शिष्यर्वदान्तु भव देव नित्यं, कठिनत्व पूर्णं दुर्लभं शरीरं।
चित्र मया पूर्ण मदेव नित्यं, विश्वो ही एकं विश्वेठव्नंजं।।
यह श्लोक विशिष्टोपनिषद से लिया गया है और उसमें गुरु और शिष्य का एक विशेष वर्णन आया है। इस श्लोक में ऋजि वशिष्ठ ने कहा है, कि जीवन में कई लाख योनियों में भटकने के बाद में यह मनुष्य शरीर मिलता है और आप सब मनुष्य है चाहे चार वर्ष के हैं, चाहे तीस वर्ष के हैं, चाहे 400 वर्ष के हैं। उसमें पहली पंक्ति में कहा है कि ‘‘गुरु’’ हमारी जाती है, गुरु हमारा गोत्र है। बांगला में उसको ट्रांस्लेट किया गया है कि हमारी जाती अब कुछ नहीं रही, हमारा गोत्र भी कुछ नहीं रहा। गूरु ही हमारा नाम है, गुरु ही हमारी जाती है, गुरु ही हमारा गोत्र है, गोत्र का अर्थ-वंश परम्परा क्योंकि ‘‘जन्मानाम जायते शुद्र, संस्कारात द्विज उच्चयते।’’ माँ-बाप ने तो जन्म दिया वह तो शुद्रवत जन्म दिया। शुद्र का मतलब कोई जाती विशेष से नहीं है, जिसको मल का, मूत्र का, शुद्धता का, अशुद्धता का भान नहीं हो वह शुद्र है और जिसको इस बात का ध्यान है, शुद्धता हो, पवित्रता हो, दिव्यता हो, श्रेष्ठता हो, मन में करूणा हो, प्रेम हो वह ब्राह्मण है।
प्रत्येक व्यक्ति जब जन्म लेता है तो शुद्र के रूप में होता है, इसलिए कि उसको ज्ञान नहीं होता की मैं मल में पड़ा हुआ हूँ या मूत्र में पड़ा हुआ हूँ। मां उसको स्वच्छ करती है तो होता है, बाकि उसी हाथ से वह अपने किसी शरीर के अंग को जो मल से भरा होता है लगा देता है। जो 4 महीने का, 6 महीने का बालक होता है वही वापस मुँह में लगा लेता है और उसी पलंग पर जहां वह लेटा हुआ है वहीं पेशाब कर लेता है, मल कर देता है और उसी पर खेलता रहता है। उसको इस बात का ज्ञान नहीं होता की मैं क्या हूं और जब वह गुरु के पास में आता है, तब गुरु उसको एक नया संस्कार देते हैं, उसको यह समझाते है कि यह उचित है, यह अनुचित है और आज से तुम मेरी जाती के हो, मेरे गोत्र के हो, मेरे नाम के हो, मेरे ही पुत्र हो, तो संस्कारात द्विज, द्विज का मतलब है, दूसरी बार जन्म लेने वाला। द्विज -ज -जन्म लेने वाला, तथा द्वि – दूसरी बार। परिवार ने उसको एक बार जन्म दिया, वह तो मां-बाप ने एक संयोगवश दे दिया, कोई प्लान नहीं था, कोई प्लानिंग नहीं थी उनकी, कोई मन में ऐसी भावना नहीं थी कि मुझको एक श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न करना है। वह तो एक मनोरंजन के क्षण में जो कुछ भी उत्पन्न हो गया, वह तो प्रकृति की एक लीला थी और कुछ व्यक्ति और अधिकांश व्यक्ति उसी प्रकार से जन्म लेकर समाप्त हो जाते है -चाहे वह हमारी माँ हो, भाई हो, बहन हो, पड़ोसी हो, या रिश्तेदार हो।
