लक्ष्मी की जीवन में और उपरोक्त वर्णित श्लोक के अनुसार व्यापक रूप में क्या आवश्यकता होती है, इस बात को गृहस्थ साधक से अधिक गहनता से कोई नहीं समझ सकता, और एक दीपावली ही क्यों, वह तो पूरे वर्षभर इसी दिशा में सतत् चेष्टारत रहता ही है। भौतिक जीवन में अपना कर्म कुशलता पूर्वक करने के साथ-साथ साधनाओं के द्वारा भी अपने लक्ष्य की पूर्ति में गतिशील रहना ही योग्य साधक का लक्षण है। योग्य व समर्थ साधक ही सही अर्थों में ‘पुरूष’ कहा जा सकता है और लक्ष्मी तौ सदैव से ‘पुरूष’ का वरण करने के लिए बाध्य होती ही रही है।
ऐसे ही साधक इस बात की महत्ता समझते हैं कि किस प्रकार जीवन में लक्ष्मी के एक से अधिक स्वरूपों की साधना करके ही जीवन को अनेक प्रकार से सुखी एवं सम्पन्न बनाने के साथ अपनी विभिन्न मनोकामनाओं की भी पूर्ति की जा सकती हे। केवल धनलक्ष्मी की नहीं, यश लक्ष्मी, आयुलक्ष्मी, वाहन लक्ष्मी, भवन लक्ष्मी जैसे स्वरूपो केा अपना कर ही सही अर्थों में लक्ष्मी की साधना की जाती है। जिस प्रकार दीपावली के बहुत पूर्व से व्यक्ति निवास स्थान को साफ़-सुसज्जित करना प्रारम्भ कर देता है, वह भी लक्ष्मी साधना की पूर्णता का एक प्रतीक है। जिस प्रकार लक्ष्मी के आगमन से पूर्व ही उनके स्वागत की विधिवत् तैयारी की जाती है, उसी प्रकार विभिन्न साधनाओं के माध्यम से उनकी सम्पूर्णता को भी प्राप्त करने की चेष्टा की जानी चाहिए।
जहां लक्ष्मी को सम्पूर्णता से अपने जीवन में समाहित करने की बात आती है वहां स्वतः ही अष्टलक्ष्मी साधना का नाम उभरकर सामने आ जाता है। अष्ट लक्ष्मी की साधना अपने-अपने में इस प्रकार से सम्पूर्णता का पर्याय बन चुकी है कि प्रत्येक योग्य साधक अपने जीवन में कम से कम एक बार उसे पूर्ण विधि-विधान से सम्पन्न कर लेना चाहता है। अष्ट लक्ष्मी साधना का रहस्य केवल यहीं तक सीमित नहीं है। अष्ट लक्ष्मी अपने-आप में आठ प्रकार के ऐश्वर्यों को तो समाहित करती ही है साथ ही ये लक्ष्मी के आठ अत्यन्त प्रखर स्वरूपों – द्विभुजा लक्ष्मी, गजलक्ष्मी, महालक्ष्मी, श्री देवी , वीर लक्ष्मी, द्विभुजा वीर लक्ष्मी, अष्ट भुजा लक्ष्मी एवं प्रसन्न लक्ष्मी के सम्मिलित स्वरूपों की साधना भी है जिनमें से प्रत्येक स्वरूप का विशेष वरदायक प्रभाव भी है, जिस प्रकार नवदुर्गा साधना के अन्तर्गत प्रत्येक दुर्गा स्वरूप का एक प्रधान व विशिष्ट वरदायक स्वरूप होता है। आगे मैं इन्ही स्वरूपों का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कर रहा हूं –
भगवती लक्ष्मी का यह स्वरूप अपने-आप में पूर्ण रूप से विष्णुमय स्वरूप है तथा इनका इस रूप में ध्यान करने से, इस रूप में साधना करने से जहां साधक को एक ओर गृहस्थ सुख, शान्ति एवं सौभाग्य प्राप्त होता है, वहीं उसे ऐसी पात्रता भी प्राप्त हो जाती है कि वह स्वयं भगवान विष्णु के समान पालनकर्ता एवं दुखहर्ता बनने की सार्मथ्य प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक सद्गृहस्थ अपने सीमित स्वरूप में अपने परिवार एवं कुटुम्ब का पालन करने के रूप में भगवान विष्णु का ही तो कार्य करता है, अतः उसे द्विभुजा लक्ष्मी के इस स्वरूप की साधना द्वारा जो शक्ति एवं विष्णुत्व प्राप्त होता है, उससे उसका व्यक्तिगत जीवन संवारने के साथ-साथ परिवार का भी हित साधता है।
