जगत् में जो कुछ भी किया गया है वह उन थोड़े-से लोगों के द्वारा ही किया गया है जो क्रियाओं के परे नीरवता में स्थित रहे सके है, ऐसे लोग भागवत शक्ति के उपकरण होते है। ये गतिशील प्रतिनिधि और सचेतन उपकरण हैं जो उन शक्तियों को उतार लाते है जो जगत् का परिवर्तन करती हैं। कार्य इसी प्रकार किया जा सकता है, न कि चंचल कर्मण्यता द्वारा। शांति, स्थिरता और नीरवता की अवस्था में ही जगत् का निर्माण हुआ था और जब कभी किसी सच्ची चीज की रचना करनी होगी तो उसे शांति, नीरवता और स्थिरता की अवस्था में ही करना होगा। यह समझना अज्ञान है कि जगत् के लिये कुछ कर सकने के लिये तरह-तरह की निरर्थक बातों के लिये परिश्रम करना और सुबह से शाम तक दौड़-धूप करना आवश्यक है।
अचंचल और नीरव रहना सीखना….. जब तुम्हारे सामने सुलझाने के लिये कोई समस्या हो तो सब संभावनाओं, सब परिणामों, करणीय या अकरणीय सब संभव चीजों पर दिमाग लड़ाने की जगह यदि तुम सद्भावना की अभीप्सा लिये अचंचल बने रह सको, यदि संभव हो तो सद्भावना की आवश्यकता लिये, तो बहुत जल्दी समाधान निकल आता है। और क्योंकि तुम नीरव होते हो, इसलिये तुम उसे सुन पाते हो।
जब किसी कठिनाई में फँस जाओं तो इस तरीके को आजमाओं, विक्षुब्ध होने, सब विचारों को उलटने-पलटने, जोर-शोर से समाधान ढँढ़ने, चिंता करने, चिढ़ने, अपने सिर के अंदर इधर-उधर भागते रहने के बजाय- बाह्य रूप से नहीं वरन भीतर सिर में – अचंचल बने रहो। और अपने स्वभाव के अनुसार, उत्कटता के साथ या शांति के साथ, तीव्रता के साथ या विस्तार के साथ या इन सबको मिलाकर प्रकाश की अभ्यर्थना करो और उसके आगमन की प्रतीक्षा करो। इस तरह पथ काफी छोटा हो जायेगा।
और फिर, तुम्हें कोशिश करनी और लगे रहना चाहिये। कोशिश करते रहो……. शुरू के लिये, तुम चुपचाप बैठ जाओ और तब पचासों चीजों के बारे में सोचने की जगह तुम अपने-आपसे ‘‘शांति, शांति, शांति, शांति, शांति, स्थिरता, शांति!’’ कहना शुरू करो। तुम शांति और स्थिरता की कल्पना करो। अभीप्सा करो, यह माँगो कि वह आ जायेः, ‘‘शांति, शांति, स्थिरता।’’ और जब कोई चीज आये, तुम्हें छूए और क्रिया करे तो अचंचलता के साथ कहोः ‘‘शांति, शांति, शांति।’’ विचारों की ओर मत देखो, विचारों पर कान न दो। तुम जानते हो कि जब कोई तुम्हें बहुत तंग करता है और तुम्हें उससे पिंड छुड़ाना चाहते हो तो तुम उसकी नहीं सुनते, तुम अपना मुँह फेर लेते हो और किसी और चीज के बारे में सोचते हो। तो, वहीं करना चाहियेः जब विचार आयें तो उनकी तरफ मत देखो, उनकी मत सुनो, उनकी ओर जरा भी ध्यान न दो, ऐसे व्यवहार करो, मानो वे है ही नहीं, और फिर, सारे समय इस तरह दोहराते रहो। एक मूढ़ की तरह, जो सारे समय एक ही बात दोहराता रहता है। तुम भी उसी की तरह करो, दोहराते जाओः ‘‘शांति, शांति, शांति।’’ कुछ मिनटों के लिये यह प्रयास करो और फिर, तुम्हें जो करना हो करो, और फिर, एक बार, फिर से शुरू करो, बैठ जाओ और प्रयास करो। सवेर उठते समय यह करो, रात को सोते समय यह करो। और तब तुम्हें जारी रखना चाहिये, तब ऐसा समय आता है जब तुम्हें बैठने की जरूरत नहीं होती, तुम चाहे, कुछ भी क्यों न कर रहे हो, तुम चाहे कुछ भी कह रहे हो, हमेशा ‘‘शांति, शांति, शांति,’’ चलता रहता है। हर चीज ऐसे रहती है। और तब तुम हमेशा पूर्ण शांति में रहते हो….।
जब तुम्हारे पास थोड़ा समय हो, अपने-आपको केंद्रित करने का, अपने आपको इकट्ठा करने का, अपने जीवन के मूल कारण को फिर से जीने का और जो ‘सत्य’ और ‘सनातन’ है उसे अपने आपको अर्पित करो।’’ हर बार जब तुम बाहरी परिस्थितियों से परेशान न हो तब अगर तुम यह करने की सावधानी बरतो तो देखोगे कि तुम राह पर बहुत जल्दी बढ़ते जा रहे हो। अपना समय बकवास में, अनावश्यक चीजें करने में और ऐसी चीजें पढ़ने में गँवाने की जगह, जो चेतना को गिराती है…. ज्यादा अच्छा है, संयत होना, संतुलित होना, धैर्यवान होना, शांत होना और कभी दिये गये अवसर को न गंवाना। इसका मतलब है, तुम्हारे सामने जो मिनट व्यस्तताहीन होता है उसका सच्चे ध्येय के लिये उपयोग करना।
जब तुम्हारे पास करने के लिये कुछ न हो तुम अशांत हो उठते हो, तुम भागते फिरते हो, मित्रों से मिलने चले जाते हो, घूमने निकल पड़ते हो। उस जगह पर शांतिपूर्वक, तुम्हारे लिये जो संभव हो उसके अनुसार, आकाश के नीचे, समुद्र के आगे या पेड़ों तले बैठ जाओ और इनमें से किसी एक चीज को सिद्ध करने की कोशिश करो- यह समझने की कोशिश करो कि तुम क्यों जीवित हो और यह सीखने की कोशिश करो कि किस तरह जीना चाहिये। इस पर विचार करो कि तुम क्या करना चाहते हो और क्या करना चाहिये, अज्ञान, मिथ्यात्व और दुःख जिसमें तुम जीते हो, उससे बच निकलने का उत्तम उपाय क्या है।
सबसे आसान तरीका है, अपने आपको किसी विशाल चीज के साथ एकात्म कर लो। उदाहरण के लिये, जब तुम्हें लगे कि तुम पूरी तरह किसी संकरे, सीमित विचार, इच्छा और चेतना में बंद हो, जब तुम्हें ऐसा लगे कि तुम किसी सीप में बंद हो तो तुम किसी बहुत विशाल चीज के बारे में सोचने लगो, उदाहरण के लिये, समुद्र के जल की विशालता, और अगर सचमुच तुम समुद्र के बारे में सोच सको कि वह कैसे दूर, दूर, तक सभी दिशाओं में फैला है, इस तरह कैसे तुम्हारी तुलना में इतनी दूर कि तुम उसका दूसरा तट देख भी नहीं सकते, उसके छोर के आस-पास भी नहीं पहुँच सकते, न पीछे, न आगे, न दायें, न बायें….. वह विशाल, विशाल, है……तुम उसके बारे में सोचते हो और यह अनुभव करते हो कि तुम इस समुद्र पर उतर रहे हो, इस तरह, और कहीं कोई सीमा नहीं है…..। तब तुम अपनी चेतना को कुछ, थोड़ा-सा विस्तृत कर सकते हो।