फि़र भी जब मिलता है, तो संस्कार के कारण वापिस से उनका जन्म हो जाता है और तब उसको भान होता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य, मेरे जीवन का कर्त्तव्य क्या है? उद्देश्य क्या है? चिंतन क्या है? और मुझे किस जगह पहुंचना है क्योंकि जिस शरीर को हम सब कुछ समझ बैठते है जो भोग्य पदार्थ, हम सब कुछ अपने जीवन का ध्येय मान लेते हैं – चाहे पान खाना हो या मिठाई खानी हो। मिठाई इतनी स्वादिष्ट और इतनी महंगी है 140-160 रू0 किलो वह हम खाते हैं तो शाम को मल बन जाता है, विष्ठा बनती है और आप बहुत मधुर स्वादिष्ट मिठाई खाए तो वह भी विष्ठा ही बनती है। सुबह हम उसको देखना भी नहीं चाहते, इतनी गन्दी और घृणित होती है, ये शरीर अपने आप में कोई सुगंधमय नहीं बना क्योंकि हमने जो कुछ भी फ़ल खाए, सेब खाए, अनार खाए, केले खाए या मिठाई खाई या रोटी खाई सब अपने आप में विष्ठा में परिणित हो जाते हैं। हमारा शरीर क्या कार्य करता है वह मैं आपको समझाता हूं। पशु भी हमसे अच्छा है गाय घास खाकर भी दूध उत्पन्न कर लेती है, हम मिठाई खाकर भी विष्ठा उत्पन्न करते हैं, क्योंकि हमारा पूरा शरीर अपने आप में शुद्रमय है और यह शुद्रमय शरीर ब्राह्मणमय शरीर बने वशिष्ट जी कहते हैं, यही जीवन का उद्देश्य है, यही जीवन का धर्म, यही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए यदि ऐसा नहीं है, जो शुद्र बन कर भी जीवन व्यतीत किया जाता है उसको कोई रोकता नहीं है, उस जीवन में आनंद नहीं है, उस जीवन में सच नहीं है, उस जीवन में तृप्ति नहीं है और यदि आप उत्तम कोटि के वस्त्र पहन भी लेंगे तब भी 4 महीने बाद फ़ट कर के पोंचा बन जायेगा या बाहर फ़ेंक देंगे। इस शरीर को यदि आप चार पांच दिन तक धोयेंगे नहीं तो, ये शरीर दुर्गन्धमय बन जायेगा। आप चाहे कितने ही पाउडर, लिपिस्टिक, क्रीम लगायें तब भी शरीर पर झुर्रियां पड़ ही जाएंगी। इसी शरीर को भगवान का देवालय कहा है, मंदिर कहा है। ‘‘शरीरं शुद्धम रक्षेत देवालय देवापी च’’। ये भगवान का मंदिर है जहां भगवान का एक मंदिर हो, उसमें बाहर एक चार दीवारी होती है, चार दीवारी के अन्दर एक कमरा होता है, कमरे के अंदर एक और कमरा और उसके अंदर भगवान की मूर्ति का स्थापन किया जाता है, ठीक उसी प्रकार से अंदर एक ईश्वर है और ईश्वर बाहर एक शरीर है, हड्डियों का ढ़ांचा है। फि़र ये चमड़ी ऐसी है जैसे चार दीवारी हो, और यह चार दीवारी टूट जाती है तो पशु अन्दर घुस सकता है। इस लिए ‘शरीरं शुद्धं रक्षेत’- शरीर को शुद्ध और पवित्र बनाए रखना आवश्यक है, इसलिए आवश्यक है कि हमें हर क्षण यह ध्यान रहे की अन्दर मूल मंदिर में भगवान बैठे हुए हैं या जिनको हमने गुरू कहा है। गुरु अपने आप में कोई मनुष्य नहीं है, यदि हम किसी मनुष्य को गुरु मानते हैं तो वह हमारी न्यूनता है। एक क्षण ऐसा आता है कि ‘‘यः शिव सः गुरु प्रोक्त, यः गुरु सः शिव स्मृतः तस्य भेदेन भावेन, सः याति नरकामगति।
