परमात्मा के बिना प्रार्थना कहाँ? ध्यान रूखी-सूखी बात है। उसमें रसधार नहीं है। और ध्यान अकेला अपंग भी है। और ध्यान अकेला, अगर अति बुद्धिमत्तापूर्वक ध्यान की यात्रा न की जाये, तो अहंकार को बलिष्ठ करने का कारण हो सकता है। क्योंकि अहंकार को समर्पित करने के लिये कोई चरण ही न रहे।
परमात्मा ही नहीं है अस्तित्व में, तो प्रार्थना कैसे हो सकेगी? और परमात्मा ही नहीं है अस्तित्व में, तो तुम अकेले रह गये-द्वीप की भांति। अपने में बंद। अपने से बाहर जाने का उपाय न रहा। अपने से पार जाने का उपाय भी न रहा। और जीवन की सारी महिमा अपने से पार जाने में है। परमात्मा तो निमित्त मात्र है कि तुम अपने से पार जा सको-सीढ़ी है, कि तुम धीरे-धीरे अपने को भी अतिक्रमण कर जाओं। मनुष्य की गरिमा यही है कि वह अपना अतिक्रमण कर ले।
अभागे होंगे वे दिन जब मनुष्य अपना अतिक्रमण करना बंद कर देंगे। अभागे होंगे वे दिन जब मनुष्य अपने से तृप्त हो जायेंगे, जब उनके भीतर आग न जलेगी अपने से पार जाने की, अपने से ऊपर उठने की।
मनुष्य की यही महिमा है। इस जगत में कोई और पशु-पक्षी, कोई पौधा, कोई पत्थर-पहाड़ अपने से पार जाने के लिये आकांक्षा नहीं करता। और जब आकांक्षायें समान है, सिर्फ एक आकांक्षा मनुष्य में विशिष्ट है। नीम का वृक्ष नीम का वृक्ष ही रहना चाहता है। कुछ और होने की आवश्यकता नहीं है, न आकांक्षा है, न स्वप्न है। मनुष्य अकेला प्राणी है जो स्वप्न देखता है- अपने से ऊपर जाने के, अपने से भिन्न होने के। अपने को ही सीढ़ी बना कर अपने ऊपर चढ़ जाने की अपूर्व आंकाक्षा मनुष्य के प्राणों को झकझोर देती है। इसी आकांक्षा का नाम संन्यास है।
लेकिन ऊपर जाने को कोई लक्ष्य होना चाहिये। ऊपर जाने के लिये कोई आयाम होना चाहिये। परमात्मा उसी आयाम का नाम है।
अगर परमात्मा नहीं है, तो फिर आदमी बचा। उपनिषद का प्रसिद्ध वचन हैः अहं ब्रह्मास्मि। अगर ब्रह्म नहीं है, तो अहं बचा। और अहं को मिटाने का कोई उपाय भी न बचा। ब्रह्म में ही डूब कर मिट सकता था। अब डूबेगा कहां? अब इससे उबरोगे कैसे? अब इतना ही हो सकता है कि यह पाप की जगह पुण्य में लग जाये। बस इतना ही उपाय रहा। इतना ही उपाय रहा कि सोने की जंजीरें आ जायें, लोहे की जंजीरें चली जायें। इतना ही उपाय रहा- धन की अकड़ मिट जाये, त्याग की अकड़ आ जाये। धन की अकड़ चली जाती है, त्याग की अकड़ पकड़ जाती है। कृत्य पर बहुत भरोसा आ जाता है। संकल्प सब कुछ हो जाता है। समर्पण की कोई संभावना नहीं रह जाती। और भक्ति तो समर्पण के बिना हो न सकेगी। और भक्ति के बिना आदमी अपने अहंकार से मुक्त नहीं हो सकता।
कर्म स्वयं फलदाता नहीं है। ईश्वर ही कर्मो का फलदाता है। ऐसा देखने में भी आता है।
ईश्वर को स्वीकार करने का अर्थ होता है? उसे ठीक से समझ लेना, अन्यथा तुम्हारी ईश्वर के प्रति बड़ी बचकानी धारणायें है। इस जगत में एक बड़ा अद्भूत खेल चलता है। तर्क का जो जाल है, वह उस पर ही आधारित है। वह खेल यह है। जो लोक सामान्य में, पृथकजनों में, सामान्य लोगों में जो धारणाएं प्रचलित होती है, उनका खंडन बड़ी आसानी से किया जा सकता है। क्योंकि उनके पीछे न तो कोई अनुभव होता है, न कोई दृष्टि होती है। उनके पीछे मनुष्य की सामान्य बुद्धि होती है। जरा सी असामान्य बुद्धि तुम्हारे पास हो, उनका खंडन किया जा सकता है। लेकिन उनके खंड़न से धारणा का वास्तविक रूप खंड़ित नहीं होता।
जैसे की तुमने सोच रखा है कि ईश्वर कहीं आकाश में बैठा कोई व्यक्ति! तो तुम्हारी धारणा बचकानी है। ईश्वर कहीं कोई व्यक्ति की तरह नहीं बैठा हुआ है। और अगर तुमने ईश्वर को व्यक्ति माना, तो तुम नास्तिकों या अनीश्वरवादियों के किसी न किसी तर्कजाल से तोड़ दिये जाओगे। तुम बच न सकोगे।
