मैं निरन्तर विचरण करता हुआ एक बार मध्य प्रदेश की रियासत दतिया की ओर निकल गया था वहां के राज गुरू जो स्वामी तेजसानन्द जी के रूप में विख्यात थे, उनके दर्शन करने का भी मेरा मानस था। मैंने उनके विषय में बहुत सुन रखा था कि वे यथा नाम तथा गुण हैं और उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से विशेष रूप से दोनों नेत्रों से तेज के कारण ज्वाला सी प्रवाहित होती रहती है। उनके अभय के तले दतिया राज्य उस समय निरापद राज्य था और साधना के लिये उपयुक्त स्थान समझ कर मैं उधर बढ़ गया। मैंने दतिया पहुँचने पर सहज ही उनका आश्रम प्राप्त कर लिया क्योंकि वह अपने तेज एवं राज गुरू पद पर आसीन होने के कारण जन सामान्य में अत्यंत लोकप्रिय और वन्दनीय थे। उनका आश्रम कोलाहल से दूर स्थानीय नदी के किनारे स्थित था। जहाँ वे अपने चुने हुये शिष्यों के साथ निवास कर रहे थे। उनका स्वरूप अत्यंत शांत एवं भव्य था। विशाल मस्तक, चौड़ा सीना, आजानु बाहु, तीखी नासिका, श्वेत केश एव प्रायः श्वेत हो चली लम्बी दाढ़ी से आच्छादित सिंह सदृश्य आलौकिक मुख मुद्रा। सम्पूर्ण रूप से ये आर्य ही थे और सबसे अधिक विशेषता तो उनके दृग युग्मों में थी जो तेज की अधिकता से रक्तिम से हो गये थे। यद्यपि उनका अन्तःकरण अत्यंत ही मृदु था किन्तु उनके पास खड़े होने से और उनकी ओर गलती से भी देख लेने पर शरीर सिहर सा उठता था। मैंने उनके श्री चरणों में प्रणाम ज्ञापित कर अपना परिचय दिया एवं बताया कि मेरी इच्छा है कि मैं कुछ दिन आपके सानिध्य में व्यतीत करूं। यद्यपि उस समय तक मेरा स्पष्ट मानस नहीं था कि मैं उनकी उस विद्या को सीखूंगा ही जिससे उनकी नेत्रों में तेज सी अधिकता आयी है क्योंकि मेरी रूचि तीक्ष्ण साधनाओं में नहीं थी। उन्होंने कुछ प्रश्न करने के बाद एवं अपने ढंग से संतुष्ट होने के बाद अनुमति दे दी कि मैं उनके सानिध्य में रह सकता हूँ। लगभग छः माह का समय हो गया और मैं उनकी आश्रम की गतिविधियों से जुड़ कर अपने ढंग से अपनी साधना में व्यस्त रहा। उन्होंने भी मुझसे कोई जिज्ञासा या अपनी ओर से कोई विद्या प्रदान करने का आग्रह नहीं किया। दिन बीतते-बीतते यह अवश्य हो गया था कि मेरा और पूज्य स्वामी जी का परस्पर मधुर संबंध बन गया था।
कुछ दिनों पश्चात् एक दिन मेरी ही अवस्था का एक साधु आश्रम में आया जिसके चेहरे से उद्दंडता एवं अहंमन्यता झलक रही थी। भोंडे गर्व से उसकी गर्दन टेढी हो गई थी और चेहरे की लालिमा भी घिनौनी लग रही थी। स्पष्ट लग रहा था कि वह कोई टुच्ची सी सिद्धि पा गया है। जिसे पचा नहीं पा रहा है। उसने आते ही भद्दे ढंग से पूज्य स्वामी जी के नाम का उच्चारण कर जानना चाहा कि क्या वे यहीं रहते हैं। हम लोगों द्वारा हामी भरने पर उसने चुनौती के स्वर में बोलना प्रारंभ कर दिया है और बताने लगा कि उसे क्या सिद्ध है और