भारतीय आयुर्वेदिक ग्रंथों में एक प्रकरण बाल रोग चिकित्सा का भी है, जिसके अंतर्गत बालकों पर (बच्चों पर ) समय-समय पर प्रभाव डालने वाली विभिन्न मातृकाओं का वर्णन मिलता है। इन्हें भले ही ‘‘मातृका’’ नाम दिया गया है, फिर भी वर्तमान काल में वर्णित विभिन्न जीवाणुओं और विषाणुओं में से ही ये कुछ हैं। कई विषाणुओं और जीवाणुओं को राक्षस, पिशाच, भूत इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है। पुनः इन मातृकाओं के द्वारा बालक कब और कैसे-कैसे कष्ट पाता है तथा उन्हें दूर करने हेतु अनेक सरल प्रयोगों का भी सम्पूर्ण विवेचन इन्हीं ग्रंथों में मिलता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यह विवेचन प्राचीन ठोस तथ्यों पर आधारित है और अन्धविश्वास की सीमा से परे है।
‘‘भैषज रत्नावली’’ में बाल रोग चिकित्सा प्रकरण के अन्तर्गत रावणकृत ‘‘कुमार तंत्र’’ के एकांश को प्रस्तुत करते हुये निम्न बाते स्पष्ट रूप से वर्णित हैं-
बालक को जन्म के पहले दिन, पहले मास अथवा पहले वर्ष के प्रारम्भ के दिनों में ‘‘नन्दा’’ नाम की मातृका पकड़ती है। इसके द्वारा ग्रहीत होने पर बालक को सर्वप्रथम ज्वर हो जाता है, वह अशुभ शब्द करता है, उसे बार-बार डकारें आती है, वह वमन करने लगता है तथा दुग्ध नहीं पीता है।
जन्म के दूसरे दिन, दूसरे मास या दूसरे वर्ष के प्रारम्भ के दिनों में ‘‘सुनन्दा’’ नामक मातृका बालक को ग्रहण करती है, उसकी पकड़ में आते ही बालक आँखे बंद करता है, उसका शरीर कांपता है, वह नींद नहीं लेता है, वह रूदन करता है, वमन करता है, वह दुग्धपान बंद कर देता है।
जन्म के तीसरे दिन, तीसरे मास अथवा तीसरे वर्ष के आरम्भ के दिन ‘‘पूतना’’ नामक मातृका बच्चे को पकड़ती है, उसके द्वारा ग्रहीत होते ही बच्चे को ज्वर हो जाता है, उसका शरीर रह-रह कर कम्पन करता है, वह दुग्धपान नहीं करता, हाथों की मुट्ठियां बांधता है, रोता है तथा ऊपर को देखता है।
जन्म के चौथे दिन, चौथे मास या चौथे वर्षारम्भ के दिन ‘‘मुख मुण्डिका’’ नामक मातृका बच्चे को पकड़ती है, इसके परिणाम स्वरूप बच्चे को पहले ज्वर आता है, बच्चा नेत्रों को बंद रखता है, दुग्धपान नहीं करता, रूदन करता है, सोता रहता है तथा अपनी मुष्टिका बांधता है।
जन्म के छठे दिन, छठे मास, छठे वर्षारम्भ के दिन ‘‘शकुनिका’’ नाम की मातृका बच्चे को ग्रहण करती है। इसके कारण बच्चे को प्रथम तो ज्वर होता है, वह शरीर को तोड़ने की जैसी चेष्टा दिखाता है, मुष्टि बांधता है, रात-दिन उठ-उठ कर बैठना चाहता है तथा बारम्बार ऊपर की ओर देखता है।
जन्म के सातवें दिन, सातवें माह अथवा आठवें वर्ष के आरम्भ में ‘‘अरूर्यका’’ नाम की मातृका बच्चे को ग्रहण करती है, इसके द्वारा ग्रहीत होने पर बच्चे को ज्वर होने के साथ-साथ उसके शरीर से गिद्ध की गंध के समान दुर्गन्ध आती है, वह दुग्ध अथवा भोजन नहीं लेता है तथा शरीर को कंपाता है।
