मनुष्य का शरीर अपने आप में इतना विराट है कि उस विराट में एक सूर्य नहीं असंख्य सूर्य समाहित हो सकते है, एक सूर्य की कल्पना तो मामूली बात है, असंख्य सूर्य समाहित हो सकते हैं अगर मनुष्य के शरीर में एक प्राणोत्थान क्रिया हो जाए तो आवश्यकता है प्राणोत्थान क्रिया की। तो क्या प्राण हार्ट या हृदय से अलग है।
हृदय तो बिल्कुल अलग चीज है। हृदय का प्राणों से कोई संबंध ही नहीं। तीन मूलभूत तथ्य हैं – हृदय, प्राण और मन। केवल हृदय की सत्ता को ही विज्ञान समझ पाया है। मगर मन की सत्ता को तो समझ ही नहीं पाया कि शरीर में मन कहां पर है। पूरा चिकित्सा विज्ञान बहुत ऊंचाई पर पहुंचने के बाद भी, शरीर के पुर्जे-पुर्जे को खोलने के बाद भी वह यह नहीं बता पा रहा है कि मन कहां पर है, कौन सा मांस का पिण्ड है जिसे मन कहते हैं।
अब यह तो नहीं कह सकते कि मन होता ही नहीं मन तो है। मेरा मन है इस समय मुम्बई जाने को और इस समय मेरा मन मिठाई खाने का हो रहा है। आखिर कुछ न कुछ तो है ही जो हो रहा है। फि़र वह मन है कहां और चिकित्सा विज्ञान कहता है मन तो होता ही नहीं। लेकिन सब व्यक्ति कहते हैं कि मेरा मन आज बड़ा उदास है, आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। आज मेरा मन कहीं बाहर घुमने का हो रहा है। तो यह जो क्रिया हो रही है यह कहां से हो रही है ? और जिस प्रकार चिकित्सा विज्ञान मन को समझ नहीं पाया है उसी प्रकार प्राणों को भी समझ नहीं पाया है। प्राण जीवन की धड़कन नहीं है वह तो हृदय है। हृदय धाड़क रहा है तो जीवन चल रहा है।
मगर क्या जब हृदय धड़कना बंद कर देता है तो प्राण समाप्त हो जाते हैं?ऐसे तो नहीं समाप्त होते। इसलिए समाप्त नहीं होते क्योंकि परकाया प्रवेश में तो हृदय धाड़कता ही नहीं और शरीर फि़र भी जिंदा रहता है और प्राण भी जिंदा रहते हैं। इसलिए तीनों चीजें अलग अलग है। हृदय अलग है, प्राण को जाग्रति देने की क्रिया से ही सूर्य को शरीर में समाहित करने की क्रिया होती हैं। मै बहुत सरल भाषा में आपको समझा रहा हूं। क्योंकि विषय तो इतना गूढ़ है कि इसको संस्कृत में भी समझाया ही नहीं जा सकता। ऐसी कोई युक्ति, ऐसा कोई मंत्र, ऐसी कोई भी चेतना जिसके माध्यम से सूर्य को ज्योंहि शरीर में समाहित करें तो शरीर में समाहित होते ही एक विस्फ़ोट होने लगेगा सूर्य तो जहां है वहां टुकड़े होते ही हैं।
यदि आप एक आतशरी शीशा लेकर सूर्य के सामने रख दे तो उस शीशे से छन कर जो कुछ किरणें पैदा होगी तो उस आग से कागज का टुकडा जलने लग जाएगा। आप खड़े हो जाएं थोड़ा बाहर तो पांव जलने लग जाएंगे। यह तो आग की सत्ता है यह अपने आप में सूर्य का तेजस्वी रूप हैं उस सूर्य को हम अपने प्राणों में इकट्ठा कर सकें एकत्र कर सके। और ज्योंही ऐसा होगा तो प्राणों के अपने आप में टुकड़े होने लगेंगे। प्राणों का विखण्डन शुरू हो जाएगा और अब प्राणों का विखण्डन होगा तो प्राण पूरे ब्रह्माण्ड में फ़ैल जाएंगे। और पूरे ब्रह्माण्ड में फ़ैलने की क्रिया परा विद्या कहलाती है। ब्रह्माण्ड की कोई भी हलचल, कौनसी घटना घटी उस घटना को देख लेना, सुनना और समझना यह पराविद्या का मूलभूत स्वरूप है। मगर इसके लिए जरूरी है कि सूर्य को शरीर में स्थापन करें, प्राणों में स्थापन करें और स्थापन करके प्राणों का विखण्डन शुरू करें। क्या कोई ऐसी युक्ति है? क्या आम आदमी सूर्य मण्डल को अपने शरीर में समाहित कर सकता है ?
