एक सामान्य उदाहरण से इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि शीतकाल में हमें धूप में बैठना अच्छा लगता है और ज्येष्ठ मास की दोपहरी में हम उसी धूप से बचना चाहते हैं। किन्तु आनन्द का अनुभव सुख में भी किया जा सकता है औद दुःख में भी। हमारे ऋषियों ने जीवनचर्या का ऐसा उत्तम विधान किया है कि उसके अनुसार आचरण कर और उसी के अनुसार चलकर सुख-दुःख के अवसरों पर उनसे प्रभावित हुये बिना आनन्दमय जीवन की ओर निरन्तर बढ़ सकते हैं। जीवन वर्ष, महीने, दिन, घड़ी, पल के क्षणों में विभाजित रहता है। अतः प्रथमतः दिनचर्या को आनन्दमय बनाने पर विचार करना है। श्रौत-स्मार्त ग्रन्थ में बताया गया है-
ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।
कायकक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च ।।
ब्रह्म मुहुर्त में नित्यकर्म से निवृत्त होकर धर्म और अर्थ का चिन्तन करे कि उस दिन क्या-क्या कार्य करना है, उन कार्यों के सम्पादन में हमें कितना श्रम करना होगा, कितनी ऊर्जा का व्यय होगा, क्या-क्या परेशानियां आ सकती है, इस सबका काम करने के प्रारम्भ में ही विचार कर लिया जाय तो काम में किसी भी प्रकार की रूकावट आने पर हम हताश न होंगे, क्रोध न आयेगा तो कठिनाइयों को झेलते हुये शान्त मन से काम करते रहने से लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है।
दीर्घायु जीवन प्राप्ति के लिये ब्रह्म मुहुर्त में जागृत हो जाना चाहिये। यह समय लगभग चार बजे से लेकर सूर्य के उदय होने तक ही माना जाता है। आजकल के नव युवक तो रात भर टेलीविजन, मोबाईल देखते इसका खराब प्रभाव मन और मस्तिष्क पर पड़ता हैं। रात के स्वप्न में भी कभी-कभी वही दृश्य दिखायी देते हैं। रात्रि में इस असमय जागरण के कारण प्रातः काल जागना सम्भव नहीं हो पाता हैं। इस प्रकार विलम्ब से सोकर उठने वाले प्रातः कालीन लाभ से वंचित रह जाते हैं, जो सूर्य भगवान् से हमें बिना मांगे अनायास अनेक स्वरूपों में सूर्यतेजमय चेतना की प्राप्ति होती हैं। सूर्योदय पर वेदक ऋषि कहते हैं-
यह प्रजा का प्राण सूर्य उदय हो रहा है। वास्तव में हमे प्राण शक्ति सूर्य से ही प्राप्त होती है। प्राण ऊर्जा का स्रोत सूर्य ही है। गायत्री मंत्र सूर्य का ही है, जिसका अर्थ होता है- मैं सविता, जो प्राणिमात्र का जन्मदाता है, उस सूर्य के वरेण्य-श्रेष्ठ और अभिलाषणीय तेज का ध्यान करता हूँ जो द्योतनशील है, प्रकाशपुज है, वह हम सब की बुद्धि को प्रखर बनाकर सत्कार्यों की ओर प्रेरित करे, अच्छे कार्यें में लगाये।
दृष्टि मन्द के रोगी चश्मा लगाने के स्थान पर यदि सूर्योदय की ओर विशेष मुद्रा में केवल पांच मिनट प्रतिदिन बैठें तो छः महीने में चश्मा छूट जाता है। कार्यभार से अथवा किसी अन्य कारण से जो मानसिक तनाव में रहते हों, उन्हें सूर्योदय के समय पांच-दस मिनट के लिये प्राणायाम का अभ्यास करने से अनेक व्याधियों से भी छुटकारा मिलता है। प्रातःकाल ही घर में अपने से बड़ो का अभिवादन करना चाहिये। इसके लिये कहा गया है-
जो व्यक्ति नित्य अपने से बडें व्यक्तियों को प्रणाम, नमस्कार अथवा चरण स्पर्श करके अभिवादन करता है, उसकी आयु वृद्धि होती है, विद्या में कुशलता व दैहिक और मानसिक शक्ति की वृद्धि होती है तथा वह लोगों की प्रशंसा का पात्र बनता है।
