होली पर संकल्प लेकर सम्पन्न कीजिये यह साधना जो केवल गृहस्थ साधक, स्त्री, पुरूष के लिये ही नहीं, युवा, वृद्ध सभी के लिये है। इसी साधना से ‘रस बरसे भीगे जीवन हमारा सारा आनन्द फुहार’की कहावत चरितार्थ होती है। आज से हजारों वर्ष पहले पार्वती ने भगवान शिव से पूछा था कि, ‘हे भगवान! कलियुग में जब मनुष्य को आचार-विचार का ज्ञान नहीं होगा, उसका जीवन विशेष प्रकार के बन्धनों से जकड़ा होगा, धन केवल कुछ लोगों के पास एकत्र होगा, अधिकतर लोग धन की कमी से परेशान होंगे, तो आपके तंत्र में ऐसा कोई विधान है, जिससे दरिद्रता का सम्पूर्ण रूप से नाश हो जाए?’ तब भगवान शिव ने हंसते हुये कहा कि ‘हे देवी! तुम जानती हो, फिर भी मेरे ही मुख से सुनना चाहती हो, तो दारिद्रयविनाशक कल्प को सुनो। इस कल्प की रचना मैंने की थी। मेरे कहने पर इसे कुबेर को बताया गया और कुबेर धन के अधिपति तथा देवताओं के कोषाध्यक्ष बन गये, यह विद्या
दारिद्रय संहत्री यक्षिणी पाप खंडिनी विद्या है।’
अर्थात् शिव ने कहा कि यह विद्या ऐसी है, जिसे जानकर रंक अर्थात दरिद्र व्यक्ति भी राजा जैसा धनपति बन जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं और जो एक वर्ष तक इस विद्या के मंत्र का जप करता रहता है। तो पूर्ण रूप से सम्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार सांप गरूड से भागते हैं, उसका स्पर्श भी नहीं करते, उसी प्रकार से इस तंत्र विद्या के जानकार का दरिद्रता स्पर्श ही नहीं करती।
यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं और यूं भी कोई भी स्त्री भोग की भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने की भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चल कर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित हो जाता है या हो जाना चाहिये और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर ही संभव हो सकता है। यदि यह धारण एक लौकिक स्त्री के संदर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।
होलिका यक्षिणी के विषय में लिखने से पूर्व यह स्पष्ट कर देना आवश्यक रहेगा कि भले ही यह तांत्रोक्त साधना हो और होली जैसे तांत्रोक्त साधनाओं के सिद्ध पर्व पर सम्पन्न की जाने वाली साधना हो किन्तु होलिका यक्षिणी अपने स्वरूप और प्रस्तुतिकरण में अत्यन्त ही सौम्य यक्षिणी है तथा अन्य यक्षिणी साधनाओं में जहां भय व रोमान्च की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं वहीं होलिका यक्षिणी के साथ ऐसी कोई भी विपरित स्थिति नहीं जुड़ी।
एक नववधु की भांति सलज्ज और कोमल बनकर ही उपस्थित होती है होलिका यक्षिणी, लाल वस्त्रों में लज्जा से लाल होती हुई। यदि पूर्व में कोई यक्षिणी साधना सम्पन्न की हो और प्रारम्भिक सफलता मिलने के बाद भी पूर्ण प्रत्यक्षीकरण की स्थिति न बनी हो तो उस साधना को भी होलिका दहन की रात्रि में सम्पन्न कर उसमें मनोवांछित सफलता प्राप्त की जा सकती है लेकिन उससे भी अच्छा यह है कि व्यक्ति इस चैतन्य रात्रि में होलिका यक्षिणी की ही सिद्धि प्राप्त करे जिसके द्वारा वह प्रेयसी के रूप में सिद्ध होकर जीवन-पर्यन्त व्यक्ति की सहायक बनी रहेगी। यक्षिणी साधना तंत्र के विद्वानों के लिये कोई नई बात नहीं और अलग-अलग यक्षणियों की साधना अलग-अलग ढंग से करने का विधान उड्डीश तंत्र, दत्तात्रेय तंत्र, भूत डामर तंत्र इत्यादि ग्रंथों में मिलता है और इसी प्रकार अलग-अलग यक्षिणियों को अलग-अलग ढंग से सिद्ध करने की विधि भी है। भगिनी, जननी, पुत्र-वधु, पत्नी अथवा प्रेयसी— इन रूपों में यक्षिणी की साधनाये की जाती है किन्तु होलिका यक्षिणी केवल प्रेयसी रूप में ही सिद्ध की जा सकती है, जो पूरे जीवन भर व्यक्ति के साथ भार्या के समान रहती हुई उसे सभी सुख व भोग प्रदान करती है।
