अब तुम्हारी धड़कने मेरी ही धड़कनों में समाई हुई हैं, अब तुम्हारे होठों पर मेरी ही वाणी, मेरे ही शब्द गूंजने लगे हैं, अब तुम्हारी आत्मा मेरी ही चेतना से अनुप्राणित है, अब तुम्हारे नेत्रों में मेरे ही स्वप्न तैरने लगे हैं और तुम्हारे आसपास मेरी ही सुगन्ध फ़ैल रही है।
पूर्णता और दिव्यता की पावन भूमि का ही नामान्तरण है सिद्धाश्रम, जहां पहुंचने की साध हर तपस्वी, ऋषि, मनीषी अपने मन में संजोय रखता है। यह आध्यात्मिक उत्कर्ष की वह दिव्य तपःस्थली है, जहां साधक अपनी साधनाओं में अमृत सिद्धि प्राप्त करने के बाद सशरीर या देहपात के पश्चात भी पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त करके न केवल स्वयं दिव्याभास से परिपूर्ण बनता है, अपितु विश्व कल्याण के अपूर्व सामर्थ्य को प्राप्त करके अपनी भावी पीढि़यों के जीवन की सर्वतोगामिनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।
तुम्हारी इस मृत देह को प्राणों का स्पंदन चाहिए और यह तभी हो सकता है, जब मेरे प्राणों से अपने हृदय को एकाकार कर सको, मेरे अंदर अपने आप को समाहित कर सको, मेरे इस आनन्द के प्रवाह में मस्ती के साथ स्नान कर सको।
जब तुम अपने आप को शक्तिहीन अनुभव करो, जब तुम अपने आप को मृत तुल्य अनुभव करो, तब तुम मेरे साथ प्रकृति की तरह एकाकार हो जाओ और अपने आप को स्फ़ूर्तिवान, तरोताजा बना कर वापिस अपनी दुनिया में लौट जाओ।
हम योगियों और सन्यासियों को वास्तव में तुम लोगों की बुद्धि पर हंसी आती है, तुम्हारी दशा तो उसी मूर्ख भिखारी की तरह है जिसे दैवयोग से हीरों की थैली मिली और उसने कंचे समझ कर उन्हें रास्ते में बैठे बच्चों में बांट दिया़। हम जब-जब तुम्हारी स्वार्थपरता, चालाकी और मक्कारी देखते हैं, तो हमें तरस आता है कि ये कैसे लोग हैं, जो ऐसी देवगंगा के समीप रह कर भी अपवित्र ही हैं, विकारों से युक्त हैं।
मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं है जिनमें कायरता हो, विरोध सहने की क्षमता न हो, जो जरा सी विपरीत परिस्थिति प्राप्त होते ही विचलित हो जाते हों। मुझे तो वह शिष्य प्रिय हैं जिनमें बाधाओं को ठोकर मारने का हौंसला होता है, जो विपरीत परिस्थितियों पर छलांग लगा कर भी मेरी आज्ञा का पूर्ण रुप से पालन करने की क्रिया करते हैं, जो समस्त बन्धनों को झटक कर भी मेरी आवाज को सुनते हैं और ऐसे शिष्य स्वतः मेरी आत्मा का अंश बन जाते हैं, उनका नाम स्वतः ही मेरे होठों से उच्चरित होने लगता है और वे मेरे हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं।
समुद्र तो अपनी जगह स्थिर खड़ा, अपनी बाहें फ़ैलाए प्रत्येक नदी को अपने आप में समेटने के लिए आतुर है, आवश्यकता तुम्हें नदी बनने की है, लहराती हुई, दौड़ती हुई समुद्र की बाहों में अपने आप को विसर्जित कर देने की है, अपना अस्तित्व मिटा देने की है और जब तुम ऐसा कर सकोगे, तब तुम में से एक नया बुद्ध पैदा होगा, तब तुम में एक नया शंकराचार्य पैदा होगा, एक नया वशिष्ठ या विश्वामित्र पैदा होगा।
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