ईश्वर व्यक्ति नहीं है, ईश्वर ऊर्जा है। वह जो बुद्धि की ऊर्जा है, उसका नाम ईश्वर है। इस जगत में जो बुद्धिमता दिखाई पड़ती है, उसका नाम ईश्वर है। इस जगत में जो प्रतिभा का आभास होता है, उसका नाम भगवत है। भगवान कोई व्यक्ति नहीं है। व्यक्ति को खोजने निकलोगे, तो कहीं भी न पाओगे। जिन्होंने भगवान का अनुभव किया है, उन्होंने भी नहीं कहा कि भगवान व्यक्ति है। उन्होंने भी कहा कि भगवान एक अनुभूति है। तुम्हारी चैतन्यदशा जब इतनी निखार को उपलब्ध हो जाती है कि उस पर कोई सीमा के बंधन नहीं रह जाते, सब उपाधियां जब गिर जाती है, जब तुम निर- उपाधि हो जाते हो, जब तुम्हारी चैतन्य की दशा इतनी शांत और इतनी आनंदमग्न हो जाती है कि विचार की एक तरंग नहीं उठती, झील परिपूर्ण शांत होती है, तब तुम्हें अनुभव होता है कि तुम्हारी झील कहीं भी समाप्त नहीं होती, तुम्हारी झील किसी विराट झील का हिस्सा है, तुम्हारा यह छोटा सा चैतन्य का दीया किसी विराट महासूर्य की किरणों का हिस्सा है। उस विराट चैतन्य का नाम परमात्मा है। तुम्हारे भीतर उसकी ही एक किरण है। तुम उसके ही एक रूप हो। तुम तक वह आया हुआ है।
परमात्मा व्यक्ति नहीं है, बल्कि समष्टि में छिपी हुई चैतन्य की शक्ति का नाम है। जड़ में भी वहीं है। क्योंकि जड़ भी चैतन्य की ही एक अवस्था है- सोई हुई अवस्था। तुम्हारे शरीर में भी वहीं है। वह उसकी सोई हुई अवस्था है। और तुम्हारे बोध में भी वहीं है, वह उसकी थोड़ी सी जागती हुई अवस्था है और जिस दिन तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे, परम जाग्रत हो जाओगे, उस दिन भी वहीं होगा। वह उसकी परिपूर्ण जाग्रत अवस्था है। जिसके पार फिर और जागना शेष नहीं रह जाता।
संक्षिप्त में, परमात्मा व्यक्ति नहीं, इस जगत में छिपी हुई बुद्धिमता है। और बुद्धिमता के प्रमाणों की कमी नहीं है। यहाँ हर चीज इतनी बुद्धिमता से चल रही है कि क्या उसके लिये प्रमाण देना पड़ेगा? तुम एक बीज बोते हो, बीज में निश्चित ही कोई बुद्धिमता है, क्योंकि बीज भलीभांति जानता है उसे क्या होना है-आम होना है कि नीम होना है। बीज भलीभांति जानता है कि किन पत्तों को उगाना है- वे हरे होंगे, कि लाल होंगे, कि पीले होंगे। बीज भलीभांति जानता है आकाश में कितने ऊपर तक शाखाओं को भेजना है। बीज भलीभांति जानता है कि जड़े कितनी दूर गहराई में जलस्त्रोत की तलाश में जानी चाहिये तब मैं जीवत रह सकूंगा। तुम वृक्ष की एक शाखा काट दो, तत्क्षण वृक्ष दूसरी शाखा पैदा कर देता है। कमी हो गई, उसे पूरी कर लेता है। रात वृक्ष भी सो जाता है, दिन जागता है। और अब तो वैज्ञानिक कहते है कि वृक्ष की संवेदना भी है। अब तो वैज्ञानिक के पास इस बात के प्रमाण है। जो सर जगदीशचन्द्र बसु ने सबसे पहली दफे प्रमाणित किया था, वह धीरे-धीरे सघनता से प्रमाणित होता गया है। वैज्ञानिक कहते है कि जब कुल्हाड़ी लेकर कोई वृक्ष को काटने आता है, तो कुल्हाड़ी लाने वाले व्यक्ति को दूर से ही देख कर और वृक्ष में तरंगे भय की पैदा हो जाती है। अभी काटा नहीं गया है, अभी यह भी पक्का नहीं है कि इसी को काटेगा। लेकिन वृक्ष की तरफ आ रहा है कुल्हाड़ी लेकर। दूर से! अभी आ भी नहीं गया है, अभी कुल्हाड़ी की चोट भी नहीं पड़ी है, और वृक्ष भय से कंपने लगता है, जैसे तुम भय से कंपने लगोगे कोई अगर तलवार लेकर तुम्हारी तरफ आने लगे। हो सकता है सिर्फ मजाक कर रहा हो, तुम्हें मारने न आया हो, लेकिन तुम्हारे भीतर भय समा जायेगा।
अब वृक्षों के भीतर किस तरह के कंपन होते है, उनको नापने के यंत्र बन गये है। जैसे कॉर्डियोग्राम होता है और तुम्हारे हृदय की धड़कन नापी जाती है और तुम्हारे हृदय की तरंगे नापी जाती है, ठीक वैसे ही सूक्ष्म यंत्र बन गये है जो वृक्षों के हृदय की धड़कन को मापते है। कुल्हाड़ी लेकर आते हुये लकड़हारे को देखते ही वृक्ष के प्राण कंप जाते है। यंत्र तत्क्षण घबराहट की खबरें देता है कि, वृक्ष घबड़ा रहा है। माली को आते देख कर वृक्ष प्रफुल्लित हो जाता है, यंत्र खबर देता है कि वृक्ष प्रफुल्लित हो रहा है, माली आ रहा है, पानी आ रहा है, प्रेम करने वाला पास आ रहा है।