वर्तमान जीवन को आनन्द व उच्चता युक्त बनाने के लिये संकल्प की दृढ़ता से ही उक्त नित्यचर्या का पालन सरलतम हो जाता है। जीवन में यम-नियमों का पालना करना आवश्यक हैं। दिनचर्या के अनुसार शुद्ध सुपाच्य, सात्त्विक भोजन करके सावधानी पूर्वक दैनिक व्यवहार के कामो में लग जाना चाहिये, साथ ही मन में यह भावना रखनी चाहिये कि मुझे जीवन में जो अवसर मिला है, उसमें अपने मधुर व्यवहार के कारण मैं सभी का प्रिय बन सकूं।
परिवार में कभी-कभी छोटी बातों को लेकर कलह की स्थिति बन जाती है। जैसे कि भोजन बनाने में, शाक-भाजी में स्वाद हीनता, कभी नमक, मिर्च या खटाई अधिक हो जाती है तो क्रोध न करे। यदि आप भोजन बनाते हो तो आपसे भी ऐसा हो सकता है। भोजन तो स्वाद के लिये न होकर उदर पोषण के लिये किया जाता है।
वृद्धावस्था में अपने परिवार के सदस्य के साथ घर में ही रहकर भगवत् चिन्तन करना चाहिये। जिस ईश्वर से हम सुख मांग रहे हैं, यदि उसने दुःख दे दिया तो उसे भी भले मन से स्वीकार करे, क्योंकि जिससे हम सुख पाना चाहते है, उसके दिये हुये दुःख को भी लौटाने की बात न सोचें। वैसे देखने में यह आता है कि प्रायः घर में वृद्धों को अवांछिनीय व्यक्ति मानने लगते है। उस में अपना भी कुछ दोष रहता है हम यह नहीं समझ पाते कि अब हम पराश्रित है। अतः आज्ञा देना छोड़ दें। बेटा-बहू की इच्छा के अनुसार रहे, पेंशन मिलती हो अथवा अन्य आय हो तो उसे अपनाये रहें। यदि आपके पास कुछ भी नहीं है तो भी घर में सर्वप्रिय बनने के लिये नाती-पोतों से प्यार करते रहें तो आपके उस स्नेह के बदले घर में निरन्तर आदर सम्मान मिलता रहेगा।
समाज परिवार में रहते हुये सामाजिक कार्यों के लिये अपनी आय का एक अंश दान देने की प्रवृत्ति रहे तो समाज में आप आदर के पात्र बने रहेंगे। यदि आप चाहते हों कि आपकी दूसरे व्यक्ति प्रशंसा करे, इस हेतु दूसरों के दोष देखकर भी उनकी निन्दा न करें। तुलसीदास जी ने कहा है- ‘जो सहि दुख परछिद्रदुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा’ अपने चरित्र, आचरण में यथा शक्ति सुधार करते रहें। चरित्र आचरण में निरन्तर सुवृद्धि का भाव रखे।
पड़ोसियों के दुःख-दर्द में उनसे सहानुभूति रखें, यथासम्भव सहायता करें। दूसरों के दुःख, कष्ट और पीड़ा दूर करने का प्रयास करें। उन्नति-प्रगति की कामना तो अच्छी बात है, पर तृष्णा का त्याग करें। प्रतिकूल परिस्थिति में भी क्रोध करने से बचें। यदि आपने क्रोध पर विजय पा ली तो आपका जीवन सदा के लिये निष्कण्टक हो जाता है। शास्त्रें में कहा है- ‘अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्’। क्षमा से क्रोध को जीतें। क्षमा ऐसा अस्त्र है, जिसके आगे शत्रु की तलवार भी निरर्थक हो जाती है और साथ ही ईश्वर से यही प्रार्थना करे
‘निज आन मान मर्यादा का प्रभों ध्यान
रहे अभिमान रहित जीवन रहे।’
मर्यादा का ध्यान रखना ही जीवन को आनन्दमय बनाने के लिये उत्तम है।
सस्नेह आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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