गुरूदेव ने कहा कि जो तुम ब्रह्म दीक्षा प्राप्त करना चाहते हो, जो तुम नित्य लीला विहारिणी दीक्षा प्राप्त करना चाहते हो उसके लिये तुम्हें तत्पर होना पड़ेगा, साधना सम्पन्न करनी पड़ेगी, गुरू सेवा करनी पड़ेगी और उनकी आज्ञा का अक्षरशः और प्रतिक्षण पालन करना पड़ेगा, क्योंकि यह देह को साधने और मन को बांधने के लिये अत्यंत आवश्यक है।
शंकर ने गुरूदेव की बातों को ध्यान से सुना और मन में निश्चय कर लिया कि यदि इससे भी कठिन अग्नि परीक्षा होगी तो भी मैं उसमें खरा उतरूंगा और गुरू आज्ञा का पालन करता हुआ, गुरू सेवा करता हुआ मैं इन कठिन क्रियाओं को सम्पन्न कर पूर्ण गुरू दीक्षा प्राप्त करूंगा और वे नर्मदा के एक किनारे पर, जहां से वह उत्तराभिमुख होकर अग्रसर होती है उस स्थान पर, उस गुफा में जो स्वयं प्रकृति की देन है, जो निर्मित नहीं है अपितु प्रकृति के द्वारा परिचालित है उसमें बैठकर साधना प्रारंभ की और वह प्रकृति निर्मित गुफा आज भी, जीवित, जागृत और चैतन्य है, जहाँ जाने से एक पवित्रता का बोध होता है, जहाँ जाने से एक विरक्ति का भाव जाग्रत होता है, जहाँ जाने से ध्यानस्त प्रक्रिया प्रारंभ होती है और जहाँ जाने से यह चेतना अपने आप अभिव्यक्त हो जाती है कि इस जीवन में कोई बंधु, कोई समाज, कोई माँ-बाप, कोई भाई-बहन, कोई संबंधी, कोई रिश्तेदार नहीं होते। अपितु यह तो देहगत संबंध है और जीवित रहते हुये देह को परे रखने पर प्राणमय चिंतन से विश्व को देखने की क्रिया प्रारंभ होती है।
यदि वहाँ पहुँचकर आज भी इस प्रकार का सत्य एक सामान्य दर्शक के मन में उद्घाटित होता है तो यह सोचा जा सकता है कि वास्तव में ही वह प्रकृति निर्मित गुफा कितनी अधिक दिव्य और तेजस्वी है जिसमें एक बालक शंकर ने यहाँ रहकर कितनी कठोर तपस्या की होगी और अपने जीवन में पूर्णता को प्राप्त करने का प्रयास कर सफलता अर्जित की होगी। गुरूदेव ने उन्हें द्वैत भाव की अपेक्षा अद्वैत भाव स्पष्ट किया कि ब्रह्म ही माया है, ब्रह्म ही जीव और जगत है और यह सब कुछ माया चारों तरफ बिखरती हुई पुनः ब्रह्म में लीन हो जाती है और यही से शंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का घोष इस पृथ्वी तल पर विकीर्ण हुआ। उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि माया तो एक छल है जिसमें जीवन भ्रमित होता है मगर जो इस भ्रम से परे हट जाता है, जो इस बात को अनुभव करता है कि ब्रह्म का एक स्थूल रूप माया है और जब वह यह समझता है कि ‘अहं ब्रह्मास्मि’– मैं ही ब्रह्म हूं, मुझसे ही माया का प्रादुर्भाव होता है और माया पुनः मेरे अन्दर ही लीन हो जाती है तभी सही दृष्टि से सनातन धर्म के समस्त ग्रंथों का आलोड़न-विलोड़न किया जा सकता है, समझा जा सकता है। गोविन्द पादाचार्य ने शिष्य की कठिन परीक्षा ली। शंकर नित्य गुरूदेव के उठने से पहले उठते, पूर्ण मनोयाग से उनकी सेवा करते, उनके समीप ज्यादा से ज्यादा बैठने का प्रयत्न करते और उनके एक-एक वाक्य को अपने जीवन में उतारते और यहीं से उनके जीवन की वह मूल व्याख्या कि ब्रह्म ही सत्य है, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ जिस का उद्घोष वेदों पुराणों उपनिषदों में दिया हुआ है का प्रारम्भ हुआ।
एक वर्ष तक गुरूदेव गोविन्द पादाचार्य ने उनकी कठोर से कठोर परीक्षा ली और जब उन्होंने अनुभव किया कि यह बालक किसी भी प्रकार की परीक्षा में पूर्णतायुक्त है तब गुरू ने उन्हें त्रिपुर सुन्दरी और श्री चक्र उपासना की साधना प्रदान की। भगवतपाद शंकराचार्य के घराने में साम्ब सदाशिव की उपासना परम्परागत रूप से चली आ रही थी। यही से शंकराचार्य ने शिव से निर्गुण परम तत्व की प्राप्ति का ज्ञान प्राप्त किया और शुद्ध तंत्र विद्या का ज्ञान प्राप्त करते हुये श्री चक्र की उपासना का अनुभव किया। सौन्दर्य लहरी के ग्याहरवें श्लोक में, यह समझाया है कि जीवन अपने-आप में पूर्णता का द्योतक है। श्री चक्र की उपासना को समझा नहीं जा सकता क्योंकि श्री चक्र के उपास्य देवता ललिता त्रिपुरा है और मंत्र के मनन द्वारा ही मन का तत् सम्बन्धी देवता से तादात्मय स्थापित किया जाता है और उन्होंने सौन्दर्य लहरी में स्पष्ट किया-