तुम अगर किसी वृक्ष के पास रोज-रोज जाकर बैठते हो, उसको सहलाते हो, उससे दो बाते करते हो, तो वैज्ञानिक कहते है कि वह वृक्ष तुम्हारी प्रतीक्षा करने लगता है। वह रोज उतने वक्त राह देखता है। उसकी आँखे- जो हमें दिखाई नहीं पड़ती ऊपर से, लेकिन यंत्र बताता है कि उसकी आँखे तुम्हारी प्रतीक्षा करती हैं। उसकी कान- जो हमें दिखाई नहीं पड़ते, यंत्र बताता है-तुम्हारी पगध्वनि को सुनते है। आते हो कि आज नहीं? नहीं आते हो तो उदास हो जाता है। आ जाते हो तो अपूर्व आनंद से भर जाता है। तुम्हें देख कर झूलने लगता है, मस्ती में डोलने लगता है।
अभी तक हमने ठीक से अस्तित्व के प्राणों में उतरना शुरू भी नहीं किया, लेकिन इतने प्रमाण अभी भी मिल गये है कि सारा अस्तित्व बुद्धिमता से भरा हुआ है। संवेदना है, चेतना है। और जो आज वृक्ष में सच हो गया है, वहीं कल चट्टान में भी सच होने को है। और सूक्ष्म यंत्र चाहिये होंगे, जो चट्टान के भीतर भी उठती हुई तरंग-धाराओं को माप सकें।
परमात्मा का इतना ही अर्थ है कि यह पूरा जगत संवेदनशील है। यह जगत संवेदनशून्य नहीं है। और इस जगत के पीछे एक बुद्धिमता है, जो चीजों को नियोजन कर रही है।
कर्म अपने आप में फलदायी नहीं हैं। कोई कर्म अपने आप में कैसे फलदायी हो सकता है? इस जगत की बुद्धिमता फल देती है। यह जगत प्रतिसंवेदन करता है। यह जगत, तुम जो इसके साथ करते हो, वही तुम्हारे साथ करता है। कर्म अपने आप में फलदायी नहीं हो सकते। कर्म फलदायी हैं, क्योंकि जगत में एक बुद्धिमता छिपी है, जो प्रत्येक कर्म के लिये पुरस्कार देती है और दंड देती है।
चार बातें समझ लेनी जरूरी है।
पहली बात, कि तुम जब भला करते हो, तो भला करने के कारण ही तुम्हें अच्छे परिणाम नहीं आते। तुम भला करते हो, इससे परमात्मा, इससे छिपी हुई जगत की बुद्धिमता तुम्हारे साथ भला करती है। अगर जगत बुद्धिहीन होता, तो तुम करते भला, कुछ परिणाम नहीं हो सकता था।
और तुम इसे अनुभव से भी देख सकते हो। तुम किसी बुद्धू के साथ भला करो, और तुम उतना ही भला किसी बुद्धिमान के साथ करो, तुम पाओगे कि दोनों में फल का भेद पड़ गया। क्योंकि बुद्धू शायद समझे ही नहीं कि तुमने भला किया। या कभी यह भी हो सकता है कि बुद्धू तुम्हारे भले को बुरा समझ ले और तुम्हें नुकसान पहुँचा दे। बुद्धिमान समझेगा। बुद्धूओं को देख कर ही समझदारों ने कहा होगा-नेकी कर और कुंए में डाल। फिकर ही मत करना। इन बुद्धूओं के साथ अगर अच्छा भी किया है तो अच्छे की अपेक्षा मत करना। अक्सर ऐसा हो जाता है कि बुद्धू, बुद्धिहीन आदमी से अगर तुम अच्छा व्यवहार करो, तो वह निश्चित तुमसे बुरा व्यवहार करेगा।
क्यों ऐसा हो जाता है? तुम जब अच्छा व्यवहार करते हो किसी बुद्धिहीन से, तो उसके अहंकार को चोट लगती है कि अच्छा! तो तुम बड़े अच्छे होने की कोशिश कर रहे हो? तो तुमने अपने को समझा क्या है? बड़े साधु होना प्रमाणित कर रहे हो! वह तुम्हारी साधुता को बिखेरने के लिये उत्सुक हो जायेगा। वह तुम्हें नीचा दिखाने को उत्सुक हो जायेगा। अगर तुम बुद्धिमान के साथ अच्छा व्यवहार करोगे, तो अनंत गुना परिणाम होगा। यह तो रोज देखने में आता है।
ऐसा देखने में भी आता है। कि तुम जितनी जड़ स्थिति में अपनी भलाई डालोगे, उतना ही छोटा परिणाम होगा। जैसे-जैसे तुम ज्यादा समझदार व्यक्ति के साथ व्यवहार करोगे, उतने ज्यादा परिणाम होने लगेंगे।
तो इस जगत में बुरे का फल बुरा होता है, ऐसा देखा गया, भले का फल भला होता है, ऐसा देखा गया, लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि कर्म अपना ही फल खुद को दे लेते है। कर्मो की क्या क्षमता? कर्मो के फल होते है, क्योंकि यहाँ छिपी हुई बुद्धिमता प्रत्येक कर्म के उत्तर में संवेदित होती है, झंकृत होती है। वहीं झंकार तुम तक आती है-शुभ की तरह, या अशुभ की तरह।
अगर अस्तित्व जड़ हो और अस्तित्व में कोई परमात्मा न हो और अस्तित्व को बिलकुल उपेक्षा हो तुम्हारे प्रति-जड़ ही हो तो उपेक्षा होगी ही- फिर तुम अच्छा करो या बुरा, परिणाम केवल सांयोगिक होंगे। उनमें कोई अपरिहार्यता नहीं रह जायेगी। क्योंकि दूसरी तरफ कोई बुद्धिमता नहीं है जो कि परिणामों को सुनिश्चितता दे सके।