यक्षिणियां अपने स्वरूप में आनन्दप्रद और प्रचुर धनदायक होती हैं, क्योंकि ये जिस वर्ग की हैं उसी वर्ग के अधिपति कुबेर हैं और शास्त्र-प्रमाण है कि यक्षिणी के सिद्ध साधक को यक्षिणी, कुबेर के गृह से धन लाकर प्रदान करने वाली होती है।
यक्षिणी साधना का यह एक गोपनीय पक्ष है और साधक को इस साधना के द्वारा स्वतः ही कुबेर साधना के समस्त लाभ प्राप्त हो जाते हैं। दत्तात्रेय तंत्र में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि यक्षिणी साधना सम्पन्न करने से पूर्व कुबेर का पूजन करने से यक्षिणी की प्राप्ति तो होती है साथ ही जीवन पर्यन्त कभी न सूखने वाला धन का स्त्रोत एवं भगवान शिव का सुरक्षा-चक्र भी प्राप्त होता ही है।
अर्थात् ‘भगवान शिव के प्रिय बन्धु यक्षराज कुबेर को प्रणाम हो, जिनकी कृपा से एक यक्षिणी मेरे वशीभूत हो जाए।’
यक्षिणी अभिशप्त देव वर्ग की स्त्री है। देवयोनि में भ्रमवश अथवा प्रमाद वश कोई अपराध हो जाने से उसे उस योनि से नीचे गिरकर किन्तु मानव से ऊपर की इस योनि में आना पड़ता है और यही इस योनि की उत्पत्ति की कथा है। इस योनि में रहते हुये यक्ष एवं यक्षिणी के विविध प्रकार से सभी को संतुष्ट कर अपने को श्राप से मुक्त करना होता है। इसी कारणवश यह यक्षिणी अपने साधक को विविध प्रकार के द्रव्य, आभूषण और चमत्कारिक वस्त्रों के साथ-साथ उसका मनोवांछित भोग और मनोरंजन भी प्रदान करती है, क्योंकि ऐसा करने से उसकी मुक्ति संभव होती है। श्राप से मुक्त होने की विवशता के अतिरिक्त यक्षिणी का स्वरूप एवं हाव-भाव अत्यन्त विलासी होता है और वह अपने सिद्ध साधक का अनेक प्रकार से मनोरंजन करती ही है। विनोद-प्रियता और मोहक हाव-भाव यक्षिणी की अतिरिक्त विशेषता है। विलासमय कटाक्षों की बात, मादक मंथर गति व यौवन की परिपूर्णता ही यक्षिणी का सही स्वरूप है और उसके इन्हीं लक्षणों से सही परिचय और परीक्षण होता है कि क्या वास्तव में यक्षिणी ही उपस्थित हुई है?
श्रृंगार प्रियता द्वारा अत्यन्त मोहक स्वरूप में लाल वस्त्रों से सजकर होलिका यक्षिणी अपने प्रभाव से साधक को सम्मोहित करने की ऐसी शक्ति समाहित किये है जो कि शायद किसी अप्सरा वर्ग की स्त्री में भी विरले ही होगी। जहाँ अन्य यक्षिणीयां अपने सौन्दर्य के माध्यम से साधक को आकृष्ट करने में सफल होती हैं। वहीं होलिका यक्षिणी उत्तेजकता और मनमोहक व विलासी नायिका का स्वरूप धारण कर साधक को बेसुध कर देती है। इसीलिये ऐसी तीक्ष्ण यक्षिणी की साधना का जो दिवस निर्धारित किया गया वह कोई साधारण दिवस नहीं हैं अपितु वर्ष का सर्वाधिक चैतन्य, तांत्रोक्त दिवस होलिका-दहन की रात्रि का है जिस दिन सामान्य रूप से भी कोई तांत्रोक्त साधना की जाए तो चौंकाने वाले परिणाम प्राप्त होते हैं, फिर ये साधना तो केवल और केवल इसी दिवस के लिये रची गई है।
