‘‘जननी! मेरी अंतिम अभिलाषा यही है, कि अमृत से परिपूर्ण उदित होते हुये अरूण वर्ण सूर्य की भांति आपके दिव्य श्री विग्रह के समीप पहुँच कर आपकी स्तुति के अवसर पर मेरे नेत्र प्रेमाश्रुओं से आप्लावित हो जाये।’’
महापुरूषों के शब्द, उनकी भाव व्यंजना हम अपने प्रयोग में कदाचित नहीं ला सकते, क्योंकि वे किस भावभूमि पर आरूढ़ होकर ऐसे वचन कहते है, हम उसकी कल्पना ही नही कर सकते, स्वयं का आरूढ होना तो बहुत दूर। फिर भी अपने मन के भावों को प्रकट करने के लिये उन्ही का अवलम्बन लेना ही पड़ता है। भगवतपाद की क्या मनः स्थिति रही होगी ऐसा निवेदन करते समय, यह समझना और उसकी विवेचना करना मेरी सामर्थ्य से परे है किंतु यही अनुमान लगा सकता हूँ, कि किस प्रकार जीवन के समस्त ऐश्वर्य, योग की समस्त विभूतियां, प्रसिद्धि, चातुर्य, पण्डित, काव्य आदि सब कुछ अंत में जगतजननी के चरणों के समक्ष तुच्छ है, यही उन्होंने वर्णित किया है। माँ की वंदना, प्रेमाश्रुओं के प्रवाह और हृदय की सरलता के समक्ष सभी कुछ तो न्यौछावर है।
हे मां! मैं आपसे कुछ और ही प्राप्त करने का आग्रही हूँ। अब आपकी स्तुति नहीं, आपकी आरती नहीं, वंदना नहीं और किसी भी बाह्याडम्बर की अपेक्षा मैं आपके चरणों में नितांत निष्क्रिय रूप में बैठना चाहता हूँ। अब तो कोई भी क्रिया कलाप मिथ्या और हास्यप्रद लगने लग गया है। मैं उस मनोदशा में पहुँच जाना चाहता हूँ, जब कि कुछ भी शेष नहीं रहता केवल देखना ही शेष रह जाता है-ठीक उसी शिशु की भांति जो नवजात है। मैं इतनी भी बुद्धि शेष नहीं रखना चाहता, कि अपने लिये उचित-अनुचित का निर्धारण करके उसे आपके समक्ष प्रार्थना रूप में कह सकूं।
जननी! अब मेरी कोई अभिलाषा शेष नहीं रह गयी है। अभिलाषाये तो तब तक थी, जब तक मैं अपने ‘मैं’ में था और अपनी ही साधना के दर्प में तुमसे कुछ प्राप्त करना चाहता था। अब जो शेष रह गया है वे है मेरी आवश्यकताये, जिनकी पूर्ति तुम्हारे माध्यम से होगी। मैं योग के ऐश्वर्य त्याग तुम्हारे समक्ष याचक बन जाना चाहता हूँ और सदैव बना रहना चाहता हूँ।
मां! इस देह के धारण करने तक किसका अहं छूट सका है? किन्तु अब मेरा अहं मात्र इतना ही हो, कि मैं तुम्हारा पुत्र हूं। मुझे ‘अहं’ से युक्त रहने दो।। जगदम्बे! तुम्हारे समक्ष तुम्हारा ही वर्णन करते हुये मेरी जिह्वा लड़खड़ा रही है। समस्त काव्य, लालित्य, श्री और विलास जिनके भ्रू संचालन से सम्पादित हो रहा हो, उनकी प्रशंसा में मैं क्या कह सकता हूँ? अपने मनोभाव कैसे प्रकट कर सकता हूँ।
मां! मैं अतिशय वेग से दौड़ कर तुम्हारे गोद में अपना सिर छुपा लेना चाहता हूं, किन्तु तुम्हारे स्मरण मात्र से मेरे अंगो में जो पुलक, विह्नलता और कम्पन्न हो रहा है, उसके कारण मैं दौड़ कर अपने को असमर्थ पा रहा हूँ। जननी! मैं तुम्हारे समक्ष सब कुछ भूल कर अटपटे शब्दों में जो कुछ कह रहा हूँ, उसका तात्पर्य तुम ही समझ सकती हो, क्योंकि शिशु की अस्पष्ट भाषा को माँ के अतिरिक्त कौन समझ सका है?