इतना ही देख कर मत रूक जाना कि अच्छे कर्म का अच्छा फल हुआ और बुरे कर्म का बुरा फल हुआ। जरा और गहरे खोजना! तो तुम पाओगे कि अच्छे कर्म के पीछे अच्छा फल आया है, क्योंकि कोई बुद्धिमान शक्ति चारों तरफ से उस अच्छे फल को सराही रही है। उस अच्छे फल का स्वागत, उस अच्छे कर्म का स्वागत हुआ है।
फिर ऐसा भी हो जाता है कि तुम कभी अच्छा करते, सोचते हो कि तुम अच्छा कर रहे हो, लेकिन परिणाम बुरे होते है। तुम्हें तुम्हारे शुभ कर्म का शुभ फल मिलता हुआ नहीं दिखाई पड़ता। लोग बड़े चिंतित भी हो जाते है। मेरे पास लोग आकर कहते है कि हमने अच्छा किया, कहते है कि अच्छे का फल अच्छा होगा, लेकिन हुआ नहीं। तो मैं उनसे कहता हूँः तुम अपनी अच्छाई को खोजना। तुम सोचते थे तुमने अच्छा किया, लेकिन वह अच्छा था नहीं। इसलिये अस्तित्व ने तुम्हें जो प्रतिकार दिया है, वह अच्छा नहीं है। तुम जरा अपनी अच्छाई में और गौर से उतरना। तुम्हारी अच्छाई में कोई गहरी बुराई छिपी होगी। तुम इस जगत की बुद्धिमता को धोखा नहीं दे सकते।
जैसे तुमने दान दिया किसी को। अब दान दो कारणों से दिया जा सकता है-या अनेक कारणो से भी दिया जा सकता है-लेकिन मौलिक रूप से दो कारण हो सकते है। एक, कि तुमने दया के कारण दिया। तुम्हें दूसरे के दुःख की बात छू गई। तुम्हारी आँखो में आसू आ गये, तुम्हें लगा कि कुछ करना जरूरी है। तुम्हें दूसरे का दुःख छुआ। तुमने दूसरे का दुःख हरने को कुछ किया। या यह भी हो सकता है कि दूसरे को दुःखी देख कर तुम्हारे अहंकार को आनंद आया और तुमने अहंकार के कारण कुछ किया- कि ले भई! तू दुःखी है, देख, हम दानी है! हमारी तरफ देख, याद रखना कि जब तू दुःखी था तो हमने तेरी सहायता की थी। दान या तो दूसरे के दुःख के कारण सहजस्फूर्ति हुआ, या अहंकार से जन्मा कि तुम्हें दानी होने का मौका मिला। कुछ लोग है जो दानी होने की तलाश में होते है। उनकी आकांक्षा यही है कि कोई न कोई कहीं न कहीं दुःखी हो ।
अगर तुमने दान इसलिये दिया है कि इससे प्रतिष्ठा मिलती है, अखबार में नाम छपता है, समाज में आदर मिलता है और तुमने सेवा इसलिये की है कि तुम्हें स्वर्ग जाना है, पुण्य अर्जित होता है, स्वर्ग में उसका प्रतिकार मिलेगा, प्रतिफल मिलेगा, तो तुमने शुभ कर्म नहीं किया। गहरे में तो तुम्हारा स्वार्थ, परार्थ जरा भी नहीं है। गहरे में तो तुम्हारा अहंकार है। इसमें दूसरे के दुःख से कुछ लेना-देना नहीं है। तब निश्चित तुम इस जगत की बुद्धिमता को धोखा दे पाओगे।
अगर जड़ नियम होता जगत में तो शायद तुम्हें इससे पुण्यफल भी मिल जाता। लेकिन जड़ता नहीं है, यहाँ जगत में छिपी बुद्धिमता है। तुम क्या करते हो, उसकी ही नहीं देखती, तुम्हारे करने के भीतर छिपी हुई अभीप्सा को देखती है। तुम क्या करते हो, उसको ही नहीं देखती, तुम क्यो करते हो, उसको भी देखती है। तुम्हारा कृत्य और तुम्हारा कर्म क्या है, यह बात गौण है, तुम क्या हो, यह बात महत्त्वपूर्ण है। इस बुद्धिमता को तुम धोखा नहीं दे पाते।
इसलिये तुम पाओगे और अक्सर तुमने देखा होगा कि कभी-कभी भला आदमी, जो सब तरह से भला करता है, और बड़ा दुःख पाता है। और कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि एक बुरा आदमी, जिसके संबंध में तुम्हें कुछ भी पता नहीं कि उसने कभी भला किया है, वह भी बड़े आनंद में पाया जाता है। ये भेद इसीलिये पड़ जाते है। ये भेद इसीलिये पड़ जाते है कि जगत में बुद्धिमत्ता काम कर रही है। परमात्मा विराजमान है। उन आँखो को तुम धोखा न दे पाओगे। उस बोध के साथ तुम चालाकी न कर पाओगे। तुम्हारी सब चालाकियां पड़ी रह जायेगी। तुम्हारी सब होशियारीयां दो कोड़ी की है।
इसलिये खयाल रखना, पुण्य के पीछे भी पाप का भाव हो सकता है। और कभी-कभी ऊपर से दिखाई पड़ने वाले पाप के पीछे भी पुण्य की ऊर्जा हो सकती है। असली बात-अभिप्राय की है।
