एक माह हो गया था मंत्र जप करते-करते, नित्य इसी शमशान की भूमि में हड्डी के टुकड़ों और मांस के लोथड़ों के बीच में जीवन व्यतीत करते, चिता पर भोजन पकाकर खाते और नित्य रात्रि में एक घंटे किसी धधकती चिता के पास त्रटक करते हुए। मंत्र जप करने के उपरान्त अपनी उसी साधना भूमि पर जाकर आगे का क्रम अपनाते— झुंझला उठा जयपाल— या तो अब मैं नहीं या तो वीर वैताल नहीं— देखूं कितना सामर्थ्य है उसमें, क्या होगा? अधिक से अधिक यह देह ही तो नष्ट हो जायेगी, कोई बात नहीं। नई देह से फिर साधना करूंगा, लेकिन यूं गिड़गिडा कर ओर रो-झींक कर साधना करने का कोई अर्थ नहीं और वह भी वीर वैताल जैसी साधना जो अपने आप में पूर्ण पौरूष साधना है— पूर्ण पौरूष प्राप्त कर लेने की—नहीं प्राप्त करना मुझे छोटे-मोटे बिम्ब और नहीं प्राप्त करनी मुझे मामूली सी अनुभूतियां न लेनी है कोई टुच्ची सिद्धियां। साधना करनी है तो पूर्णता से करनी है। चाहे वीर वैताल की हो या भैरव की। यदि मैंने कहा और बावन भैरव नृत्य करने लगे तो मेरे साधक होने का अर्थ ही क्या? धिक्कार है मेरे जीवन पर और अपमान है मेरे गुरू निखिलेश्वरानंद जी का— यही सोचते हुये तीन दिन पूर्व जाकर मिला था। पूज्य गुरूदेव से— पूज्य गुरूदेव का वह तेजस्वी और संन्यस्त स्वरूप, जब ऐसी साधनायें उनके आस-पास ही उनके चरणों में बैठी रहती थीं— अब तो इस गृहस्थ जीवन में ऐसे दम-खम से भरे साधक रहे ही कहां? जो वीर-वैताल जैसे प्रचंड़ शक्ति पुंज को अपने वशीभूत कर सके, साधक उसको अपनी देह में उतार सके और इसी से गोपनीय हो गई यह साधना।
‘व्यर्थ नहीं जाती है कोई भी साधना— एक-एक क्षण की साधना का हिसाब है मेरे पास। विश्वास न हो तो पूछ कर देख लें मुझमें, मैं ही तैयार कर रहा था तुझे इस साधना का अद्वितीय और सिद्ध साधक बना देने के लिए और कोई भी मंत्र जप व्यर्थ नहीं गया है। एक-एक अणु को चैतन्य करने की, उसे शक्तिमान बनाने की जब वीर वैताल की साक्षात् सिद्धि प्राप्त होगी तुझे, एक युग के बाद पुनः घटना घटेगी इस धरा पर।
आद्या शंकराचार्य के बाद कोई भी सिद्ध साधक नहीं हो सका है भारत में इसका—। पूज्य गुरूदेव की वाणी से जयपाल के दुःखी मन में कुछ तो राहत पहुँची लेकिन अभी तीन दिन दूर थे पूर्णता प्राप्त होने में। तीन दिन अर्थात 72 घंटे और साधना में निमग्न साधक को, सिद्धि को झपट लेने के लिए आतुर साधक को तो एक-एक पल भारी होता हैं— पिंजरे में बंद सिंह जैसी दशा होती है। उसकी कि पिंजरा खुले और वह झपट ले अपने लक्ष्य को वीर वैताल हो या ब्रह्मराक्षस— साधक की दुर्दान्त गति के आगे ये सब भयभीत हिरण जैसे ही तो छोटे-मोटे भक्ष्य है।
यौवन का उन्माद और विजय की आकांक्षा से एक सुरूर तैर गया जयपाल की मस्ती भरी आंखों में कुछ और विद्युत सी दौड़ गई उसके सुदृढ और विशाल हस्ति के समान भीमकाय शरीर में— कोई बात नहीं बस तीन ही दिन और एक अदभुत सिद्धि मेरे हाथ होगी। शक्ति का साकार पुंज वीर वैताल मेरी मुट्ठी में बंद होगा— राई, सरसों और पता नहीं किन-किन जड़ी-बूटियों का ढेर चारों तरफ लगा हुआ था जयपाल के, एक विचित्र सी गंध व्याप्त हो गई थी सारे वातावरण में, गंध श्मशान की या जलती हुई लाशों की या फिर अद्भुत वन औषधियों की— आज आसमान भी काला न होकर रक्तवार्णी हो गया था— यद्यपि कहने को रात का तीसरा प्रहार था, बस कुछ पल ही और कुछ आहुतियां ही शेष— दान नहीं, भिक्षा नहीं, तंत्र की एक क्रिया पूर्ण होने की घड़ी और कोई याचना नहीं, कोई प्रार्थना नहीं, वीर वैताल का प्रकट होना दासत्व स्वीकार करना ही था— मंद चलती हवा एक क्षण के लिए रूकी, ज्यों प्रकृति की ही श्वांस थम गई हो, अचानक एक ओर से आंधी का प्रचण्ड झोंका आया, एक बुगला बनकर उड़ता हुआ, अपने साथ आकाश में उड़ा ले जाने के लिए— अन्तिम पांच आहुतियां शेष, घबरा गया जयपाल!