यही नहीं अपितु उन्होंने श्री चक्र को स्पष्ट रूप से समझने और बताने के लिये कहा-
उन्होंने इन श्लोकों के माध्यम से ललिता त्रिपुर सुन्दरी के बारे में स्पष्ट रूप से व्याख्या की है और यह बताया है कि मंत्र के मनन द्वारा मन का तत्सम्बंधी देवता से किस विधि से, किस रहस्य से तादात्मय स्थापित किया जाता है और उन्होंने इस सौन्दर्य लहरी में ललिता त्रिपुरांबा के मंत्र का निर्देश स्पष्ट रूप से उद्घाटित किया है और बताया है कि वास्तव में ही मात्र श्री चक्र की उपासना के माध्यम से ही ब्रह्म गायत्री के वैदिक मंत्र और हादी-कादी तांत्रिक मंत्रों को समझा जा सकता है।
एक प्रकार से यदि बाह्य रूप से देखें तो शंकराचार्य ने मां पार्वती को माध्यम बनाकर उनके सौन्दर्य का वर्णन किया है। परन्तु विद्वान यही पर भूल कर बैठे है। यह मात्र पार्वती के सौन्दर्य का वर्णन नहीं है अपितु तंत्र की श्रेष्ठतम व्याख्या है जिसके माध्यम से पूरे तंत्र को समाहित कर यह स्पष्ट किया गया है कि बिना तंत्र के जीवन की पूर्ण व्याख्या संभव नहीं है और न श्री यंत्र और श्री चक्र को समझा जा सकता है। शरीर के अंदर अभ्यंतर पट पर इडा, पिंगला और सुषुम्ना जैसी नाडि़यों एवं षट चक्र और देवता रूपी शक्तियों के केन्द्रों की व्याख्या एवं सहायता से ही योग पद्धति के साधनक्रम को समझा जा सकता है और ऐसी स्थिति आने पर शरीर ही अपने आप में पूर्ण श्री यंत्र बन जाता है और तब मंत्रों की सहायता से इस मूलाधार कुण्डलिनी शक्ति का उत्थान करके उसका आरोहण, अवरोहण सुषुम्ना मार्ग से ब्रह्म रंध्र अर्थात सहस्त्रर तक किया जा सकता है क्योंकि ये सब शक्तियां बीज रूप से शरीर में तो समाहित होती ही है आवश्यकता इस बात की है कि इनका जागरण करके शरीर में ही ईश्वर की प्राप्ति की जा सके।
इन देवताओं को समझने के लिये कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं और जो बाहर भटकते हैं वे शरीर में स्थित श्री चक्र द्वारा निर्मित शरीर को न समझने की भूल कर बैठते हैं क्योंकि पिंड और ब्रह्मांड दोनों की रचना तात्विक दृष्टि से एक रूपा है। यदि योग मार्ग से गतिशील हो तो कुण्डलिनी,मन, प्राण, नाद और बिंदु इन पांचों को उर्ध्व चेतनायुक्त बनाकर ब्रह्मांड के समस्त तत्वों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और यह प्राप्त करके ही वह विश्व की समस्त शक्तियों को अपने अंदर समाहित कर व्यक्ति उन आलौकिक कार्यों को सम्पन्न कर सकता है जो कि अगम्य हैं, अगोचर हैं, अद्वितीय हैं और सामान्य जनों के लिये आश्चर्यजनक है। सही दृष्टि से देखा जाये तो मूलाधार स्थित कुण्डलिनी शक्ति ही महामाया है और इसी को शुद्ध स्वरूप और इसी को सिद्ध विद्या कहा जाता है। यही परा है, यही पश्यंति है यही माध्यमा है और यही बैखरी है जिसे व्यक्त करके समस्त मंत्रों के माध्यम से जगत की सृष्टि समझी जा सकती है और उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि योग और उपासना का स्थान अन्यत्र कहीं भी नहीं अपितु मनुष्य की देह ही है और साथ ही साथ उन्होंने उस तथ्य का भी गूढ़ता से स्पष्टीकरण किया कि जीवन की सर्वोच्च उपलब्धियों तंत्र और मंत्र, योग और दर्शन, मीमांसा और अद्वितीय कार्य, परकाया प्रवेश और वायुगमन प्रक्रिया शरीर को अंगुष्ठ मात्र करके गमनशील होना और सिद्धाश्रम की प्राप्ति मात्र इस शरीर के माध्यम से ही संभव है क्योंकि परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी ही सही अर्थों में मंत्रमय जगत की सृष्टि करती हैं और यही मूलाधार स्थित कुण्डलिनी शक्ति की पूर्णता है।
उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी इस व्याख्या को सौन्दर्य लहरी के दो श्लोकों में स्पष्ट किया है-
और श्लोक को और ज्यादा तरीके से समझाते हुये बताया की किस प्रकार से शरीर को उच्चाटन, आकर्षण, द्रविकरण, सम्मोहन, वशीकरण, तारण और विद्रावण किया जाता है।
और ये दो श्लोक भी इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त हैं कि यह शरीर ही सही अर्थों में श्री चक्र है इसी में संसार लीन होता है और इस शरीर को ही श्री चक्र बना करके, इस शरीर को ही त्रिपुर सुन्दरी में समाहित करके संसार की समस्त चेतना, संसार का समस्त ज्ञान, संसार की सारी कार्य पद्धति को समझा जा सकता है।
परन्तु इसे समझने के लिये गुरू की सन्निहिता और गुरू की कृपा अत्यावश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में स्पष्ट रूप से यही सत्य कई वर्षों पूर्व स्पष्ट कर दिया था कि-
अर्थात बिना गुरू के उस जीवन को नहीं समझा जा सकता और जब जीवन को नहीं समझा जा सकता तो श्री चक्र और ललिताम्बा को भी नहीं समझा जा सकता और यदि इन दोनों, तत्वों को नहीं समझा जा सकता तो सूक्ष्म रूप धारण करना, विशुद्ध काया प्राप्त करना, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना को जाग्रत करना, कुण्डलिनी को जाग्रत कर पूर्णता तक पहुँचना संभव नहीं है।
इसलिये चक्रों और कुण्डलिनी का जितना सुन्दर विषय विवेचन भगवतपाद शंकराचार्य ने सौन्दर्य लहरी के माध्यम से किया है वह अपने आप में अन्यतम है क्योंकि यह ग्रंथ केवल पठन करने के लिये अथवा मनन करने के लिये ही नहीं है अपितु सही अर्थों में यह तंत्र ग्रंथ है, यह तांत्रिक ग्रंथ है। इसके एक-एक श्लोक में तंत्र की विशुद्ध व्याख्या है और इसके मार्ग से ही, इसे समझकर ही हादी-कादी, उपासना तथा योग मार्ग को लेकर गतिशील हुआ जा सकता है।
उन्होंने इस सौन्दर्य लहरी में कई स्थानों पर भगवान या गुरू को ही शंकर कहा है, शिव कहा है और यह बताया है कि उनके माध्यम से ही जीवन को पूर्णता दी जा सकती है। और जीवन के बत्तीस वर्ष के अल्प समय में ही ऐसा ग्रंथ संपादित कर सन् 820 ई- में अपना प्रातः स्मरणीय नाम सदा के लिये काल के भाल पर अंकित कर, इस नश्वर देह को विसर्जित कर दिया।
परन्तु उनकी यह सौन्दर्य लहरी आज भी योगियों के लिये और विद्वानों के लिये अन्यतम ग्रंथ है! मैं भगवतपाद शंकराचार्य का यह सौन्दर्य लहरी का पाठ कर रहा हूँ और केवल उनके स्थूल सौन्दर्य का वर्णन कर रहा हूँ। यह श्लोक केवल स्थूल सौन्दर्य वर्णन ही नहीं है और दूसरी दृष्टि से पूर्णतः स्थूल सौन्दर्य वर्णन ही है। विद्वानों ने इन श्लोकों को तांत्रिक श्लोक कहा है और इन श्लोकों में से तंत्र को खोज निकाला है। कुछ विद्वानों ने अद्वैत की भावना को ध्यान में रखकर इस पूरे शरीर को ब्रह्म माना है और उन्होंने कहा है कि इसी शरीर में ब्रह्म है और इसी शरीर में माया है। इन दोनों का अंतर नहीं किया जा सकता।
कुछ विद्वानों ने इन श्लोकों के आधार पर प्रत्येक श्लोक को तंत्रमय मानकर स्तोत्र और तंत्र का समन्वय किया है और बताया है कि इसकी प्रत्येक पंक्ति में तंत्र है और यदि इस विधि से अवलोकन किया जाये तो यह शरीर एक तंत्र बन जाता है, एक यंत्र बन जाता है और इसकी पूजा ध्यान, धारणा, चिंतन, समाधि करने से ही पूर्णता एवं सफलता मिलती है। यह नहीं, अपितु कुछ विद्वानों ने सम्पूर्ण योग का समन्वय इस तंत्र में ढूंढ़ निकाला है, या दूसरे शब्दों में कहें तो प्रत्येक श्लोक को एक यंत्र का स्वरूप दिया है और बताया है कि श्लोक के अनुसार यदि यंत्र निर्मित किया जाये और उस यंत्र की व्याख्या, उस यंत्र का चिंतन, उस यंत्र का ध्यान और उसकी पूरी पूजा पद्धति सही ढंग से की जाये तो व्यक्ति इडा, पिंगला, सुषुम्ना, वैखरी पद्धति द्वारा इस मनुष्य को ब्रह्ममय बनाता हुआ पूर्णतः ब्रह्मांड में लीन कर देता है, पूर्णतः आनन्द में लिप्त कर देता है, पूर्णतः सिद्धाश्रमयुक्त कर देता है। वे पंडित भी अपने आप में प्रामाणिक है।
