विवेकानन्द ने धर्म के क्षेत्र में संकीर्णता और संशयात्मकता को दूर किया। उनकी दृष्टि में धर्म साधना का विषय था और इस बात को वे लोगों के दिल व दिमाग में बैठा देना चाहते थे। वे इस विचार को समूल नष्ट कर देना चाहते थे कि धर्मान्ध श्रद्धा का विषय था और उसमें तर्क अथवा युक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। विवेकानन्द तो यह सिद्ध करना चाहते थे कि जो तर्क के अनुकूल है वही धर्म है। उनका दृष्टिकोण विशुद्ध वैज्ञानिक था। जो बात उनकी बुद्धि और हृदय को प्रभावित नहीं करती थी उसे वे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।
उन्होंने अपनी यह मान्यता प्रकट की कि धर्म का लक्ष्य आत्मा की प्राप्ति करना है स्वामी विवेकानन्द के प्रभावशाली ढंग से यह विचार पुनः प्रतिष्ठित किया कि आत्मा अनन्त है, उनका कोई छोर नहीं है।
कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा मानने से नैतिकता का आधार नष्ट हो जायेगा लेकिन स्वामी विवेकानन्द का जवाब था कि ऐसा सोचना पाश्विक वृत्ति का सूचक है। इस पाश्विक वृत्ति को केवल चाबुक से काबू में रखा जा सकता है विवेकानन्द ने नैतिकता का अर्थ दूसरों की भलाई करना बताया और कहा कि यही सब धर्मों का सार है तथा अद्वैत में इस विचार की सर्वोत्तम व्याख्या की गई है। उनकी मान्यता है कि जो कोई भी दूसरों को हानि पहुँचाता है वह अपनी ही हानि करता है।
स्वामी विवेकानन्द ने धर्मों का व्यापक अर्थ लेते हुए सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि विभिन्न दर्शन पद्धतियों में कोई विरोध नहीं है और वेदान्त अन्तिम एकता को खोजने के प्रयास के अतिरिक्त कुछ नहीं है तथा वह एक सफल प्रयास है।
उन्होंने वैश्विक प्रेम, प्यार और सेवा की भावना में प्रवाहित होते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि धर्म विध्वंसात्मक नहीं, निर्माणात्मक है।
सार्वभौमिक धर्म को प्राप्त करने का मार्ग यह नहीं है। कि किसी एक धर्म को अपनाकर दूसरे धर्म की निन्दा की जाये। प्रत्येक धर्म का अपना-अपना महत्त्व है। फिर भी नहीं भूलना चाहिये कि मनुष्य के स्वभाव भी भिन्न-भिन्न हैं अर्थात् कोई विचारक है तो कोई दार्शनिक, कोई भक्तिवादी है तो कोई रहस्यवादी और कोई कर्मकांडी। यही कारण है कि योग के ध्यानयोग, राजयोग, हटयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदि कितने ही भेद बताये गये हैं, जबकि लक्ष्य सबका एक ही है और वह है आत्मा की प्राप्ति।
एक वेदान्तवादी होने के नाते स्वामी विवेकानन्द माया के सिद्धान्तों में विश्वास करते थे। किन्तु इससे उनका यह अभिप्राय नहीं था कि इन्द्रियों द्वारा अनुभव होने वाला संसार मिथ्या अथवा अवास्तविक है। उनका मत था कि माया संसार की व्याख्या का एक सिद्धान्त नहीं है वरन् केवल यथार्थ तथ्यों का एक कथन है इसका आशय केवल यह है कि ऐद्रिक अनुभव का संसार अन्तिम वास्तविक नहीं है लेकिन यह मिथ्या भी नहीं है। यह तो वास्तविकता है और जो कुछ दिखाई देता है इन दोनों का एक सम्मिश्रण है जिसका अस्तित्व केवल हमारे मन और इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध में है तथा उनमें परिवर्तन हो जाने से इसमें भी परिवर्तन हो जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने इस तरह स्पष्ट किया है कि प्रकृति का संसार निरपेक्ष सत्ता (ABSOLUTE BEING) और असत्ता (NON BEING) के बीच का रूप है, यह सापेक्ष है।
विवेकानन्द कहते हैं- प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके स्वयं में अन्तर्निहित ब्रह्म स्वरुप को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, भक्ति, संयम या ज्ञान इनमें से किसी का सहारा लेकर अपने ब्रह्म भाव को व्यक्त कर मुक्त हो जाना धर्म सर्वस्व है। धर्म वह वस्तु है जिससे पशु मनुष्य तक तथा मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।
विवेकानन्द की मान्यता है कि धर्म मनुष्य के चिन्तन एवं जीवन का सबसे उच्च स्तर है। मानव जाति के भाग्य निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है। उनमें धर्म की शक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। धर्म ठोस सत्यों और तथ्यों को पाने के अतिरिक्त, उससे मिलने वाली सांत्वना के अतिरिक्त एक विशुद्ध विज्ञान और एक अध्ययन के रूप में वह मानव मन के लिये सर्वोत्कृष्ठ और स्वस्थतम व्यायाम है।
