जीवन में यह धा्रुव सत्य है कि कोई यह नहीं कह सकता है कि मैं बिना माता-पिता के उत्पन्न हुआ हुं क्योंकि यह असंभव हैं। व्यक्ति् को जन्म लेने के लिए यहां तक की भगवान को भी विभिन्न अवतारों के रूप में जन्म लेने के लिए किसी न किसी माता के गर्भ का चयन करना पड़ा। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति कहे कि मैं बिना पिता के उत्पन्न हुआ तो यह बात भी असंभव है। क्योंकि जिस व्यक्ति को अपने पिता का नाम मालूम नहीं होता है, वह बालक वर्णसंकर कहलाता है। ठीक इसी प्रकार कोई व्यक्ति कहता है कि मेरा कोई गुरु नहीं है तो वह व्यक्ति असंस्कारिक ही कहलाएगा। व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य वह अपने नियन्त्रण में रख सकता हैं लेकिन मानसिक स्वास्थ्य का पूर्ण निर्माण गुरु ही करते है। गुरु दूरदर्शी व्यक्ति के रूप में उसके मस्तिष्क पर विचार स्वभाव, ज्ञान गुण, कर्म आदि द्वारा उसके मानसिक स्वास्थ्य का निर्माण विकास और नियन्त्रण करते है। जिन व्यक्ति के गुरु नहीं होते उन्हें ‘‘निगरुा’’ कहा जाता है।
मनुष्य की यह कमजोरी है कि वह दूसरों से ही सब कुछ सीखता है और इस सीखने में सामान्य समाज में भले तत्वों की अपेक्षा बुरे तत्व अधिक होते है। इन बुरे तत्वों का आकर्षण इतना अधिक प्रबल होता है कि छोटी आयु में विकास के समय इन बुरी आदतों बुरे संस्कारों की ओर आसानी से खिंच जाता है। मां-बाप पूर्ण रूप से ध्यान नहीं दे पाते है कि बालक किन संस्कारों को अपनी मनोभूमि में जमा रहा है। जब वह बड़ा होता है तो ये संस्कार और स्वभाव इतने अधिक दृढ़ हो जाते है कि उन्हें हटाना कठिन हो जाता है। जन्म से ही कोई बालक चोर, डाकू, असत्यवादी, धोखेबाज नहीं होता। वह जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में जिन संस्कारों को प्राप्त करता है और जिस वातावरण में पलता-बढ़ता है वहीं उसके जीवन में आगे चल कर उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते है।
हमारे प्राचीन आदि ऋषियों ने इस स्थिति को देखकर एक महत्वपूर्ण उपाय निश्चित किया कि प्रत्येक बालक पर उसके माता पिता के अतिरिक्त ऐसे व्यक्ति का भी नियन्त्रण होना आवश्यक है जो मनोविज्ञान की सूक्ष्मताओं को समझता हो, जो दूरदर्शी तत्व ज्ञानी और पारदर्शी हो जो बालक के मन जमने वाले संस्कारों को देख सकें और इतना अधिक मानसिक सुदृढ़ हो की वह उन संस्कारों में सुधार ला सकें। ऐसे मानसिक नियन्त्रण कर्त्ता को गुरु की उपाधि से विभूषित किया गया है। जीवन की इस यात्रा में हर व्यक्ति को सहारे की आवश्यकता रहती है और यह पथप्रदर्शक गुरु ही हो सकते है। इसलिए गुरु को हमारे समाज में प्रमुख स्थान दिया गया है। कोई भी व्यक्ति स्वयं का आत्म निरीक्षण नहीं कर सकता है। वह दूसरों की आलोचना कर सकता है। उन्हें उचित सलाह दे सकता है लेकिन वैसी ही सलाह अपने स्वयं के लिए नहीं कर पाता है। स्वयं के सम्बन्ध में अपने आप निर्णय करना अत्यन्त कठिन होता है। आत्म निर्माण का कार्य भी ऐसा ही है। जिसके लिए सुयोग्य सहायक और गुरु की आवश्यकता होती है।
मनुष्य के पूर्ण बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए गुरु परम तत्व है। क्योंकि श्रेष्ठ गुरु द्वारा ही यह निश्चित हो सकता है कि मनुष्य की विचारधारा, स्वभाव, संस्कार, गुण, प्रकृति, आदतें, इच्छाएं, महत्वकांक्षाएं, कार्यप्रगति उचित दिशा में जा सकेगी और मनुष्य अपने आप में प्रसन्न, संतुष्ट, पवित्र और परिश्रमी बन सकेगा, इसलिए गुरु अत्यन्त आवश्यक है।