वह क्या कर सकता है, वह कैसे कर सकता है, वगैरह-वगैरह। एक प्रकार से वह स्वामी तेजसानंद जी की परीक्षा लेने ही आया था। हम लोग उसे जवाब देने की सोच ही रहे थे कि जब तक स्वामी जी की कोलाहल सुन बाहर आ गये और वह उन्हें सामने पाकर और औछेपन से अपमान जनक वाक्य बोलने लगा। जब वह कुछ देर शांत नहीं हुआ और कुछ करने पर उतारू सा ही हो गया तब तक मुझे भली-भांति याद है कि स्वामी जी का चेहरा पल भर के लिए लाल भभूका हुआ, वह अस्फुट या बुदबुदाए एवं मैंने स्पष्ट देखा कि उनके दर्प युक्त नेत्रों से कोई कौंध सी निकली कौंध का निकलना था कि वो आगन्तुक पल भर के लिये तो चकराया और हैरत से उनकी ओर देखता हुआ एक दम से ढेर हो गया, उसके होठों के किनारों से खून का प्रवाह निकल पड़ा था। हम सभी भी उनके इस रूप को देखकर सहम कर पीछे हट गये।
लगभग चौबीस घंटे बीतने के बाद जब हम कुछ सामान्य हुये तब हमारे बीच से उनके प्रिय शिष्य ने सहमते हुये उनके कक्ष में जाकर निवेदन किया वे उसे इतना दंड न दें। उन्होंने कहा कि यदि कड़ा दंड देते तो वह अब तक जीवित ही नहीं रह सकता था, यह तो मात्र एक चेतावनी थी। क्योंकि वह दुष्ट उनके किसी शिष्य पर वार करके प्रदर्शन करने का इच्छुक हो चुका था। उन्होंने पास जाकर कुछ गोपनीय क्रियाये की और वह तथा कथित तांत्रिक मानो नींद तोड़कर उठा। उस का घमंड, उसका शरीर सब चकनाचूर हो गया था। वह बिना एक शब्द बोले वहां से लड़खड़ाता हुआ दूर निकल गया।
इस घटना के एक दिन बाद स्वामी जी ने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि मैं विगत दिनों से तुम्हारे भाव अच्छी तरह से पढ़ता रहा हूँ किन्तु मैं अवसर की प्रतीक्षा में था कि तुम्हारे सामने स्पष्ट हो सके कि ये सभी तीक्ष्ण विद्याये भी किस प्रकार से जीवन का एक अवश्य अंग है। क्योंकि संन्यासी तो मात्र जंगल में हिंसक पशुओं का सामना करता है, समाज में तो उनसे भी ज्यादा हिंसक पशु भरे है, तुम कैसे आत्म रक्षा करोगे? मैं लज्जित था क्योंकि उनकी इस विद्या को मात्र एक चमत्कारी शक्ति समझा था और कोतूहल से उसको लिया करता था। इसके बाद तो मैंने उनको गुरू मान उनसे दीक्षा ली। पूर्ण मर्यादा के साथ उनका शिष्य बनकर रहा और उन्होंने भी इस विद्या को मुझे पूर्णता से देने में कोई संकोच नहीं किया। फलस्वरूप जहाँ मैं अपने सन्यस्त जीवन में घने जंगलों में निःशंक होकर विचरण कर सका वहीं नहीं इस समाज में भी कई-कई बार इस विद्या के महत्व को भली भांति परखा है।
आज मैं अपने पूज्य गुरूदेव की आज्ञा से यह विशिष्ट मंत्र और साधना विधि इन पन्नों पर स्पष्ट कर रहा हूँ, जिसे मंत्र अथवा ज्वालामालिनी मंत्र की संज्ञा दी गयी है। इस मंत्र के बीजों में कदाचित कुछ ऐसे विन्यास है जो इस शरीर के अन्दर अग्नि तत्व को एक दम धधका कर रख देते हैं। यह मंत्र इस प्रकार है-