एक आदमी के सिर में वर्षो से दर्द था। तुम्हारा उससे झगड़ा हो गया, तुमने एक पत्थर उठा कर उसके सिर में मार दिया। पत्थर की क्या चोट लगी, उसका दर्द ठीक हो गया। तुम बुरा करने चले थे, हो गया भला। क्या तुम सोचते हो इससे तुम्हें पुण्यफल मिलेगा? तुम्हारा अभिप्राय तो भले का नहीं था। और यह उदाहरण तुम ऐसा मत समझना कि सिर्फ काल्पनिक है। ऐसा कई दफे हो गया है। चीन में एक आदमी को पक्षघात लग गया था, पैरालिसिस हो गई थी, और वह एक रास्ते से अपने पैर को घसीटता चल रहा था कि उसके दुश्मन ने उसको एक तीर मारा। वह उसके पैर में लगा। उसके पैर में लगते ही उसका पक्षघात चला गया। फिर इस पर बड़ी खोज-बीन करनी पड़ी कि मामला क्या हुआ? इलाज काम नहीं किये, औषधि काम नहीं की, और तीर के लगने से हुआ क्या? खोज से पता चला कि तीर संयोगवशात ऐसी जगह लगा जहां विद्युत का मार्ग है, शरीर की विद्युत जहां से बहती है। उस तीर के लगने से विद्युत का मार्ग बदल गया। मार्ग के बदलने से उसका पक्षघात बदल गया। इसी आधार पर आक्यूपंक्चर की खोज हुई।
इसलिये तुम अगर आक्यूपंक्चरिस्ट के पास जाओगे, तुम कहते हो सिर में दर्द है, वह हो सकता है कि तुम्हारे हाथ में सुई गड़ाए, कि तुम्हारे पैर में सुई गड़ाए। तुम सोचोगे भी कि यह मामला क्या है? वह होश में है? मेरे सिर में दर्द है और यह पैर में सुई गड़ा रहा है! लेकिन चमत्कार होता है। पैर में सुई गड़ती है, सिर का दर्द खो जाता है। क्योंकि पैर से जो विद्युत की ऊर्जा सिर की तरफ बह रही है,उसको रूपांतरित करने के लिये सुई काफी है। सुई की चोट से विद्युत का प्रवाह बदल जाता है। फिर कहां-कहां बिंदु हैं विद्युत के प्रवाह को बदलने के, इनकी खोज की गई। सात सौ बिंदु पाये गये। मनुष्य के शरीर में सात सौ बिंदु है। उन बिंदुओं से सारी बीमारियों का इलाज हो सकता है।
मगर आविष्कार तो हुआ था एक आकस्मिक घटना से। जिसने तीर मारा था, वह कोई आक्यूपंक्चर को जन्म देने की इच्छा नहीं रखता था, उसे कुछ पता भी नहीं था। वह तो मार डालना चाहता था इस आदमी को। क्या तुम सोचते हो उसको पुण्य हुआ? हालांकि उसके कृत्य का परिणाम तो बहुत अच्छा हुआ। आदमी बचा। एक आदमी नहीं बचा, पांच हजार साल में लाखों लोग उसके तीर की वजह से स्वास्थ्य लाभ किये। लेकिन उसका अभिप्राय तो बुरा था। फल तो बुरा ही होगा।
कभी -कभी तुम्हारा अभिप्राय अच्छा होता है और कृत्य ऊपर से दिखाई पड़ता है बुरा है। तो भी तुम्हें पुण्य का अर्जन होता है। कृत्य नहीं देखे जाते, कृत्य ऊपर है, देखे अभिप्राय जाते है। अभिप्राय कौन देखता होगा? उसके लिये बड़ी ही गहन प्रतिभा चाहिये जगत में छिपी हुई, जो तुम्हारे अभिप्रायों को भी परख लेती हो। शायद तुम्हें भी अपने अभिप्राय का पता न हो। तुमसे बड़ी कोई बुद्धिमता चाहिये, जो तुम्हारे सामने भी छिपे अभिप्रायों को पता कर लेती हो। जो तुम्हारे अंतस्तल में पैठ जाती हो। जो तुम्हारे केंद्र में प्रवेश कर जाती हो। जो तुम्हारे भीतर से भीतर को पकड़ लेती हो और पहचान लेती हो। और ऐसा ही हो रहा है।
जब तुम्हें अपने किसी अच्छे काम के लिये बुरा फल मिले, तो नाराज मत होना और शिकायत मत करना, इतना ही समझना कि कृत्य तो अच्छा था, लेकिन अभिप्राय भीतर बुरा था। इससे तुम यह मत समझ लेना कि जगत में कोई अन्याय हो रहा है। और कभी तुम किसी व्यक्ति को बुरा कृत्य करते देखा और फल अच्छा होते देखो, तो भी यह मत सोच लेना कि जगत में बड़ी बेईमानी चल रही है, परमात्मा तक अन्यायी हो गया है। वह कृत्य ऊपर से बुरा दिखाई पड़ रहा है, लेकिन भीतर उसका अभिप्राय अच्छा होगा। अभिप्राय तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, हो सकता है स्वयं उसे भी दिखाई न पड़ता हो। लेकिन जो हमें भी नहीं दिखाई पड़ता, उसे भी देखने वाली आँखे इस जगत में छिपी है। उन आँखो का नाम परमात्मा है। वे आँखे सदा तुम्हारा पीछा कर रही है। वे हर घड़ी तुम्हें देख रही है। यह तो एक अर्थ।
दूसरा यह भी अर्थ, जो इसी से निष्पन्न होता है और और भी गहरा हो जाता है, कर्म करो, फल की चिंता न करो। कृष्ण ने गीता में कहा कि तुम सिर्फ कर्म करो, फल की चिंता मत करो। फल तुम्हारे हाथ में नहीं है, फल परमात्मा के हाथ में है।