मां! ईर्ष्या, द्वेष, असत्य और कपट से मेरा चित्त विद्ग्ध हो गया है। मैं इनसे विमुक्त होना चाहता हूँ, कब ऐसा होगा, कि तुम्हारे कोमल हस्त का स्पर्श मेरे सिर पर थपकी बनकर लगेगा और मै सुखपूर्वक योग निद्रा में निमग्न हो सकूंगा? माँ! जिस प्रकार शिशु सोते समय चौक-चौक कर जगता है और प्रत्येक बार अपनी माँ को समीप देखकर पुनः निश्चिन्त हो जाता है, मैं भी इस जगत के मोहनी के मध्य बार-बार तुमको ही देखना चाहता हूँ।
माँ! तुम्हारे अनेक रूप है और तुम प्रत्येक बार अलग ही रूप रख कर सामने आती हो लेकिन अब मेरा मन इस कौतुक से भर गया है तुम समस्त माया जाल को छिन्न-भिन्न करके अपने मूल रूप में मेरे समक्ष आओ न! माँ! यद्यपि मुझे अब तुमसे कुछ भी प्राप्त करना शेष कहाँ रह गया है, फिर भी तुम्हारे विशाल नेत्रों में जो अपार करूणा राशि समाहित है उसका एक अंश मुझे भी प्रदान करो।
जगदम्बे! यद्यपि तुम्हारे चरणों में बैठ मेरे समस्त कर्म समाप्त हो गये है, फिर भी मेरी याचना है, कि मैं जगत में अपने शेष दिन प्रेममदत्ता के विस्तार में ही व्यतीत करू। माँ! मैंने तुम्हारी कामना समस्त मन-मस्तिष्क पर न छा गयी और मेरे अस्तित्व में क्षुद्रताओं, न्यूनताओं के लिये स्थान शेष रह गया हो इसमें मेरा क्या दोष?
माँ! कोई-कोई तुम्हे ‘ह्रीं’ स्वरूपा, कोई-कोई ‘ऐ’ स्वरूपा, कोई ‘श्रीं’ स्वरूपा, तो कोई ‘क्लीं’ स्वरूपा कहकर वंदना करता है। मेरे लिये तो तुम केवल मातृ स्वरूपा ही हो। मैं केवल इसी रूप में तुम्हें सर्वत्र, सदैव प्राप्त करना चाहता हूँ, वंदना करने की मेरी शक्ति ही कहाँ।
जननी! मुझे मेरी दरिद्रता, जरा, व्याधि और पीड़ा की भी इतनी खिन्नता नहीं, जितनी इस बात से, कि तुम्हारा ही पुत्र होते हुये भी मैं क्यों नीरस, अनुदार और जड़ हो गया हूँ। भगवती! मैने तुम्हारी साधना यद्यपि शक्ति प्राप्ति की अभिलाषा के साथ ही आरम्भ की थी, किन्तु अब इसे भी (शक्ति को) तुम्हे वापस सौप देना चाहता हूँ, इसका सदुपयोग तुम्हीं करना जानती हो, मैं नहीं। इसके साथ ही मैं स्वयं को भी तुम्हें सौंप देना चाहता हूँ।
हे माँ! हे करूणेश्वरी! अंत में मेरी एक ही अभिलाषा शेष रह गयी है, कि मैं तुम्हारे समक्ष बैठूं और तुम्हारे मातृत्व की गरिमा से भरे मुखमण्डल पर स्नेह की द्युति के समान निर्झरित स्मित हास्य में परिलुप्त होकर आत्मलीन हो जाऊं।
हे त्रिपुर सुन्दरी! हे माँ भगवति!! हे षोडशी!! मैने यथा शक्ति उपरोक्त षोडश पदों में अपने हृदय के अलोड़न-विलोड़न को व्यक्त करने का प्रयास किया है। मां! यदि तुम सच में प्रसन्न ही हो तो प्रतिक्षण मुझे सूक्ष्म अथवा स्थूल रूप में अपना सान्निध्य प्रदान करो। जिस प्रकार सद्यजात शिशु मां के स्तनपान को व्यग्र रहता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारे चरणों से उद्भूत अमृत रस का पान करने के लिये व्यग्र हूँ।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,