लेकिन आत्म संयम नहीं खोया और उस विशिष्ट रक्षामंत्र का उच्चारण कर उछाल दिये सरसों के दाने उसी दिशा में— थम गई एक प्रचण्डता, लेकिन जाते-जाते भी उस विशाल और बूढे़ वट वृक्ष को जमीन में मटियामेट करते हुए कोलाहल सा मच गया चारों ओर सैकडों पक्षियों के साथ-साथ, वही तो आश्रय स्थली पता नहीं किन-किन भटकती आत्माओं की।
आक्रोश प्रकट हो रहा था, भले ही सूक्ष्म रूप में कि कशमशा उठा है वीर वैताल भी एक अनहोनी को घटित होते हुये देखकर— एक अदना सा साधक आज मुझे अपने वश में करने जा रहा है, लेकिन वह अदना भी कहां, जो उसे बांध लेने को उद्धत हो गया हो वह अदना भी कहां? दूर बहती नदी में छपछपाहट कुछ और तेज हो गई थी पता नहीं हवा के प्रभाव से या अघटित रही एक घटना को देखने के लिए—
अन्तिम आहुति— सारा वातावरण एक दम से कोलाहल पूर्ण हो उठा सैकड़ों प्रकार की चीखें हलचल और भगदड़, ज्यों कोई बहुत दुर्घटना हो गई हो और तेज धमाका— ऐसा कि पृथ्वी फट ही जायेगी— मन ही मन मुस्कराया जयपाल। अब इन सबसें क्या होना हैं— जो कुछ सम्पन्न करना था मुझे वह तो मैनें कर ही दिया, अब तो बाजी मेरे हाथ में हैं। लाख भयभीत कर ले कोई भी मुझे लेकिन इन सबके स्वामी वीर वैताल को तो आज मैंने अपने वश में कर ही लिया है। भला असफल कैसे हो सकती थी मेरे गुरू की दी अनुपम दीक्षा और उनके द्वारा बतायी गयी यह साधना— और सचमुच यही क्षण था, ऐसा ही तो था, न कोई लम्बी चौड़ी आकृति, न कोई बहुत विशालकाय शरीर, एक सामान्य सा मानव देखने में प्रायः कृशकाय ताम्र वर्णी लेकिन चेहरे पर बिखरी हुई ऐसी वीभत्सता जो कि देखते ही न बने। अत्यन्त घृणित और भयास्पद चेहरा आँखे मानों गड्ढों में धंसी जा रही हो और उस क्रूरता से भरी आँखों में अग्नि की ज्वाला प्रकट हो रही थी, लेकिन दोनों हाथ अभ्यर्थना में जुड़े हुए— एक प्रकार से अपनी पराजय स्वीकार करते हुये, एक ओर रखी मदिरा की बोतल उछाल दी जयपाल ने उसकी ओर साधना की पूर्णता और उसकी अभ्यर्थना को स्वीकार करने के लिये— तंत्र की एक ऐसी क्रिया जिसका रहस्य तो केवल परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के पास ही सुरक्षित बचा था और जिसे उन्होंने प्राप्त किया था अपने साधक-जीवन में आद्य शंकराचार्य की आत्मा को अपने योग बल से प्रत्यक्ष कर— रोम-रोम हर्षित हो रहा था, आज मैनें एक अप्रतिम साधना प्रत्यक्ष कर स्वयं तो एक सिद्धि प्राप्त की ही है, एक दुर्लभ शक्ति को हस्तगत किया ही है, साथ ही आज मैंनें अपने गुरू के गौरव को भी प्रवर्द्धित किया है।
वैताल साधना मूलतः तांत्रेक्त साधना होने के उपरांत भी यदि इस ढंग से की जाये तो सौम्य साधना है। किसी भी शनिवार को यह साधना सम्पन्न कर व्यक्ति अदृश्य रूप में एक रक्षक प्राप्त कर लेता है कि फिर उसे जीवन में किसी प्रकार का भय रह ही नहीं जाता। पूर्ण वैताल सिद्धि के उपरांत साधक ऐसे कार्य सम्पन्न कर सकता है, जो कि उसके लिये पूर्व में अंसभव थे साथ ही अचरज भरे होते है, वैताल के कंधों पर बैठ कर हजारों मील की दूरी पलक झपकते ही पार कर लेना, भविष्य के बारे में कोई भी ज्ञान प्राप्त कर लेना या धन या भोजन की निरन्तर प्राप्ति बायें हाथ का खेल होता है। वास्तव में प्रत्येक गुरू अपने शिष्य को आंशिक रूप में ही सही, वैताल सिद्धि अवश्य प्रदान करते है