एक और तरीका है जिसमें तुम पृथ्वी की सभी चीजों के साथ तादात्म्य अनुभव करने की कोशिश करते हो। उदाहरण के लिये, जब किसी चीज के बारे में तुम्हारी दृष्टि संकीर्ण हो और तुम्हें दूसरों की दृष्टि और उनके दृष्टिकोण से चोट पहुँचती हो तो तुम्हें अपनी चेतना का स्थान बदलने से शुरू करना चाहिये, उसे दूसरों में रखने की कोशिश करो, और धीरे-धीरे अन्य सब लोगों के सोचने की विभिन्न पद्धतियों से अपने-आपको एक करने की कोशिश करो। दूसरों के विचारों और संकल्पों के साथ एक होने का मतलब है मूढ़ताओं और दुर्भावनाओं के ढेर के साथ तादात्म्य करना, और इससे ऐसे परिणाम आ सकते है जो बहुत अच्छे न हों। फिर भी, कुछ लोग इसे आसानी से करते हैं। उदाहरण के लिये, जब उनका किसी से मतभेद होता है तो अपनी चेतना को विस्तार देने के लिये वे अपने आपको दूसरे के स्थान पर रखकर चीज को अपने दृष्टिकोण से नहीं, दूसरे के दृष्टिकोण से रखते हैं। इससे चेतना का विस्तार होता है, यद्यपि उतना नहीं जितना पहले बताये गये उपायों से होता है, जो बिलकुल निर्दोष है। उनसे तुम्हें कोई हानि नहीं होती, उनसे बहुत लाभ होता है। वे तुम्हें बहुत शांत कर देते हैं।
अगर तुम चेतना के उच्चतर स्तरों की ओर खुलो और ऊपर से शक्ति का अवतरण हो तो बिलकुल स्वाभाविक ढंग से वह निचले क्षेत्रों में नीरवता स्थापित कर देती है, क्योंकि नीचे उतरनेवाली यह उच्चतर शक्ति उन क्षेत्रों पर नियंत्रण रखती है। यह शक्ति मन के उच्चतर क्षेत्रों से या उनके भी परे से या अतिमन तक से आती है। तो जब यह शक्ति और चेतना नीचे आकर निचले क्षेत्र की चेतना में प्रवेश करती है तो स्वभावतः, यह चेतना शांत-स्थिर हो जाती है, क्योंकि ऐसा लगता है मानो, इस पर आक्रमण हुआ है, इसका रूपांतर करनेवाली उच्चतर ज्योति की बाढ़ आ गयी है।
अपने मन में निरंतर नीरवता स्थापित करने का यही एकमात्र उपाय है। उपाय यह हैः अपने-आपको उच्चतर क्षेत्रों की ओर खोलो और इस उच्चतर चेतना, शक्ति और प्रकाश को निरंतर अपने अंदर, निम्न मानस में उतरने दो और उस पर अधिकार कर लेने दो। जब ऐसा होता है तो इधर निम्न मानस हमेशा स्थिर-शांत और नीरव रह सकता है, क्योंकि यही क्रियाशील रहता है और सारी सत्ता को भरे रहता है। मन के सक्रिय हुए बिना तुम काम कर सकते हो, लिख और बोल सकते हो। मन अपने-आपमें एक निष्क्रिय यंत्र बन जाता है और ऊपर से आनेवाली वह शक्ति उसमें प्रवेश करती है और उसका उपयोग करती है। और वास्तव में, नीरवता स्थापित करने का यही एकमात्र तरीका है, क्योंकि एक बार यह स्थापित हो जाये, नीरवता स्थापित हो जाये तो मन फिर हिलता-डुलता नहीं, जब यह शक्ति उसमें अभिव्यक्त होती है, तो वह इसी की प्रेरणा से चलता है। वह एक बहुत स्थिर, बिलकुल नीरव क्षेत्र के जैसा होता है, और जब शक्ति नीचे आती है तो तत्वों को गतिशील बनाती है और उनका उपयोग करती है। वह मन के आलोकित हुये बिना उसके द्वारा अभिव्यक्ति पाती है। मन बिलकुल स्थिर रहता है।
सस्नेह आपका माँ
शोभा श्रीमाली
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