और मै कह रहा हूं कि आम आदमी ही ऐसा कर सकता है जो सरल है, बिल्कुल सरल व्यक्ति ही सूर्य को अंदर, स्थापित कर सकता। जो एकदम सरल व्यक्ति है जिसे ज्ञान ही नहीं है कोई वह भी सूई घूमाकर रेडियो चला देगा। उसको चलाने के लिए उसे कोई रेडियो बनाने की पद्धति सीखने की जरूरत नहीं है। रेडियो पर गाना सुनने के लिए उसकी सारी मशीनरी को जोड़ना सीखने की जरूरत नहीं है। उसको तो केवल इतना ज्ञान है कि 92 पाइट पर लगाने से यह स्टेशन लग जाता है। यहां पर लगाने से रेडियो सीलोन लग जाता है। और यही सीखना है बस और हमे यही सीखना है कि हम उस विशेष क्रियाओं को कैसे समझे। तो उसके लिए एक विशेष मंत्र है जिसे प्राणोत्थान मंत्र कहा गया है। हम प्राणों को विखण्डन करने की क्रिया प्रारम्भ करे क्योंकि मंत्रें के माध्यम से ही यह संभव है। वह मंत्र है –
ऊँ तत चक्षुदेह
ऊँ तत चक्षुर्देह वहितं पुरुस्ता छुक्र
मुच्च रतः हुं फ़ट्।
मैं अगर जोरों से मुक्का मारता हूं किसी चीज को तो उसके बिल्कुल टुकडे़ हो जाएंगे। एक टुकड़ा अलग टूट के गिर जाएगा। दूसरा अलग गिर जाएगा और तीसरा अलग गिर जाएगा। अणु बम का आविष्कार और अणु बम की थ्योरी कणाद के सिद्धान्त पर आधारित है जहां अणु के टुकड़े किए जाते हैं। कणाद ने सबसे पहले बताया कि अणु का विखण्डन संभव है अणु के टुकडे हो सकते हैं और विज्ञान कह रहा था सन् 1942 तक कि अणु के टुकडे हो ही नहीं सकते। अणु तो अंतिम सत्ता है पदार्थ की। आइंस्टीन ने कहा – नहीं अगर भारत वर्ष कह रहा है कि अणु के टुकड़े हो सकते है तो अणु के टुकडे जरूर हो सकते है। और आंइस्टाइन ने पहली बार अणु के टुकड़े करके परमाणु बना दिया।
और एक अणु कितना छोटा सा होता है और परमाणु उससे भी छोटा होता है। मगर यदि एक परमाणु बम दिल्ली के ऊपर गिर जाए केवल एक परमाणु बम, तो दिल्ली का अस्तित्व इस संसार में रहेगा नहीं, दिल्ली ही नहीं ठेठ, हरियाणा और पंजाब के बार्डर तक का भी कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। पेड़, पौधो, पशु-पक्षी, मकान कुछ भी नहीं रहेगा। हम यह भी ज्ञात नहीं कर सकते है कि कनाट प्लेस कहां पर था केवल एक बम के प्रहार से एक करोड़ की आबादी बरबाद हो सकती है और बीस-बीस तीस-तीस फि़ट गड्डे बन जाएंगे। इतने बडे़ मकान और इतने बडे़ घर चूर चूर हो जाएंगे, पत्थरों का ढेर बन जाएंगे। ऐसे हो जाएंगे जैसे बालू का ढेर हो।
और परमाणु कितना बड़ा होता है ?एक सूई की नोंक पर चार सौ परमाणु आते हैं। एक सूई की नोंक की बात कर रहा हूं मैं। होता क्या है कि ज्योंही परमाणु बम गिरता है तो एक विखण्डन होता है और ज्योंही विखण्डन होता है तो इतनी हीट, इतनी गर्मी, इतनी ऊर्जा पैदा होती है कि सब कुछ तोड़-फ़ोड़ देता है। और यह मंत्र आपके प्राणों का विखण्डन करना प्रारम्भ कर देगा। प्राणों को तोड़ने लग जाएगा। और तोड़ने से शरीर में जितनी भी जड़ता है, शिथिलता है, जितने भी शरीर में रोग है, जितना भी शरीर में असत्यता है उनका यह मंत्र विखण्डन करने लग जाता है।
नचिकेता यह प्रश्न करता है मैं हजारों-हजारों वर्ष आयु प्राप्त करना चाहता हूं यम मैं आपके पास आना नहीं चाहता। मैं क्या करूं ? तो यम कहता है कि तूम्हें सूर्य मण्डल को अपने अंदर स्थापित कर विखण्डन क्रिया सीखनी है। और जब विखण्डन क्रिया होती है अंदर तो प्राणों के टुकडे होते हैं तो व्यक्ति हमेशा नवीन बना रहता है। क्योंकि एक पदार्थ का टुकड़ा होता है तो एक नवीन हो सकता। उसमें न्यूनता नहीं आ सकती। ऐसा व्यक्ति जिसके शरीर में प्राणों का विखण्डन प्रारम्भ हो जाए उसकी मृत्यु हो ही नहीं सकती। और इसको मृत्य से अमृत्यु की ओर जाने की क्रिया कहते हैं।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।