एक अन्य ग्रंथ में होलिका का उल्लेख राक्षसी के रूप में है किन्तु जब यह साधना प्राप्त हुई होती है तब ही साधना सम्पन्न करके समझ जा सकता है कि होलिका तो अपनी कोमलता और सलज्जा के कारण किसी भी नववधु के सौन्दर्य से कम है ही नहीं। लाल रंग इसको इतना प्रिय है कि इससे सारे शरीर पर लाल रंग की ही प्रचुरता झलकती रहती है— माथे पर लाल रंग की बिंदी, लाल रंग में रंगे ओष्ठ, लाल वस्त्र, पैरों में आलक्तक एवं हथेलियों से कोहनियों तक मेहंदी का श्रृंगार— आभूषण प्रियता तो प्रत्येक यक्षिणी की विशेषता है और होलिका यक्षिणी भी इससे अछूती नहीं, जो साक्षात् कुबेर के गृह की ही हो उसे आभूषणों और द्रव्यों की कमी भी कैसी? होलिका की विशेषता केवल यहीं तक सीमित नहीं कि वह अपने साधक को द्रव्य और धन देती है वरन् आग्रह पूर्वक प्रामाणिक तांत्रोक्त साधना द्वारा एवं प्रेम-पूर्वक आह्नान करने पर होलिका अपने सिद्ध साधक को यौवन का अतिरिक्त वेग और स्फूर्ति भी देती ही है। मूलतः देव वर्ग की स्त्री होने के कारण यक्षिणी के पास कई सिद्धियां, लेप, अंजन, औषधि तथा गोपनीय ज्ञान भी होता ही है। जहां वह जननी या भगिनी रूप में सिद्ध होने पर साधक को विदेश यात्रा या स्वादिष्ट भोजन और मनोनुकूल स्त्री की प्राप्ति कराती है वहीं प्रेयसी रूप में अथवा भार्या रूप में सिद्ध होने पर भोग और विलास के साथ-साथ उत्तेजक यौवन भी प्रदान कर जाती है।
होलिका यक्षिणी की साधना होलिका-दहन की रात्रि में सामान्यतः होलिका दहन के पश्चात् अथवा ठीक मध्य रात्रि को प्रारम्भ की जाती है। मूल ग्रंथों में तो इस साधना को एकान्त में वट-वृक्ष के नीचे करने का विधान है जिसकी पूर्ति अपने घर में वट-वृक्ष की एक डाल स्थापित करके भी की जा सकती है। इस साधना के लिये एकान्त होना अत्यन्त आवश्यक है। इस साधना का निश्चय करने के उपरान्त चाहिये कि साधक होलिका दहन की रात्रि से पूर्व ही दिन में ग्यारह बजे के आसपास जाकर वट-वृक्ष की एक डाल लाकर अपने साधना कक्ष में मिट्टी के ढेर में दबाकर स्थापित कर दें। रात्रि में साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व इस डाल का वटवृक्ष के रूप में पूजन करें और अपनी मनोकामना बोलकर उसकी पूर्ति की प्रार्थना करें। गहरे लाल रंग के वस्त्र धारण कर लाल रंग के आसन पर बैठ अपने सामने लाल रंग का वस्त्र बिछाये, यदि ये वस्त्र रेशमी हो तो अधिक उपयुक्त रहता है। अपने सामने होलिका यक्षिणी यंत्र, गर्भसार एवं पांच मद्राग स्थापित करें गर्भसार वास्तव में कुबेर यंत्र का ही तांत्रोक्त स्वरूप है और जहाँ होली की रात्रि में इसको स्थापित करने से होलिका यक्षिणी की सिद्धि प्राप्त होती है वहीं कुबेर साधना का भी पूर्ण प्रभाव प्राप्त होता ही है।
बाईं ओर चावलों की ढेरी पर भैरव गुटिका स्थापित कर उसका सिन्दूर, धूप, दीप एवं गुड़ के नैवेद्य से पूजन कर निम्न मंत्र उच्चरित करें-
इसके बाद हाथ में अक्षत लेकर दसों दिशाओं में फेंकते हुये निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ रक्षा विधान सम्पन्न करें-
यह रक्षा विधान अत्यन्त तीक्ष्ण है और इस विशिष्ट साधना के लिये आवश्यक है जिससे साधना काल में कोई विघ्न बाधा उपस्थित न हो और जब यक्षिणी प्रकट हो तब साधक भयभीत न हो। प्रायः यह देखा गया कि साधक को यक्षिणी सिद्धि प्रथम बार में ही हो जाती है लेकिन वह इतना अधिक हड़बड़ा जाता है अथवा भावविभोर हो जाता है कि अपना मनोवांछित पूर्ण करने में असमर्थ रहता है और इन सभी स्थितियों का निराकरण इसी प्रकार के रक्षा-विधान से संभव है।