गजलक्ष्मी स्वरूप में भगवती लक्ष्मी श्वेत वस्त्र धारण कर कमल के आसन पर विराजमान हो एक हाथ में कमल, द्वितीय में अमृतपूर्ण कलश, तृतीय हस्त में बेल तथा चतुर्थ में शंख धारण करने वाली वर्णित की गयी है जिनके दोनों ओर दो गजराज उनका अभिषेक कर रहे है। भगवती लक्ष्मी का यह दिव्य स्वरूप वास्तव में प्रचुर धन दात्री एवं आकस्मिक धन प्रदात्री देवी का ही स्वरूप है। गजलक्ष्मी स्वरूप की साधना अपने-आप में ही सम्पूर्ण साधना मानी गयी है जिनके द्वारा साधक के जीवन में सदैव आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त होता ही रहता है
अष्टलक्ष्मी के अन्तर्गत तृतीया लक्ष्मी ‘महालक्ष्मी’ है, जिनकी प्रत्येक साधना किसी न किसी रूप में साधना, ध्यान अथवा कामना के रूप में है। महालक्ष्मी का अर्थ है पूर्णताः जो विभिन्न प्रकार के सुखों एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता है। गृहसुख, पत्नी सुख, पुत्र-पौत्रदि सुख, वाहन सुख, अनुचर सुख, स्वास्थ्य सुख इत्यादि पक्षों की सिद्ध सफ़ल साधना का ही दूसरा नाम है महालक्ष्मी साधना एवं इसी कारण वश उन्हें अष्ट लक्ष्मी साधना के मध्य एक विशेष स्थान प्राप्त है।
जैसा कि भगवती महालक्ष्मी की इस संज्ञा से ही स्पष्ट है कि ये जीवन में ‘श्री’ दिलाने में समर्थ देवी है। केवल भरण-पोषण के लिए पर्याप्त धन अर्जित कर लेने अथवा अपने परिवार का भली-भांति पालन पोषण कर लेने से ही जीवन में श्री का आगमन सम्भव नहीं होता वरन् व्यक्ति की समाज में क्या प्रतिष्ठा है, उसके पास स्थायी सम्पत्ति, स्वयं का आवास इत्यादि अचल सम्पत्ति किस अनुपात में उपस्थित है। जिसकी जीवन में प्राप्ति एवं सम्भावना को यही सुनिश्चित करने में समर्थ देवी है।
वीर लक्ष्मी का स्वरूप अपने-आप में पूर्णरूप से अभय एवं वर को प्रदान करने वाला है तथा जब भगवती लक्ष्मी द्वारा वर एवं अभय प्राप्त होने की बात आती है तो उसका सीधा सा तात्पर्य होता है कि जीवन में किसी भी प्रकार का अभाव अथवा, दरिद्रता रह नहीं सकती। इस तरह से जीवन में समस्त अशुभ, अंधकार, मलिनता, दैन्य एवं हीनभावना को जड़मूल से समाप्त कर देने वाली देवी वीर लक्ष्मी ही है।
भगवती महालक्ष्मी का उपरोक्त स्वरूप जहां चतुर्भुजा है वहीं यह स्वरूप द्विभुजा है एवं इस स्वरूप में ये, विशेष रूप से जीवन के गृहस्थ पक्षों के प्रति वरदायक एवं अभय दायक हैं, जिससे साधक के जीवन में जहां एक ओर गृह कलह आदि का अंत होता है। वहीं अनेक प्रकार से पारिवारिक उन्नति, श्री सम्पदा का आगमन, संतानों की उन्नति तथा धन-धान्य में पूर्णता की स्थिति निर्मित होने लगती है।
वस्तुतः वीर लक्ष्मी से तात्पर्य है जहां महालक्ष्मी केवल धनप्रदात्री न होकर अन्य प्रकार से शक्तिमयता द्वारा साधक के जीवन को संवारने में तत्पर हों। वीर लक्ष्मी, द्विभुजा वीरलक्ष्मी के उपरान्त अष्टभुजा वीर लक्ष्मी का भी यही तात्पर्य है। अपनी अष्ट भुजाओं में विभिन्न आभूषण धारण कर ये इस स्वरूप में साधक के जीवन में उन सभी परिस्थितियों का संहार करने में तत्पर रहती हैं, जिनसे दरिद्रता अथवा पर्याप्त आय के बाद भी अभाव जैसी स्थिति बनी रहती है। मुकदमेबाजी, रोग, व्यसन आकस्मिक व्यय जैसी समस्त स्थितियों का नाश अष्टलक्ष्मी के इसी स्वरूप द्वारा साधक के जीवन में सम्भव होता है।
जीवन में पूर्ण मानसिक सुख, कान्ति, ओज, तेज, बल, साहस, सौन्दर्य, हास्य, मनो-विनोद, मित्र सुख एवं चारों पुरूषार्थों की जननी प्रसन्न लक्ष्मी ही हैं, जो अष्टलक्ष्मीयों में से शेष लक्ष्मीयों द्वारा प्राप्त स्थिति की पूर्णता प्रदान करने में समर्थ हैं एवं जिससे साधन अपने जीवन में धन सम्पदा का पूर्ण सुख अनुभव करते हुए एक विशेष प्रकार की तृप्ति व चैतन्यता अनुभव करता रहता है। तुम्हारे पास जो न हो, उस वस्तु को भूल जाने की कला का नाम ही सुख है।