मृत्यु से अमृत्यु की ओर जाने की क्रिया को सूर्य विज्ञान कहते हैं। मृत्यु से अमृत्यु की ओर जाने की क्रिया को प्राण विखण्डन क्रिया कहते हैं हम मृत्युशील तो है ही हम निश्चित रूप से मृत्यु की ओर अग्रसर है। हम प्रतिपल मृत्यु की ओर अग्रसर है। और एक दिन मृत्यु का जाल एकदम से हमें दबोच लेगा, हमारे ऊपर एकदम से हावी हो जाएगा। यम हमें समाप्त कर देगा। मगर क्या कोई ऐसी क्रिया है जिससे यम का प्रहार हमारे ऊपर नहीं हो। यम स्वयं उत्तर देते हैं कठोपनिषद में – केवल एक क्रिया है, उस क्रिया के माध्यम से आप नित्य नवीन बने रह सकते हैं और वह नवीन होने की क्रिया प्राणों का विखण्डन है। और प्राणों का विखण्डन प्रहार से होता, और प्रहार शब्द से होता है, ध्वनि के माध्यम से होता है और ध्वनि मंत्र के माध्यम से बनती है। इसलिए यह मंत्र जो मैंने यहां बताया है यह अपने आपमें विखण्डात्मक मंत्र है, ध्वन्यात्मक मंत्र है। आप देखेंगे कि अगर जोर से हवाई जहाज ऊपर से उड़े, जेट विमान जब ऊपर से उडता है तो कांच की खिड़किया खड़खड़ाने लग जाती है। जिनके सांता क्रूज के पास मकान है वे इस बात का एहसास करते हैं, रोज उनकी खिड़कियां बजती ही है। और इसलिए बजती है कि वह ध्वनि अपने आप में प्रहार करती है, विखण्डन करती है।
कई बार तो ऐसा होता है कि खिड़कियां टूट जाती है, कई बार ऐसा होता है कि गर्भवती स्त्रियों के बच्चे गिर जाते हैं उस ध्वनि के आघात से। यह सब क्रिया फ़ोर्स से होती है – फ़ोर्स है ध्वनि का और ध्वनि शब्द के माध्यम से बनती है। अगर शब्द नहीं है तो नहीं बन सकती। और हमारे शास्त्रों में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म का तात्पर्य जीवन का विखण्डन है। ब्रह्म को जीवन का आनन्द कहा गया है जीवन का ऐश्वर्य कहा गया है, जीवन की पूर्णता कही गई है। शब्द के माध्यम से ब्रह्म को जाना जा सकता है।
वामंर्था वि संदृतो वागर्थ तिपत्ये
जगता पृतो वदे पार्वती परमेश्वरो
आप बोलेंगे तो बोलते ही उसका अर्थ बनेगा ही ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप बोले और अर्थ नहीं बनें। मैं कहूं पानी तो एकदम अर्थ बन गया कि ऐसा तरल पदार्थ जिसको पीने से प्यास बुझती है। बोलते ही अर्थ बनेगा।
जब अर्थ बनेगा वो उससे प्रहार बनेगा। अगर मैं आपको गाली दूं, तो ज्योंहि शब्द बोलूंगा गाली का तो आप पर प्रहार होगा। मैं कोई आपको हाथ तो लगाऊंगा ही नहीं, आप मुझसे 10 फ़ीट दूर बैठे हैं, मैं तो केवल यहां से शब्द का एक पत्थर फ़ेंकूंगा, एक गाली बोलूंगा जोर से और बोलते ही आपको गुस्सा आ जाएगा और आप खड़े होंगे जोर से और कहेंगे – आपको होश से बात करनी चाहिए। क्या समझ रखा है आपने।
भई मैंने तो आपके हाथ भी नहीं लगाया है, केवल प्रहार किया है शब्द के माध्यम से इसका मतलब है कि शब्द का प्रहार बहुत तीव्र होता है। कौन से शब्द का ? जो आपके प्राणों को तोड़ सके अगर आपको उत्तेजित करना है, एकदम से आपकी आंखे लाल सुर्ख करनी हैं, आपका चेहरा तमतमाना है तो उस शब्द का उपयोग करना पड़ेगा। जिसे गाली कहते हैं, अन्यथा अगर मैं कहूंगा – बकरी या, गाय तो आप उत्तेजित होंगे ही नहीं। जो आपके प्राणों को तोड सके उस शब्द का उपयोग करना पड़ेगा और प्रेम का एक ही मूल मंत्र है और वह है सेवा। आप एकदम से क्रोधित हो जाएंगे, लाल सुर्ख हो जाएंगे, खड़े हो जाएंगे, मुट्ठियां बन्ध जाएंगी आपकी। यह सब क्रिया इसलिए हुई है कि मैंने प्रहार किया है शब्द का और शब्द प्राणों से जाकर टकराया। और प्राणों से टकराते ही शरीर के सारे अवयवों को जाग्रत कर दिया, पूरे शरीर को जाग्रत कर दिया इतना जाग्रत कर दिया कि, पूरा शरीर उत्तेजित हो गया लाल सुर्ख हो गया। गुस्से में तमतमा गया, आंखे लाल सुर्ख हो गई और मुट्ठियां तन गई हैं।
