दैत्यों की ऐसी ललकार सुनकर भगवान विष्णु ने कहा, तुम दो हो और मैं एक ही हूँ युद्ध की यही नीति है कि, यदि तुम को बार-बार विश्राम करने का अवसर मिल रहा है तो, मुझे भी विश्राम करने का अवसर मिलना चाहिए, बलवान पुरुष थके हारे हुये और कमजोर से कभी युद्ध नहीं करते इससे उनकी संसार में अपकीर्ति होती है। इसीलिये तुम मुझे थोड़ा विश्राम कर लेने दो जब मैं पूरी तरह फिर से युद्ध करने के लिये तैयार हो जाऊं तब तुम्हारी यह युद्ध की अभिलाषा अवश्य पूर्ण कर दूंगा। फिर से युद्ध होगा यह जानकर दोनों दैत्य युद्धभूमि से कुछ दूर जाकर खड़े हो गये। जब भगवान विष्णु ने देखा कि दोनों दैत्य युद्ध भूमि से दूर चले गए हैं तो वे ध्यान में लग गये। भगवान विष्णु ने यह साम निति यानि कि दैत्यों को समझाने का प्रयोग करते हुये सोचा कि अभी कुछ देर आराम करना ही उचित है। इस समय उन्होंने ध्यान लगाया।
ध्यान में उन्होंने यह जाना की देवी आदिशक्ति ने इन दोनों दैत्यों को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया है। इसीलिये यह दोनों मुझ से परास्त नहीं हो रहे हैं। तब विष्णु ने सोचा इस संसार में तो बीमार और अति दुःखी इंसान भी मरना नहीं चाहता, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो वह जीना ही चाहता है। जब लोग कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपनी मृत्यु नहीं चाहते तो यह दो दैत्य जो अति बलवान और हष्ट पुष्ट है, यह अपनी स्वेच्छा से मेरे हाथों क्यों मरेंगे। अब मुझे क्या करना चाहिये ऐसा कौन सा उपाय है जिससे इन दोनों की मृत्यु हो, ऐसा सोचकर भगवान विष्णु इस निर्णय पर पहुँचे कि मुझे आदिशक्ति के शरण में ही जाना चाहिये। क्योंकि इस समय वही इन दोनों को मारने में मेरी सहायता करेंगी। तब उन्होंने आद्या शक्ति जगदम्बा का ध्यान किया।
विष्णु जी के स्मरण करते ही देवी योगनिद्रा उनके सामने उपस्थित हो गई और उनसे कहा विष्णु तुम फिर से इन दोनों दैत्यों को युद्ध के लिये ललकारो। मैं अपनी माया से इन दोनों को ठग लूंगी, तब तुम इन दोनों को मार देना। देवी की बात सुनकर विष्णु फिर से युद्ध भूमि में गये, उन्हें युद्ध भूमि में देखकर मधु और कैटभ को बड़ा हर्ष हुआ और फिर से युद्ध आरंभ हो गया। जब भगवान विष्णु फिर से थकने लगे तो उन्होंने निराश होकर देवी की ओर देखा और मन ही मन उनसे सहायता मांगी । तब देवी ने अपनी तिरछी नजरों से इन दोनों दैत्यों को मोहित कर दिया। देवी को देखकर यह दोनों दैत्य मोह में पड़ गए। जब विष्णु जी ने देखा कि दोनों मोह में पड़ गये है, भगवान विष्णु ने उनसे कहा मधु और कैटभ मैं तुम्हारे युद्ध कौशल से अति प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम्हें जिस किसी वरदान की अभिलाषा हो वह मुझ से मांग लो। भगवान की यह बातें सुनकर वह दो अभिमानी दैत्य देवी योगमाया के माया में आकर कहने लगे, विष्णु तुम खुद हम दोनों को नहीं मार पा रहे हो और कितने थके हारे हो, तुम क्या हमें वर दोगे हम स्वयं ही तुम्हें वरदान देना चाहते हैं, तुम्हें जो इच्छा हो वह वर हम से मांग लो।
दैत्यों के यूँ कहने पर, भगवान विष्णु ने उन दोनों से कहा, मधु और कैटभ यदि तुम मुझे वर देना चाहते हो तो अभी यह वर दो कि तुम दोनों मेरे हाथों से मारे जाओ। विष्णु जी की यह बातें सुनकर उन दोनों दैत्यों को यह मालूम पड़ गया कि वे दोनों ठगे गये । उन्होंने विष्णु से कहा कि तुम सत्यव्रत हो, कभी झूठ नहीं कहते। अभी तुमने कहा था कि तुम हम दोनों को वर देना चाहते हो, इसीलिए हमारी यही इच्छा है कि तुम हमें उस स्थान पर मारो जहाँ पर जल ना हो। तब विष्णु ने तथास्तु कहकर अपना विराट रूप धारण कर लिया और अति विकराल शरीर वाले उन दोनों दैत्यों के सिर अपनी जांघ पर रख कर, सुदर्शन चक्र से उन दोनों के सर को धड़ से अलग कर दिया । इस तरह इन दोनों दैत्य मधु और कैटभ का भगवान विष्णु ने देवी योग निद्रा की सहायता से अंत किया था।
मधु और कैटभ के शरीर से ही यह पृथ्वी बनी है, इसीलिये इसे मेदिनी कहा जाता है और इसी कारणवश मिट्टी नहीं खाई जाती। देवी जगदम्बा की आरती में भी एक पंक्ति आती है, जिसमें कहा जाता है –
मधु कैटभ दोऊ मारे, सुर भयहीन करे………,
देवी शक्ति की सहायता से ही भगवान विष्णु दोनों दैत्यों का अंत कर पाये इसलिये देवी को ही दोनों दैत्यों का नाश करने वाली कहा जाता है।
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