यह शिव हैं वही गुरु हैं यह गुरु है वहीं शिव हैं। शिव यानि कल्याण करने वाला, सत्यम शिवम् सुन्दरम्। जो हमारा कल्याण कर सके जो इसमें भेद मानता है वह अधम है। गुरु और शिव में भेद रहता है, जब तक हम शुद्र रहते हैं तब तक भेद रहता है और एक क्षण ऐसा आता है, जब साक्षात् उस शिवत्व का, उस कल्याण रूप का दर्शन करने लग जाते हैं। जब दर्शन करने लग जाते हैं तब ब्राह्मण व्रती की ओर बढ़ने लग जाते हैं, तब इस बात का भान नहीं रहता कि हम घर में सूखी रोटी खा रहे हैं या घी चुपड़ा हुआ है या नहीं, या पूड़ी है या सब्जी है, या मिठाई है या फ़ल है क्योंकि वह तो सब अपने आप में एक ही चीज़ में कन्वर्ट होती है, रूपांतर होती है। इसलिए वह भेद तो मिट जाता है। जो उसी में लिप्त रहता है वह शुद्र ही रहता है। जब उससे परे हट जाता है कि जो कुछ मिल जाता है प्रभु का प्रसाद है हमें उसको स्वीकार करना चाहिए। साधु तो केवल घास और हवा, वायु और जल इनका सेवन करके भी अपने आप में तेजस्वी बने रहे और हम उत्तम कोटि के भोज पदार्थ खाने के बाद भी 60 वर्ष की अवस्था में मर गए, क्योंकि हमारे हृदय में चिंतन नहीं था और जिसके हृदय में चिंतन आ जाता है कि हमारा जीवन ‘‘त्वदीयं वस्तु गोविन्दं, तुभ्यमेवं समर्पयेत’’। यह आपकी दी हुई चीज़ हैं, क्योंकि आपने हमें पुनः जन्म दिया है, आपने हमें वापिस सस्कार सिखाया है और ‘तुभ्य मेवं समर्पयेत’ इसलिए आपको समर्पित है आप करना चाहे, यह आपकी इच्छा है जो देने की इच्छा है, जो आप चाहते हैं, मेरी कोई भावना नहीं हैं कि मैं झाड़ू निकालूं तो छोटा हो जाऊंगा या लिखूंगा तो बहुत बड़ा हो जाऊंगा। मेरा तो उद्देश्य, मेरा लक्ष्य वही है कि आपने जो काम सौंपा मुझे वह पूरा करना है। इसलिए शिष्य को गुरु के हाथ, गुरु के पैर, गुरु की आंख, गुरु के नेत्र, गुरु का मस्तिष्क कहा गया है क्योंकि गुरु अपने आप मे कोई सागर बिम्ब नहीं हैं, निराकार को एक मूर्ति का आकार दिया गया है। ये सारे शिष्य मिलकर के एक गुरुत्वमय बनता है, एक आकार बनता है। इसलिए अगर मैं घमंड करूं कि मैं गुरु हूं, यह मेरा घमंड व्यर्थ है क्योंकि हम विकार ग्रस्त हैं, इसलिए जब तक हमारा ध्यान नहीं लगता, कि हमारा चित चंचंल है, भटकता रहता है, तो शास्त्रों ने मूर्ति का आकार दिया कि ये शिव की मूर्ति है, यह लक्ष्मी की मूर्ति है, यह जगदम्बा की मूर्ति है। क्योंकि एकदम ध्यान लगता नहीं तो उस जगदम्बा की मूर्ति को देखते है कि अच्छा ऐसी जगदम्बा हैं। ये सगुण रूप है, आगे जा करके व्यक्ति निर्गुण रूप में आ जाता है, उसके सामने मूर्ति, चित्र या बिम्ब कुछ होता ही नहीं केवल एक ज्योति होती है, उस ज्योति में वह गुरु के दर्शन करता रहता है। फि़र ये सारे उपाय उपकरण अपने आप में व्यर्थ हो जाते हैं।