सेकेण्ड के एक हजारवें हिस्से में यह सब हो गया। ऐसा नहीं कि मैं गाली दूं तो आप सोचें कि जब मुट्ठी भींचनी है, अब आंखों में क्रोध लाना है, अब मुझे खड़ा होना है, कोई टाइम नहीं लगेगा उसमें। जैसे ही शब्द बोला, उसका अर्थ हुआ और इफ़ैक्ट हुआ। अगर अर्थ नहीं होगा तो प्रहार भी नहीं होगा। अगर इंग्लैण्ड जाएं या अमेरिका जाएं और आप मुस्कुराते हुए उन्हें गालियां देते रहें तो वह कहेगा – यस, यस यू आर राइट। मैं गालियां दे रहा हूं और वह खुश हो रहा है। क्योंकि मैं मुस्कुरा कर कह रहा हूं अगर मैं उत्तेजित होकर गुस्से से कहूं तब तो गड़बड़ हो जाएगी। बात में कुछ अर्थ होना चाहिए अगर अर्थ नहीं होगा तो प्रहार नहीं होगा। वह अर्थ समझता नहीं मैं बात को कर रहा हूं अर्थ उसको समझ नहीं आ रहा है।
शब्द का अर्थ होना चाहिए, कालीदास, यही कह रहा है कि अर्थ होते ही प्रहार होता है। अगर मैं हास्य की कविता सुना रहा हूं आपको तो ज्योंहि ही मैं बोलूगा तो उसका अर्थ समझकर हंसने लग जाएंगे आप। आप एकदम से खुश हो जाएंगे। क्योंकि आपने अर्थ समझा है। यह जो मंत्र है यह अपने आपमें तीनों चीजों को लेकर के चल रहा है वाक्, अर्थ और प्रहार। इसीलिए इसे प्राण विखण्डन मंत्र ही कहा गया है। 600 पृष्ठों के बहुत बडे़ ग्रंथ कणाद के चाक्षुषोपनिषद का यह मंत्र है। मगर यह मंत्र कैसा है?
चाक्षुषोपनिषद को आप पूरा टटोल लेंगे तो भी यह मंत्र आपको मिलेगा ही नहीं। और मैं कह रहा हूं कि उस ग्रंथ में यह मंत्र है। और चाक्षुषोपनिषद का अर्थ ही यही है कि सूर्य के उस विखण्डन और प्रखण्डन मंत्र को निकाला जाए। और पूरे उस चाक्षुषोपनिषद में कणाद के पूरे सूत्र में और उसकी सूत्रवली में इस मंत्र का कहीं कोई वर्णन नहीं हैं। उन्होंने उसके पहले अध्याय से लगा कर के अंतिम अध्याय तक जितने भी श्लोक दिए हैं उन श्लोंको के पहले अक्षर को जोड़कर इस मंत्र की रचना की है। मंत्र को इतना गोपनीय बना दिया। सीधा मंत्र दिया ही नहीं। पहला श्लोक अ से शुरु हुआ तो उसका अ ले लिया, दूसरा च से शुरु हुआ, तीसरा क्षु, चौथा र, पांचवा वे।
और हम पढ़ रहे है चाक्षुषोपनिषद और सोच रहे हैं कि शास्त्रों ने कहा है कि इसमें प्राण विखण्डन मंत्र को दिया हुआ है। इसमें ऐसे मंत्र की कोई ध्वनि है ही नही। उसके प्रत्येक श्लोक के पहले अक्षर का आधार लेकर के इस प्रकार से मंत्र की रचना की जो मंत्र मैंने यहां दिया है जिसको प्राण विखण्डन मंत्र कहते है। और प्राण विखण्डन का तात्पर्य है कि इस मंत्र का उच्चारण करते ही, कोई साधना करने की जरूरत नहीं, यह जरूरी नहीं कि आप सवा लाख जप करें। वह तो कह रहा है कि आप अपने आप में विराटता में प्रवेश होने लगेगे। इस मंत्र का केवल उच्चारण करें।
और विराटता का मतलब है – प्रातःकाल उठ करके स्नान करके बिल्कुल उस समय आपका शरीर विराटता से संबंधित होता है। प्रातःकाल सूर्य उगने से पहले की जो स्थिति है वह अपने आप में विराटता से संबंधित होने की स्थिति है। उस समय पूरा ब्रह्माण्ड विराटता में स्थापित होता है। यदि आप उस समय बैठते है तो आप एक इंडिविजुअल व्यक्ति नहीं रहते आप उस विराट सत्ता का अंग बन जाते है और उस समय यदि आप इस मंत्र का उच्चारण करते हैं, बार-बार रिपीट करते है तो पहली बार में ही आपको ऐसी ध्वनियां सुनाई दे सकती है जो कि आपने कभी सुनी ही नहीं हो। आप कहेंगे कि यह क्या हो रहा है, यह कौन सी ध्वनियां है। आपको ऐसे बिम्ब, ऐसे अक्षर ऐसे दृश्य दिखाई देगे जो आपने कभी जीवन में देखें नहीं हो।
आप कभी हिमालय में गए नहीं आपने कभी केदारनाथ देखा नहीं, और केदारनाथ देखा तो उसके पीछे वासुकी झील है उसमें तो कभी जिंदगी में गए नहीं होगे, मगर आपके सामने बिम्ब आएगा और आप सोचेंगे कि यह बिम्ब कहां से आया। यह आवाज कहां से आई, यह बिल्कुल एक नवीन तरह की आवाज कौन सी है?यह कैसी आवाज है ?