आगे चलकर कुछ विद्वानों ने इस बात को स्वीकार किया है कि ये श्लोक कोई तंत्र व्याख्या नहीं है, केवल यंत्र का चित्रण नहीं हैं अपितु ये श्लोक आयुर्वेद की दृष्टि से अन्यतम है क्योंकि भगवतपाद शंकराचार्य जहाँ एक और पूर्णतः तंत्रमय हैं, अद्वैतमय हैं, ब्रह्ममय हैं वहीं एक अद्वितीय चिकित्सक भी हैं, आयुर्वेद भी है। वे जहाँ-जहाँ से निकलते हैं वहाँ-वहाँ वनस्पतियाँ स्वयं खड़े होकर, हाथ जोड़कर अपना परिचय, अपनी उपयोगिता, अपनी सफलता और इस मल-मूत्र भरे मानव देह को किस प्रकार से जीवित रखा जाये जिससे कि इसके अंदर उस ब्रह्म का निवास बना रह सके इसकी व्याख्या इस तथ्य की भी इस श्लोक में व्याख्या की गई है।
और सबसे अंत में विद्वान इस रहस्य को सही ढंग से स्पष्ट नहीं कर सके कि इस श्लोक का प्रत्येक शब्द मंत्रमय है, इस श्लोक के प्रथम शब्द को लेकर और चारों पंक्तियों के एक-एक वाक्य को लेकर मंत्र की रचना की जाये तो वह तंत्र का अद्भुत, अनिर्वचनीय मंत्र बन जाता है और इस मंत्र के प्रभाव से व्यक्ति माया के बंधन से छूटकर पूर्णतः ब्रह्ममय बन जाता है। मूल स्वरूप तो यह है कि मनुष्य माया के बंधन से मुक्त हो जाये। वह इस बात का भान रखे कि मेरे जीवन में कोई माँ है, न कोई पिता है, न कोई भाई है, न कोई बंधु है, न सखा है, न कोई स्वजन है। मैं अकेला पिंड ही उत्पन्न हुआ हूँ और अकेला पिंड ही समाप्त हो जाऊँगा।
यह हो सकता है कि मैं किसी योनि में जन्म लूं, यह हो सकता है कि मैं भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, गंधर्व, आदि किसी प्रकार से विचरण करूं। यह भी हो सकता है, कि मेरे प्राण का तत्व इस ब्रह्मांड में रहेगा या नहीं रहेगा और क्या मैं सदेव सिद्धाश्रम को प्राप्त कर सकूंगा- ये कई प्रश्न मानव के मन में उभरते है। जो विद्वान है वे इसका अनुभव करते है, वे समझते है, वे इसकी व्याख्या करते हैं। परन्तु वे इस व्याख्या में सफल नहीं हो पाते। इस दृष्टि से देखा जाये तो सौन्दर्य लहरी के एक-एक श्लोक पर एक-एक ग्रंथ लिखा जा सकता है और वृहदाकार ग्रंथ लिखने के अनंतर भी पंडित, विद्वान इस बात का ही निर्णय नहीं कर पाते कि क्या मैं जो कुछ कहना चाहता था वह कह भी पाया हूँ कि नहीं।
इन श्लोकों का आकार और आधार वृहद दिखाई देता है और उन विद्वान को अपना अनुभव, अपना चिंतन और अपना अर्थ अत्यंत लघु-प्रतीत होता है। वास्तव में ही भगवतपाद शंकराचार्य ने इस श्लोकों की रचना ही नहीं की, कि अपितु इनके माध्यम इस धारणा को पुष्प किया कि द्वैत जैसी कोई स्थिति नहीं है। माया अलग चीज नहीं है। माया को परे हटाकर ब्रह्म को नहीं देखा जा सकता।
ब्रह्म को देखने की विधि केवल इतनी ही है कि वह माया से वेष्टित है और इस माया को परे हटाने के लिये इस बैखरी पद्धति का ध्यान करना आवश्यक है और साथ ही साथ जगत-जननी माँ पार्वती के रूप का ध्यान अपने अंदर बसा लें, अपने अंदर समाहित कर लें तो वह उसकी प्रथम सीढ़ी पर भी पहुँच सकेगा। वे चाहते थे कि एक-एक श्लोक का इस प्रकार सातों तरीकों से वर्णन-विवरण दूं परन्तु क्या इस प्रकार सामान्य भद्र जन इतने गोपनीय रहस्य को समझ पायेंगे क्या वे इतने सरल तरीके से तंत्र को देख पायेंगे, क्या वे इतने सामान्य तरीके से इस ब्रह्म से माया को अलग करके अनुभव कर सकेंगे, क्या कोई आयुर्वेदज्ञ इन श्लोको में निहित उन वनस्पतियों का अध्ययन कर सकेगा, जो कि इसमें सन्निहित है, क्या इन श्लोकों के माध्यम से योग की पूर्ण मिमांसा कर सकेंगे, जिसके माध्यम से मूलाधार से उठकर कुण्डलिनी सहस्त्र तक पहुँचती है और क्या वे जीव और जगत, ब्रह्म और माया देह और ईश्वरता, संसार और सिद्धाश्रम के भेद को अनुभव कर सकेंगे?
