मनुष्य अपने जीवन में अनेक वरदान प्राप्त कर पृथ्वी पर आता है और जीवन के उच्चतम शिखर पर पहुंचने में समर्थ हो जाता है। उसे अपने जीवन में श्रेष्ठ माता-पिता, श्रेष्ठ मित्र, सहयोगी और उससे भी अधिक ईश्वर कृपा से श्रेष्ठ सद्गुरुदेव प्राप्त होते है, जो उसके जीवन के मार्गदर्शक व पथप्रदर्शक होते है। वे उसे बार-बार ज्ञान कराते हैं, कि यह मनुष्य जीवन अत्यन्त विलक्षण है, प्रत्येक में एक माया का रहस्य छुपा है।
जैसे-जैसे, क्षण-क्षण इन रहस्यों का समाधान प्राप्त करते रहोगे तो जीवन आभायुक्त, श्रीयुक्त हो जाएगा और सही अर्थों में जीवन जीने का आनन्द प्राप्त कर सकोंगे। यह ज्ञान केवल श्रेष्ठ गुरु के माध्यम से सम्भव होता है, क्योंकि गुरु का जीवन अपने शिष्यों को अपने मानस पुत्रें को सदैव सब कुछ देने के लिए ही तत्पर रहता है। दैनिक प्रार्थना में जब व्यक्ति कातर होकर प्रार्थना करता है, कि मैं मंत्रहीन, क्रियाहीन, भाग्यहीन हूं, मुझ पर कृपा करो तो उस पर ईश्वरीय कृपा कैसे हो सकती है?कर्महीन, मंत्रहीन और भाग्यहीन व्यक्ति तो पशुवत् ही है और सद्गुरु उसे दीक्षा के माध्यम से मंत्रयुक्त, साधना के माध्यम से क्रियायुक्त और दिव्य वरदान से उसे सौभाग्ययुक्त बना देते है। इन तीनों का योग निश्चित समय पर अर्थात् श्रेष्ठ मुहूर्त में ही सम्भव हो पाता है।
दीपावली केवल घी-तेल के दिए जलाकर मिठाई खाकर उत्सव सम्पन्न करने का एक पर्व मात्र नहीं है। यह तो काल रात्रि है, यह कालखण्ड जो कि धनत्रयोदशी से प्रारम्भ होकर द्वितीया तक पांच दिवसीय रहता है एक अद्भुत मुहूर्त है – यह मुहूर्त जीवन को कर्मशील, भाग्यशील मंत्रयुक्त करने का पर्व है, काल का कोई भी खण्ड अपनी पुनरावृत्ति नहीं करता, जहां जिस क्षण का उपयोग आपने कर लिया, वह क्षण आपके जीवन को श्रेष्ठ दिशा में ले जाने में समर्थ हो जाता है। कहते हैं, कि ‘चुके तो चौरासी’ अर्थात् यदि समय निकल गया, तो पुनः चौरासी लाख योनियों का भ्रमण है और यदि समय का सही उपयोग कर लिया तो इसी जीवन में पूर्णता है, सिद्धाश्रम प्राप्ति है।
लक्ष्मी केवल धन नहीं है, यह सहस्त्र रूपों में विद्यमान है और सहस्त्र कोटि रूप में धारण की जाती है, तो जीवन योगमय, तपोमय और तेजस्वी बन जाता है। अपने जीवन में कोई भी आभा लेकर उत्पन्न नहीं होता, केवल अपने कर्म और भाग्य से ही आभा मण्डित होता है, इसलिए लक्ष्मी को आधार शक्ति कहा गया है। यह दरिद्रता का नाश करने वाली विष्णु प्रिया कोटि सूर्य प्रकाशयुक्त, रूपिणी, अनन्ता, वैष्णवी, ज्ञानज्ञेय, विकासिनी, सुशान्ता, यंत्रवाहिनी, गम्भीरा रिद्धि, अनुग्रह शक्ति, अमृत नन्दिनी, धूमा, कलावती, महाशक्ति, प्राणशक्ति, प्राणदात्री, प्रतिम्बरा, इच्छाधारा, त्रिगुणगर्विता, कलिकलमषनाशिनी, महामाया, योगमाया, कीर्तिजया, काष्ठा, निष्ठा, प्रतिष्ठा, श्रेष्ठा, सर्वार्थसाधिनी, अध्यात्मविद्या प्रदायिनी, हिरण्यगर्भा, त्रैलोक्य सुन्दरी, वरदा, श्रीयंत्र विराजिता, मोहिनी, सर्व कामप्रदा, सर्वमंगला, धनेश्वरी, सर्वकाम श्रमिदा, कमलाक्षी, सर्वोत्कृष्ठा, सर्वमयी, सर्वेश्वर प्रिया है। यह तो लक्ष्मी के कोटि स्वरूपों में से कुछ रूप है। ऐसे विविध स्वरूपों का आह्वान केवल शुभ मुहूर्त में किया जा सकता है।
