—और क्यों न होने लग जाये यह सब, क्यों नहीं सारी प्रकृति ही अपनी जड़ता और उदासी की छोड़ कुछ चौंकती सी चारों ओर देखने लग जाये? नित्य प्रति तो ऐसे उत्सव के सृजित होने की बात होती नहीं और क्या कोई उत्सव मात्र एक या दो दिन की ही घटना होती है? क्या उत्सव के सृजित होने की पृष्ठभूमि बनना एक उत्सव से कम होता है? विशेषकर जब वह उत्सव सृजित होने जा रहा हो इस धरा के ही नहीं वरन इस समस्त ब्रह्माण्ड के सबसे मधुर, सबसे पवित्र, सबसे अधिक आह्नादकारक और सर्वथा अकृत्रिम सम्बन्ध गुरु व शिष्य के मध्य।
अन्य सम्बन्ध तो इस जगत में बनते है, बिगडते हैं, लेकिन इन्हीं सम्बन्धों के मध्य एक और होता है सम्बन्ध गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जो न बनने की बात होती है और न ही समाप्त होने की। अन्य सम्बन्ध तो व्यक्ति जन्म मिलने के बाद बनाता है, किन्तु एक सम्बन्ध! जो वह अनेक जन्म-जन्मान्तरों से साथ लेकर चलता रहता है, वहीं होता है गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जो न बनने की बात होती है और न ही समाप्त होने की।
—-और निश्चय ही जो ऐसा सम्बन्ध होगा, वही व्यक्ति जीवन में तृप्ति प्राप्त कर सकेगा, वही उसे आश्वस्ति भी दे सकेगा। ऐसे ही सम्बन्ध के मधय नित्य प्रति, प्रतिपल जो आत्मीयता की सरिता एक मूक ध्वनि, अनहद के साथ प्रवाहित रहती है, वहीं वास्तव में किसी भी उत्सव की आधारभूमि होती है। गुरु व शिष्य के मध्य तो एक उत्सव निरन्तर सृजित होता ही रहता है भले ही शिष्य अपने गुरु के सम्मुख समीप हो अथवा उनसे दूरस्थ हो।
इसी उत्सव भाव को भी अधिक प्रगाढ़ और भी अधिक दृढ़ तथा अपने शिष्य में एक स्थायी भाव देने का जब आग्रह निर्मित कर लेते हैं सद्गुरुदेव, तब वे सृजित करते हैं विविध उपाय अनेक युक्तियां ऐसे किसी महोत्सव को जन्म देते हुए ब्रह्माण्ड स्वरूप गुरु स्थापन दीक्षा के माध्यम से मूर्त रूप लेने जा रहा है। यह एक सामान्य दीक्षा का सामान्य अवसर न होते हुए एक उच्चकोटि की दीक्षा को अन्यतम उल्लास व महोत्सव के रूप में सम्पन्न करने के क्षण होंगे, क्येांकि गुरुदेव की दृष्टि में जो प्रधान होता है वही आनन्द का पथ होता है। यही सद्गुरुदेव का रहस्य व सामान्य ज्ञानी से भेद भी होता है, कि वे अत्यन्त सहज गति के साथ उसे इस प्रकार उच्चता व आध्यात्मिकता से अभिसिक्त भी करते रहते हैं, जिससे अधयात्म का पद उसके लिये किसी जड़ता, कटुता अथवा बोझिलता का पर्याय न होकर आनन्द का पर्याय हो सके और यूं भी आनन्द की उपलब्धि, आनन्दयुक्त पथ पर चलकर प्राप्त होने ही दशा में अपनी अर्थवत्ता प्रकट करती है। जीवन व अध्यात्म का लक्ष्य निःसन्देह उसी अर्थवान आनन्द की प्राप्ति है, जिसे कहीं परमानन्द, तो कही ब्रह्मानन्द अथवा कहीं इष्ट दर्शन के रूप में वर्णित किया गया है।
किन्तु जब तक पथ अर्थात् भौतिक पक्ष पूर्ण नहीं होगा, मनोवांछित रूप से सजा-संवरा नहीं होगा, तब तक यात्रा का अर्थ ही कैसे हो सकेगा ? आनन्द की उपलब्धि, आनन्द पथ पर चलकर ही हो सकती है, यूं कोई मंत्र जप, ध्यान, शास्त्र, अध्ययन, शास्त्रार्थ विवेचन से खुद को उलझा कर अपने को ढाढस सा देना चाहे, तो वह उसके लिये स्वतंत्र है।