गुरु केवल मार्गदर्शन ही नहीं करते है, वरन् वह समय की दीर्घ को कम करते हैं और उसे बहुत ही कम समय में अभीष्ट लाभ की सिद्धि में सहायक होते हैं। इस जगत में मानव अपूर्ण रूप से आता है। उसे पूर्णता की पूर्ति की अभिलाषा रहती है। इसकी पूर्ति के लिए गुरू ही एकमात्र सहारा होते है।
मूलपद्मे कुण्डलिनी यावत् सा निद्रिता प्रभा।
तावत किंचिन्न सिद्धयते मन्त्रयतार्य नाकिदकम् ।।
जागर्ति यदि सा देवी बहुभिः पुण्यसंचयैः।
तदा प्रसादमायान्ति मंत्र यंत्रर्च्चनादयः।।
‘‘मूलाधार में जब तक कुंडलिनी शक्ति सोई हुई है, तब तक मन्त्र, यन्त्र, अर्चन आदि कर्म सफ़ल नहीं होते। यदि गुरु के पुण्य प्रताप से कुंडलिनी देवी का जागरण हो गया, तो मन्त्र, तन्त्र, पाठ, पूजन, जप, तप, ज्ञान, ध्यान जो कुछ भी बन पड़ेगा, यह सभी सिद्धि को प्राप्त होंगे। इससे पूर्व जिस दुःखमय जगत् को मिथ्या और नरक माना जाता था वहीं सत्य और स्वर्ग बन जाएगा, क्योंकि शक्ति के जागरण से हर क्षेत्र में सफ़लता से स्तम्भ स्थापित किए जाने सम्भव होंगे। आत्मशक्ति के विकास से समस्त भव-व्याधियों का परिष्कार हो जाएगा।’’
‘‘श्री गुरुदेव की कृपा और शिष्य की श्रद्धा, इन दो पवित्र धाराओं का संगम ही दीक्षा है। गुरू का आत्मदान और शिष्य का आत्मसमपर्ण, एक की कृपा और दूसरे की श्रद्धा के अतिरेक से ही यह सम्पन्न होता है।
दीक्षा एक दृष्टि से गुरू की ओर से आत्मदान, ज्ञान-संचार अथवा शक्तिपात है, तो दूसरी दृष्टि से शिष्य में सुजुप्त ज्ञान और शक्तियों का उद्बोधन है। दीक्षा से ही शरीर की समस्त अशुद्धियां मिट जाती हैं और देह शुद्ध होने से देव-पूजा का अधिकार मिल जाता है। गुरू एक है और उन्हीं से चारों ओर शक्ति का विस्तार हो रहा है। यदि परम्परा की दृष्टि से देंखे तो मूल पुरूष परमात्मा से ही ब्रह्मा, रूद्र आदि के क्रम से ज्ञान की परम्परा चली आई है और एक शिष्य से दूसरे शिष्य में संक्रान्त होकर वर्तमान गुरु में भी है। इसी का नाम सम्प्रदाय है और गुरु के द्वारा इसी अविच्छिन्न साम्प्रदायिक ज्ञान की प्राप्ति होती है, क्योंकि मूलशक्ति ही क्रमशः प्रकाशित होती आई है। उससे हृदयस्थ सुप्त शक्ति के जागरण में बड़ी सहायता मिलती है और यही कारण है कि कभी-कभी तो जिनके चित्त में बड़ी भक्ति है, व्याकुलता और सरल विश्वास है, वे भी भगवत्कृपा का उतना अनुभव नहीं कर पाते, जितना कि शिष्यों को दीक्षा से होता है।’’
इसका कारण यह है कि दीक्षा देते समय गुरू को अपने शरीर में गुरुत्व शक्ति की स्थापना करनी पड़ती है तभी वह गुरु-दीक्षा देने के योग्य होता है। सहस्रदल कमल में निवास करने वाली परम शिव की प्राणशक्ति ही गुरुत्व शक्ति कहीं दासी है। इस महाशक्ति के संचार से ही गुरु-शिष्य की आत्मा के बाहृा मलों का संस्कार कर पाता है।
दीक्षा एक कोई सामान्य संस्कार नहीं है जिसे सामान्य रूप से सम्पन्न किया जा सकें, दीक्षा जीवन का वह अध्याय है जहां व्यक्ति अशुद्धता से शुद्धता की यात्रा प्रारम्भ करता है। इसलिए शास्त्रों ने दीक्षा को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार कहा है। जिसके बिना व्यक्ति मनुष्य नहीं बन सकता केवल और केवल दीक्षा के माध्यम से ही वह पशुभाव, शुद्रभाव से मुक्त होकर मनुष्यभाव, द्विजभाव को ग्रहण करता है।
दीक्षा का तात्पर्य केवल श्रीगुरू के सामने बैठकर कोई मन्त्र लेना ही नहीं है, यह तो एक क्रमबद्ध श्रृंखला है, सिद्धि तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है, जिससे आगे की सीढि़यां, मार्ग निरन्तर मिला ही रहता है, दीक्षा तो शिव और शक्ति का मिलन कर शिष्य में प्रवाहित करना है।
मूल रूप में दीक्षा के तीन भेद है – 1- शाक्त दीक्षा, 2- शांभवी दीक्षा, 3- मांत्री दीक्षा। आगे चल कर मांत्री जिसे आंणवी दीक्षा भी कहा गया है, और अधिक भेद हो जाते है –
