प्रामाणिक और सत्य तथ्यों पर आधारित, प्रस्तुत है एक महत्वपूर्ण लेख—–
यह बात तो पूरा विश्व मानता है कि मरने के बाद आत्मा तब तक भटकती रहती है जब तक कि उसकी इच्छा पूरी नहीं हो जाती। यह बात भी सत्य है कि मरने के बाद आत्मा में किसी प्रकार का मोह, स्नेह या अपनत्व नहीं रह जाता, जब उसकी इच्छा पूरी नहीं हो पाती तो वे अपने पति, पुत्र या सम्बन्धियों को तरह-तरह से तकलीफ़ें देती हैं।
जबलपुर में प्रसिद्ध समाज सेवी हरिनाथ जी की पत्नी का देहांत हो गया और आधुनिक विचारों से युक्त होने के कारण न तो उनका अन्तिम संस्कार भली प्रकार से सम्पन्न किया और न जीते जी उनकी इच्छाओं पर कोई विजेश धयान दिया। पत्नी के मरने के बाद हरिनाथ जी कुछ दिनों तक तो उदास से रहे पर जल्द ही अपने कार्य में व्यस्त हो गए। एक रात उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि कोई आत्मा उनका गला दबा रही है और घबराकर उन्होंने अपनी आंखे खोल दी और देखा कि उनका सारा शरीर पसीने से भीग गया था।
उस समय तो उन्होंने इस घटना को एक दुःस्वप्न मान कर नजर अंदाज कर दिया पर जब यह घटना एक क्रम से हर दो-तीन दिनों के बाद घटित होने लगी तो वह परेशान हो गए और योग्य पण्डित को अपना हाल बताया। पण्डित जी ने बताया कि उनकी पत्नी की आत्मा भटक रही है और भली प्रकार से शास्त्रीय विधान के अनुसार अन्तिम संस्कार कर दिया जाय तभी इस समस्या से छुटकारा मिल सकता है।
हरिनाथ जी को पण्डित जी की बातें एक कथा की तरह प्रतीत हुई और वह पण्डित जी की बात को अनसुनी कर घर लौट आये। उसी रात उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी उनके सीने पर बैठी हुई हैं और जोरों से उनका गला दबा रही हैं। उनके दिमाग में पण्डित जी के शब्द गूंज उठे। हार-थक कर उन्होंने भली प्रकार से अन्तिम संस्कार सम्पन्न किया और उसके बाद से वह इस समस्या से मुक्ति पा सके।
पितृ पक्ष के दिनों में गया के निकट फ़ल्गु नदी में तर्पण और पिण्ड देने से, पितरों को प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाती है, यह पितृ पक्ष 18 दिनों का होता है, पितृ पक्ष शुरु होने से दो दिन पहले और एक दिन बाद तक। इन 18 दिनों में कुल 52 वेदियों पर अलग-अलग पिण्डदान की परम्परा है।
दशरथ की मृत्यु होने पर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी ने गया में पिण्डदान दिया था। जब राम और लक्ष्मण के आने में विलम्ब हुआ तो सीता जी ने ही गाय, तुलसी, फ़ल्गु नदी, वट वृक्ष और अग्नि को साक्षी मान कर पिण्डदान किया । जब राम और लक्ष्मण वापस आये तो सीता जी ने बताया कि उन्होंने पिण्डदान दे दिया है और सभी साक्षियों से पूछा तो वट के अलावा किसी ने भी सत्य नहीं बोला। फ़लस्वरुप सीता जी ने वट वृक्ष को आशीर्वाद और तथा बाकी चारों को श्राप दे दिया। तब दशरथ जी ने स्वयं गवाही दी और हाथ उठा कर सीता जी द्वारा दिया गया पिण्डदान स्वीकार किया।
यदि घर में मृत प्राणी के साथ बुरा व्यवहार हुआ था, यदि उसे पीडि़त किया जाता था, तो मरने के बाद वह आत्मा बदला लेना चाहती है। कई आत्माओं की इच्छाएं पूरी नहीं हो पाती है जैसे कि मरते समय किसी के मन में होती है कि वह पोते का मुंह देख कर मरे, कोई बीमार होकर मृत्यु के निकट होती है और उसका पति दूर हो तो उसके मन में इच्छा रहती है कि पति का मुंह देख कर मरे। ऐसी पूर्ति आत्माएं करने का उपक्रम करती हैं तथा सम्बन्धियों को परेशान, दुखी और तकलीफ़ें देकर अपनी इच्छाएं पूरी करती हैं।
इन आत्माओं के द्वारा घर के कपड़ों में आग लगा देना, किसी का मानसिक संतुलन बिगाड़ देना, घर में खड़खड़ाहट करना, ऐसा लगना कि घर में कोई घूम रहा है, घर की लड़कियों की समय पर शादी न होने देना आदि कई तरीकों से ये आत्माएं अपने होने का आभास कराती हैं।
वस्तुतः ये आत्माएं इस प्रकार से दुःखी होकर दूसरों को भी दुःखी करती हैं। आत्माओं के मन में भी यह बात बराबर बनी रहती है कि उनकी मुक्ति हो जाय और वे पूर्णता को प्राप्त कर लें।