फि़र उसका भी अपने आप में शरीर के प्रति कोई गर्व या घमंड नहीं होता। वह तो उसके काम आ जाए, वह उसका उपयोग ले और इसे जीवन चिंतन की प्रक्रिया, ऐसा जीवन का विचार और धारणा जब बन जाती है तब हम सही अर्थों में मनुष्य बनते है और यह धारणा बननी चाहिए, ये विचार आना चाहिए कि बहुत कम समय हैं हमारे जीवन में और केवल आधा घंटा भी हम गुरु को दे पायें तो यह श्रेष्ठता है जीवन की। बाकि तो हमें कार्य करना है और गुरु कार्य में हमारा कोई स्वार्थ नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं हैं। स्वार्थ तो पशु करते हैं, कि एक रोटी फ़ेंक देते है एक कुत्ता रोटी उठाता है, दूसरा कुत्ता उस पर झपटता है। वह स्वार्थ है। मनुष्य अपनी रोटी निकाल कर सामने वाले को दे देता है। तुम खाओ ये, छोटी रोटी मैं खा लेता हूं, तुम अच्छी सब्जी खाओ मैं कम खा लेता हूं। ऐसा भाव की मैं ज़मीन पर सो रहा हूं या पलंग पर सो रहा हूं या मैं अच्छा खा रहा हूं या बुरा पी रहा हूं यह अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं है। महत्व इतना है कि हमारा शरीर टूटे नहीं, बिखरे नहीं, खाऐंगे नहीं तो शरीर बिखर जायेगा, भोजन नहीं करेंगे तो शरीर कमजोर हो जायेगा और कमजोर हो जायेगा तो चार दीवारी टूट जाएगी तो उस मंदिर में कोई बदमाश, कोई घटिया आदमी, कोई पशु घुस जायेगा। इस चारदीवारी को सुरक्षित रखना, स्वस्थ रखना जरूरी है। इसकी ईंट खिसके नहीं, यह शरीर कमज़ोर बने नहीं। मगर शरीर को मज़बूत बनाने के लिए उत्तम भोजन पदार्थ आवश्यक नहीं है, अनिवार्य नहीं हैं। मिल जायेंगे तो ठीक, नहीं मिले तो ठीक, पलंग मिला तो ठीक है नहीं मिला तो ठीक। ऐसी जब मन में भावना आती है और जब यह धारणा बनती है, तो एक क्षण के बाद समाधी की अवस्था आ जाती है। तब हम बैठे हैं तो हमारी आंखो के सामने गुरु का बिम्ब बिल्कुल साकार स्पष्ट हो जाता है, वह चाहे हज़ार मील दूर हो।
उस वशिष्ठ उपनिषद में कहा गया है कि ऐसे तो शिष्य पैदा ही नहीं हुआ, हो ही नहीं सकता, शिष्य नहीं कहला सकता क्योंकि सबसे पहले तो एक व्यक्ति होता है, एक लड़का होता है, एक बालक होता है, जो गुरु के पास आता है, उससे मिलता है, उससे समपर्कित होता है, जुड़ता है और आते ही उससे गुरु दीक्षा ले ली तो शिष्य नहीं बन गया। दीक्षा ली है, उसके बाद में जिज्ञासु बनता है। उसके मन में होता है कि यह गुरु है भी या नहीं है, मतलब एक तर्क वितर्क पैदा होता रहता है। यह कैसे गुरु है, कभी-कभी रोने लग जाते है, गुरु तो कभी नहीं रोतें। ये कभी-कभी विचलित हो जाते हैं। हमें तो कहते है कि ज़मीन पर सोओ, ये तो खुद पलंग पर लेटे है। तो यह गुरु कैसे हो गए? ये तो मेरे सामने केले खा रहे थे, तो क्या यह गुरु है भी कि नहीं है।
