शिष्य का और गुरु का सम्बन्ध जीवने में सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इन संबंधों को संसार के किसी भी तराजू में तोला नहीं जा सकता। एक श्रेष्ठ शिष्य में निम्न गुण अवश्य ही होने चाहिए। इन गुणों से ही विश्वास, निष्ठा बड़ती है:-
जो आप बनना चाहते हैं वह आप बन सकते हैं लेकिन अपने विचार सकारात्मक बनाए रखें। सकारात्मक चिंतन से ही आप अन्दर कि निराशा को तोड़ सकते है।
हजारों लाखों ऋषियों में कोई विरला होता है जो सद्गुरु की ऊंगली पकड़कर आगे बढ़ता है, जो उनकी वाणी को समझ सकता है, वही शिष्यत्व के गुण प्राप्त कर सकता है।
शिष्य वह है जिसके जीवन में गुरु के अलावा कोई अन्य भाव या चिंतन ही नहीं हो। ऐसा भाव होने पर वह सब कुछ प्राप्त कर लेने का अधिकारी हो जाता है।
गुरु शिष्य को अपने समक्ष बनाने का सदैव प्रयास करते है, इसी कारण से उन्हें स्वयं सर्वप्रथम शिष्य के अनुरूप स्वरूप धारण करना पड़ता है, परन्तु यह शिष्य कि अज्ञानता होती है जो वह गुरु को सामान्य मनुष्य के रूप में देखता है, उसके लिए ऐसा चिंतन दुर्भाग्यपूर्ण होता है।
शिष्य जितना गुरु में एकाकार होता रहता है, उतना ही गुरु शिष्य को आगे धकेलता रहता है। वह शिष्य पर निर्भर है कि वह अपने को पूर्ण रूप से समर्पित कर पाता है या नहीं।
आध्यात्म तो एक छलांग है। यदि आप डरपोक हैं तो धीरे-धीरे कदम बढ़ाएंगे, यदि आप साहसी है तो एकदम से छलांग लगा देंगे। यदि आप कायर है तो धीरे-धीरे अपना हाथ गुरु के हाथ में सौपेंगे। यदि आप दृढ निश्चयी हैं तो एकदम से गुरु को सौंप देंगे। जितना आप सौंपेंगे उतना ही गहरे में उतर सकेंगे।
नित्य के कर्म प्रपंचों का प्रभाव शिष्य के मन और चित्त पर पड़ता है, अतः चित्त को निर्मल बनाए रखने के लिए शिष्य को निरंतर गुरु चरणों कि शरण प्राप्त करनी चाहिए।
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