साधना के दूसरे चरण में गर्भसार स्थापित कर उसका पूजन पुष्प की पंखुडियों से किया जाता है। इसे किसी श्रेष्ठ धातु के पात्र में स्थापित करना चाहिये, आगे के जीवन में यह जीवन पर्यन्त लाभदायक सिद्ध होता है। सुगन्धित अगरबत्ती लगाकर होलिका यक्षिणी यंत्र पर पांच मद्राग चढ़ायें।
ये होलिका यक्षिणी की पांच शक्तियों- मोहन, उन्मादन, तापन, शोषण, द्रावण के प्रतीक हैं जिनकी पुष्टि साधक की देह व काम भाव में होती है। तेज सुगन्ध वाले किसी इत्र को यंत्र पर लगाये और थोड़ा-सा अपने शरीर पर भी मलें।
तीव्र गंध की अगरबत्ती कमरे में प्रज्ज्वलित करें और तीव्र गंध के ही सुंदर पुष्पों को होलिका यक्षिणी यंत्र पर चढ़ाये। सम्पूर्ण पूजन में यही चिंतन रखें कि ‘मैं भार्या रूप में होलिका यक्षिणी को विविध सुगन्ध व पुष्पों से श्रृंगारित कर रहा हूं।’
ऐसा करने के बाद होलिका यक्षिणी के सुंदर व आभूषणों से आच्छादित नववधू स्वरूप में चिंतन करें। शास्त्रों में उल्लेख है-
अर्थात् केसर के द्वारा भोजपत्र के ऊपर जिस यक्षिणी की साधना करनी हो उसका नाम लिख कर चंदन, अक्षत, पुष्प और धूप से पूजन आदि करें। ताम्रपात्र पर उत्कीर्ण यंत्र इसी साधना को पूर्ण करता है, जिस पर साधक अपनी भावनाये स्पष्ट कर सकता है।
उपरोक्त संक्षिप्त पूजन करने के उपरांत रक्त स्फटिक की माला से होलिका यक्षिणी के मूल मंत्र की तीन माला मंत्र जप करें।
इस मंत्र जप में तेल का दीपक लगा लें एवं निष्काम भाव से (बिना विचलित हुये) मंत्र जप करते रहें, यदि बीच में किसी प्रकार की ध्वनि, पदचाप, वस्त्रों की सरसराहट या पायलों की ध्वनि जैसे आवाज आये तो विचलित न हो और न सिर घुमाकर देखने का प्रयास करें।
यह सम्पूर्ण जप एक बार में ही पूर्ण करना है। मंत्र जप समाप्त कर जब यक्षिणी प्रत्यक्ष हो तो उसे तीव्र सुगन्ध वाला इत्र भेंट स्वरूप दें। जिसके उपरान्त वह स्वयं ही जीवन पर्यन्त भार्या बनकर सम्पूर्ण सुख और विविध प्रकार के संतोष देने का वचन देती है।
होलिका यक्षिणी को सिद्ध कर लेने के उपरान्त उसे आह्नान करने का कोई मंत्र नहीं है क्योंकि यह फिर साधक के इच्छानुसार ही प्रत्यक्ष होती रहती है। यों अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिक्षण वह साधक के साथ उपस्थित रहती है जिसको कि केवल साधक ही देख सकता है।
मंत्र जप समाप्त होते ही सम्पूर्ण पूजन सामग्री अर्थात् होलिका यक्षिणी यंत्र, पांच मद्राग एवं रक्त स्फटिक माला ले जाकर जहां होलिका-दहन हुआ हो उसके सामने रख दें और वापस घर लौटकर स्नान कर साधना की पूर्णता समझें। गर्भसार, जो कि प्रकृति का एक उपहार कहा गया है, उसे अपने पूजा स्थान अथवा दुकान पर इस प्रकार से स्थापित करें कि उस पर किसी की दृष्टि न पड़े, यह वास्तव में कुबेर का ही स्वरूप है इसका पूजन नित्य केवल फूल की पंखुडि़यों से करना ऋद्धि-सिद्धि दायक एवं होलिका यक्षिणी का पूर्ण सुख सान्निध्य, वैभव और प्रेम प्राप्त करने वाला होता है।
होलिका यक्षिणी की यह साधना एक ऐसी साधना है जिसको साधक को स्वयं अनुभूत कर ही लेना चाहिये क्योंकि एक साधना से ही जहां एक ओर सुख-वैभव-यौवन प्राप्त होता है, वहीं कुबेर साधना के भी स्थायी लाभ प्राप्त होने लगते हैं।
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