सूर्य क्रोध, हिंसा का कारक ग्रह है,अत: अपने जीवन की कमजोरियों को नष्ट कर अपने भीतर पराक्रम, बल निहित करने हेतु यह साधना आवश्यक है। सूर्य ज्योति का प्रमुख ग्रह है और यह साधना करने से नेत्रों की ज्योति में वृद्धि होती है।
यह एक राशि पर एक मास रहता है तथा यह सिंह राशि का स्वामी है। कृतिका, उतराफाल्गुनी और उत्तराषाढ़ा इसके नक्षत्र हैं। जातक की कुण्डली में जब-जब भी इन नक्षत्रों पर सूर्य आयेगा उस समय सूर्य से संबंधित भाव की वृद्धि होगी। परन्तु यदि जातक की कुण्डली में सूर्य नीच का या शत्रु के घर में बैठा हुआ होगा तो उस भाव की हानि भी कर सकता है। यह पुल्लिंगी और राजस गुणवाला है। इसका उच्च स्थान मेष और नीच स्थान तुला है। सूर्य की मित्र राशियां वृश्चिक, धनु, कर्क, मीन है तथा शत्रु राशियां वृष, मकर और कुंभ है। सूर्य का गुरू के साथ सात्विक, चन्द्र के साथ राजस और मंगल के साथ तामस व्यवहार रहता है। शनि, शुक्र, राहु और केतु के साथ उसकी शत्रुता है। यह अपने स्थान से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। इसकी दैनिक गति 56 कला तथा 8 विकला है। यह पृथ्वी से 8 करोड़ 59 लाख मील दूर है और इसका व्यास 91 हजार मील है। इसके राशि चक्र के पूर्ण भ्रमण का काल 365 दिन, 15 घड़ी, 31 पल और 31 विपल है। सूर्य की महादशा विशोंत्तरी दशा के अनुसार 6 वर्ष की होती है। सूर्य समस्त ग्रहों का पति और परम तेजस्वी माना जाता है। यह पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है।
ज्योतिष शास्त्र में यह पूर्व दिशा का स्वामी, पुरूष रूप और पाप ग्रह है। संतान-पिता के सम्बन्ध में सूर्य द्वारा विचार किया जाता है। नेत्र, कलेजा और स्नायु आदि अवसरों पर इस ग्रह का विशेष प्रभाव पड़ता है।
लग्न से सप्तम स्थान पर पड़ा सूर्य परम प्रतापी और प्रबल माना जाता है।
विवाह, यात्रा, मांगलिक कार्यो और व्यापार के लिये सूर्य का विशेष अध्ययन आवश्यक होता है।
शारीरिक तथा मानसिक रोग, खेद, उदासीनता, अपमान, मंदाग्नि आदि रोगों का अध्ययन कुण्डली में सूर्य की स्थिति के अनुसार किया जाता है।
सूर्य की स्थिति भाव के अनुसार आंकी जाती है। विभिन्न स्थितियों के अनुसार यह आत्मसिद्धि, पिता, जंगल, रेगिस्तान वास, भ्रमण, सिरदर्द और मानसिक चिन्ता का कारक है तथा फलप्रद बनता है। विशेषत: यह मेष, वृश्चिक तथा धनु लग्नों में योगकारक होता है। तामस स्वभाव के कारण सूर्य, मंगल, केतु, शनि और राहु के साथ अनिष्ट फलप्रद होता है। इसी प्रकार जब-जब भी सूर्य मृगशिरा, चित्रा, घनिष्ठा, अश्विनी, मघा, मूल, पुष्य, अनुराधा, उत्तराभाद्रपदा, आर्द्रा, स्वाति और शतभिषा पर जातक के भाव की हानि करता है। परन्तु चन्द्र और गुरू के साथ यह लाभ देता है। रोहिणी, हस्त, श्रवण, पुनर्वसु, विशाखा ओर पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्रों पर यह श्रेष्ठ फलप्रद बनता है। बुध के साथ सम स्वभाव रहता है। कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, आश्लेषा, ज्येष्ठा ओर रेवती नक्षत्र पर सूर्य अपने साथ के ग्रह के अनुसार ही फलप्रदान करता है।
जिस पुरूष के लग्न में रवि होता है, तो उस व्यक्ति की नासिका, शरीर और ललाट ऊँचा होता है। स्त्री, पुत्र तथा कुटुम्बियों से उनका मन व्यथित रहता है। वायु-पित्तादि से उसका शरीर कृष तथा क्षीण रहता है। वह पर्यटन प्रिय होता है तथा देश-विदेश में घूमने के योग बनते रहते है। उसका धन सदैव एक सा नहीं रहता बल्कि उसमें कमी-वृद्धि होती रहती है। जातक क्रोधी, स्वाभिमानी, शूरवीर और चंचल होता है।
जिसके दूसरे स्थान में सूर्य होता है, वह अत्यन्त भाग्यशाली होता है। वाहन आदि चतुष्पदों का उपयोग करता हुआ वह पूर्ण सुख प्राप्त करता है। उसका धन उत्तम कार्यो में व्यय होता है, परन्तु स्त्री के कारण सम्बन्धियों से उसकी कलह होती रहती है। लाभ के जितने भी उपाय वह सोचता है, निष्फल हो जाते है। ऐसा व्यक्ति अधिकतर मुख, नेत्र व कर्ण का रोगी रहता है तथा राज्यभीरूता से कार्य करने में हिचकिचाता है।