ज्वालामालिनी यंत्र के सामने लाल आसन पर लाल वस्त्र धारण कर दक्षिण दिशा की ओर मुँह कर ज्वालामालिनी माला से नित्य 11 माला मंत्र जप 21 दिनों तक रात्रि में नित्य करें तो यह प्रयोग पूर्ण रूप से सिद्ध होता है।
मुझे विश्वास है कि कुछ योग्य साहसी व समाज कल्याण के इच्छुक साधक अवश्य ही आगे आयेंगे और इस विशिष्ट ज्ञान को समझ कर जहा एक और लुप्त होती हुई एक विशिष्ट विद्या को संरक्षित करेंगे, वहीं सभी के हित में सहायक भी बनेंगे।
ज्वालामालिनी शक्ति की उग्ररूपा देवी हैं, परन्तु अपने साधक के लिये अभयकारिणी है। इनकी साधना मुख्य रूप से उन साधकों द्वारा की जाती है, जिससे वे शक्ति सम्पन्न हुये पूर्ण पौरूष को प्राप्त कर सकें तथा उन्हें भूत-प्रेत आदि योनियों से भय न लगे। यह मूलतः इतर योनियो से भय मुक्त होने तथा उनके अपने ऊपर किये गये किसी आघात को निष्फल करने की साधना है।
ज्वालामालिनी की पूजा साधना गृहस्थों के मध्य भूत-प्रेत बाधा, तंत्र बाधा आदि के लिये, शास्त्रों द्वारा किये गये मूठ आदि प्राणघातक प्रयोगों को समाप्त करने के लिये की जाती है।
इस साधना को शीतला सप्तमी को या किसी भी मंगलवार या अमवस्या को प्रारम्भ किया जा सकता है। यह तीन रात्रि की साधना है। संक्षिप्त गुरू पूजन एवं गुरू मंत्र जप के बाद अपने सामने स्टील की थाली रख कर उसे अन्दर की तरफ से काजल द्वारा रंग दें। थाली के मध्य में साफ उंगली द्वारा काजल हटाते हुये अपना (या जिसके ऊपर भूत प्रेत या तंत्र बाधा हो उसका) पूरा नाम अंकित कर दें। नाम के ऊपर कुंकुम, अक्षत एवं पुष्प चढ़ाये और धूप दिखाये। फिर उस नाम के ऊपर ‘ज्वालामालिनी यंत्र’को स्थापित करें। यंत्र के ऊपर एक ‘तांत्रोक्त नारियल’ स्थापित कर दें। अब अपने मस्तक पर काजल से तिलक करें और दोनों हाथ जोड़कर ज्वालामालिनी का निम्न ध्यान करें-
इसके बाद नारियल और यंत्र दोनों पर कुंकुम व अक्षत अर्पित करते हुये निम्न मंत्र बोलें-
ॐ सर्वसंक्षोभिणी नमः। ॐ सर्वविद्राविणी नमः।
ॐ सर्वाकर्षिणी नमः। ॐ सर्वाह्लादकरी नमः।
ॐसर्वसम्मोहिनी नमः। ॐ सर्वस्तम्भनकारिणी नमः।
ॐ सर्वजृम्भणिका नमः। ॐ सर्ववशंकरी नमः।
ॐ सर्वरञ्जिका नमः। ॐ सर्वोनमादिनिका नमः।
ॐ सवार्थसाधिनी नमः। ॐ सर्वसंपत्पूरिणी नमः।
ॐसर्वमंत्रमयी नमः। ॐ सर्वद्वन्द्वक्षयंकरी नमः।
यंत्र पर रखा काजल से रंगा नारियल भूत-प्रेत या तंत्र बाधा का प्रतीक है। नारियल को क्रोध दृष्टि से देखते हुये वीरासन में बैठकर ‘काली हकीक माला’ से निम्न मंत्र की 7 माला मंत्र जप करें-
तीसरी रात्रि को मंत्र जप के बाद काले तिल और घी द्वारा उपरोक्त मंत्र (अंत में स्वाहा लगाकर) से 108 आहुतियां दें। इसके बाद उपरोक्त मंत्र से ही तांत्रोक्त नारियल को भी अग्नि में भेट कर दें, जिससे सभी बाधाये भस्मीभूत हो जाये।
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