और ऐसा है कि हम कर्म तो कम करते है, फल की चिंता बहुत करते है। हम चाहते है कि कर्म तो करना ही न पड़े और फल हो जाये। या कर्म कम से कम करना पड़े और फल बड़ा से बडा हो जाये। कोई शॉर्टकट मिल जाये। हमारी यही बेईमानी है। ऐसा नहीं हो सकता।
फल उसी अनुपात में मिलता है, जिस अनुपात में कर्म किया जाता है। कर्म करके ही तुम जगत में छिपी बुद्धिमता को उत्प्रेरित करते हो फल देने के लिये। तुम्हारा कर्म तुम्हारी पात्रता है। लेकिन फल तुम्हारे हाथ में नहीं है। इसलिये फल की चिंता व्यर्थ है। और फल की ही चिंता होती है, और कोई चिंता नहीं है जगत में। जिसने यह समझ लिया कि फल परमात्मा के हाथ में है, वह चिंतित नहीं रह जाता निश्चिंत हो जाता है। उसकी बड़ी चिंता शांत हो जाती है। कर्म करता रहता है, फल की कोई चिंता ही नहीं- जो होगा। जो होना चाहिये, वह होगा। जब होना चाहिये, तब होगा। उसे इस विश्व की सत्ता पर भरोसा है, श्रद्धा है। वह जानता है, अन्याय नहीं होता। और अगर देर लग रही है, तो वह भी मेरे हित में ही होगी। और अगर कभी बुरा परिणाम भी होता है उसके अच्छे कृत्य का, तो भी उसकी श्रद्धा इतनी गहरी है कि वह मानता है कि मेरे कृत्य में जरूर कोई बुराई रही होगी जो मुझे दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन उन आँखो को दिखाई पड़ती है। अब मैं अपने कृत्य को बदल लूं। और कभी अगर उसे बहुत दुःख भी मिलता है, तो भी वह जानता है, यह भी मेरी परीक्षा होगी, अग्नि परीक्षा होगी। तो भी वह जानता है, इस दुःख के पीछे भी उस बुद्धिमता के ही हाथ है, इसलिये निश्चित ही इस दुःख से भी कुछ लाभ होने को होगा- मैं मांजा जाऊंगा, निखारा जाऊंगा, मेरी अशुद्धियां जलाई जायेगी।
उस परम प्रेमी की यह भी कोई कृपा है अगर दर्द हो, अगर पीड़ा हो। यह पीड़ा भी निखारने का ही उपाय है। यह पीड़ा भी परिष्कार का ही उपाय है।
चिंता जरा भी न करो। उस विराट के हृदय में तुम्हारी जगह है। और जो भी हो रहा है, ठीक ही हो रहा होगा। गलत हो ही नहीं सकता। जब परमात्मा कण-कण में व्याप्त है, तो गलत कैसे हो सकता है? अगर हमें गलत दिखाई पड़ता है तो हमारी आँख की कहीं भूल होगी। इस गहन आस्था का नाम धर्म है। जहाँ गलत भी हमें दिखाई पड़ता है, जहाँ हमारा तर्क कहता है गलत हो रहा है, वहां भी श्रद्धा जानती है-हमारी ही कोई भूल है। देखने में, दृष्टि में कोई दोष है। हमारी आँख में ही कंकरी पड़ी है। हमारा दर्पण ही गलत झलका रहा है। गलत तो हो ही नहीं सकता। कैसे गलत हो सकता है?
जगत तुम जैसे बुद्धिमान व्यक्तियों को पैदा किया है! निश्चित ही, जिससे तुम आये हो, वह तुमसे ज्यादा बुद्धिमान होना चाहिये। तुम्हारी बुद्धि तो छोटी सी है। एक बूंद समझो। और इस जगत की बुद्धिमता सागर जैसी है। जब एक बूंद को कुछ भूल दिखाई पड़ रही है, तो सागर को तो कभी की दिखाई पड़ जाती। भूल नहीं होगी। बूंद होने के कारण ही शायद दिखाई पड़ रही है, क्योंकि हमारी सीमा है। हमारी समझ की सीमा कितनी! हमारी समझ क्षुद्र है। हम विराट को ठीक से नहीं झलका पाते।
फिर चिंता मत करो। फिर इस संसार का दामन, इस संसार का आंचल मोतियों ही मोतियों से भरा है। सिर्फ एक बात की फिकर कर लो कि तुम्हारा आंसू मोती बन जाये। दर्द में भी गिरा हुआ आंसू श्रद्धा में गिरे। पीड़ा में गिरा हुआ आंसू भी प्रार्थना में गिरे। बस तुम्हारे दर्द के आंसू में मोती की झलक आ जाये। तुम्हारे भाव में श्रद्धा की झलक आ जाये। फिर सारा जगत, इस जगत का आंचल मोतियों ही मोतियों से भरा है।
कर्म करो, फल की चिंता मत करो। वह चिंता अकारण है। उसके कारण तुम व्यर्थ टूट जाते हो। और उस चिंता में तुम इतनी शक्ति देते हो कि कर्म में लगाने को शक्ति बचती ही नहीं। वह सारी शक्ति अगर कर्म में लग जाये, तो इस जगत में प्रत्येक व्यक्ति अपूर्व आनंद को उपलब्ध हो। और अपूर्व विजय की यात्रा हो जाये जीवन में। सफलता ही सफलता है फिर।
मगर निन्यानवे प्रतिशत तो फल की चिंता में जाती है और एक प्रतिशत कर्म में लगती है। बीज तो तुम एक प्रतिशत बोते हो और निन्यानवे प्रतिशत तुम अपेक्षा करते हो फसल काटने की। फिर फसल नहीं काट पाते तो कौन जिम्मेदार है?