शायद ऐसा संभव न भी हो सके? इसलिये मुझे केवल भगवत पाद शंकराचार्य के प्रत्येक श्लोक का स्थूल वर्णन करने की क्रिया अपनानी पड़ी। यह पद्धति स्थूल होते हुये भी सूक्ष्म है और सूक्ष्म होते हुये भी स्थूल है। इन दोनों स्थितियों के बीच जब मनुष्य गतिशील होता है तब उसमें ज्ञान का उदय होता है, तब उसमें चेतना का प्रादुर्भाव होता है, तब वह इस बात को अनुभव कर सकता है कि मैं हाड़-मांस का सामान्य पुतला नहीं हूँ, मैं रक्त और नाडियों से उलझा हुआ कोई यंत्र नहीं हूँ अपितु मेरे अंदर एक विराटता छिपी हुई है- ऐसी ही विराटता जैसी भगवान कृष्ण ने गीता के अनन्तर अर्जुन को स्पष्ट रूप से दिखाई थी। और वह विराटता प्रत्येक मनुष्य में निहित है।
आवश्यकता है एक योग्य गुरू की। ऐसा गुरू जो इस बात को समझ सके, ऐसा गुरू जो इन सारी पद्धतियों का अध्ययन कर चुका हो, ऐसा गुरू जो इस श्लोक के एक-एक अनुवय को व्याख्या कर समझ सके और समझा सके। ऐसा गुरू जो योग में भी पारंगत हो, वनस्पति में भी पारंगत हो, योग का भी अध्ययन किया हो, ब्रह्म और माया के तत्व को समझ चुका हो और अपने आप में ध्यान मुद्रा के माध्यम से इस माया को ब्रह्म में समाहित करने की क्रिया जानता हो। मैं जानता हूँ कि ऐसा गुरू मिलना कठिन है, मैं जानता हूँ कि इन सभी तत्वों का अध्ययन एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है, मैं यह भी जानता हूँ कि इनमें से प्रत्येक तत्व, प्रत्येक क्रिया विशाल और विराट है और एक व्यक्ति यदि अपना पूरा जीवन योग में ही खपा दे, तंत्र में ही विसर्जित कर दे, ब्रह्म को ही समझने में लगा दे, तब भी वह एक जीवन में उसकी व्याख्या और उसके अर्थ और उसके अनुवय और उसके चिंतन और उसकी प्रक्रिया को नहीं समझ सकेगा।
इसके लिये तो उसे कई जन्म लेने पड़ेंगे और एक-एक जन्म पूरा उस चिंतन में लगा देने के अनन्तर ही वह समझ सकेगा कि और क्या है, ब्रह्म माया जीव और जगत क्या है, जड़ और चेतना क्या है। तंत्र पद्धति के माध्यम से पूर्णता कैसे पाई जा सकती है। यंत्र का स्वरूप और उसकी व्याख्या क्या है, कायाकल्प की पद्धति और सिद्धाश्रम में गमन कैसे होता है, यह सब अत्यंत जटिल दुर्बोध और कठिन विषय है।
वास्तव में ही एक जीवन में इन सारे वर्णनों का अध्ययन संभव नहीं है परन्तु फिर भी इन समस्याओं से कभी न कभी तो जूझना ही पडेगा, कभी न कभी तो इन समस्याओं का अध्ययन करना ही पड़ेगा, कभी न कभी तो कोई विद्वान या पंडित या हंसावतार, कृष्णावतार या पूर्णावतार उत्पन्न हो सकेगा जो भगवतपाद शंकराचार्य के प्रत्येक श्लोक को भली प्रकार समझ सके। और आज अधिकांश व्यक्ति स्थूल दृष्टि युक्त हैं, वे सूक्ष्म पद्धति की क्रिया को नहीं समझ पाते और यह तब तक नहीं समझ सकते जब तक उन्हें अद्वितीय गुरू की प्राप्ति न हो जाये और अद्वितीय गुरू प्राप्त होने के अनन्तर भी क्या वह गुरू की कृपा की प्राप्ति कर सकता है, क्या जो शास्त्रों में वर्णित है उसके अनुसार गुरू की सेवा कर सकता है, क्या वेदों में पुराणों में, उपनिषदों में और श्रुतियों और चिंतनों में गुरू को एक विशाल आकार देते हुये जो सूक्ष्म चिंतन किया है क्या उस चिंतन तक एक मनुष्य पहुँचकर गुरू सेवा कर, उसकी कृपा कटाक्ष को प्राप्त कर सकता है? क्या वह घोर तपस्या कर सकता है, क्या वह केवल पूर्ण देकर या वायु भक्षण कर साधना और सिद्धि प्राप्त कर सकता है?