मात्र ऊंची आवाज में भजन गा लेने से ही आत्मसंतुष्टि प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि जब व्यक्ति अन्दर से ही श्रद्धा, विश्वास आदि गुणों से रिक्त है, तो किसी भी बाह्य क्रिया से उसे कैसे आनन्द मिल सकता है। फि़र ऐसा करना तो आत्मप्रवंचना ही होती हे, स्वयं से झूठ बोलने का ही एक प्रकार का कार्य होता है। व्यक्ति का छल दूसरे से शायद तब भी कुछ दूरी तक चल सकता हो, लेकिन खुद से किया गया छल एक अभिशाप होता है।
जीवन की ऐसी ही स्थितियों में, ऐसे ही मन को मथ देने वाले मोड़ों पर जहां समस्त ज्ञान-विज्ञान, मत-मतान्तर, धर्म अथवा पंथ मूक हो जाते है, वहीं जिस दिव्य चैतन्य सता के स्पर्श की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है, उन्हें ही शास्त्रों में श्री सद्गुरुदेव कहकर अभिनंदित किया गया है। जो अपने विविध उपायों, स्पर्शों, वचनों, हास्य इत्यादि के माध्यम से जीव के जीवन में आशा का संचार करते हैं। उन्हें ही अत्यन्त सम्मान के साथ जीवन में समाहित कर पथ को निष्कंटक किया जा सकता है, क्योंकि गुरु का साहचर्य एक पल, दो पल अथवा कुछ वर्षों का साथ न होकर एक निरन्तर चलने वाला साथ होता है। शिष्य जब अपने दम्भ, प्रमाद, आलस्य या किसी अन्य संवेग में वशीभूत होकर अपनी गति स्तम्भित कर देता है, तब भी गुरु की गति अविराम बनी रहती ही है। वे उसके आत्म में स्थापित होते हुए उसे निरन्तर पोखरे में स्नान करने तथा देवगंगा में अवगाहन करने का मर्म विवेचित कर ही रहे होते हैं, क्योंकि जीवन के समस्त पक्षों, समस्त स्थितियों के उपरान्त भी सद्गुरुदेव का एक ही प्रयास होता है, कि जिस आनन्द के महोदधि में वे स्वयं निमग्न है, उसी में निमग्न होने की, आनन्द से अभिसिक्त होने की पात्रता उनका आत्मीय, उनका प्रिय उनका सर्वस्व, उनका शिष्य भी प्राप्त कर सकें।
पिता का प्रत्येक स्पर्श अपनी संतान के लिये एक स्नेहमय स्पर्श ही होता है, किन्तु कहीं-कहीं ऐसी भी स्थितियां आ जाती हैं जहां स्पर्श को एक बलाघात के साथ प्रयुक्त कर जीवन को दिशा देना अनिवार्य हो जाता है। इसके उपरान्त भी यह आघात कहीं से भी कटु नहीं होता है, क्योंकि इसके अन्तर में केवल प्रेम व स्नेह ही तो होता है। सद्गुरुदेव का भी प्रत्येक स्पर्श अपने शिष्य के लिए एक स्नेह ही होता है, किन्तु जहां इसे एक मृदु आघात के रूप में सम्पन्न करना उनकी दृष्टि में अनिवार्य हो जाता है, वहीं उस देव दुर्लभ क्रिया की उत्पति होती है जिसे शास्त्राकारों ने ‘दीक्षा’ कहा है। दीक्षा नित्य घटित होने की ही कोई सामान्य सी क्रिया नहीं होती है और विशेषकर ऐसी दीक्षा जिसमें शिष्य की पूरी अस्मिता को ही रसप्लावित कर देने की बात हो। जिस शिष्य को सद्गुरुदेव ने रसप्लावित कर देने का ही मानस, निर्मित कर लिया, जिसे अभिसिक्त करने, जिसका अभिषेक करने का विचार कर लिया, उसके समान संसार में कौन भाग्यशाली हो सकता है ? जिसने साक्षात सद्गुरुदेव से ही ऐसा स्पर्श प्राप्त कर लिया, उसके लिये इस जगत में नहीं, इस असीम ब्रह्माण्ड में दुर्लभ रह ही क्या गया ?