धर्म, मतवाद या बौद्धिक तर्क नहीं है, वरन् आत्मा के ब्रह्मत्व को जान लेना, तद्रूप हो जाना तथा उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म हैं। धर्म कल्पना की नहीं प्रत्यक्ष दर्शन की चीज है। विवेकानन्द मानते हैं कि बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना बहुत अच्छी और बड़ी बात है लेकिन अंतः प्रकृति को जीत लेना इससे भी बड़ी बात है।
विवेकानन्द के अनुसार जहां धर्म ने मनुष्य को करूणा, प्रेम, शांति, बंधुत्व एवं सेवा के लिये प्रेरित किया है, वहीं विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के कलह और कोलाहल, द्वन्द्व और संघर्ष, अविश्वास और ईर्ष्या-द्वेष ने रक्त की नदियां भी बहाई हैं। ऐसे में धर्म के सार्वभौम स्वरूप को प्राप्त करना कठिन प्रतीत होता है, लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो सभी धर्मों में सार्वभौम लक्षण विद्यमान हैं।
विवेकानन्द के अनुसार सार्वभौमिक धर्म से आशय किसी सार्वभौमिक दार्शनिक तत्त्व, किसी सार्वभौमिक पौराणिक तत्त्व या किसी सार्वभौमिक अनुष्ठान पद्धति से नहीं है जिसे मानकर सभी को चलना पड़े वरन् सार्वभौम धर्म के रूप में विवेकानन्द एक ऐसे धर्म का प्रचार करने के पक्षधर थे, जो सब प्रकार की मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिये उपयोगी हो तथा जिसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव से रहे। इनमें से प्रत्येक भाव पूर्ण मात्रा में और समभाव से विद्यमान रहे तो यह मानव के लिये सर्वश्रेष्ठ आदर्श स्थिति होगी। विवेकानन्द भक्ति, योग, ज्ञान और कर्म के इस समन्वय को ही सार्वभौम धर्म का आदर्श मानते हैं।
विवेकानन्द की मान्यता है कि धर्म को ग्रहणशील होना चाहिये और ईश्वर संबंधी आदर्शों में भिन्नता के कारण एक दूसरे का तिरस्कार नहीं करना चाहिये। ईश्वर संबंधी सभी सिद्धांत (सगुण, निर्गुण, अनन्त, नैतिक नियम या आदर्श मानव सभी) धर्म की परिभाषा के अंतर्गत आने चाहिये। जब धर्म इतने उदार बन जायेंगे तो उनकी कल्याणकारिणी शक्ति भी बढ़ जायेगी।
विवेकानन्द के अनुसार सभी धर्मों को परस्पर बंधुत्व का भाव रखना चाहिये और यह भावना संरक्षण, कृपणता व अनुग्रह पर आधारित न होकर पारस्परिक स्नेह एवं आदर पर आधारित होनी चाहिये। उनका कहना है कि धार्मिक विचारों को विस्तृत, विश्वव्यापी एवं असीम होना पड़ेगा, तभी हम सार्वभौम धर्म के रूप में, धर्म के पूर्ण रूप को प्राप्त कर पायेंगे। विभिन्न धर्मों का आपसी बंधुत्व भाव, परस्पर आदान-प्रदान, त्याग एवं सहिष्णुता से ही मानव में निखार आयेगा तथा वह सत्य के संधान में आगे बढ़ पायेगा। यही सार्वभौम धर्म की दिशा है जो किसी धर्मावलंबी व्यक्ति की विशिष्टता को नष्ट न करते हुये उसे दूसरों के साथ सम्मिलित होने का पक्ष बता सकती है।
एक सन्यासी दार्शनिक के नाते स्वामी विवेकानन्द का मुख्य सरोकार परम सत्य और परम ब्रह्म से था। उन्होंने ब्रह्म की परिभाषा ‘सच्चिदानंद’ (सत्+चित्+आनंद) के रूप में दी अर्थात् वह परम सत्य (शाश्वत और निर्विकार), चेतन और आनंदमय है। परम ब्रह्म या परमात्मा की सेवा और ध्यान में ही आत्मा का परम कल्याण निहित है।
प्रश्न यह है कि परमात्मा की सेवा कैसे की जाये? क्या संसार से विमुख होकर एकांत वन, पर्वत-शिखर या कंदरा में समाधि लगाकर परमेश्वर का ध्यान करने से वह मिल जायेगा? विवेकानंद ने आध्यात्मिक साधना की इस विधि का खंडन किया।
उन्होंने तर्क दिया कि इस धरती का मानव-समुदाय ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है, उसी के माध्यम से ईश्वर का साक्षात्कार संभव और सार्थक होता है। अतः यदि तुम ईश्वर की सेवा करना चाहते हो तो मनुष्य की सेवा करो उस मनुष्य की जिसे तुम्हारी सेवा और सहायता की प्रबल आवश्यकता है, दीनदुखी, असहाय और पीडि़त मानवता की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है।