हो सकता है कि उस आवाज का अर्थ आप नहीं समझ पाएं। हो सकता है कि मैं आपके सामने में मंत्र का उच्चारण करूं और आप उसका अर्थ समझ नहीं आए। मगर वह आपके लिए बिल्कुल नवीन ध्वनि है, वह कोई फि़ल्मी गीत तो है नहीं, वह कोई भैरवी राग भी नहीं फि़र वह कौन सी ध्वनियां है। ऐसी ध्वनियां ऐसे दृश्य सीधे बिम्बात्मक रूप में आपकी आंखों, कानों से टकराएंगे यदि आप इस प्राण विखण्डन मंत्र का उच्चारण करेंगे तो। चाहे एक बार उच्चारण करें, दो बार करें या पांच बार करें। हजार बार उच्चारण करने की जरूरत नहीं। इतना उच्च कोटि का तेजस्विता पूर्ण यह मंत्र है। अब यह अलग बात है कि आप कन्फ़र्म न कर पाएं कि यह कहां की ध्वनि है।
यदि किसी ग्रामीण व्यक्ति के घर में टेलिफ़ोन नहीं है और मैं उसे बुलाकर कहूं कि तू इस पर बात सुन तो वह किसी भी हालत में बात नहीं समझ सकता। सामने वाला बात करे तो उसके कान में स्पष्ट बात नहीं आ पाएगी। वह कहेगा कोई कुछ बोल तो रहा है पर क्या बोल रहा है पता नहीं। उसे अभ्यास नहीं है, पर हफ्ते भर के अभ्यास के बाद वह शब्दों के अर्थ समझ सकता है। कल आप अभ्यास करे इसका तो कल आपको सैकड़ों दृश्य और सैकड़ों ध्वनियां आपकी आंखों और कानों में टकराएंगी ही। इस मंत्र की साधना होती ही नहीं इस मंत्र के सवा लांख जप की जरूरत होती ही नहीं। यह तो सीधा प्रभावयुक्त और चेतना युक्त है, मगर उस समय जब आप स्वयं विराट सत्ता में हो, जहां शाति हो, बिल्कुल पीस आफ़ माइण्ड हो। अभ्यास के बाद तो आप 24 घंटो में कभी भी प्राण विखण्डन कर सकते हैं।
अभी तो जो ध्वनियां आ रही हैं उन्हें ही पकड़ पाएंगे, मगर किसी व्यक्ति विशेष की ध्वनि ही सुननी है वह आगे की बात है, वह आगे की क्रिया है। अभी तो कोई भी ध्वनि आ सकती है, कोई भी बिम्ब आ सकता है। आप चाहें कि वहीं बिम्ब आए कि मेरे परदादा की मृत्यु कैसे हुई कब हुई और वे कैसे थे तो वह बाद की स्थिति है। शास्त्र तो कह रहा है कि एक बार जो बिम्ब बन जाए वह खत्म नहीं हो सकता, क्योंकि कहीं युद्ध हो रहा है तो हम यहां बैठे-बैठे टीवी में देख लेंगे। अमेरिक में अगर बराक ओबामा बोल रहे है तो हम यहां बैठे-बैठे रेडियों पर सुन लेंगे। हजारों मील दूर का बिम्ब हम देख लेंगे। और शास्त्र कह रहा है कि एक बार बिम्ब बन गया तो वह मिट नहीं सकता। और आप उस बिम्ब को वापस देख सकते है, पूरे विराट में अपने आप को समाहित करने पर और प्राणों को उस विराट में समाहित करने के लिए, प्राणों विखण्डन करने के लिए यह मंत्र है।
आप इसका एक्सपैरिमेंट करके देखें, आपको स्वयं पता चल जाएगा। आप मंत्र का केवल पांच बार उच्चारण करिए और रुक जाएं फि़र और देखिए, क्या ध्वनियां आ रही हैं। आप दस बार मंत्र बोलिए और देखिए, क्या दृश्य सामने आ रहे हैं। वैसे बिम्ब जो आपने कभी अनुमान नहीं लगाए। ऐसा बिम्ब कि आपने सोचा ही नहीं था – एकदम से बफऱ् का इतना बड़ा खण्ड, यह झील। यह सब क्या है। आप सोचेंगे – मैं तो कभी यहां गया ही नहीं। यह कहां है ? वह जगह कहां है इसका आपको ज्ञान नहीं हो सकता, वे ध्वनियां किसकी है है यह भी शायद ज्ञान नहीं हो सकता, यह जानना तो आगे की क्रिया है, आगे का ज्ञान है। फि़लहाल तो यह भी बहुत बड़ी बात है कि हम विचित्र ध्वनियां सुन सकते हैं विचित्र दृश्य देख सकते हैं। बाद में तो कन्फ़र्म करना रहेगा कि ये दृश्य, ये ध्वनियां कौन सी है। बाद में तो यह सामर्थ्य प्राप्त करना रह जाएगा कि जो मैं ध्वनिया सुनना चाहूं वह सुन सकूं। मैं सुनना चाहूं कि वशिष्ट अपने शिष्यों को उपदेश देते समय कैसे बोलते थे तो ठीक वही दृश्य देख सकता हूं वही ध्वनि सुन सकता हूं।