तुम कोई अच्छा काम करते हो तो राजा तुम्हें पुरस्कार देता है। तुम कोई बुरा काम करते हो तो राजा तुम्हें दंड देता है। राजा के बिना कौन पुरस्कार देगा? कौन दंड देगा? मजिस्ट्रेट के बना कौन तुम्हें सजा देगा? कौन तुम्हें सजा से छुटकारा देगा? कृत्य अपने आप में निर्णायक नहीं हो सकता, कृत्य का निर्णय करने के पीछे कोई चेतना चाहिये। यह तो बड़ी साधारण व्याख्या हुई। इस व्याख्या में भूलें भी बहुत है। क्योंकि जिन्होंने कर्म के सिद्धांत को माना है, वे इतनी आसानी से राजी नहीं हो जायेंगे। वे कहते है, हम आग में हाथ डालते है, कौन हमारा हाथ जलाता है? आग में हाथ डालना, यह हमारा कृत्य और हाथ का जल जाना, यह उस कृत्य का फल। न कोई राजा है बीच में और न कोई मजिस्ट्रेट है बीच में। आग में हाथ डाला कि जलोगे। कर्म ही अपना फल ले जायेगा। तो ऐसे उदाहरण दिये जा सकते है जहाँ कर्म अपना फल खुद ही ले आता है। तुमने जहर पीया, मरोगे। अगर जहर पीने से मृत्यु हो जाती और आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, तो कर्म का सिद्धांत मानने वाले लोग कहते है, इसी तरह प्रेम करने से प्रेम मिलता है और घृणा करने से घृणा मिलती है।
मैं यही अर्थ करता हूँ, जिन्होंने देखा, मैं भी देख रहा हूँ, तुम भी देख सकते हो, जिनकी भीतर की आँख खुलती है और जो यह देखना शुरू करते है कि जगत जड़ नहीं है, जड़ता सिर्फ हमारी धारणा है, हर जड़ता में चैतन्य सुप्त पड़ा है, और सारा जगत चैतन्य से आप्लावित है, उसकी बाढ़ आई हुई है, जिन्होंने ऐसा देखा है वे कहते है कि हमारे कर्मो का जो फल मिलता है वह कर्मो के कारण नहीं मिलता, न हमारे कारण मिलता है, वरन इस चैतन्य के सागर के कारण मिलता है जो हम सब तरफ से घिरे हुये है।
तुम भी खोलो आँख और देखो। यह दिखाई पड़ सकता है। यह कोई सिद्धांत मात्र नहीं है। यह कोई दर्शनशास्त्र मात्र नहीं है। भक्तों को दर्शनशास्त्र में बहुत जिज्ञासा नहीं रही। उनका सारा रस भाव में है, विचार के जगत में जी रहे है, उनके लिये कहे गये सूत्र हैं। समझ में आ जायेंगे तो वे भी भाव की यात्रा पर निकलेंगे।
विलोम रीति से लय हुआ करता है।
यह सूत्र बड़ा अपूर्व है। इसे खूब गहरे हृदय में बिठा लेना। इस सूत्र का अर्थ समझो।
दो क्रम शास्त्रों में कहे गये है-अनुलोम और विलोम। अनुलोम का अर्थ होता है- विस्तार। जैसे बीज से वृक्ष होता है। बीज तो बिलकुल छोटा है, जरा सा है। फिर टूटता है, पल्लव फूटते है, अंकुर निकलते है, शाखाएं फैलती है, बड़ा वृक्ष खड़ा हो जाता है- सैकड़ो लोग उसकी छाया में बैठ सके, हजारों पक्षी उस पर सांझ बसेरा करे, राहगीर अपनी बैलगाड़ियां खोल दें, विश्राम करे- बड़ा हो जाता है। कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस छोटे से बीज में इतना बड़ा वृक्ष छिपा होगा। इस प्रक्रिया का नाम- अनुलोम, विकास, फैलाव, विस्तार।
दूसरा क्रम कहलाता है-विलोम। विलोम का अर्थ होता है- वृक्ष फिर बीज बन गया। फिर वृक्ष ने बीज पैदा कर दिये। संकोच, सिकुड़ाव। अगर अनुलोम को हम कहें फैलाव, विस्तार तो विलोम को कहना होगा सिकुड़ाव, संक्षिप्त हो जाना। और यही लयबद्धता है।
बीज वृक्ष बनता है, वृक्ष फिर बीज बन जाते है। परमात्मा संसार बनता है, संसार फिर परमात्मा बन जाता है। संसार परमात्मा का विस्तार है। परमात्मा सूक्ष्म बीज की भांति है और संसार उसका फैलाव है। ब्रह्म शब्द का अर्थ ही होता है- फैलता है जो, विस्तीर्ण होता है जो। ब्रह्म और ब्रह्मांड का एक ही ऊर्जा की दो दशाएं है। ब्रह्म, बीज और ब्रह्मांड, वृक्ष।
दुनिया के किसी धर्म ने विलोम-क्रम का विचार नहीं किया। इसलिये दुनिया का कोई धर्म पूरा धर्म नहीं कहा जा सकता। अनुलोम-क्रम का विचार तो बहुत हुआ है- ईसाई, मुसलमान, यहूदी, सभी अनुलोम-क्रम की बात कहते हैं कि परमात्मा ने सृष्टि की, लेकिन प्रलय की बात नहीं, कि परमात्मा सृष्टि को मिटा भी देगा। सृजन हुआ तो अंत भी होगा। जन्म हुआ तो मृत्यु भी होगी। जो चीज फैली, वह कब तक फैलेगी?