जन्म के नवें दिन, नवें मास अथवा नवें वर्ष के आरम्भ के दिन ‘‘सूतिका’’ नामक मातृका बालक को ग्रहण करती है, इसके कारण पहले बालक को ज्वर आता है, वह बार-बार वमन करता है, अंगों को तोड़ता सा प्रतीत होता है, वह मुट्ठी बांधता है तथा उसे निद्रा अधिक आती है।
जन्म के दसवें दिन, दसवें मास अथवा दसवें वर्ष के आरम्भ के दिन ‘‘निऋर्ता’’ नाम की मातृका बालक को ग्रहण करती है। इसके कारण पहले बालक को ज्वर आता है, वह शरीर को कंपाता है, वमन करता है, रोता है, मुष्टिका बांधता है तथा बार-बार मलमूत्र का त्याग करता है।
जन्म के ग्यारवें दिन, ग्यारवें मास अथवा ग्यारवें वर्ष के प्रारम्भिक दिनों में ‘पिलिपिच्छका’’ नामक मातृका बच्चे को पकड़ती है। इसके कारण उसे ज्वर आता है, वह दुग्ध तथा आहार नहीं लेता है, ऊपर को देखता है तथा वमन करता है।
जन्म के बारवें दिन, बारहवें मास या बारहवें वर्ष के आरम्भ के दिन ‘‘कालिका’’ नामक मातृका बच्चे को पकड़ती है इसके परिणाम स्वरूप पहले तो बच्चे को ज्वर होता है, बच्चा हंस कर बोलता है, अंगुलियों के द्वारा समीपस्थ मनुष्य को डराता है अथवा प्रताड़ित करता है, पैरों तथा हाथों को उठाकर पटकता है, जौर से सांस लेता है, बार-बार वमन करता है तथा आहार ग्रहण नहीं करता है।
शास्त्रों में उपरोक्तानुसार जनित बाधाओं को दूर करने हेतु कई प्रकार के उपचारों का वर्णन भी है। उन्हीं में मुरामांसी, जटामांसी, बच, छैलछबीला, हरिद्रा, दारूहरिद्रा, कचूर, चम्पक पुष्प और मोथा- ये सर्वोषधि गुण की औषधियां है। इनके अद्धश्रृत क्वाथ के द्वारा स्नान कराने से बच्चो के सर्व रोग नष्ट हो जाते है तथा ग्रह, राक्षस और पिशाचादि जनित विकारों का शमन होता है, उनकी आयु तथा शरीर कान्ति में वृद्धि होती है। यह भी कहा गया है कि, माषपर्णी और गन्धबाला- इनका अर्धावशेष क्वाथ बना कर उससे बच्चे को स्नान कराने से तथा सप्तवर्ण हरे पत्ते, हरिद्रा और लाल चन्दन जल के साथ पीस कर शरीर पर लेप करने से ये दोष नष्ट होते हैं।
इसी प्रकार ‘‘शारंगधरसंहिता’’ में भी एक अत्यन्त सरल प्रयोग का वर्णन मिलता है, जिसके माध्यम से उपरोक्त बाधाओं से बालकों की रक्षा की जा सकती है। इस प्रयोग में बताया गया है कि नीम के पत्र, बड़ी कटेली के फल, मिर्च, हींग, जटामांसी एवं बिनौले इन सबको थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर मोटा-मोटा कूट लेवें तथा इसे घी से स्निग्ध करके, अग्नि में डालकर इसका धूम्र घर भर में घुमा दें अर्थात् धूनी दें। इस धूम्र प्रयोग से पिशाच, ग्रह राक्षस और उनसे होने वाली बाधायें नष्ट होती है। शास्त्रोक्त कथन है मातृका दोष उत्पन्न होने की स्थिति में इसका निवारण बालक को ‘‘चैतन्य मातृका शान्ति यंत्र’’ पहना देने से मातृका प्रभाव समाप्त होता है, आवश्यकता है यंत्र धन्वन्तरी मंत्रों से चेतन्य और सम्पुटित हो।
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