तीसरे स्थान में पड़ा हुआ सूर्य अत्यन्त प्रतापी और पराक्रर्मी होता है। ऐसा जातक अपने भाईयों से पीड़ित रहेगा तथा यदा-कदा तीर्थ-यात्रा करता रहेगा। युद्ध, वाद-विवाद और मुकदमें आदि में वह अधिकतर विजयी रहता है, तथा राज्य द्वारा उसे सुख प्राप्त होता रहता है। ऐसा जातक अधिकतर कवि, लब्धप्रतिष्ठ विद्वान, और विचारवान होता है।
जिसकी कुण्डली में लग्न से चौथे घर में सूर्य होता है, वह अधिकतर विदेशवासी होता है, युद्ध, वाद-विवाद एवं मुकदमें में वह शत्रु से पराजित होता है तथा उसका अंतः करण सदा व्यथित रहता है। ऐसा जातक सुन्दर, पितृधन नाशक, गुप्त विद्याप्रिय तथा वाहन-सुखहीन होता है।
पांचवें घर में पड़ा हुआ सूर्य जातक को क्रोधी एवं वंचक बना देता है। ऐसे जातक को अपने ज्येष्ठ पुत्र के निधन का दुःख सालता रहता है। उसकी बुद्धि कुशाग्र होती है तथा शनै-शनै धन इकट्ठा करता रहता है इसकी मृत्यु उदर व्याधि से होती है।
लग्न से छठे स्थान में जिसके सूर्य हो, वह शत्रुओं का विनाश करने वाला होता है। राजा, राज्यवर्ग और मित्रों पर अत्यधिक व्यय करता रहता है। माता के कुल द्वारा इसे तकलीफ मिलती है तथा चौपाये द्वारा घायल होता है। ऐसा जातक निरोगी, शत्रु नाशक, वीर्यवान और न्यायप्रिय होता है।
जिसके सातवें स्थान में सूर्य पड़ा हो, उसे स्त्री का सदैव कष्ट रहता है। उसका शरीर पीड़ित तथा मन चिन्तित रहता है। व्यापार करने पर इसे हानि उठानी पड़ती है। ऐसा व्यक्ति कठोर, आत्मरत एवं राज्यवर्ग से पीड़ित रहता है।
जिसके आठवें स्थान में सूर्य होता है, वह कार्यतत्पर चिन्तामुक्त, क्रोधी, धनी तथा धैर्यहीन होता है। नारियों के प्रति वह सदैव लालायित रहता है तथाा नशा आदि का सेवन करते रहने से उसका स्वास्थ्य खराब बना रहता है। उसका धन चोरी में चला जाता है, अथवा गफलत या आलस्य से नष्ट हो जाता है। गुप्तेन्द्रियों की व्याधि से यह जातक विशेष पीड़ित रहता है।
नवें स्थान का सूर्य जातक को दुष्ट स्वभाव का बना देता है। सगे भाई से पीड़ित यह सदैव चिंतित रहता हैं। ऐसा जातक योगी, तपस्वी, नेता, ज्योतिषी अथवा साधक होता है। इस स्थान का सूर्य भृत्यादि सुखों से पूरित वाहनादि का पूर्ण उपयोग करता है।
जिसके दसवें स्थान में सूर्य हो उसका श्रम राज्य अथवा सरकार के द्वारा फलदायक होता है। यह माता को पीड़ा देने वाला तथा स्वजनों से बिछुड़ा रहता है। ऐसा व्यक्ति व्यवहार कुशल, राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त, राज्यमंत्री, उदार एवं ऐश्वर्यवान होता है।
ग्यारवें स्थान का सूर्य जातक को राजा द्वारा धन दिलाता है, तथा अनायास ही सम्पति प्राप्त होती है। शत्रु इससे घबराते हैं, संतान इसे पीड़ा पहुँचाती रहती है। ऐसा जातक धनी, बलवान, सुखी, स्वाभिमानी, सदाचारी एवं उदर-रोगी होता है।
यदि द्वादश स्थान में सूर्य हो तो पुरूष नेत्र रोग से पीड़ित रहता है। युद्ध अथवा वाद-विवाद में इसकी जीत रहती है। शरीर में विभिन्न पीड़ायें इसे तकलीफ देती हैं ऐसा व्यक्ति अधिकतर उदासीन, मस्तक-रोगी आलसी और मित्र-द्वेषी होता है।
हर व्यक्ति की मूलभूत चार-पाँच इच्छायें होती हैं और वे निम्न हैं-
ऊपर जितने भी बिन्दु स्पष्ट किये हैं, वे ज्योतिषीय दृष्टि से सूर्य में निहित है, अतः जो कोई भी व्यक्ति इस ‘रवि तेजस प्रयोग’ को सम्पन्न कर लेता है, उसे स्वतः ही उपरोक्त स्थितियां अपने जीवन में घटित होती अनुभव होने लगती हैं।
साधक लाल वस्त्र धारण करें, लाल आसन पर पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैंठ और अपने सामने लाल वस्त्र से ढके बाजोट पर ‘सूर्य यंत्र’ स्थापित करें। यंत्र का पंचोपचार पूजन करें तथा ‘रवि तेजस माला’ से निम्न मंत्र की 11 माला मंत्र जप करें-
प्रयोग-समाप्ति के बाद यंत्र व माला को किसी जलाशय अथवा मन्दिर में अर्पित कर दें। ऐसा करने से प्रयोग सिद्ध होता है।
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