परम पूज्य सद्गुरुदेव ने कहा था – ‘प्रिय! दीपावली का पर्व सम्मुख है। उस महारात्रि के आगमन के क्षण समीप हैं, किन्तु अब तुम्हारे जीवन में और ‘कालरात्रियां’ न हों, तुम काल के चक्र से आबद्ध न रह सको, इसी से मैंने अपने निश्चय में कुछ परिवर्तन कर इस पर्व को एक नूतन भाव में सृजित करने का मानस निर्मित कर लिया हैं। यू तो तुम दीपावली का पर्व अपने घर पर भी मना सकते हो अथवा परम्परागत ढंग से मना सकते थे, किन्तु जब मैं स्वयं तुम्हारा आवाहृन करूं तो मेरे शब्दों के पीछे गूढ़ अर्थवत्ता छिपी होती है। यदि तुम इन शब्दों को सामान्य भाव से न ग्रहण करो – तो अनुभव कर सकोगे कि मैं एक प्रकार से न केवल ‘श्री’ को वरन् इसी ‘श्री’ की आध्यात्मिकता को तुम्हारे जीवन में उतार देने का मानस निर्मित कर चुका हूं। मेरे निश्चय को पूर्णता देना तुम्हारा धर्म, कर्त्तव्य और शिष्यता है और यह तभी सम्भव होगा, जब तुम एक उछाह के साथ दीपावली के पर्व पर मेरे सम्मुख उपस्थित होंगे।
यह तो मैं खुद नहीं जानता, कि मेरा तुम्हारे साथ, तुम सभी शिष्यों के साथ कैसा नाता जुड़ गया है, कि कर्म संन्यास की भाव भूमि स्पर्श कर लेने के बाद भी मैं मुड़-मुड़ कर तुम सभी की ओर देखने को बाध्य हो जाता हूं। तु समझ सकोगे या नहीं समझ सकोगे, किन्तु मेरा तुम सभी से जो सम्बन्ध है उसके समक्ष ‘प्रेम’ शब्द भी कुछ गौण पड़ने लग जाता है। विगत अनेक वर्षों से साधना, दीक्षा और अपनी ही तपस्या के अंश शक्तिपात के द्वारा तुम्हें प्रत्येक दृष्टि से परिपूर्ण करने में मैंने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है, किन्तु तुम्हारे चेहरे पर अपूर्णता ही आ रही एक रेखा भी मेरे हृदय को कुछ काट सा देती है, क्या तुम इसको समझ सकोगे ?’’
जहां देवताओं का वास हो, वह गुरु आश्रम कहलाता है, जहां साधक-शिष्य दिव्य तपोभूमि पर आराधना, पूजा कर सकता है, वहां साधक मंत्रहीन, क्रियाहीन और भाग्यहीन नहीं कर सकता। जब साधक गुरु के साक्षी में मनसा वाचा कर्मणा अर्थात् मन, वचन और कर्म से साधना करता है, तो उसे जीवन में आधिदैविक, आधिभौतिक एवं परमानन्द की प्राप्ति होती है और इसका आधार सर्वप्रथम गुरु और उनके साथ लक्ष्मी ही है, यह धा्रुव सत्य हैं यह अयोध्या की देवभूमि गौरवयुक्त है, मंत्र युक्त है, इस पवित्र भूमि पर मैं पूज्य सद्गुरुदेव का तुच्छ शिष्य स्वामी भारतवर्ष में स्थित सभी गुरु भाईयों को आमंत्रित करने की इच्छा रखता हूं, कि आप दीपावली के शुभ अवसर पर तेजोमयी सद्गुरुदेव के सान्निध्य में यह साधना पर्व प्रारम्भ करें, जिससे हम सिद्धाश्रम में आसीन हमारे प्रभु पूज्य सद्गुरुदेव जी की पूर्ण कृपा प्राप्त कर्ता बन सके और प्रेरित हो सकें।
मैं तो केवल अपने हृदय के भावों द्वारा आपसे निवेदन कर सकता हूं, आप भी सद्गुरुदेव के आत्म अंश है, आप अश्वय आएंगे। इस वर्ष का दीपावली महोत्सव सरयू नदी के तट पर अयोध्या (फ़ैजाबाद) में सम्पन्न होगा। अयोध्या सप्तपूरी में एक प्रमुख तीर्थ स्थान है। इस विक्रमादित्य की नगरी में भगवान राम ने अवतार लिया अपना बचपन श्रेष्ठता से तथा ज्ञान विश्वामित्र और वशिष्ठ जैसे ज्ञानी ऋषि युक्त गुरुओं से प्राप्त किया। सूर्यवंश की यह तपोभूमि की रज-रज पूर्ण दिव्य और चेतना युक्त है। ऐसे श्रेष्ठ स्थान पर लक्ष्मी का आवाहृन करने एवं साधना करने से निश्चित रूप से जीवन में दिव्यता और तेजस्विता तथा जीवन की सभी मनोकामनाऐं पूर्ण होती ही है क्योंकि यह स्थान घट-घट में वास करने वाले श्रीराम की भूमि है।
– समस्त आयोजक
दीपावली महोत्सव साधना शिविर
23, 24 अक्टूबर 2011
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