शाक्त दीक्षा में शिष्य अपनी ओर से कुछ भी नहीं करता, गुरु, शिष्य के अर्न्तदेह में प्रवेश कर कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर अपनी शक्ति का मिलन करा देते हैं, यह दीक्षा तो गुरुदेव अपने परम् शिष्यों को ही प्रदान करते हैं, जो शिष्य साधना के पथ पर बहुत आगे बढ़ गया हो।
इसमें गुरु एवं शिष्य आमने-सामने बैठते हैं, गुरु अपनी प्रसन्न दृष्टि से शिष्य को स्पर्श करते हुए उसके भीतर शिव और शक्ति के चरण स्थिर कर देते हैं, शिष्य समाधिस्थ रहते हुए समाधिस्थ हो जाता है और उसकी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है, यह दीक्षा श्री गुरु अपने शिष्य के स्तर को परख कर ही प्रदान करते है।
मांत्री दीक्षा ही सामान्य साधक के लिए आवश्यक दीक्षा है, जिसमें गुरुदेव शिष्य को मंत्र प्रदान करते है। शिष्य को अनुष्ठान पूजन इत्यादि सम्पन्न करना होता है, इस दीक्षा से ही साधक को शक्तिपात की पात्रता प्रारम्भ होती है और उसके द्वारा किये गये मंत्र जप, अनुष्ठान उसे उचित सिद्धि दिलाते हैं, गुरुदेव अपने भावनात्मक शिष्यों को प्रथम रूप में यहीं दीक्षा दे कर उसकी साधना का श्रीगणेश करते हैं, और यह आवश्यक भी है।
आणवी दीक्षा का विस्तार बहुत अधिक है, और इस दीक्षा के दस भेद हैं, जिन्हें समझना प्रत्येक शिष्य के लिए आवश्यक हैं, यह दस भेद हैं 1- स्मार्ती, 2- मानसी, 3- योगी, 4- चाक्षुजी, 5- स्पार्शिकी, 6- वाचिकी, 7- मात्रिकी, 8- होत्री, 9- शास्त्री, 10- अभिषेचिका।
जब गुरु और शिष्य भिन्न-भिन्न स्थान पर स्थित हों, तो यह दीक्षा सम्पन्न की जाती है, निश्चित समय पर शिष्य स्नान कर अपने स्थान पर बैठता है और गुरुदेव अपने स्थान पर शिष्य का स्मरण करते हुए उसके दोषों का विश्लेषण करते हुए उन को भस्म कर, सिद्धि के मार्ग पर उसे स्थित कर देते हैं।
इसमें गुरु और शिष्य एक ही स्थान पर स्थित रहते हैं और स्मार्ती दीक्षा के अनुरूप् ही श्रीगुरु शिष्य का स्मरण करते हुए उसे दीक्षा प्रदान करते हुए उसे शिव और शक्ति तत्व से मानसिक रूप से परिचित कराते हैं।
इस दीक्षा में गुरु योग पद्धति से शिष्य के शरीर में प्रवेश कर अपना योग तत्व प्रदान कर देते हैं, और उसे परम तत्व योग का मार्ग देते है, यह अत्यंत उच्चकोटि की दीक्षा केवल योगियों के लिए ही है।
इसमें श्री गुरुदेव अपने शिव भाव को जागृत कर करूणामयी दृष्टि से दीक्षा के समय शिष्य को देखते हुए उसके दोषों को भस्मीभूत करते है।
इसमें गुरुदेव अपने हस्त पर शिव मंडल बनाकर शिव स्थित कर, शिव स्वरूप् जागृत कर, इस शिव हस्त का स्पर्श कर, शक्ति जागृत करते हैं।
इस दीक्षा में गुरुदेव सर्वप्रथम अपने गुरु को ध्यान कर, अपने भीतर अपने गुरु को स्थित कर, शिष्य को विधि-विधान सहित मंत्रदान प्रदान करते है।
इस दीक्षा में गुरुदेव स्वयं न्यास इत्यादि विशेष मंत्र क्रियाएं सम्पन्न कर मन्त्रात्मक होकर अपने शरीर से शिष्य के शरीर में मन्त्र का संक्रमण करते हैं, जिस मंत्र का पालन शिष्य के लिए आवश्यक होता है।
इसमें यज्ञ स्थान पर बैठ कर अग्नि प्रज्ज्वलित कर यज्ञ आहूति देते हुए शिष्य को दीक्षा प्रदान की जाती है।
इसमें किसी प्रकार की सामग्री की आवश्यकता नहीं होती, श्री गुरु अपने शिष्य की भक्ति भावना सेवा, समपर्ण, योग्यता को देखते हुए, शिष्य को शास्त्रीय दान प्रदान करते हुए दीक्षा देते हैं।
इसमें सर्वप्रथम गुरुदेव एक घट पात्र में जल भर कर शिव और शक्ति की पूजा करते हैं, और उस जल से शिष्य के सिर पर अभिषेक सम्पन्न करते है यह भी एक उच्चकोटि की विशिष्ट दीक्षा है।
क्रमश:
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,