भगवान विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं और सम्पूर्ण विश्व श्री विष्णु की शक्ति से ही संचालित है। वे निर्गुण, निराकार तथा सगुण साकार सभी रूपों में व्याप्त हैं। ईश्वर के ताप के बाद जब जल की उत्पत्ति हुई तो सर्वप्रथम भगवान विष्णु का सगुण रूप प्रकट हुआ। विष्णु की नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। विष्णु के दो अर्थ हैं पहला विश्व का अणु और दूसरा जो विश्व के कण-कण में व्याप्त है। भगवान विष्णु का स्वरूप क्षीर सागर में शेषनाग पर विराजमान है व इन्होंने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये है। इनके शंख को ‘पाञ्यजन्य’ कहा जाता है। चक्र को ‘सुदर्शन’, गदा को कौमोदकी और मणि को कौस्तुभ कहते हैं।
भगवान विष्णु के कुल 24 अवतार हुये जिनमें 10 मुख्य हैं, जिन्हें दशावतार कहा जाता है। इस बार हम श्री विष्णु के प्रथम व विशेष अवतार मत्स्य अवतार के बारे में विस्तार से जानेंगे। जिनका वर्णन भगवत पुराण में है। सतयुग में भगवान विष्णु ने सृष्टि को प्रलय से बचाने के लिये मत्स्यावतार लिया था। समय आने पर मत्स्यरूपधारी भगवान विष्णु ने राजा सत्यव्रत को तत्वज्ञान का उपदेश दिया, जो मत्स्यपुराण नाम से प्रसिद्ध है। मत्स्यपुराण हिन्दुओं के पवित्र 18 पुराणों में से एक है, पुराणों में इसका स्थान सोलह है। इस पुराण में भगवान श्रीहरि के मत्स्य अवतार की मुख्य कथा के साथ अनेक तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दान आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस पुराण को स्वयं श्रीहरि मत्स्य भगवान ने कहा है। यह पुराण परम पवित्र, आयु की वृद्धि करने वाला, कीर्ति वर्धक, महापापों का नाश करने वाला एवं यश को बढ़ाने वाला है। इस पुराण की एक दिन भी कथा सुन लेने पर व्यक्ति पापमुक्त होकर परम धाम को प्राप्त करता है।
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ। धर्मियों की रक्षा के लिये, दुष्टों के विनाश के लिये और इस धरती पर दिखने वाले धर्म के सिद्धांतों को फिर से स्थापित करने के लिये, युगों-युगों तक।
भगवान विष्णु जब-जब पृथ्वी पर अधर्म की वृद्धि होती है तब वे धर्म की पुनः स्थापना के लिये अवतरित होते हैं। इसीलिये जब मानवता दाव पर थी क्योंकि अधर्म के रूप में हयग्रीव नाम के दैत्य का आतंक था तब भगवान विष्णु मत्स्य रूप में अवतरित हुये थे। हयग्रीव ऋषि कश्यप व उनकी पत्नी दानु की संतान था। हयग्रीव अपने पिता के बिलकुल विपरीत था। वह दानवों का राजा था व दैत्यराज को सर्व स्थापित करना उसका मूल उद्देश्य था। जब उसे यह ज्ञात हुआ कि भगवान विष्णु ने भगवान ब्रह्मा को चारों वेदों का स्वामित्व सौप दिया है तो हयग्रीव ने उन पवित्र ग्रंथो को चुराने के कई प्रयास किये।
एक दिन जब भगवान ब्रह्मा विश्राम कर रहे थे तो बिना ज्ञात हुये जम्हाई लेते हुये उनके मुख से वेदों का उच्चारण होने लगा जिसे हयग्रीव ने एकाग्रचित होकर ग्रहण कर लिया। इस प्रकार उसने ब्रह्मलोक से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को चुरा लिया और वह समुंद्रतल में जाकर छिप गया। जब भगवान विष्णु को इस बात का ज्ञान हुआ तो वेदों की रक्षा के लिये उन्होंने मत्स्य का अवतार लिया।
