे सभी को अपने दाम्पत्य जीवन में सम्मिलित करना चाहिये, जिससे आपका गृहस्थ जीवन भी प्रभु श्रीराम और माता सीता के समान ही आत्मिक, मानसिक रूप से एकरस हो सकेगा तो आप अपने गृहस्थ जीवन को पूर्ण सुख-शांतिमय व्यतीत कर सकेंगे।
मार्गशीर्ष शुक्ल पक्षीय विवाह पंचमी जो कि प्रभु श्रीराम माता सीता जी के परिणय पर्व है। इन पुरूषोत्तममय शक्ति दिवसों में साधनायें और शक्तिपात दीक्षा ग्रहण करने से निश्चित रूप से भगवान श्रीराम व सीता स्वरूप चेतना को आत्मसात कर साधक अपने जीवन में पुरूषोत्तममय शक्तियों से युक्त हो सकेगा।
जिससे गृहस्थ जीवन के असत्य, अधर्म, शत्रु, रोग, छल, विश्वासघात, दरिद्रता, आसुरी शक्तियों के युद्ध में मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की ही भांति विजयश्री प्राप्त कर सकेंगे, साथ ही साधक गृहस्थ के सभी रसो से सरोबार हो सकेगा और जीवन में निश्चिंतता और श्रेष्ठता प्राप्त हो सकेगी।
यह साधना विवाह पंचमी 06 दिसम्बर 2024 को सम्पन्न करनी चाहिये, यह रात्रिकालिन साधना है। साधक स्नानादि कर अपने नित्य कर्मों से निवृत्त होकर अपने पूजा स्थान में पीले वस्त्र धारण कर उत्तर दिशा की ओर मुख कर आसन पर बैठ जायें। सर्वप्रथम संक्षिप्त गुरू पूजन करें और गुरू मंत्र की चार माला मंत्र जप करें।
इसके पश्चात् अपने सामने एक बाजोट पर शुद्ध वस्त्र बिछा लें और उस पर किसी पात्र में ‘गृह बाधा हरण यंत्र’ स्थापित करें। साथ ही सामने गुग्गल का धूप जलायें तथा मिठाइ, फल, पुष्प तथा तेल रखें और दूसरी ओर घी का दीपक जलायें। यंत्र के चारों ओर काजल से एक गोल घेरा लगा दें और यंत्र का संक्षिप्त पूजन सम्पन्न करें। अब गृह बाधा हरण माला से निम्न मंत्र का एक माला मंत्र जप 21 दिनों तक नित्य करें
इस साधना में श्वेतार्क गणपति का प्रयोग विशेष है, इसे घर के बाहर रखें, और साधना पूर्ण होने पर अपने घर के बाहर गाड़ दें। साधना सम्पन्न होने के पश्चात यंत्र व माला को किसी पवित्र जलाशय या गुरू चरणों में अर्पित कर दें। साधना काल में शुद्ध-सात्विक भोजन करना अनिवार्य है।
अतः उक्त साधना इस पर्व पर सम्पन्न करने से जीवन की असुर राक्षसीमय रावणरूपी विषमतायें समाप्त हो सकेगी।
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