यह आज के युग में लगभग असंभव सा है, कठिन है क्योंकि व्यक्ति स्वयं उतना जटिल, इतना तनावग्रस्त, इतना बोझिल हो गया है कि वह इस खोल से बाहर निकलकर गुरू की खोज नहीं कर पाता। उस गुरू को नहीं प्राप्त कर सकता जो इन सब दृश्यों से सिद्धहस्त हो। उस गुरू की काया में प्रवेश नहीं कर सकता जिसके अंदर इतने रहस्यों और ज्ञान का सागर लहलहा रहा हो और इतना धैर्य नहीं है, कि वह चकोर की तरह गुरू की आँखो में डूबकर उनके मुख से निसृत शब्दों और वाक्यों का पालन कर अपने जीवन को धन्य अनुभव कर सकता हो, छाया की तरह उनके साथ रह सकता हो, अपने आपको उनमें निसर्जित कर सकता हो, उनको सही ढंग से समझ सकता हो और अपने आपको मिटाकर, अपने आपको विसर्जित कर गुरूमय हो सकता हो।
असंभव तो कुछ नहीं है कठिन अवश्य है। आकाश को छूना और पृथ्वी की गहराई नापना असंभव नहीं है परन्तु कठिन अवश्य है। मानसरोवर की सुन्दर धारा में डुबकी लगाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है और जब तक वे गौरी-कुंड को समझ नहीं सकेंगे तब तक हिमालय को भी नहीं समझ सकेंगे, तब तक मानसरोवर को भी नहीं समझ सकेंगे, तब तक अपने अंदर जगत जननी के स्वरूप को धारण भी नहीं कर सकेंगे, तब तक उनके मन में ज्ञान का उदय भी नहीं हो सकेगा और इसलिये विचरण करना असंभव नहीं है परन्तु इस ज्ञान को समाहित कर, ऐसे गुरू को ढूंढ कर उसमें लीन हो जाने की क्रिया कठिन अवश्य है और जो इस क्रिया को सम्पन्न कर लेता है वह युग-पुरूष के समान हो जाता है, उसका जीवन अद्वितीय बन जाता है।
सौन्दर्य लहरी के दो भाग हैं। पूर्वार्द्ध भाग आनन्द लहरी के नाम से विख्यात है तो दूसरा भाग सौन्दर्य लहरी के नाम से व्याख्यात है, पहले भाग में भगवतपाद शंकराचार्य ने ब्रह्म और माया का विवेचन कर अपने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि अद्वैत ही जीवन का आधार है और व्यक्ति अपने शरीर को ही माया समझकर उसी में, ब्रह्म में समन्वय कर इन दोनों को एकाकार कर सिद्धाश्रम में पहुँच सकता है।
अंत में तो जीवन और जगत का लय सिद्धाश्रम में ही है, परन्तु वहाँ तक जाना, जाकर वहाँ निवास करना और जाकर वापस लौटना अत्यंत दुष्कर है, ठीक उसी प्रकार से कि एक जड़ व्यक्तित्व सम्पूर्ण समुद्रों को अपने हाथों से तोल सके, तैरकर पार कर सके। परन्तु कुछ योगीजन ऐसा कर सके है। ऐसा वे कर सकते हैं जिनके पूर्वजन्म के पुण्यों का संचय होता है, ज्ञान और चेतना का सामंजस्य होता है। वे स्थूल काया में दिखाई देते हुये भी विराटता के साकार पूँज होते हैं।
इस क्रिया में उम्र नहीं देखी जाती और क्योंकि स्थूल उम्र तो मनुष्य अपनी बुद्धि और अपनी गणना के अनुसार समझ सकता है। परन्तु उसकी आध्यात्मिक आयु को समझना सबके बस की बात नहीं होती। जब तक व्यक्ति उस आध्यात्मिक आयु को नहीं समझ सकता, तब तक वह पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता, तब तक वह आनन्द भी नहीं ले सकता, तब तक वह जीवन के सौन्दर्य का पान भी नहीं कर सकता और वह मल-मूत्र भरी देह को प्राप्त कर मल-मूत्र भरी देह में ही विसर्जित हो जाता है।
आनन्द लहरी में, जिसमें चालीस श्लोक हैं, उन श्लोकों में प्रभाललाद लहरी पद का प्रयोग तदर्थ रूप में किया गया है और भगवतपाद ने इस पिंड व्यक्ति की शक्ति, इस पिंडस्थ में संबंधित श्री चक्र, उसमें सन्निहित श्री विद्या की व्याख्या की है। यह वह विधि है जिसके माध्यम से षट चक्र भेदन हो सकता है और इसके अनंतर मातृकाओं के द्वारा परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी वाणी से, अनुभव करता हुआ इनके पारस्परिक संबंधों पर चिंतन और विचार कर सकता है। क्योंकि ये क्रियाये ही कुण्डलिनी शक्ति के जागरण का आधार है।