‘‘ब्रह्माण्ड स्वरूप गुरु स्थापन दीक्षा’’ इसी उच्चतम कोटि की दीक्षा है, जो न केवल पूज्यपाद गुरुदेव की ओर से ईसवी संवत् के माध्यम से आरम्भ हो रहे, नववर्ष पर अपने शिष्यों को एक विशिष्ट उपहार है वरन् शताब्दियों के इस संक्रमण काल पर व्याप्त विभीषिका के संदर्भ में एक विशिष्टतम घटना भी है। सद्गुरुदेव की प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक इंगित के केवल एक ही नहीं अनेक-अनेक गूढ़ अर्थ भी होते है और उनके द्वारा ऐसी दीक्षा प्रदान करना वास्तव में इस ब्रह्माण्ड की एक अलौकिक घटना है, जिसके प्रति न केवल उनके संन्यस्त शिष्य वरन् सिद्धाश्रम के उच्चकोटि के योगी भी आशा पूर्ण दृष्टि से एकटक होकर देख रहे है। (जो शिष्यत्व की भावभूमि पर खड़े होते है, जो जानते है, कि काल के ऐसे क्षण नित्य प्रति उपस्थित नहीं होते और न ऐसी दीक्षा को कोई मूल्य देकर खरीदा जा सकता है, वे निर्णय-अनिर्णय की स्थितियों में न उलझते हुए एक ही प्रवाह में अपने गुरुदेव से वह सब कुछ प्राप्त कर लेते है, जिससे उनका जीवन एक अनमोल हीरक खण्ड में परिवर्तित होते हुए सतरंगी आभा से युक्त हो जाता है।)
पूज्यपाद गुरुदेव के विराट लक्ष्यों को पूर्ण करने में उनके शिष्यों को ही माध्यम बनना पड़ता है और माध्यम बनने से भी अधिाक उनकी इच्छा पर गतिशील होने वाला एक यंत्र बनना पड़ता है। यह शिष्य का चिंतन नहीं होता, कि वह कहे – गुरुदेव! मुझे यह दायित्व सौंपे, वरन् वह तो अपनी समस्त सामर्थ्य, बुद्धि, समस्त अस्तित्व, धन, बल लेकर गुरु चरणों में ‘इदं देवाय न मम्’ की भावना से उपस्थित हो जाता है और पूज्यपाद गुरुदेव सर्वध अनभिज्ञ से बने रहकर एक ही क्षण में सारा आकलन कर लेते हैं। वास्तव में उनके भाग्य से तो उच्चकोटि के संन्यासी, ज्ञानी, यति, मुनि ही नहीं वरन् देवता भी ईर्ष्या करते होगे, जिन्हें साक्षात् पूज्यपाद गुरुदेव से ब्रह्माण्ड स्वरूप गुरुस्थापन दीक्षा प्राप्त हो सकेगी।
— क्योंकि ऐसी अनिवर्चनीय दीक्षा का प्राप्त होना तो एक संकेत होता है, कि अब पूज्यपाद गुरुदेव ने शिष्य की क्षमता-अक्षमता आदि का विचार त्याग कर यह निश्चय कर लिया है, कि वे अब अपने ही प्रयासों से शिष्य को अपने में विलीन कर लेगें। पूज्यपाद गुरुदेव ने अपने वचनों में जिस समुद्र के आगे बढ़ आने के अनहोनी को कहा था, यह उसी अनहोनी को साकार रूप देने की दिशा में एक चरण है। शिष्य अपनी वेदना को ओठों से कहे या न कहे, किन्तु सद्गुरुदेव तो क्षण-क्षण अपने प्रत्येक शिष्य की मनोभावनाओं को पढ़ सा रहे होते है। सद्गुरुदेव का तो प्रत्येक प्रयास अपने शिष्य को उमंग युक्त बनाने के लिए समर्पित सा होता है। अपनी उच्चतम स्थिति को त्याग, शिष्यों के स्तर पर उतर कर उनकी समस्याओं के समाधान के लिय पूज्यपाद गुरुदेव को जितनी वेदना सहनी पड़ती है, वह उनकी अपने शिष्यों के प्रति समर्पित हो जाने की कला नहीं तो और क्या कही जा सकती है ?