इनको हम गुरु माने कि नहीं मानें, ये तर्क वितर्क पैदा होता है, तर्क वितर्क चलता रहता है, शिष्य नहीं वह जिज्ञासु कहलाता है। उसको जिज्ञासा होती है ये सही है, गलत हैं। उसको भोजन करने से क्या फ़ायदा हो जायेगा, भोजन नहीं करा तो कौन से मर जायेंगे। यह सब जिज्ञासा होती है। जिज्ञासा व्रति का मतलब है कि अभी तक हममें मनुष्यत्व आया नहीं हैं, शिष्य वह बना ही नहीं, अभी जिज्ञासा है, तर्क वितर्क है, संदेह है, भ्रम है और यह संदेह भ्रम आपके खून में मिला हुआ है, बाहर से खरीदकर नहीं लायें और जो आपको खून दिया है जिस मां-बाप का खून है यह तर्क वितर्क से भरा है क्योंकि उनके मन में ऐसा विचार था, ऐसा चिंतन था। उन्होंने कभी इस प्रकार का चिंतन किया ही नहीं। उनके जीवन में ऐसा कोई गुरु मिला ही नहीं। तो वह भ्रम, वह संदेह, वो न्यूनता हमें देते गए। उस परिवेश, उस वातावरण ने, उस खून ने तर्क वितर्क पैदा किया। इसलिए पहले मैंने कहा कि गुरु हमारी जाति है, अब वह पुरानी जाति नहीं रही। गुरु हमारा गोत्र है, हमारी वह वंश परम्परा भी नहीं रही।
जब ऐसा विचार आता है तो हम तर्क वितर्क समझ जाते है। ‘एकोहि वाक्यं, गुरुम स्वरूपं’ गुरु ने कहा है वही वाक्य है। इसलिए वशिष्ठ कहते है कि तर्क वितर्क से अगली जो स्टेज है, वह शिष्यत्व की स्टेज है और तर्क वितर्क से अगली स्टेज शिष्यत्व की तब बनती है जब गुरु जो करता है वैसा नहीं करे, जो गुरु कहे वैसा करे। दोनों में अंतर है। जो करे गुरु वैसा आप करेंगे तब गड़बड़ हो जाएगी। गुरु किसी से किस ढ़ंग से बात करेंगे, किसी को प्रेम से बात करेंगे, किसी को डाटेंगे, किसी के पास बैठेंगे, किसी के पास नहीं बैठेंगे। कृष्ण गोपियों के पास बैठते थे तो हमारा भ्रम, तर्क-वितर्क कहता है ये तो बिल्कुल कृष्ण है ही नहीं। ये तो बहरूपिया है। वहीं उद्वव को उपदेश देते हैं तो ज्ञानी कहलाते हैं, वहीं व्यक्ति जब गीता का उपदेश देता है तो महाविद्वान कहलाता है। वही दुर्योधन पर प्रहार करता है तो एक दम शत्रुवत व्यवहार होता है ओर तर्क-वितर्क चलता रहता है कि जैसे अर्जुन के मन में संदेह पैदा होता रहा कि ये ईश्वर है भी कि नहीं हैं, ये गुरु हैं भी कि नहीं है। कृष्ण समझाते रहे कि तुम मुर्खता कर रहे हो, मैं तुम्हारा ईश्वर हूं। मैं तुम्हारा गुरु हूं। तुम मुझे सारथी समझ रहे हो, तुम मुझे मित्र समझ रहे हो। मैं तुम्हारा मित्र नहीं हूं, सारथी नहीं हूं, मैं तो सम्पूर्ण ईश्वर हूं। तो ये कोई घमंड नहीं कर रहा था। कृष्ण जब गीता में बता रहा था कि तुम यों नहीं समझो तो यों समझो कि इतने सैकड़ों पेड़ हैं, उनमें मैं पीपल का पेड़ हूं क्योंकि वह पवित्र है, मुझे पीपल का पेड़ समझो। हजारों नदियां है तो यूं समझो कि मैं गंगा नदी हूं। तुम जिस तरीके से मुझे समझना चाहो समझ लो, समझ लोगे तो ये भ्रम तुम्हारा मिट जायेगा। जब भ्रम मिट जायेगा तो मुझमें तुम एकाकार हो जाओगे।