हमारे धार्मिक ग्रंथों में मरने के बाद अंतिम संस्कार का विशेष महत्व है। प्रत्येक जातियों, धर्मों एवं वर्गो में अंतिम संस्कार सम्पन्न होने पर ही आत्माओं को शांति मिलती है और समय आने पर वे पुनर्जन्म लेती हैं। जब तक अंतिम संस्कार भली प्रकार से सम्पन्न नहीं हो जाता तब तक वह आत्मा निश्चित रुप से भटकती रहती हैं और परिवार के लोगों को कई तरीकों से दुःख देती रहती है।
अंतिम संस्कार के अन्तर्गत तीन क्रियाएं सम्पन्न की जानी आवष्यक मानी गई हैं –
मृत्यु के बाद उसके शरीर को शुद्ध कर विधि विधान के साथ पूरी तरह से जला देना या जमीन में सही तरीके से गाड़ देना। इसमें जलाते समय या गाड़ते समय अपने धार्म के अनुसार जिन मंत्रों या आयतों का उच्चारण किया जाना आवश्यक माना गया है, उनका उच्चारण हो और शास्त्रीय पद्धति के अनुसार उस मृत देह का अंतिम संस्कार हो।
मृत्यु के बाद अपने धर्म के अनुसार, तेरह दिन या चालीस दिन तक के संस्कार भली प्रकार से सम्पन्न करना, इसमें मृत प्राणी को पितरों में समाविष्ट किया जाता है और उसके लिए धार्मिक ग्रंथों में पूरा विधि विधान वर्णित है। इसी प्रकार मुसलमानों में भी चालीस दिन का क्रियाकलाप किया जाता है जो कि आवश्यक है।
उनकी अस्थियों को गंगा में या गया में विसर्जित करना, सम्बन्धित श्राद्ध सम्पन्न करना अथवा अपने धर्म के अनुसार उन अस्थियों को विसर्जित करना।
संसार के सभी धर्मों एवं जातियों में इन तीनों ही संस्कारों को मान्यता दी हुई है। जब तक ये तीनों संस्कार भली प्रकार से सम्पन्न नहीं हो जाते तब तक आत्मा घर के चारों ओर भटकती रहती है और परिवार के लोगों को दुःख देती रहती है।
यदि मृतक व्यक्ति का पता न चला हो, जंगल में खो गया हो, नदी या समुद्र में डूब गया हो तो ऐसी स्थिति में प्राणी संस्कार क्रिया सम्पन्न की जानी चाहिए। यदि मृत्यु के समय या उसके बाद सम्बन्धित संस्कार भली प्रकार से सम्पन्न न किये हो और परिवार वाले दुःख पा रहे हो तो भी इस विधि से प्राणी को मोक्ष प्रदान किया जा सकता है। गारुडे़य ग्रंथ में इस विधि का प्रामाणिकता के साथ विवरण वर्णन मिलता है।
हरिद्वार के तट पर, पुष्कर या गया में अथवा अपने किसी धार्मिक स्थल पर सवा किलो जौ के आटे से मृत व्यक्ति का पुतला बनाया जाय तथा उसे सफ़ेद वस्त्र में लपेट कर पुनः जलाया जाय या जमीन में गाड़ दिया जाय तत्पश्चात तेरहवे दिन या चालीसवे दिन उसकी राख अथवा उस पिण्ड को ले कर नदी में विसर्जित कर दिया जाय। उस समय मंत्र से 1001 तर्पण क्रिया सम्पन्न की जाय, इस क्रिया में दोनों हाथों में जल लेकर मृत व्यक्ति के गौत्र और नाम का उच्चारण कर जल समर्पित किया जाय। इस प्रकार 1001 बार तर्पण करने से आत्मा को पूर्णता मिलती है और वह मुक्ति को प्राप्त हो जाती है। इसके बाद अपने स्वजाति बन्धुओं या ब्राह्ममणों को भोजन करा कर आत्मा को तृप्ति देने की व्यवस्था करें।
यह सत्य और प्रामाणिक है कि अंतिम संस्कार बिना आत्माएं भटकती रहती हैं और ऐसी आत्माएं परिवार का नाश कर देती हैं। आज की सभ्यता और आधुनिकता की चकाचौंध में हम भले ही इन क्रियाओं के महत्व को न समझें, पर न समझने पर ऐसे लोग कई प्रकार की परेशानियां और कष्ट ही भोगते हैं।
आवश्यकता है जीवित सम्बन्धियों के प्रति स्नेह रखने और मरने के बाद उनका उचित संस्कार क्रिया सम्पन्न करने की, ऐसा कर के ही हम अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्त हो सकते हैं।
तर्पण
तर्पण के चार मुख्य भाग हैं – देव तर्पण, ऋषि तर्पण, यम तर्पण और पितृ तर्पण। गया में प्रेत शिला, राम शिला, राम कुण्ड, कागबलि, अक्षयवट आदि स्थानों पर तर्पण करते हैं। इनमें भी विष्णु पद प्रांगण की विशेष महत्ता है, जहां तर्पण करने से मृतक की मुक्ति होती है।
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