अन्तर्द्वन्द् की इस स्थिति में खेत को अपने ही विरोधाभासी विचारों के हल द्वारा घात-प्रतिघात झेलने पड़ते है, और उसके मन की ऊपरी सतह टूटने लगती है, और फिर उसमें से कंकड़-पत्थर बाहर निकलते है, और जब भूमि ठीक हो जाती है, तो द्वन्द् समाप्त हो जाता है, तब गुरूदेव एक शुद्ध ज्ञान का, शुद्ध विचार का बीजारोपण करते हैं और फिर उस विचार के आनन्द में व्यक्ति निर्द्वन्द् हो जाता है, एक खुमारी में डूब जाता है और फिर वह जिस कार्य को हाथ में लेता है, उसे सफलता मिल जाती है।
द्वन्द् जीवन के चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, द्वन्द् का उत्पन्न होना तो एक प्रारम्भिक एवं आवश्यक अंग है जीवन में एक ठोस उपलब्धि होने के पहले। व्यक्ति के अन्दर जब द्वन्द् की स्थिति उत्पन्न होती है, तभी तो उसके अन्दर एक आलोड़न-विलोड़न सम्भव होता है, वह यह सोचने लगता है, कि यह ठीक है अथवा वह ठीक है, यह उचित है अथवा वह उचित है, सत्य क्या है, ऐसा हो पायेगा या नहीं हो पायेगा?
ऐसे ही अनेक विरोधाभासी विचारों के मध्य एक तनाव और क्लेश की दुःखद सी स्थिति निर्मित हो जाती है। व्यक्ति का मन खिन्न हो जाता है, वह निराश व हताश हो जाता है, उसका विश्वास डोल जाता है, ईश्वर के न्याय के प्रति उसका मन शंकित हो जाता है।
परन्तु यह द्वन्द् यदि किसी के जीवन में आया है, तो यह उसका सौभाग्य है, क्योंकि मंथन के बिना ज्ञान का उदय नहीं होता। जब तक दही को मथनी से पूरी तरह मथ नहीं दिया जाता तब तक श्वेत स्निग्ध मक्खन उसमें से नहीं निकल पाता। सद्गुरू भी यही क्रिया अपने शिष्यों के साथ करते है, अनेक प्रकार से उन्हें दुष्कर द्वन्द्वात्मक स्थितियों में डाल देते हैं, और तटस्थ होकर देखते रहते हैं, कि अब शिष्य क्या करता है, वो क्या निर्णय लेता है?
निर्द्वन्द् की स्थिति में ही आनन्द का रहस्य छिपा होता है, परन्तु निर्द्वन्द् के पहले द्वन्द् आता ही आता है, इस तथ्य को कभी विस्मृत नहीं करना चाहिये। प्रकृति में भी यह स्पष्ट देखने को मिलता है, कि जब बड़ी तेज आंधी या तूफान आता है, तो पेड़ों के पत्ते-टहनियां अस्त-व्यस्त हो जाते हैं परन्तु तूफान के बाद वातावरण में एक अनोखी शान्ति व्याप्त हो जाती है। जो इस द्वन्द् की स्थिति में विचलित नहीं होता है, जो इस तनाव को, इस विक्षेप को, इस क्षोप को जीवन का एक स्थायी घटना क्रम मात्र भर समझता है और दृढ़ बना रहता है, उसे ही तो आनन्द प्राप्त हो पाता है, उसे ही तो भौतिक जगत में भी सफलता प्राप्त हो पाती है।
द्वन्द् तो हर व्यक्ति के जीवन में आते है, परन्तु स्वयं के प्रयासों से इन द्वन्द्वों से उबरा जा सकता है। परस्पर विरोधी विचारों के कारण व्यक्ति किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है और अपना लक्ष्य प्रायः भूल जाता है, तभी वह दुःख पाता है। जो इस द्वन्द् में उलझता नहीं है, जो अटकता नहीं है, अपने लक्ष्य की ओर सचेत रहता है, वह निश्चय ही जीवन में कुछ प्राप्त कर भी पाता है।
इन सभी द्वन्द्वों का उपाय हमारे अन्दर ही छिपा होता है, उसके अन्दर का क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, झूठी आकांक्षओं आदि की निवृत्ति, उसके अन्दर ही छिपी होती है। यदि स्वयं प्रयास किया जाये, चेष्टा की जाये तो मन में शुभ विचारों का स्थापन हो सकता है। इन्हीं शुभ विचारों को और शक्तिशाली बनाकर हम अपने जीवन को उचित दिशा की ओर मोड़ सकते है, क्योंकि प्रबल विचार शक्ति ही समस्त क्रियाओं को प्रेरित करती है।
गीता में कहा गया है, कि ‘संशयात्मा विनश्यति’
तो इसका आशय ही यही है, कि संशय या संदेह करने से ही व्यक्ति टूट जाता है, बिखर जाता है। द्वन्द् की यह स्थिति तो अर्जुन के साथ भी थी। वह यह निर्णय नहीं कर पा रहा था, कि कैसे उन बन्धु-बान्धवों पर शस्त्र उठाए, जिनके साथ उसने जीवन बिताया है। द्वन्द् हुआ और तभी भगवान कृष्ण ने अपना विराट स्वरूप दिखाकर संशय का निवारण किया, ज्ञान दिया प्रश्न होगा तभी तो उत्तर भी प्राप्त होगा, बिना द्वन्द् के ज्ञान का उदय सम्भव भी कैसे है?
