शिक्षा में उच्चता प्राप्ति में दीक्षा सहायक है। शिक्षित व्यक्ति में यह चेतना नहीं होती, कि वह अपने सामर्थ्य का दुरूपयोग करने से बचे। सामर्थ्य के सदुपयोग के लिये प्रकाश स्वरूप चिंतन दीक्षा से ही मिलता है। दीक्षित मानव की प्रत्येक चेष्टा लक्ष्य की प्राप्ति में निहित होती है। शिक्षा अर्थात् ज्ञान, विज्ञान एवं कलाओं के क्षण जो ज्ञान शक्ति, कौशल शक्ति प्राप्त हुई है, उसका दुरूपयोग न हो, इसके लिये शिक्षित मानव का दीक्षित होना अनिवार्य है।
शिक्षा का सम्पादन सामूहिक शक्तियों के सहयोग से ही सम्भव है अर्थात् शिक्षित होने के लिये समाज के विभिन्न अंगों का सहयोग आवश्यक होता है। कोई भी मानव दूसरों के सहयोग के बिना शिक्षित नहीं हो सकता, इस दृष्टि से शिक्षा रूपी सामर्थ्य सामूहिक सम्पत्ति है, व्यक्तिगत नहीं। सामूहिक सम्पत्ति का सदुपयोग सर्वहित के लिए ही करना उचित है। पर यह तभी संभव होगा जब मानव दीक्षित हो जाये। दीक्षित होने के लिये जीवन का अध्ययन अनिवार्य है। मानव-जीवन कामनाओं का पुंज है। कामना मानव को पराधीनता, जड़ता एवं अभाव की ओर गतिशील करती है और मांग स्वाधीनता, चिन्मयता एवं पूर्णता की ओर अग्रसर करती है। मांग की पूर्ति एवं कामनाओं की निवृत्ति में ही मानव-जीवन की पूर्णता है। प्राकृतिक नियमानुसार दायित्व पूरा करने पर मांग की पूर्ति स्वतः होती है।
दायित्व पूरा करने का अविचल निर्णय तथा मांग पूर्ति में अविचल आस्था रखना दीक्षा है। यह दीक्षा प्रत्येक वर्ग, समाज, देश, मत, सम्प्रदाय आदि सभी मानव के लिये सम्यक रूप से आवश्यक है। दीक्षा के बिना कोई भी मानव उच्चतम नहीं हो सकता और मानव बिना दीक्षित हुये जीवन में अपने लिये, जगत् के लिये और उसके लिये जो सर्व का आधार तथा प्रकाशक है, उनके लिए उपयोगी नहीं हो सकता।
शिक्षा से प्राप्त कौशल से मनुष्य दायित्वों को पूरा करता है। पर विचार यह करना है कि दायित्व क्या है। दायित्व वह नहीं हो सकता, जिसे पूरा करने में मांग की पूर्ति न हो। जिस पर जो दायित्व है, वह उससे अपरिचित नहीं है, उसकी विस्मृति भले ही हो गयी है। दायित्व का ज्ञान प्राकृतिक नियम अनुसार मान मात्र में विद्यमान है। उसकी विस्मृति किसी न किसी असावधानी से हो जाती है, पर मांग की पूर्ति में अविचल आस्था होने से मांग की उत्कृष्ट लालसा जाग्रत होती है जो दायित्व की स्मृति जगाने में और भूल को मिटाने में समर्थ है। इस दृष्टि से अपने पर क्या दायित्व है, इस पर हम स्वयं को विचार करना है। दायित्व का ज्ञान महान महापुरूषों से ही होता है और उसी का नाम दीक्षा है।
शिक्षा बड़ी ही महत्त्वपूर्ण क्रिया है परन्तु शिक्षा रूपी क्रिया बिना दीक्षित हुये अपूर्ण है। दीक्षित हुये बिना शिक्षा के द्वारा जीवन में अधोगति संभव है, अशिक्षित मानव से उतनी क्षति हो ही नहीं सकती, जितनी दीक्षा रहित शिक्षित से होती है। शिक्षित मानव का समाज में बहुत बड़ा स्थान है कारण की उसके सहयोग की मांग समाज को सदैव रहती है। इस दृष्टि से शिक्षित का दीक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है।