वैताल साधना के लिए आवश्यक है कि साधक हर हाल में वैताल दीक्षा प्राप्त कर ले क्योंकि बिना इस दीक्षा को प्राप्त किये साधक के अंदर वह साहस और बल आ ही नहीं सकता। वैताल सौम्य स्वरूप में ही उपस्थित होता है लेकिन उसका स्वरूप विकराल और भयानक है। इसे कमजोर दिल वाले साधकों और अशक्त व्यक्तियों को वैताल साधना करने से पूर्व पूज्य गुरूदेव की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक है। इस प्रयोग में न तो कोई पूजा और न कोई विशेष सामग्री की आवश्यकता होती है, तांत्रिक ग्रथों के अनुसार इस प्रयोग के लिए तीन उपकरणों की जरूरत होती है। 1 सिद्धि प्रदायक वैताल यंत्र, 2 सिद्धिदायक वैताल माला, 3 भगवान शिव अथवा महाकाली जीवट।
इसके अलावा साधक को अन्य किसी प्रकार की सामग्री की जरूरत नहीं होती। यह साधना रात्रि को सम्पन्न की जाती हैं परन्तु साधक भयभीत न हो और न विचलित हों, वे निश्चित रूप इस साधना को सम्पन्न कर सकते है। साधक रात्रि को 10:00 बजे के बाद स्नान कर लें और स्नान करने के बाद अन्य किसी पात्र या वस्त्र को छुये नहीं, पहले से ही धोकर सुखाई हुई काली धोती को पहिन कर काले आसन पर दक्षिण की ओर मुंह कर घर के किसी कोने में या एकांत स्थान में बैठ जाये।
फिर सामने एक लोहे के पात्र या स्टील की थाली में वैताल यंत्र को स्थापित कर दें जो की मंत्र सिद्ध एवं प्राणश्चेतना युक्त हो। इसके पीछे भगवान शिव अथवा महाकाली जीवट को स्थापित कर दें, फिर साधक हाथ जोड़ कर वैताल का ध्यान करें-
ध्यान के उपरांत साधक वैताल माला से मंत्र की 21 माला मंत्र जप सम्पन्न करे। यह मंत्र छोटा होते हुए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है और मुण्ड़ माल तंत्र में इस मंत्र की अत्यन्त प्रशंसा की गयी है। इस मंत्र को पूर्ण चैतन्य वीर वैताल शक्तिपात दीक्षा प्राप्त कर धारण करने से मंत्र जप के साथ-साथ गुरू की शक्ति भी वैताल सिद्धि में सहयोग करती है।
जब मंत्र जप पूर्ण होता है अथवा मंत्र जप सम्पन्न होते-होते अत्यन्त सौम्य स्वरूप में वैताल स्वयं हाथ जोड़ कर कमरे में प्रगट होता है। जब पहले से लाकर रखे गए बेसन के चार लड्डूओं का भोग वैताल को लगा दें और अपने हाथ में जो वैताल माला है वह उसके गले में पहना दें, ऐसा करने पर वैताल वचन दे देता है कि जब तुम उपरोक्त मंत्र 11 बार उच्चारण करोंगे, तब में अदृश्य रूप में उपस्थित होऊंगा और आप जो भी आज्ञा देंगे उसे पूरा करूंगा, ऐसा कहकर वैताल माला को वहीं छोड़ कर अदृश्य हो जाता हैं।
दूसरे दिन साधक प्रातः काल उठकर स्नान आदि से निवृत होकर वैताल यंत्र, वैताल माला और वह भोग किसी मन्दिर में रख दें अथवा नदी, तालाब या कुंएं में डाल दें। महाकाली या भगवान शिव जीवट को पूजा स्थान में स्थापित कर दें।
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