गीता का मतलब ही यही है, गीता के पहले श्लोक में यही कहा है कि संजय पूरे महाभारत युद्ध को देख रहा है अपनी आंखों से और बता रहा हैं दृश्य भी उसे दिखाई दे रहा है, और ध्वनि भी सुनाई दे रही है। और संजय घृतराष्ट्र को वही बहुत दूर की घटना थी। और ऐसी स्थिति को हमारे शास्त्रों में त्रिकाल दर्शिता कहा गया है। त्रिकाल दर्शिता का मतलब ही यही है कि परा विद्या के माध्यम से किसी भी लोक की किसी भी ध्वनि, किसी भी घटना का वह अनुभव कर सकता है। जिस भी घटना को देखना चाहे वह देख सकता है, समझ सकता है। और आप अभ्यास करके देख सकते है, समझ सकते है।
और अभ्यास से आप निश्चित दृश्य ही देख सकते हैं। आप चाहें तो अपने पूर्वजों के भी दर्शन कर सकते हैं। आपके परदादा का स्वरूप कैसा था, आपने फ़ोटो भी नहीं देखा आप उस बिम्ब का भी देख सकेंगे और अगर आप उनकी आवाज सुनना चाहे तो आवाज भी सुन सकेंगे। और अगर सुनना चाहें कि दशरथ और कैकेयी का संवाद क्या हुआ क्या बातचीत हुई आप ठीक वही ध्वनि सुन सकते हैं। उसके लिए एक निश्चित प्राण संवेदना क्रिया करनी पडेगी, निश्चित उसी पाइंट को समझना पडे़गा। यह बहुत बड़ी बात है, यह मामूली घटना नहीं है, आज से दस हजार साल पहले जो घटनाएं घट गई, उनको भी देख सकते हैं, सुन सकते हैं, और समझ सकते हैं।
अगर ऐसा है तो फि़र हमारे लिए कुछ भी अदृश्य या गुप्त है ही नहीं, गोपनीय तो फि़र है ही नहीं कुछ भी। और जिस प्राण विखण्डन क्रिया का ज्ञान है उसके लिए अज्ञात कोई चीज रहती ही नहीं। आप उन क्रियाओं उन तथ्यों को समझे और उनको अपने हृदय में उतारें। जीवन में सर्वश्रेष्ठ विद्या के जानकार सूर्य जिनसे सबसे पहले ब्रह्मा ने परा विद्या सीखने का प्रयत्न किया। और जिस परा विद्या को संसार की सर्वश्रेष्ठ विद्या, संसार का सर्वश्रेष्ठ आधार और जीवन का सर्वश्रेष्ठ चिंतन कहा गया यद्यपि छांदोग्योपनिषद और चाक्षुषोपनिषद में परा विद्या के बारे में संकेत तो अवश्य दिए हैं।
यदि आप कभी उपनिषदों का अधययन करें तो मैं समझता हूं कि उनमें सर्वश्रेष्ठ उपनिषद कठोपनिषद है जिसमें यम नचिकेता का परास्पर संवाद है। नचिकेता, प्रश्न करता है और यम उनका उत्तर देते हैं और उसी प्रश्न – उत्तर में नचिकेता एक महत्वपूर्ण प्रश्न कर लेता है। नचिकेता पूछते है – अहं पूर्व सेवं मतिं वदेयं मूत्योर्विदष्यति पां पवितं सहेवं आत्मं च देह वगतं सहित सदावै कि कारणे कूर्य सता सहित। आप मुझे ब्रह्म विद्या का उपदेश तो दे रहे हैं, यह मेरे जीवन का सौभाग्य तो है कि आपने मुझे ब्रह्म विद्या की जानकारी दी आपने मुझे एक अणु से विराट तक पहुंचने की क्षमता प्रदान की, आपने जीवन के रहस्यों को प्रकट करने का प्रयत्य किया जिनके माध्यम से सम्पूर्ण जीवन को, आत्मा को, चेतना को, प्राण को और विराट को समझा जा सकता है। मैं केवल आपसे परा विद्या के बारे में सीखना चाहता हूं।
