ज्योतिष अपने-आप में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं गुढ़ विषय है। सृष्टि के प्रारम्भ में ही ज्योतिष का प्रचलन हो गया था और तब से लगाकर आज तक मानव-जाति के उत्थान में ज्योतिष का सक्रिय सहयोग रहा है। मानव-जाति ने ज्यों-ज्यों अपना विकास किया है, उसके पीछे ज्योतिष का हाथ रहा है। आज मनुष्य उन्नति के उस स्थान पर जा खड़ा हुआ है, जहां से वह नक्षत्रें का भली प्रकार से अध्ययन करने में समर्थ है। इसके साथ ही आज के मानव ने ज्योतिष के माध्यम से उन रहस्यों को भी खोज निकाला है, जो अभी तक उसके लिए अज्ञात थे।
ज्योतिष-नियमों के अनुसार ज्योतिष के पांच अंग माने गये हैं। सिद्धान्त, होरा, संहिता, प्रश्न और शकुन शास्त्र। यदि इन पांचों अंगो का विश्लेषण किया जाये, तो यह ज्ञात हो जाता है कि आज के विज्ञान में जितने भी तत्व हैं, उन सभी का समावेश इन पांच अंगो के अन्तर्गत हो गया है।
प्रारम्भ में ज्योतिष का उपयोग केवल नक्षत्रें का अध्ययन मात्र ही था, परन्तु जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, वैसे-वैसे इसमें नये-नये सिद्धान्त और तथ्यों का समावेश होता गया। आज ज्योतिष अपने-आप में एक सम्पूर्ण विज्ञान है, जिसके अन्तर्गत मनोविज्ञान, जीव-विज्ञान, पदार्थ-विज्ञान, रसायन-विज्ञान और चिकित्सा-विज्ञान आदि भी आते हैं।
सर्वप्रथम जब भारतीय महर्षियों की दृष्टि आकाश-मण्डल पर पड़ी और उन्होंने चन्द्रमा, तारों व ग्रह आदि को सूक्ष्मतापूर्वक परखना प्रारम्भ किया, तो भयभीत होकर उन्होंने इन्हें देवताओं का रूप दे दिया। वेदों में कई स्थानों पर ग्रहों को तथा चन्द्र-सूर्य को देवता का रूप दिया गया है और उसी प्रकार से इनकी स्तुति भी की गयी है, परन्तु ज्यों-ज्यों महर्षियों की दृष्टि स्पष्ट होती गयी, उन्हें लगा की इनका भली-भांति अध्ययन करना आवश्यक है, क्योंकि इनके अध्ययन से ही मानव के और सृष्टि के मूल रहस्यों को समझा जा सकेगा। धीरे-धीरे उन्होंने अनुभव किया कि इन नक्षत्रें और ग्रहों का सीधा प्रभाव मानव पर पड़ता है और इनके प्रभाव के अनुकूल ही मानव- जीवन संचालित होता है। यही नहीं, उन्होंने यह भी अनुभव किया कि मानव पर इन ग्रहों का प्रभाव व्यक्तिगत रूप से और सार्वजनिक रूप से भी पड़ता है, इसलिये मानव के सुख-दुख, हानि-लाभ, उन्नति-अवनति आदि पर इन ग्रहों का प्रभाव निश्चित हुआ। इसी प्रकार भूकम्प, ज्वालामुखी, महामारी आदि के कारण भी ग्रह-नक्षत्र ही हैं, जिनके परस्पर सम्बन्धों से इस प्रकार के प्राकृतिक उपद्रव होते हैं।
अध्ययन प्रारम्भ किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने इन ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव का भी विवेचन करना शुरू किया। इस प्रकार ग्रहों के अध्ययन को ‘गणित पक्ष’ और इनके फलस्वरूप होने वाले प्रभाव को ‘फलित पक्ष’ की संज्ञा दी गयी। इस प्रकार महर्षियों ने ज्योतिष की उपादेयता सिद्ध कर दी कि मानव-जीवन के छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े कार्य के पीछे इन ग्रह-नक्षत्रों का ही हाथ होता है। मुख्य रूप से ज्योतिष के आधार पांच अंग हैं और इन पांच अंगों पर ही ज्योतिष केन्द्रित है।
गणित के नियम तथा कालगणना, चन्द्रमा की गति और इसके अतिरिक्त ग्रह-गतियों का सूक्ष्म रूप से निरूपण, ग्रह-नक्षत्र की स्थिति तथा अक्षांश-रेखांश के आधार पर उनकी सही स्थिति ज्ञात करने को ‘सिद्धान्त’ का नाम दिया गया। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से ग्रहों का सही प्रकार से अध्ययन करना और उनकी गति को तथा स्थिति को स्पष्ट करना ही रहा। धीरे-धीरे इसमें सूक्ष्मता आती गयी और ग्रहों की गति तथा उनकी विलोम गति का भली प्रकार से निरूपण करना सम्भव हो सका।
भारत की मूल विचारधारा अध्यात्म रही है और यदि सही रूप में देखा जाये, तो ज्योतिष एक प्रकार से अध्यात्म का ही अंग रहा है। फलस्वरूप, यह भारतीय जनमानस में प्रबल रूप से घुल-मिल गया है। भारतीय अध्यात्म का लक्ष्य एकमात्र अपनी आत्मा का विकास कर, उसे परमात्मा में विलीन कर देना है या अपनी आत्मा को परमात्मा के समतुल्य बना देना है। भारतीय चिन्तन इसी तथ्य या रहस्य को स्पष्ट करने में लगा रहा है कि ज्योतिष के माध्यम से किस प्रकार अध्यात्म शक्ति का विकास किया जा सके।