अभी वैज्ञानिक कहते है कि जगत फैलता जा रहा है। लेकिन कब तक फैलेगा? तुम गुब्बारे में हवा भरते हो, वह फैलता जाता है, फैलता जाता है, फैलता जाता है। लेकिन कब तक? एक सीमा आयेगी, उसके आगे फैलाओगे, गुब्बारा फूट जायेगा- फिर सिकुड़ जायेगा। यह विस्तार फैलता जा रहा है, फैलता जा रहा है। इसकी एक सीमा है। उस सीमा के बाद सिकुड़ाव शुरू होता है।
बच्चा जवान होता है, फिर जवानी के बाद बुढ़ापा आता है। फिर सिकुड़ाव होने लगा। बच्चा आया था किसी अज्ञात लोक से एक दिन, जन्मा था। फिर एक दिन मृत्यु घटेगी, फिर अज्ञात लोक में प्रवेश कर जायेगा। पैंतीस वर्ष की उम्र तक अनुलोम और पैंतीस वर्ष के बाद विलोम।
जिन लोगों ने जीवन को सिर्फ एक ही आधार पर खड़ा किया है- अनुलोम- वे पागल है, वे विक्षिप्त है। यही आज के जगत की बड़ी से बड़ी भूल है, आधुनिक मनुष्य की बड़ी से बड़ी भूल है, उसका सारा जीवन एक ही क्रम पर बना है- अनुलोम-क्रम। फैलते जाओ-और धन, और पद, और प्रतिष्ठा, और मकान, और, और…..। यह जो और है, यह अनुलोम-क्रम है। यह संसार।
संन्यास कब? संन्यास की धारणा ही खो गई है। संन्यास की बात ही घबड़ाती है। संन्यास का हम विचार ही नहीं करते। तो बीज वृक्ष हो गया, फिर बीज कब होगा? संन्यास विलोम-क्रम है।
अनुलोम कहता हैः यह भी मेरा हो जाये, वह भी मेरा हो जाये- सब मेरा हो जाये। विलोम कहता हैः न यह मेरा है, न वह मेरा है- कुछ भी मेरा नहीं। सिकुड़ता है, शांत होता है।
अनुलोम के साथ अशांति स्वाभाविक है। छीना-झपटी होगी, प्रतिस्पर्धा होगी, मार-काट होगी, युद्ध होगा। विलोम के साथ शांति होती चली जाती है। व्यक्ति अपने भीतर बैठने लगा, अपने भीतर ठहरने लगा। बीज में रूकने लगा।
संसार को मैं कहता हूँ-अनुलोम, संन्यास को कहता हूँ-विलोम। और जिसने दोनों साध लिये, वही पूरा मनुष्य है। जो एक को ही साधता रहा, वह पागल है। और ध्यान रखना, अगर विस्तार नहीं साधा, तो संकोच कैसे साधोगे? अगर संसार नहीं साधा, तो संन्यास कैसे साधोगे?
इसलिये मैं तुमसे कहता हूँः संसार से भागो मत। संसार को साधते रहो-फैलने दो! लेकिन जब तुम्हारी समझ में बात आ जाये कि अब फैलना काफी हो गया, अब फैलने में कोई अर्थ न रहा, तब अपने भीतर से फैलने का भाव चले जाने देना। रहना यहीं! जाओगे कहां? जहां जाओ वहीं संसार है। नये-नये ढंग से संसार फैलने लगता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किस ढंग से फैलाओगे। जब तक और की आकांक्षा है, संसार फैलता रहेगा। पहाड़ पर बैठ जाओगे एकांत में जाकर, तो मन कहेगा- और लगे ध्यान, और लगे समाधि, और हो पुण्य, और हो त्याग, और हो उपवास। मन कहेगा कि और मिले स्वर्ग, और मिले आनंद। मगर ‘और’ तो जारी रहा! कुछ फर्क न पड़ा। जिस दिन और से तुम ऊब जाते हो, उस दिन संन्यास! कहीं जाने की जरूरत नहीं। और से परिपूर्ण रूप से ऊब जाने में सन्यास का जन्म हो जाता है। फिर तुम जहाँ हो वहीं रहते हो, सब चलता रहता है- संसार चलता ही रहेगा- लेकिन तुम्हारे भीतर संन्यास फलित हो जाता है।
अनुलोम का अर्थ हैः होऊ, बहुत होऊं। शास्त्रों में कथाएं हैं कि परमात्मा अकेला था और उसने सोचा कि मैं अनेक होऊं। फिर जब परमात्मा सोचने लगता हैः अब बहुत अनेक हो गया, अब मैं फिर एक होऊं- तो विलोम।
विलोम रीति से लय हुआ करता है। क्योंकि इसमें सारा संन्यास का सूत्र आ जाता है। तुम्हें ऊपर से इस सूत्र में कुछ दिखाई न पड़ेगा। सूत्र का अर्थ ही यह होता है कि उसमें बड़ी संक्षिप्त में बात कह दी गई है। जो समझेंगे, वही समझेंगे। जो समझ सकते है, वही समझ सकते है। इसलिये सूत्रों की व्याख्या करनी जरूरी होती है, अन्यथा सूत्र अपने आप में बिलकुल बेबूझ होते है।
जैसे, मैं होऊं, और होऊं, ज्यादा होता जाऊं, धन मेरे पास बहुत हो, राज्य मेरे पास बड़ा हो, प्रतिष्ठा मेरी फैले-यश, नाम, कीर्ति- यह संसार। फिर एक दिन यह दिखाई पड़ता है- यह सब तो व्यर्थ है। न कीर्ति में कुछ सार है- पानी के बबूले इकट्ठे कर रहा हूँ। न नाम में कोई अर्थ है- सब यहीं का यहीं पड़ा रह जायेगा। साथ में कुछ भी न ले जा सकूंगा। मौत आयेगी, तो मैं क्या साथ ले जा सकूंगा? जिसको तुम मौत में साथ ले जा सकोगे, बस संन्यासी उतना ही हो जाता है, उसी का नाम सन्यास है। मरने के पहले मर जाने का नाम संन्यास है।
मरते सभी है, धन्यभागी है वे जो मरने के पहले मर जाते है। जो समझ लेते है कि जो अपना नहीं है वही मौत छीन लेगी। जो अपना है उसे कोई भी छीन सकता है। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि! मुझे शस्त्र नहीं छेद सकते। नैनं दहति पावकः! न मुझे आग जला सकती है। तो मैं यह कौन हूँ जिसको आग नहीं जला सकती और जिसे शस्त्र नहीं छेद सकते? यह अमृतधर्मा मैं कौन हूँ? बस उतना ही मैं हूँ। उससे ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है।
तो संसार का अर्थ होता हैः यही भी। और सन्यास का अर्थ होता हैः नेति-नेति, न यह, न वह। छोड़ता जाता है भाव, और धीरे-धीरे वहीं आ जाता है जहां शाश्वत अमृत तुम्हारे भीतर बीज की तरह पड़ा है। जहाँ से सब विकास हुआ था। वापस अपने घर लौट आना हो जाता है।
यह दशा ही मोक्ष है। इस दशा का नाम ही निर्वाण है।
परम पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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