इसलिए मैं जो करता हूं वह तुम मत देखो, उसका अनुसरण तुम मत करो। जो मैं कहूं उसका तुम अनुसरण करो, मैं तुम्हें कहूं युद्ध के लिए तैयार हो जा, खड़ा हो जा उस समय खड़ा हो जा। कोई जरूरी नहीं है कि मैं तीर उठाऊं तब तुम तीर उठाओ। मैं एकदम जब तीर फ़ेंक दूं तो तुम तीर फ़ेंकों। तुम केवल मेरी आज्ञा का पालन करो। तुम मेरा अनुसरण मत करो, जो मैं करता हूं, उसी ढ़ंग से मत करो। इसलिए जब ऐसी स्थिति आ जाती है कि उन्होंने कहा हमने किया वही शिष्यत्व है। उस समय एक क्षण भी विलम्ब होता है तो समझना चाहिए शिष्यत्व में न्यूनता हैं।
गुरु कोई ऐसा आदेश देता भी नहीं, देता भी है तो गुरु नहीं है, गुरु की कसौटी है कि ऐसा कोई आदेश नहीं दे जो उसके समर्थ के बाहर हो। गुरु कोई ऐसा आदेश नहीं दे जो अपने स्वार्थ के लिए हो, गुरु कोई ऐसा आदेश नहीं दे सकता जो अपने प्रियजन के लिए हो। शिष्य सोचे इस समय गुरु को क्या जरूरत है और इसलिए तीसरी पंक्ति में वशिष्ठ ने कहा है कि सैंकड़ों मील, हजारों मील दूर बैठे ही भी यदि गुरु के पैर में कांटा चुभता है और यहां दर्द होता है तो समझिए हम शिष्य हुए, ये ही कसौटी है। जब दूर बैठा हुआ व्यक्ति उदास है तो एकदम से उदासी छा जाती है कि कुछ अच्छा नहीं लगता घर में बैठे हुए भी, तब एहसास होता है कि कोई समस्या तो नहीं है, घर में तो सब ठीक है। पति बैठे हैं, पत्नी बैठी है, बच्चे खेल रहे है, मिठाई आ रही है और फि़र भी उदासी छाई हुई है और जब ऐसी उदासी छाए, तो समझ लेना चाहिए कि जरूर मेरे साथ वहां से जुड़े हुए मेरे गुरु उदास हैं। ज़रूर कोई तनाव है उनको, कोई परेशानी हैं। इसलिए कहते हैं, उनको कांटा चुभे और दर्द हमें हो।
ऐसा शिष्य हुआ भी क्या कि गुरु रात को तड़पता रहे और शिष्य को नींद आ जाय, उसे शिष्य कह नहीं सकते। ऐसा कैसे हुआ कि गुरु रात में बीमार बुखार से तड़पता रहा और तुम्हें नींद आती रही तो तुम जुड़े नहीं, तुम मे शिष्यत्व नहीं आया। क्योंकि अलग तो हो ही नहीं सकते। एक ही जाति, एक ही गोत्र, एक ही प्राण, एक ही चेतना, एक ही धड़कन। ऐसा तो हो नहीं सकता। पैर में कांटा चुभे और तकलीफ़ नहीं हो। कांटा यहां चुभेगा तो यहां तकलीफ़ होगी ही होगी। हृदय में तकलीफ़ होगी, वेदना होगी, इसलिए गुरु और शिष्य का एक ही शरीर होता है, दो तो दिखाई देते है परन्तु दो शरीर एक प्राण होता है, उन दोनों शरीर को मिला करके जो चीज़ बनती है उसको गुरु कहते है।
अगली पंक्ति में कहा गया है कि जब जिज्ञासु वृत्ति समाप्त हो जाती है, तर्क-वितर्क समाप्त हो जाते हैं, संदेह, भ्रम समाप्त हो जाते हैं तब तीसरी अवस्था उनकी शिष्यत्व की बनती है और शिष्य बनता है तो ये स्टेज आती है कि वे कहीं पर भी हों तब भी हर क्षण मेरे पास में हैं, चलता हूं, उठता हूं, बैठता हूं, बात करती हूं, तो बिल्कुल मेरे पास ही विचरण कर रहे हैं। मैं खाती हूं तो वहीं खाना खिला रहे है, खा रहे है। वे ही पास में बैठे हैं। उनको तकलीफ़ है तो पहले मुझे तकलीफ़ है।