स्वामी जी ने ‘दरिद्र नारायण’ की संकल्पना प्रस्तुत की है। जब हम ‘दरिद्र’ को ‘नारायण’ मानकर उसकी सेवा और सहायता करेंगे तभी हमारी आत्मा इतनी पावन हो सकेगी कि उसे ईश्वर का साक्षात्कार हो जायेगा। इस तरह विवेकानंद ने मानववाद के आध्यात्मिक आधार का प्रतिपादन किया।
सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक महान देशभक्त, प्रखर वक्ता, कुशल विचारक और मानव प्रेमी थे। सम्पूर्ण विश्व में ‘तूफानी हिन्दू’ के नाम से विख्यात स्वामी विवेकानंद जी ने जितने भी सिद्धांत दिये वे केवल दैनिक जीवन में राजनीतिक व सामाजिक जीवन में उपयोगी है वरन् प्रशासन मे भी उतने ही प्रासंगिक हैं-
1- कर्म योग का सिद्धांत- स्वामी विवेकानंद जी का मानना है कि व्यक्ति को सदा क्रियाशील रहना चाहिए व अपने लक्षित उद्देश्यों को प्राप्ति के लिए साहस व निर्भीकता से लगे रहना चाहिए। एक आदर्श कुशल प्रशासक को चाहिए कि वह भी विवेकानंद जी के ‘कर्मयोग’ सिद्धांत का पालन करे और समाज का कल्याण करे।
2- जन सेवा- विवेकानंद जी का मानना था कि जनसेवा ही ईश्वर सेवा है इसलिये प्रशासन में भी जन सेवा को ध्येय मानकर प्रशासकों को अपनी कल्याणकारी नीतियों से जन सेवा करनी चाहिये हालांकि प्रशासन का उद्देश्य जन सेवा व जन कल्याण ही है परन्तु कतिपय प्रशासकों ने अपने लाभ व स्वार्थ के कारण प्रशासन की छवि धूमिल की है जो कि अनैतिक है।
3- युवा शक्ति का आह्वान विवेकानंद जी ने ऊर्जा और साहस से परिपूर्ण युवा शक्ति का आह्वान करते हुये कहा कि सभी युवा अपने आप को शारीरिक, मानसिक रूप से सक्षम बनाकर देश व समाज के प्रति कर्तव्यों को पहचाने और निरंतर इनकी भलाई व उत्थान हेतु कार्यरत रहे। आज भी देश का सबसे बड़ा वर्ग युवा है और उसकी प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
4- नारी उत्थान के समर्थक- भारतीय पुरूष प्रधान समाज में नारी को दोयम दर्जे का माना जाता रहा है परन्तु विवेकानंद जी की भांति एक प्रशासक को नारी उत्थान के कार्य करने चाहिये व नारी संबंधी कार्यों को प्राथमिकता देनी चाहिये।
5- जाति प्रथा व अस्पृश्यता के विरोधी- स्वामी विवेकानंद जी जाति प्रथा व छुआछूत के कट्टर विरोधी थे। समाज के प्रत्येक वर्ग (चाहे युवा या कुलीन व राजनीतिक हो) से उन्होनें जाति प्रथा के विरोध का आह्वान किया। एक सफल प्रशासक को भी छुआछूत व जाति प्रथा से ऊपर उठकर सर्व वर्ग हितैषी कार्य करने चाहिये ताकि समाज के प्रत्येक वर्ग का कल्याण हो।
6- पाश्चात्य अंधानुकरण का विरोध- स्वामी जी पश्चिम के अच्छे विचारों के समर्थक व अंधानुकरण के विरोधी थे। प्रशासन पर भी यह सिद्धांत लागू होता है कि अच्छी नीतियां कहीं से भी ग्रहण की जा सकती हैं परंतु किसी भी अन्य देश की नीतियों का अंधानुकरण नहीं होना चाहिए।
विवेकानंद जी के जीवन और चिन्तन के इस संक्षिप्त मन्थन से यह निष्कर्ष निकलना स्वाभाविक है कि उन्होंने देश में जन जागरण का मंत्र फूंका और देशवासियों को शक्ति तथा निर्भयता के मार्ग पर आगे बढ़ाया। भारतीय राष्ट्रवाद का सराहनीय प्रयास किया। रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके उन्होंने राष्ट्रीय जीवन में वेदान्तवाद का प्रसार किया और प्रेम तथा विश्व बन्धुत्व का संदेश दिया। विवेकानंद जी ने पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में समन्वय का प्रयास इस रूप में किया कि पश्चिम की अच्छी बातों को ग्रहण करने और अपना मानसिक क्षितिज विस्तृत करने में हमे संकोच नहीं होना चाहिये लेकिन राजाराम मोहन राय की तरह उन्होंने यह कदापि नहीं माना कि पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति में भारत का पुनर्निर्माण करने की पूरी क्षमता है।
वास्तव में विवेकानंद जी पूर्व की आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक महानता के समर्थक थे तो पश्चिम के वैज्ञानिक और संगठनात्मक कुशलता तथा समाज सेवा भावना के भी प्रशंसक थे और उन्होंने इन दोनों ही बातों का मिश्रण प्रस्तुत किया, जिसने आधुनिक भारत के समाज सुधारकों और राजनीतिक नेताओं को प्रभावित किया।
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