और ठीक ऐसा प्रश्न चतुर्मुख जिनके चारों मुखों से चार वेद उच्चरित होते रहते थे, ऐसे ब्रह्मा ने सूर्य से पूछा। ब्रह्मा स्वयं सूर्य के पास जाते हैं और प्रश्न करते हैं कि – परायै! परा विद्या क्या है। और सूर्य उत्तर देते हैं – सजीवनै प्राणश्चेतनावै स परा विद्या जो जीवन को प्राणश्चेतना प्रदान कर सकता है वह परा विद्या है। मनुष्य का जीवन सर्वथा निर्जीव है। वह गतिशील तो है चलता फि़रता तो है मगर किसी प्रकार से उसमें ज्वार नहीं है, उत्तेजना नहीं है, उमंग नहीं है, जोश नहीं है और उससे भी बड़ी बात यह है कि शास्त्रों के महासमुद्र में डुबकी लगाने का उनको अभ्यास नहीं है।
ऐसी स्थिति में केवल परा विद्या के माध्यम से ही सम्पूर्ण शास्त्रों का व्यक्ति जानकार हो सकता है। अब बहुत हैं, 16 पुराण है, चार वेद है और इनके अलावा शास्त्र मीमांसा और दर्शन है तो इन सब को अधययन करने में युगों युगों लग जाएंगे और व्यक्ति समाप्त हो जाएगा। क्या कोई ऐसी युक्ति नहीं है, जिसके माध्यम से व्यक्ति इन सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर सके ?और जब भी वह प्रवचन करने लगे, जब भी बात करने लगे तो वे सारे शास्त्र स्वयं सदेह आकर उसके सामने उपस्थित हो जाएं।
यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है और इससे परा विद्या की जानकारी प्राप्त होती है कि परा विद्या क्या है? परा विद्या से तात्पर्य यह है कि जब तक हमारा जीव और हमारे प्राण और हमारी चेतना उन समस्त शास्त्रों का अवलोकन नहीं कर लेगी, समस्त ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेगी, तब तक हम उस सूर्य के चिंतन को नहीं समझ पाएंगे जो कि तेजस्विता युक्त है। प्रकाश केवल ज्ञान का ही प्रकाश नहीं हो सकता। मन के अंधकार को दूर करने के लिए केवल ज्ञान के प्रकाश की जरूरत होती है। बाहरी अंधकार तो दीपक के प्रकाश के माध्यम से दूर करते हैं। मगर जहां मन में अंधकार है वहां सूर्य को कहां से समझ पाएंगे, उनकी किरणों को कहां से समझ पाएंगे, उसकी मूलभूत चेतना को कहां से समझ पाएंगे?
किस युक्ति से हम उन सारे शास्त्रों को सैकड़ों हजारों शास्त्रों को हृदयंगम कर सकते हैं, सीख सकते हैं, आत्मसात कर सकते है और कुछ भी समय में सीख सकते हैं ? यदि किसी व्यक्ति की उम्र सौ साल भी मानकर चले और यदि वह चारों वेदों का अध्ययन करे, पुराणों का अध्ययन करे शास्त्रों का अध्ययन कर, मीमांसा का अध्ययन करें, उपनिषदों, का अध्ययन करें तो उसका तो पूरा जीवन बीत जाएगा। ऐसी ही स्थिति में सूर्य साधना से हम अपने मन के अंधकार को दूर कर सकें, कुछ ऐसी युक्ति करें कि परा विद्या का जानकार यदि कानून पर बोलना चाहे तो भले ही उसने सुप्रीम कोर्ट के कानून का अध्ययन नहीं किया हो, हो सकता है उसने उन धाराओं का अध्ययन नहीं किया हो, हो सकता है, उसने एलएलबी नहीं की हो, मगर वह बोलेगा। तो धारा प्रवाह बोलता रहेगा, एक एक उद्धहारण देता हुआ यदि बोलेगा तो सामने वाले व्यक्ति को प्रभावित करेगा कि इसको कानून का अद्वितीय ज्ञान है। यदि वह शिक्षा पर बोलना चाहे तो शिक्षा पर उन सारे ग्रंथो का हवाला दे सकेगा जिन ग्रंथो को उसने जीवन में देखा ही नहीं है। और वह भी प्रमाणिकता के साथ, श्लोकों के साथ, मीमांसा के साथ।