उनको आंच आ रही है तो मैं जल रहा हूं, धूप में खड़ें है तो मेरा सिर दर्द हो रहा है, क्योंकि वह शरीर बना रहेगा तो और ज्ञान फ़ैलेगा। वो शरीर जल्दी समाप्त हो जायेगा, तो ज्ञान वहां समाप्त हो जायेगा। इसलिए वह ज्ञान और ज्यादा फ़ैले इसलिए उसके शरीर की रक्षा करना भी शिष्य का धर्म है। अगर वह तनाव में रहेगा तो कुछ कर नहीं पायेगा, लिख नहीं पायेगा, कुछ ज्ञान नहीं दे पायेगा। इसलिए उसके मस्तिष्क को जीवित रखना भी एक शिष्य धर्म है, इसलिए शिष्य को आंख कहा गया है, नेत्र कहा गया है, हाथ कहा गया है, पांव कहा गया है। वह सब मिलकर के फि़र जब नई स्थिति बनती है, गुरुत्वमय अवस्था में आ जाता है, पूर्ण एकाकार हो जाता है, पूर्ण लीन हो जाता है और जैसा कहा गया है, कबीर ने कहा ने कि ‘‘फ़ूटा कुम्भ जल, जल ही समाना, यह तथ कहा ग्यानी।।’’ एक घड़े में पानी है, एक नदी में भी पानी है और नदी के अन्दर वह घड़ा है। इस संसार में आप हैं, एक गुरु के हृदय में आप हैं मगर उस पानी और उस पानी में डिफ़रेंस है, अंतर है, क्योंकि वह घड़े के अंदर बंद है। वह पड़ा-पड़ा पानी सड़ जायेगा।
आज नहीं सड़ेगा घड़े का पानी पांच दिन के बाद में कीटाणु पड़ जायेंगे। ज्योंहि वह घड़ा फ़ूटा ‘जल-जल ही समाना’, वह जल उस जल में मिल जायेगा, वह नदी बन जायेगा। जो आपके उपर संदेह का आवरण, जो घड़ा है, जो जल मिला नहीं, मिलाने कि हिम्मत नहीं पा रहा है, मिला नहीं पा रहा है, वह घड़ा जब फ़ूटेगा तभी एकाकार हो पायेगा। आपका जब मोह, जब आपकी माया, जब आपका भ्रम, जब आपका संदेह, जब आपके अप्रेम फ़ूटेगा तभी, ‘जल जल ही समाना’, आपका शरीर, आपका प्राण उनके प्राणों से जुड़ जायेंगे तो ‘यही तथ कहा ग्यानी’ इसलिए यही ज्ञान है, यही चेतना है।
यह ज्ञान जब हमारी चेतना में व्याप्त हो, तब इस शरीर से अपने आप में सुगंध व्याप्त हो जाती है। फि़र शरीर से बदबू नहीं आती इस शरीर में दुर्गन्ध नहीं आती। फि़र कृष्ण के शरीर से जैसे अष्टगंध निकलती है वैसे उस व्यक्ति के शरीर से भी अष्टगंध निकलने लग जाती है और उस खुमारी में वह मस्त रहता है। अपने काम में लगा रहता है। एक अजीब सी खुमारी है और वह खुमारी तभी आ पायेगी, जब उसके अंदर एक क्रिया बनेगी, जब उसके अन्दर एक ज्योति प्रकाशित होगी। अपने आप में गुरु के जागरण की स्थिति बनेगी। अपने आप में चेतना पैदा होगी और ऐसी चेतना पैदा होने पर ही अपने आप में चौथी अवस्था में आकर के गुरुत्वमय बनता है।