जब-तक कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत नहीं हो जाती तब तक व्यक्ति मल-मूत्र भरी देह से छूट भी नहीं सकता और ऐसी क्रिया न होने पर भगवतपाद के अद्वैत सिद्धांत को भी नहीं समझा जा सकता है। अद्वैत सिद्धांत ने जीव और ब्रह्म की एकरूपता को स्वीकार किया है। अद्वैत सिद्धांत ब्रह्म और माया की अपरोक्ष अनुभूति है जिन्हें समझाने का प्रयास किया है और देखा जाये तो शंकराचार्य इन्हीं श्लोकों में रमें हैं। इन्हीं श्लोकों में अपने जीवन के निचोड़ को स्पष्ट किया है। इन्हीं श्लोकों के माध्यम से सृष्टि के उदय, पालन और अभ्युथान की क्रिया को समझाने का प्रयास किया गया है और इन्हीं श्लोकों के माध्यम से मनुष्य देह की पूर्णता को स्पष्ट रूप से व्याख्या कर अनुवय क्रिया स्पष्ट की है।
यह ठीक है कि यह चेतना सत्ता जड़ पद्धति का कार्य करती प्रतीत होती है, यह ठीक है कि मनुष्य गतिशील होता हुआ दिखाई देता है, यह भी ठीक है कि उसे आलोचनाओं-प्रतिआलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, उसको सुख-दुःख, हर्ष-विषाद का समन्वय करना पड़ता है और अधिकतर जो भ्रांतियुक्त व्यक्ति है और वह जीव जो भ्रांति में पड़ा होता है उसे बाहर निकलने के लिये किसी प्रकार से समर्थ नहीं होता और ऐसा होने पर तो यह जीवन फिर पुनः जन्म ले लेता है यह जीव फिर उसी अवस्था में रह जाता है जिस अवस्था में आज है और इस प्रकार से तो कई जन्म उसे लेने पड़ सकते है।
यही भगवतपाद ने पहली बार स्पष्ट रूप से अनुवय किया है, समझाया है, कि बिना गुरू के ज्ञान के, यह संभव नहीं है परन्तु उन्होंने संकोचवश ही सही गुरू की व्याख्या का अनुवय किया है, उन्होंने कहा कि देहधारी व्यक्तित्व पूर्ण गुरू नहीं हो सकता, उसके अंदर जो ज्ञान है परा, पश्यंति वैखरी का जो परस्पर आलोड़न-विलोड़न है जीव और जगत का समन्वय एवं श्री चक्र का चित्रण है, श्री विद्या का पूर्ण समन्वय है उसका उसे भान हो और वह षट चक्र भेदन की विधि को पूर्ण रूप से जानता हो तभी वह गुरूत्व प्राप्त कर सकता है।
यह भी स्पष्ट किया है कि आने वाले समय में विद्वान तो मिल सकते हैं, भाष्यकार भी मिल जायेंगे, परन्तु ऐसे गुरू नहीं मिल सकेंगे जिनमें यह सारा ज्ञान सम्मिलित है और वैसा गुरू मिलना अंसभव सा ही होगा जो कायाकल्प की विधि को पूर्ण रूप से समझता हो, जो कायाकल्प के माध्यम से शरीर को अंगुष्ठवत बनाने की क्रिया को जानता हो, जो शरीर को अंगुष्ठवत बनाकर सिद्धाश्रम पहुँच पाता हो। जहाँ पर हजारों-हजारों वर्ष आयु प्राप्त योगी, संन्यासी, भगवान श्री कृष्ण और प्रातः स्मरणीय भगवतपाद स्वामी सच्चिदानन्द जी के शरीर से निकलती हुई सुगंध की विराटता होगी, जहाँ सिद्धयोगा झील होगी, जहाँ पर सूर्य और चन्द्रमा का वश नहीं चलता होगा, जो स्थान जन्म जरा और मरण से परे होगा, जिसकी माटी अपने-आप में सुरभित और सौन्दर्यमयी होगी और जो अदृश्य होते हुये भी दृश्यमान होगी, दृश्यमान होते हुये भी अदृश्य बनी रहेगी।
उसमें प्रवेश वही पिंड कर सकेगा जो भौतिक शरीर से भले ही एक स्थूल काया दिखाई दे, परन्तु उसके अंदर ये सारे तत्व संग्रहित होंगे और फिर उस गुरू में इतनी चेतना होगी, इतनी सामर्थ्य होगा कि वह अपने शिष्य को अपने साथ वहाँ ले जाने की क्रिया समझता होगा और ले जाने की क्रिया को स्पष्ट कर सकता होगा।
आदमी प्रश्न करते हैं कि क्या ऐसे गुरू को समझा जा सकेगा, क्या ऐसे गुरू की कृपा प्राप्त की जा सकेगी, क्या ऐसे गुरू की कृपा-कटाक्ष को अनुभव किया जा सकेगा, क्या ऐसे गुरू से तादात्मय स्थापित किया जा सकेगा, क्या व्यक्ति अपने-आपको पूर्ण गुरू में लीन कर सकेगा और क्या ऐसे गुरू और शिष्य दो शब्द अलग-अलग नहीं रहकर सिद्ध शब्द को पूर्ण परिभाषित कर सकेंगे?