कर्तव्य परायणता पारिवारिक तथा सामाजिक समस्याओं को हल करने में समर्थ हैं, कर्तव्यनिष्ठ मानव के द्वारा ही सुन्दर समाज का निर्माण होता है और फिर वह स्वतः योग-विज्ञान में प्रवेश पाता है, जो विकास का मूल है। कर्तव्य पालन में प्राप्त सामर्थ्य का सद्व्यय होता है जो सुन्दर-समाज के निर्माण में सहायक है। यह सभी को विदित है कि कर्तव्य का आरम्भ और अन्त होता है। जिसका आरम्भ तथा अन्त है वह नित्य नहीं है, किन्तु कर्तव्य का परिणामकर्ता को राग रहित करने में उपयोग हैं, राग रहित भूमि में जब योग रूपी वृक्ष उगता है, तब मानव अपने उस दायित्व को पूरा करनें में समर्थ होता है अर्थात् राग-रहित होने पर ही वस्तु, अवस्था, परिस्थिति आदि से असंगता प्राप्त होती है, जो विचार पथ की दीक्षा है।
यह दीक्षा भी मानव असत् के त्याग से प्राप्त कर सकता है, जो सभी विचारशील महापुरूषों से समर्थित भी है। कर्तव्य परायणता सुन्दर समाज के निर्माण में और असंगतता स्वाधीनता की प्राप्ति में समर्थ है, पर जिसकी कृपा से कर्तव्य पालन के लिये मूल सामग्री तथा कर्तव्य की स्मृति के लिये विवेक रूपी प्रकाश मिला, उसमें अविरल आस्था करना विश्वास-पथ की दीक्षा है। आस्था स्वतः श्रद्धा तथा विश्वास के रूप में परिणित है। जिससे मानव उससे आत्मीयता स्वीकार करता है जिसे जानता नहीं है।
इस दृष्टि से शिक्षा के साथ-साथ दीक्षा अत्यन्त आवश्यक है। किस मानव को आरम्भ में कैसी दीक्षा लेनी है, यह उसकी रूचि, योग्यता एवं सामर्थ्य पर निर्भर है। यद्यपि प्राकृतिक विधान के अनुसार मानव मात्र की मांग एक है और उसी मांग को उसने शान्ति, स्वाधीनता तथा प्रेम के स्वरूप में वरण किया है। शान्ति, स्वाधीनता, चिन्मयता का और प्रेम अनन्त रस के स्त्रेत है। सामर्थ्य का, स्वाधीनता, चिन्मयता एवं रस से परिपूर्ण जीवन की मांग मानव मात्र की अपनी मांग है। दायित्व पूरा करने पर मांग स्वतः पूरी होती है यह विधान है, दीक्षा के बिना मांग अर्थात् लक्ष्य क्या है और उसी प्राप्ति के लिये दायित्व क्या है, इसका विकल्प रहित निर्णय सम्भव नहीं है, जिसके बिना सर्वतोमुखी विकास सम्भव नहीं है।
दीक्षा का बाह्य रूप भले ही भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रतीत हो, किन्तु उसका आन्तरिक स्वरूप तो कर्तव्य परायणता, असंगता एवं शरणागति में ही निहित है। इतना ही नहीं, कर्तव्य की पूर्णता में असंगता और असंगता की परावधि में शरणागति स्वतः आ जाती है। कर्तव्य परायणता के बिना स्वार्थ भाव का, असंगता के बिना जड़ता का और शरणागति के बिना सीमित अहम् भाव का सार्वांश में नाश नहीं होता। स्वार्थ भाव ने ही मानव को सेवा से, जड़ता ने मानव को चिन्मय जीवन से एवं सीमित अहम् भाव ने प्रेम से विमुख किया है। स्वार्थ भाव, जड़ता एवं सीमित अहम् भाव का नाश दीक्षा में ही निहित है।
व्यक्तित्व की सुन्दरता में शिक्षित होने के लिये मानव को शिक्षकों की अपेक्षा होती है, पर मोह स्वरूप व्यक्तित्व के नाश के लिये मनुष्य को दीक्षित होने के लिये स्वयं की ओर देखना होता है। अपनी ओर देखने पर ही अपने दायित्व ओर मांग का बोध होता है। दीक्षा की पाठशाला एकान्त और पाठ मौन है। शिक्षा अनन्त से प्राप्त सौन्दर्य है और दीक्षा अनन्त का प्रकाश है। सौन्दर्य का सद्व्यय प्रकाश से ही सम्भव है। शिक्षा मानव को उपयोगी बनाती है और दीक्षा सभी के ऋण से मुक्त करती है ऋण से मुक्त हुये बिना शान्ति, स्वाधीनता तथा प्रेम के साम्राज्य में प्रकाश नहीं होता, जो वास्तविक जीवन है।
निधि श्रीमाली
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