शिष्य आगे बढ़कर गुरु के साथ एकाकार हो जाते हैं। दीक्षा देते ही नहीं हो जाता। चौथी अवस्था में जा करके गुरुत्वमय बनता है। वशिष्ठ कह रहे है कि प्रत्येक व्यक्ति को यह चिंतन करना चाहिए कि मैं कहां पर खड़ा हूं, पहली क्लास में खड़ा हूं या दसवीं की परीक्षा दे रहा हूं या एम- ए- का एग्ज़ाम दे रहा हूं, कहां हूं। उम्र का इस में कोई बंधन नहीं है। पांच साल के प्रहलाद को ज्ञान हो गया था और साठ साल के हिरण्यकश्यप को ज्ञान हुआ ही नहीं था। अस्सी साल के कंस को भी ज्ञान नहीं हुआ था। तो वो चेतना तब व्याप्त होती है, जब कोई सूखी लकड़ी किसी चंदन से घिसती है, घिसने पर वह सूखी लकड़ी जो खैर की लकड़ी होती है उसमें भी सुगंध व्याप्त हो जाती है।
जब आप गुरु के शरीर से, गुरु की आत्मा से, गुरु के पांव से घिसेंगे अपने आपको, एकाकार होंगे, आपमें भी सुगंध व्याप्त होगी ही होगी। जब सुगंध व्याप्त होगी, तो ऐसी खुमारी आएगी, एक मस्ती आएगी। फि़र काम करते हुए थकेंगे नहीं आप। फि़र आपको ये लगेगा की मेरा शरीर, मेरा समय नष्ट हो रहा हैं, मैं और क्या काम करूं, कैसे करूं, कैसे बड़ाऊं इस चेतना को, इस ज्ञान को कैसे फ़ैलाऊं, कैसे उसको उपयोग में लूंगा। इससे मैंने पहले भी कहा है, कि गुरु यदि स्वार्थी है तो गुरु भ्रष्ट है। गुरु की भी कसौटी है। इसलिए नहीं है कि पैर दबवाए। यह शिष्य की ड्यूटी है कि अगर वह थके हुए हैं तो उनके पैर दबे, मेरी ड्यूटी है कि मैं पानी पिलाऊं, मेरी ड्यूटी है कि मैं छाया करूं, मेरी ड्यूटी है कि मैं उनके दुःख दर्द को समझूं। अपने ऊपर लूं और मैं धीरे-धीरे उनेक सुख-दुःख का सहयोगी बन सकूं। विश्वासपात्र बन सकूं। मेरे ऊपर वे निश्चिन्त हो सकें और ज्यों-ज्यों आपका क्रोध और आपका अहंकार गलता जायेगा, त्यों-त्यों आप उनसे एकाकार होते जायेंगे। यह क्रिया कठिन तो है पर यह क्रिया आसान भी हैं।
आसान इसलिए है कि जिस क्षण आप पहला पाँव आगे बड़ा देंगे, तो दूसरा पांव और बड़ जायेगा। दूसरा, तीसरा, आंठवा, दसवां और एक दिन उस मंजिल त क पहुंच जायेंगे। मगर समय बहुत कम है उसमें बीस साल का गैप पच्चीस साल का गैप, पंद्रह साल का गैप नहीं रख सकते। जितना जल्दी उस मंजि़ल को पार कर लेंगे, वहीं हमारी जीवन कि एक गति होगी, सुगति होगी, उन्नति होगी, उच्चता होगी, श्रेष्ठता होगी, पूर्णता होगी। मैं आपको ऐसा आशीर्वाद दे रहा हूं कि आप एक सामान्य व्यक्ति से आगे बढ़ करके जिज्ञासु, जिज्ञासु से आगे बढ़ करके शिष्य, शिष्य से आगे बढ़ करके आत्मीय बन जाएं, एकाकार हो जाएं, और मेरे हृदय में, मेरी आंखों में आपको देखने के बाद प्रसन्नता की एक चमक आय और आप भी मुझे देखे तो हर्ष से आप नाचने लग जाएं, झूमने लग जाएं। ऐसी स्थिति आपकी बने, मैं ऐसा की आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
-सद्गुरुदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी-
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