शंकर यहाँ संशय ग्रस्त नहीं है अपितु उनके सामने एक प्रश्न चिन्ह अवश्य लगा हुआ है कि ऐसा गुरू वही हो सकेगा जो हंसावतार होगा, जो एक विशेष उद्देश्य के लिये पृथ्वी लोक पर अवतरित हुआ होगा, जो मनुष्यों में मनुष्य, भौतिक व्यक्तियों में भौतिक, योगियों में योगी, राजाओं में राजसी और तपस्वीयों में पूर्ण तपस्वी और योगी बनकर जीवित, जाग्रत, दृश्य और अदृश्य दिखाइ दे सकेगा।
उसके जीवन में वे क्रियाये समन्वित होंगी जो एक गृहस्थ जीवन में आवश्यक है। पत्नी, पुत्र, बंधु-बांधव, धन, यश, मान, पद-प्रतिष्ठा में लीन होते हुये भी अलग खड़ा होने की सामर्थ्य रखता होगा जिस प्रकार से एक कमल कीचड़ में उत्पन्न होकर, जल में रहता हुआ भी जल से बिल्कुल अलग होता है। उस पर जल का बिल्कुल प्रभाव नहीं होता। ऐसा ही पुष्प देवताओं के मुकुट को सुशोभित करता है। स्पर्श कर सकता है। क्या ऐसा गुरू होने पर एक स्थूलकाय बुद्धिहीन शिष्य उस स्थूलकाय गुरू के अंदर पहुँचकर इन सभी आयामों को अनुभव कर सकेगा? क्या उसमें इतनी लालसा होगी, कि वह इन सारी क्रियाओं को समझने के लिये प्रयत्नशील होगा? क्या वह शिष्य हर्ष और विषाद से परे हटकर गुरू में एकात्म होता हुआ पूर्ण तपस्यारत हो सकेगा और अंत में ऐसा शिष्य क्या गुरू में लीलावस्था को जान सकेगा? क्योंकि वह लीला देवताओं में भी दुर्लभ है, यक्षों, गंधर्वों, किन्नरों में भी कठिन है। इसीलिये गुरू को इन देवताओं से बहुत ऊपर माना है, क्योंकि उनकी महिमा का वर्णन और विस्तार, विवेचन और क्रिया एक सामान्य मनुष्य नहीं कर सकेगा और यदि वह नहीं कर सकेगा तो उस गुरू को कैसे पहचान सकेगा?
और यदि नहीं पहचान सकेगा तो वह इस मल-मूत्र, रक्त-मज्जा, थूक-लार से भरे हुये शरीर से अपने आपको दूर कर, तटस्थ होकर एक किनारे खड़े होकर उस गुरू को कैसे पहचान सकेगा? यदि नहीं पहचाना गया, नहीं पहचान सकेगा, तो गुरू तो पूर्ण अवतार हैं ही। गुरू तो पूर्ण हंसावतार है ही। वे तो एक विशेष उद्देश्य को लेकर यदा-कदा पृथ्वी लोक पर आयेंगे ही और अपने कार्य को सम्पन्न कर पुनः किसी अन्य लोक में विचरण करने के लिये प्रस्थान करेंगे ही। परन्तु ऐसा होने पर सामान्य मनुष्य के लिये हाथ मलने के अलावा क्या रह पायेगा, पछताने के अलावा उसके पास कौन-सी पूंजी रह पायेगी, दुःखी होने के अलावा उसके पास कौन-सी उपलब्धि हो सकेगी?
वह फिर हजारों वर्षों तक प्रतीक्षा करने के बाद भी ऐसे गुरू को समझ सके, पहचान सके, उससे तादात्मय कर सके, उससे एकाकार हो सके, उसमें अपने-आप को पूर्ण समन्वय कर सके, यह कठिन है। इसीलिये भगवतपाद शंकराचार्य के सामने प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है और यहीं पर वे विचलित होते हैं, यहीं पर उनकी वाणी में एक थरथराहट अनुभव हुई है कि फिर उस शिष्य और गुरू का समन्वय कैसे हो पायेगा?
क्योंकि शिष्य माया है और गुरू पूर्ण ब्रह्म है। उनका समन्वय नहीं होगा तो अद्वैत की स्थापना कैसे हो पायेगी? इस अद्वैत को कौन स्थापित कर पायेगा, इस अद्वैत को कौन समझा पायेगा, इस अद्वैत को किस प्रकार समझा जा सकेगा?
फिर भी शंकराचार्य विश्वास करते हैं कि पृथ्वी पर कोई न कोई शिष्य खड़ा होगा ही, कोई न कोई गुरू तो ऐसे शिष्य को ढूंढ निकालेगा ही, कोई न कोई शिष्य तो एकात्म भाव स्थापित कर सकेगा ही, और जब ऐसा होगा तभी मेरी आत्मा अपने आप में एक आनन्द अनुभव कर सकेगी।
यहीं पर आनन्द लहरी का प्रादुर्भाव होता है, यहीं पर सौन्दर्य लहरी का आविर्भाव होता है और इन श्लोकों के माध्यम से वह जड़ से जगत, द्वैत से अद्वैत, माया से ब्रह्म, स्थूलता से सूक्ष्मता और मल-मूत्र भरी देह से सिद्धाश्रम से संपर्क स्थापित करने का गंभीर प्रयास करते है। शंकराचार्य ने जगत-जननी उमा के सौन्दर्य का स्थूल वर्णन इस सौन्दर्य लहरी में कर मनुष्य जाति को जो अमूल्य अद्वितीय रत्न भेंट किया है उसके लिये यह लोक युगों-युगों तक उनको स्मरण रखेगा, उनके प्रति नत-मस्तक होगा। मैं आपको पूर्ण आशीर्वाद देता हूँ कि आप अपने शिष्यत्व को उच्चता की ओर अग्रसर करते हुये पूर्णत्व प्राप्त करें।
आशीर्वाद आशीर्वाद आशीर्वाद
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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