यदि कभी कोई शिष्य एक बार गुरु का ‘समर्पण’ समझ ले, तो फि़र उसके मुख से स्वयं के समर्पण के प्रति कोई शब्द ही नहीं निकल सकता, किन्तु सद्गुरुदेव उसी प्रकार अपने शिष्य का प्रसन्नता से दमकता चेहरा देखकर अपनी वेदना को विस्मृत कर देते है, जिस प्रकार कोई सद्यप्रसूता मां अपने शिशु का चेहरा देख अपनी प्रसव वेदना को विस्मृत कर देती है। शिष्य सम्पूर्ण रूप से प्रसन्न बने, सम्पूर्ण रूप से वर्चस्व युक्त बने, सद्गुरुदेव का एक ही स्वप्न होता है। शिष्य की वृद्धि, शिष्य की वर्चस्वता में ही गुरु का सुख निहित होता है, किन्तु उसका वर्चस्व किसी पशुबल दम्भ या दमनकारी प्रवृति पर आधारित न होकर देवत्व पर आधारित हो, उसके वर्चस्व में दया, करुणा प्रेम, ममत्व के तत्व घुले-मिले हो इसलिये वे जो वर्चस्व प्रदान करते है वह ब्रह्माण्ड स्वरूप होता है।
ब्रह्माण्ड स्वरूप का आध्यात्मिक अर्थों में तो गूढ़ अर्थ है ही भौतिक अर्थों में भी एक गूढ़ार्थ है, कि ऐसा अपने गुरुदेव से दीक्षा के द्वारा प्राप्त करने वाला शिष्य अब विजेयता की उस स्थिति तक पहुंच गया है, जहां उसे कोई चुनौती तक नहीं दे सकता। ऐसे ही शिष्य के लिए जीवन में कोई भी स्थिति अलभ्य नहीं रह जाती चाहे वह आर्थिक पक्ष का प्रश्न हो, चाहे प्रेम, सौन्दर्य, शारीरिक पुष्टता, शत्रु-शान्ति, सम्मान प्राप्ति या जीवन के ऐसे ही सैकड़ों-सैकड़ों पक्षों में से कोई पक्ष।
वास्तव में गुरुदेव के समक्ष नित्य प्रति अपने समस्याओं को निवेदित करने का कोई अर्थ ही नहीं है, क्योंकि गुरु की गति सदैव अपने शिष्य के आगे ही होती है। वे न केवल एक ही उपाय के द्वारा शिष्य की वर्तमान की सभी स्थितियों का समाधान कर देते हैं वरन् उसे वह क्षमता व पात्रता भी दे देते हैं, जिससे उसके भविष्य का पथ भी निष्कंटक हो सके। और यदि ऐसा न होता तो क्यों वे ब्रह्माण्ड स्वरूप गुरुस्थापन दीक्षा देने का मानस निर्मित कर अपना मंतव्य प्रकट करते?
जिन्होंने गुरुपद का भावार्थ समझा होता है, जो शिष्यत्व की भावभूमि का साक्षात्कार कर चुके होते है, जो यह निश्चय कर लेते हैं, कि उन्हें अपने अस्तित्व को अपने गुरु में अत्यन्त तीव्रता से विसर्जित करते हुए अद्वितीय बनना ही है और जो सूक्ष्म बुद्धि से युक्त होकर यह समझने में समक्ष होते है, कि काल के ऐसे क्षण नित्य प्रति उपस्थित नहीं होते और न ऐसी दीक्षा को कोई मूल्य देकर खरीदा जा सकता है( वे निर्णय-अनिर्णय की स्थितियों में न उलझते हुए एक ही प्रवाह में अपने गुरुदेव से वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं, जिससे उनका जीवन एक अनमोल हीरक खण्ड में परिवर्तित होते हुए सतरंगी आभा से युक्त हो जाता है।
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