दैत्यराज हयग्रीव द्वारा वेद ग्रहण कर लेने के कारण पृथ्वीवासी उनके ज्ञान को प्राप्त नहीं कर पा रहे थे, जिसके कारण सामाजिक मूल्यों की अवनति हो रही थी, मानवता का अंत हो रहा था, राक्षसी प्रवृत्तियों का पृथ्वी पर विस्तार हो रहा था काल का अंत निकट था, धर्म की पुनः स्थापना का समय आ गया था। भगवान ब्रह्मा ने भगवान शिव को सृष्टि के विनाश करने की प्रार्थना की जिससे मानवता के पुनः नव-निर्माण के लिये अनुकूल वातावरण स्थापित हो सके। इसके लिये भगवान शिव पृथ्वी पर जल-प्रलय लाने वाले थे। पृथ्वी पर नये कल्प के आरंभ के लिये मनु (सत्यव्रत) व उनकी पत्नी शतरूपा की रक्षा करना अनिवार्य था क्योंकि वे नई मानव जाति के निर्माण के साधन थे। इसीलिये श्री विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था।
उस समय पृथ्वी पर सत्यव्रत नाम के उदार राजा थे वो भगवान विष्णु के परम भक्त भी थे। वे केवल जल ग्रहण कर अन्न का त्याग कर तपस्या किया करते थे। एक दिन सत्यव्रत नदी में स्नान कर जलांजलि अर्पित कर रहे थे तब उनके पास एक छोटी मछली (मत्स्य) आयी और अपने प्राणों की रक्षा की प्रार्थना करने लगी, तब सत्यव्रत ने अपने कमण्डलु में मत्स्य को रख लिया और उसे महल लेकर आ गये परन्तु एक ही रात्रि में मत्स्य का आकार बड़ा हो गया उन्होंने उसे बड़े पानी के घड़े में रखा, परन्तु कुछ ही देर में मत्स्य और बड़ी हो गयी। महाराज ने उसे महल के जलाशय में रखा परन्तु थोड़े समय में ही मत्स्य का आकार इतना बढ़ गया कि वह भी छोटा पड़ने लग गया। सत्यव्रत ने उसे नदी में छोड़ना चाहा, परन्तु मत्स्य ने उन्हें ऐसा न करने को कहा क्योंकि उसमें भयंकर राक्षसों का वास था जो उसका भक्षण कर सकते थे।
राजा सत्यव्रत को मत्स्य के आकार में इतने जल्दी आये परिवर्तन को देख संदेह हुआ। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा कि ‘‘हे मत्स्य आप अपने साक्षी रूप में आयें, आप कौन है?’’ उस मत्स्य में भगवान विष्णु प्रकट हुये और राजा को बताया कि ‘‘आज से ठीक सातवें दिन पर जल प्रलय आनेवाला है जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि समा जायेगी। परन्तु मैं तुम्हारी रक्षा के लिये एक नांव भेजुंगा जिसमें वनस्पति, जीव-जन्तु, तुम्हारी पत्नी और जो भी नये कल्प के निर्माण में आवश्यक है उन्हें सम्मिलित कर लेना फिर सप्त ऋषियों व नागराज वासुकि के साथ नाव में बैठ जाना और मेरी प्रतीक्षा करना।’’ ऐसा कहकर मत्सय रूप में भगवान विष्णु देत्यराज हयग्रीव का अंत करने चले गये। हयग्रीव ने पानी में विशालकाय मत्स्य को अपनी ओर आते देखा परन्तु वह अपना मुख नहीं खोल सका क्योंकि ऐसा करने से जो वेदों का ज्ञान उसने लिया था वह खो सकता था। मत्स्य ने शीघ्र ही उस पर आक्रमण कर उसका अंत कर दिया। भगवान विष्णु ने वेदों को ब्रह्मा जी के पास पुनर्स्थापित करने हेतु ले लिया।
वहीं पृथ्वी पर सातवें दिन आकाश में घनघोर बादल छा गये और अतिशीघ्र मूसलाधार वर्षा आरम्भ हो गयी जिसमें पूर्ण पृथ्वी समा गई जल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिख रहा था। भगवान विष्णु की आज्ञानुसार राज सत्यव्रत ने बताये सभी को सम्मिलित किया व समुद्र तट पर आकर भगवान विष्णु का ध्यान किया, शीघ्र ही उन्हें नाव दिखी, सभी उसमें चढ़ गये, मत्स्यावतार में भगवान विष्णु एक विशालकाय मत्स्य के रूप में आये उन्होंने नाव के सिरे को वासुकि नाग को रस्सी की भांति मत्स्य के सींग में बांध देने को कहा।
गहरे समुद्र और तुफान में यात्रा करते समय भगवान विष्णु ने राजा सत्यव्रत व सप्त ऋषियों को मत्स्य पुराण के उपदेश दिये जिसके द्वारा प्राप्त ज्ञान को वे अगले कल्प या काल में अपने साथ ले जाकर मनुष्य जाति का कल्याण कर सकें। जल वृष्टि और तुफान के खत्म हो जाने पर भगवान विष्णु ने उन सभी को हिमालय की ओर छोड़ा जिससे वे वहाँ नई मानव सभ्यता, वनस्पति, आदि की नई शुरूआत कर सके।
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