शिष्य और किसी अन्य व्यक्ति में मूलभूत अंतर यही होता है, कि शिष्य के पास गुरू होते है। वे गुरू जिनके पास दिव्य दृष्टि होती है, जो बर्तमान और भविष्य को भी देख रहे होते है, जिन्हें मालूम होता है, कि मात्र छोटी-छोटी इच्छाओं की पूर्ति कर लेना ही जीवन का लक्ष्य नहीं होता। उन्हें ज्ञात होता है, कि शिष्य को अपनी ऊर्जा किस दिशा में व्यय करनी है, किस तरह विराट इच्छाओं को धारण कर पूर्ण करना है और मनुष्य जीवन को सार्थकता प्रदान करना है, इसी एक जीवन में। इसलिए शिष्य निश्चिंत हो जाता है, जबकि अन्य व्यक्ति एक इच्छा पूरी होने पर भी दो-एक दिन प्रसन्न होकर पुनः व्यथित हो जाते है, इसीलिये सभी सुख-सुविधायें प्राप्त होने पर भी जीवन में अतृप्ति सी बनी ही रहती है।
सम्राट अशोक, सिकन्दर को जीवन में सभी भौतिक सुख साधन प्राप्त थे। परन्तु फिर भी उनके जीवन में अपूर्णता थी—– और यह अपूर्णता इसलिये थी क्योंकि उनके जीवन में ब्रह्मवर्चस्व भाव नहीं था और यह ब्रह्मवर्चस्व भाव सद्गुरू ही प्रदान कर सकते हैं क्योंकि वे ही परमात्मा की विराट सत्ता के स्वरूप होते है, परम आत्म अंश होते हैं, वे ही कृपा कर शिष्य को जीवन में पूर्णता दे सकते हैं, और जब सम्राट अशोक व सिकन्दर को गुरू से ज्ञान प्राप्त हुआ तब उन्हें सभी भौतिक सुख तुच्छ लगे और उन्होंने उन भौतिक सुखों के प्राप्ति के साधनों का पूर्णता से परित्याग कर दिया।
सद्गुरूदेव ने स्वयं कहा है-‘‘ तुम केवल बूंद हो और तुम्हें समुद्र बनना है। आज तुम समुद्र में मिलोगे तो कल तुम मे बनकर आकाश में छाओगे। आज तुम समुद्र में मिलोगे तो कल तुम उमड़-घुमड़ कर बादल बन सकोगे और जब बादल बनकर हवाओं के साथ बहोगे, वर्षा करोगे तो फिर नदियां बहेगी और नदियां सैकड़ौं-सैकड़ौं खेतों को लहलहायेंगी सैकड़ौं चेहरों पर खुशियां पैदा करेंगी और वापस एक बार समुद्र में विसर्जित हो जायेंगी और यहीं समुद्रवत बिशालता को प्राप्त करने का भाव ही ब्रह्मत्व ज्ञान है और यह चेतना केवल सद्गुरू द्वारा ही प्राप्त हो सकती है।
अभिषेक का तात्पर्य है सींचन करना, शिष्याभिषेक का अर्थ है शिष्य में मात्र पूर्णता की क्रिया को बीजारोपित कर देना ही नहीं, अपितु उसे सींचित कर उसमें वह वर्चस्व स्थापित कर देना, जो ब्रह्म का साकार स्वरूप है। सद्गुरू द्वारा शिष्यत्व स्थापन की यह क्रिया ही ब्रह्मत्व स्थापन स्वरूप में ‘ब्रह्मवर्चस्व शिष्याभिषेक दीक्षा’ है।
शिष्य ही वास्तविक रूप से गुरू की पहचान है। शिष्य को जीवन में ऊर्ध्वगति प्रदान करते हुए गुरू को सदैव प्रसन्नता होती है और जो अपने शिष्य को योग रूपी ज्ञान से केवल आध्यात्मिक सृजन ही नहीं अपितु भौतिक रूप से वर्चस्व की ओर ले जा सकें। उसमें सम्पूर्ण चराचर ब्रह्म का ज्ञान स्थापित कर सके उसे अपने संस्पर्श द्वारा वे ही तो वास्तविक रूप में गुरू होते है। जो दीक्षा के माध्यम से ऐसी क्रिया विस्फोटित कर दें कि शिष्य अपने जीवन में ऊर्ध्वपात हो सके। उसका ‘अभिषेक’ स्वयं अपने हाथों से करें, अपनी कृति को अपने प्राणमय कोष से पूर्णता की क्रिया दे, वे ही तो गुरू होते हैं और यही ‘ ब्रह्मवर्चस्व शिष्याभिषेक क्रिया दीक्षा सद्गुरूदेव गुरू पूर्णिमा के पावन अवसर पर प्रदान करेंगे।
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