होगा या नहीं होगा, कर पाऊंगा या नहीं कर पाऊंगा जैसी स्थिति व्यक्ति को अन्दर तक तोड़ देती है, परन्तु शायद ये बात अनुभव सभी ने की होगी, कि ऐसी स्थितियों में ही व्यक्ति बड़ी आतुरता से ईश्वर को याद करता है, सद्गुरू को याद करता है और जब उसके कदम गुरू चरणों की ओर बढ़ते है, तब उसे आनन्द का अथाह सागर लहराता हुआ मिल जाता है और वह अपने द्वन्द् से विमुक्त होता हुआ निश्चिन्त हो जाता है, वह यह समझ जाता है, कि उसकी प्रत्येक क्रिया में गुरूदेव सहायक है। फिर भी यदि कहीं कोई तनाव है, कोई द्वन्द् है, तो अवश्य ही उसके अन्दर ही कोई कंकड़-पत्थर अभी बाकी है, जिन्हें निकालने के लिये गुरूदेव उसके जीवन रूपी खेत की जुताई कर रहे है। विषम परिस्थितियों में प्रायः मनुष्य विचलित हो जाता है, परन्तु यदि सूक्ष्मता से देखा जाये, तो हर दुःख के बाद सुख आता ही है, रात के बाद पुनः फिर रात आती नहीं, इसी बात को यदि ध्यान में रखेंगे तो, फिर यह मानसिक तनाव की जो स्थिति पैदा होती है, वह एक अस्थायी (अल्प कालिक) ही प्रतीत होगी। इसके विपरित द्वन्द् की इन घडि़यों में यदि व्यक्ति मन में ठान ले कि मुझे तो विजित होना ही है, तो उसके अन्दर की सुप्त शक्तियां उसे इतनी अधिक ऊर्जा प्रदान कर देती है, कि वह सभी बाधाओं, सभी समस्याओं से निबटते हुए विजय श्री को प्राप्त करता ही है।
इतिहास साक्षी है कि जितने भी महान व्यक्तित्व हुए है, उन सभी ने जीवन में बहुत संघर्ष झेला है, और तब जाकर कहीं यश और प्रसिद्धि की विजयपताका उन्हें मिल पाई है। जितने भी बड़े-बड़े वैज्ञानिक आविष्कार हुए है, गणित के जितने भी उच्च सिद्धान्त प्रतिपादित हुये है, उन सबके पीछे उन महान गणितज्ञों के मस्तिष्क तन्तुओं में चल रहा द्वन्द् ही तो था, जो कि एक शुभ समय पर एक ठोस विचार के रूप में एक आविष्कार या सिद्धान्त बनकर समाज के सामने आया। परन्तु इसके पूर्व उस वैज्ञानिक के मानस में सिद्धान्त का चिन्तन कहां था, उसके मानस में सत्य कहां स्पष्ट था, वह तो सचमुच झूल ही रहा था एक अन्तर्द्वन्द् में—– कि यह भी हो सकता है, वह भी हो सकता है, पर सही क्या है, कैसे करूं, किस से पूंछू और पूछने के लिये उसे कोई नहीं मिलता है, उसके प्रश्नों का उत्तर स्वयं उसके अन्दर से ही मिल जाता है, एक द्वन्द् की एक निश्चित अवधि के बाद।
यदि हम भारतीय इतिहास में अवलोकन कर देखें, तो ऋषि काल में अनेक शास्त्रार्थ हुआ करते थे, यह द्वन्द् ही तो है दो परस्पर विपरीत विचारों के मध्य, परन्तु इसके परिणामस्वरूप किसी एक मत या सिद्धान्त की विजय होती थी और इस तरह एक नवीन विशुद्ध ज्ञान उभर कर सामने आता था।
साधक जीवन में भी द्वन्द्वात्मक स्थिति को इसी सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिये। साधना सफल होगी या नहीं होगी, मंत्र प्रामाणिक है अथवा नहीं, विधि में दोष है अथवा नहीं, कमी मेरे अन्दर है या उच्चारण में अशुद्धि है- यह सब द्वन्द् ही तो है, जो साधना काल में व्यक्ति को झकझोरते रहते है, परन्तु व्यक्ति यदि शान्त चित्त से इन द्वन्दों को साक्षी भाव से देखता रहता है, तो उसे ज्ञान का बोध होता है। द्वन्द् तो एक ऊर्जा होती है, एक छटपटाहट होती है, एक बेचैनी होती है सत्य को जान लेने की, और यह द्वन्द् ही व्यक्ति की सफलता की आधारभूमि होता है।
इसीलिये सद्गुरूदेवजी ने एक बार कहा था- ‘यदि तुम्हारे मन में द्वन्द् आया है, यदि तुम्हारे मन की भटकन बढ़ी है, तो यह प्रसन्नता की बात है, क्योंकि तुम्हारी यही भटकन, तुम्हारा यही जिज्ञासु भाव, तुम्हारी यही खोजी प्रवृति एक दिन तुम्हें सफलता के उच्च सोपान पर पहुंचायेगी और जब उन अज्ञात रहस्यों का सुनहरा प्रभात तुम्हारे सामने स्पष्ट हो जायेगा, तब तुम विभोर हो उठोगे, अपने आप में झूमने लग जाओगे एक मस्ती में, एक खुमारी में खो जाओंगे।’
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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