यदि हम पिछला इतिहास टटोलें, तो ज्ञात होगा कि जितने भी उच्चकोटि के दार्शनिक, महर्षि या विज्ञानवेत्ता हुए हैं, वे सभी किसी-न-किसी प्रकार से ज्योतिष से अवश्य सम्बन्धित रहे हैं। ज्योतिष को दूसरे शब्दों में ‘ज्योतिः शास्त्र’ भी कहा जाता है। इसका अर्थ यही है कि यह एक ऐसा विज्ञान है, जो प्रकाश देने में तथा आत्मा में छाये घनीभूत अन्धकार को दूर करने में समर्थ है। वास्तव में देखा जाये, तो जिस विज्ञान से हम अपने जीवन-मरण, सुख-दुःख आदि के रहस्यों को समझ सकें, वह निश्चय ही हमारे जीवन की उन्नति में सहायक होता है और यदि इस सम्बन्ध में हमें इसके माध्यम से प्रकाश मिलता है, तो निश्चय ही इसे ‘ज्योतिः शास्त्र’ कहा जा सकता है।
ज्योतिषशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र के अनुसार मानव-जीवन सीधा और सरल रूप में आगे नहीं बढ़ता, अपितु उसके जीवन में पग-पग पर बाधायें, कठिनाइयां और परेशानियां आती रहती हैं। फलस्वरूप इनके घात-प्रतिघातों से उसका जीवन आन्दोलित होता रहता है। दर्शन के अनुसार मानव-जीवन तभी गतिशील बना रह सकता है, जब उस पर आघात हो। यदि मानव-जीवन एकरस हो जायेगा, तो उसमें किसी प्रकार का आनन्द नहीं आ सकेगा। अतः यह आवश्यक है कि मनुष्य के जीवन में आशंकायें और विशेषतायें, सुख और दुःख, हानि और लाभ बराबर आते रहते हैं।
ऐसी स्थिति में मनुष्य प्रतिक्षण अपने जीवन के प्रति तथा अपने कार्यो और विचारों के प्रति सावधान बना रहता है, क्योंकि उसे प्रतिक्षण यह आशंका बनी रहती है कि यदि जरा-सी असावधानी से कोई निर्णय ले लिया गया, तो उसके परिणाम भी निकट भविष्य में ही भुगतने पड़ेंगे और तब उसका जीवन परेशानियों से भर जायेगा।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव-जीवन सुख-दुःख व घात-प्रतिघात आदि का बिन्दु है और इसका प्रत्येक क्षण रहस्यपूर्ण है। इन आशंकाओं को ज्योतिषशास्त्र ही स्पष्ट कर सकता है कि आने वाला समय किस प्रकार का है और कौन-से क्षण हमारे जीवन में परेशानी पैदा करने वाले हैं या किस प्रकार हम उन क्षणों को पहचान सकते हैं, जिनमें हमारे निर्णय गलत हो सकते हैं। अतः यदि हमे उन क्षणों का ज्ञान हो जाता है, तो हम उस अवधि में पूरी तरह से सावधान एवं सतर्क रहेंगे, ताकि आने वाला जीवन दुखदायी न हो सके। इसीलिये भारतीय ज्योतिष की मान्यता सर्वोपरि है। यह विज्ञान उन रहस्यों को स्पष्ट कर सकता है, जो भविष्य के गर्भ में है और उन रहस्यों को स्पष्ट कर, उनके समाधान के लिए मानव को प्रयत्नशील भी बनाये रख सकता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति देश, काल और पात्र से बंधा हुआ है। इन तीनों के समन्वय से ही किसी के जीवन को या उसके रहस्य को भली प्रकार समझा जा सकता है। ज्योतिष में काल-गणना मुख्य है, क्योंकि काल की छोटी-से-छोटी इकाई की गणना भी ज्योतिष के माध्यम से हुई है और इस गणना के आधार पर ही तथ्यों का निरूपण किया जा सकता है। तभी हम यह ज्ञात कर सकते हैं कि काल की अमुक इकाई व्यक्ति के लिए अनुकूल होगी या प्रतिकूल। इसीलिये ‘काल-पुरूष’ को ईश्वर के समकक्ष रखा गया है।
चिकित्साशास्त्र के अनुसार मानव-जीवन त्रिगुणात्मक प्रवृत्ति से बंधा हुआ है। तत्व, रज, तम- इन तीनों प्रवृत्तियों के इर्द-गिर्द ही मानव-जीवन घूमता है। जिस व्यक्ति में तमोगुण की प्रधानता होती है, वह व्यक्ति उसी प्रकार का बन जाता है। उसमें क्रोध की मात्र जरूरत से ज्यादा आ जाती है। अत्यधिक क्रोध का प्रभाव उसके शरीर पर तथा स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। फलस्वरूप रक्त-संचालन में तीव्रता आ जाने के कारण उसका शरीर कमजोर बना रहता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति में रजोगुण की प्रधानता होती है, वह राजसी स्वभाव वाला और आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने वाला होता है। यद्यपि आर्थिक दृष्टि से वह भले ही कमजोर हो, तथापि उसके स्वभाव में अयाशी व भोग-विलास आदि की प्रचुरता होती है।
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