इस प्रकार लक्ष्मी के इन सम्मिलित अष्ट स्वरूपों की साधना का ही दूसरा नाम है अष्ट लक्ष्मी साधना, जिसके द्वारा गृहस्थ जीवन का कोई भी पक्ष अछूता नहीं रह जाता। दीपावली की रात्रि तो एक स्वयं सिद्ध मुहूर्त है ही, किन्तु शास्त्रों में पूरे कार्तिक माह को ही लक्ष्मी माह कह कर सम्बोधित किया गया है तथा दीपावली का तात्पर्य केवल कार्तिक अमावस्या ही नहीं वरन इस अमावस्या (दीपावली) के दस दिन पूर्व से लेकर दस दिन बाद तक माना गया है। दीपावली के तुरन्त बाद कमला महाविद्या दिवस का पड़ना इसी बात को सूचित करता है। इसी प्रकार अष्ट लक्ष्मी की साधना का सर्वोत्तम मुहूर्त दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल पंचमी इसे श्री पंचमी या लाभ पंचमी बताया गया है। यो तो इस साधना को मन में उत्साह रहने पर किसी भी बुधवार को सम्पन्न किया जा सकता है।
साधक को चाहिए कि वह इस दिवस विशेष पर प्रातः सूर्योदय से पूर्व ही उठकर स्नान आदि कर अपने पूजा स्थान में पीले आसन पर शुद्ध स्वच्छ पीली धोती पहन कर पूर्व मुख होकर बैठ जाए। उसके सामने बाजोट पर पीला कपड़ा बिछा हो, जिस पर पहले से ही प्राप्त मंत्र सिद्ध प्राण-प्रतिष्ठा युक्त ताम्रपत्र पर अंकित ‘‘अष्टलक्ष्मी यंत्र’’ स्थापित हो। इसी यंत्र के सामने आठ हकीक की भी स्थापना लक्ष्मी के आठों स्वरूपों के प्रतीक रूप में होनी चाहिए।
इसके अतिरिक्त साधक के पास शुद्ध व अप्रयुक्त पीली हकीक माला होनी भी अनिवार्य है। प्रथमतः अष्टलक्ष्मी यंत्र का पूजन केसर की आठ बिंदियां लगा कर करें तथा इसी प्रकार आठों हकीक का पूजन प्रत्येक लक्ष्मी के नाम के साथ करें
ऊँ द्विभुजा लक्ष्म्यै नमः, ऊँ गजलक्ष्म्यै नमः ऊँ
महालक्ष्मी नमः, ऊँ श्री देवी लक्ष्म्यै नमः, ऊँ वीर
लक्ष्म्यै नमः, ऊँ द्विभुजा वीर लक्ष्म्यै नमः, ऊँ अष्ट
भुजा लक्ष्म्यै नमः एवं ऊँ प्रसन्न लक्ष्म्यै नमः तथा
हकीक माला से निम्न मंत्र की एक माला मंत्र जप शुद्ध भाव से करें। यदि सम्भव हो तो घी का दीपक भी लगा लें, यद्यपि यह अनिवार्य नहीं है। वातावरण सुगन्धित एवं स्वच्छ होना भी अनिवार्य है।
साधना दिवस – कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की एकादशी से अमावस्या। (कुल पांच दिन)
निष्काम भाव से जप करने पर साधक अनुभव कर सकते हैं कि कमरे में एकाएक प्रकाश की मात्र बढ़ गयी है अथवा कोई प्रकाश पुंज उसकी देह में समाहित होकर मन मस्तिष्क को शान्ति व चैतन्यता से भर देता है। ये सब साधना में सफ़लता के पूर्व संकेत हैं। इसके लिए आवश्यक है कि साधना मध्यरात्री में या सूर्योदय से पूर्व भोरकाल में सम्पन्न की जाए। पांच दिन नित्य मंत्र जप के उपरान्त ताम्रयंत्र पर अंकित यंत्र व शंख माला को विसर्जित कर दें, जबकि समस्त लघु नारियलों को किसी मंदिर में चढ़ा दें। अष्ट लक्ष्मी की साधना सम्पन्न करने के उपरान्त साधक स्वयं अनुभव कर सकते हैं कि एक अनोखी शान्ति व चैतन्यता उनके जीवन में समाती चली जा रही है तथा ऐसा सम्भव होने पर उन्हें स्वतः ही उन्नति के नए-नए मार्ग सूझने प्रारम्भ हो जाते है।
अन्यथा आज के युग में व्यक्ति बाह्य व आंतरिक कारणों से इतना अधिक तनाव ग्रस्त रहताहै कि कई बार सफ़लता उसके बहुत पास से निकल जाती है और वह उसकी सार्थकता समझने में असमर्थ रहता है। अष्टलक्ष्मी साधना से व्यक्ति जहां मानसिक रूप से सुखी व समृद्ध होता है, वहीं अवसर को पहचानने वाला बन समाज में अपनी कांति व तेज से एक विशेष स्थान बनाने में भी सफ़ल हो पाता है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,