और यदि वह वेद पर बोलना चाहे, उपनिषद पर बोलना चाहे, जीवन के किसी सिद्धान्त पर बोलना चाहते तो वे समस्त शास्त्र एकदम से उसके सामने स्वयं सदेह उपस्थित हो सकें ऐसी विद्या को परा विद्या कहते है। यह जीवन की बहुत बड़ी बात है। हम जीवन का आनन्द ले सकते हैं। हम जीवन के उन रहस्यों को जान सकते है जिनसे हमारे जीवन का निर्माण हो सका है, हम सूर्य के रहस्यों को जान सकते हैं उस चाक्षुषोपनिषद के माध्यम से। और उस चाक्षुषोपनिषद के प्रारम्भ में सूर्य स्वयं बोलते है – ब्रह्मं स्वरूपं पखां परेषं परीतां परेषं परां पूर्ण पतें पतातं परीतं यबेवं ज्ञाने वता च विता चहितां दीर्घा परे सः प्राणो उत्थवा त्व रूपं।
प्राणों के उत्थावात रूप को प्राण की उत्थापन क्रिया को परा विद्या कहते है। प्राणों के माध्यम से ही सूर्य को समझा जा सकता है। यदि आप सूर्य का अध्ययन करना चाहें, पदार्थ परिवर्तन की क्रिया जानना चाहें, उनकी किरणों को जानना चाहें उन किरणों के परिवर्तन को जानना चाहें, उन किरणों के माध्यम से पदार्थ के निर्माण को जानना चाहें तो उसके लिए परा विद्या को जानना जरूरी है ।और जब हम परा विद्या को जान लेंगे तो उन सारे शास्त्रों को भी जान लेंगे जिनकी हमारे देवताओं ने और ऋषियों, मुनियों ने रचना की। हो सकता है कि ऐसे सैकड़ो ग्रंथ विलुप्त हो गए हो, हजारों ग्रंथ ऐसे है जिनका अस्तित्व ही नहीं है। रावण संहिता के नाम ही नाम का उल्लेख हैं रावण संहिता ग्रंथ ही समाप्त हो गया।
क्या हम वापस ऐसे ग्रंथ केा पढ़ सकते हैं ?क्या ऐसे ग्रंथ को देख सकते हैं ?और चाक्षुषोपनिषद् में बिल्कुल स्पष्ट रूप से बताया गया है कि ऐसा संभव है। उस चाक्षुषोपनिषद् के उद्धाहरण को देते हुए भगवत पाद शंकराचार्य ने बहुत सुंदर उक्ति कहीं। उसने कहा – संसार में कोई भी वस्तु मिटती नही। जो कुछ आप बोल देते है, जो कुछ आपने ध्वनि की हैं, जो कुछ आपने उच्चारण किया है वह शाश्वत है, वह मिट नहीं सकता। यदि मैं, आज आपके सामने प्रवचन करता हूं तो शंकर की भी मीमांसा के अनुसार ये शब्द कभी समाप्त नहीं हो सकते। जब शंकर सूर्य के चिंतन के बारे में समझाते है तो वे उस व्याख्या को स्पष्ट करते हुए चाक्षुषोपनिषद् के सूत्र को स्पष्ट करते हुए कणाद के उस चाक्षुषोपनिषद में कहा है –
सः प्राणवै चक्षु वहितं सः यम
सः देहतः सः कुबेरः
उस प्राण के उत्थापन की क्रिया से ही परा अपने आप में अपरा में और अपरा अपने आप में परा में बदल जाती है। अब इस सूत्र को आम आदमी तो समझ नहीं पाएगा। यह तो ऐसा सूत्र, ऐसी गुत्थी है जिसको समझा नहीं जा सकता एकदम से। जब इसका शंकराचार्य ने पहली बार भाष्य किया और शंकर ने कहा – दो अस्तित्व हैं जीवन में, एक अस्तित्व है ब्रह्म स्वरूप व्यक्ति खुद और दूसरा है पूर्ण संसार। जीवन में दो अस्तित्व है एक हम है और हम है तो पूरी दुनिया है, यह पूरा संसार है। अगर हम ही नहीं है तो इस संसार की उपयोगिता ही नहीं है, इस संसार का महत्व ही नहीं है, इस संसार का कोई मूल्य ही नहीं है।
और यदि संसार है, मनुष्य नहीं है तो भी सब व्यर्थ है। संसार के लिए दो शब्द प्रयोग गए हैं – भू और भुवः। भूलोक और भुवः लोक का तात्पर्य है कि व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता हो। और वह सत्ता पूरे विश्व से जुड़ी हो। यहां विश्व का तात्पर्य ब्रह्माण्ड से है, विश्व का तात्पर्य है ब्रह्माण्ड के वे सभी लोक जिनके यम लोक, चन्द्रलोक, कुबेर लोक, यक्ष लोक या अन्य कई लोक। या वे सभी लोक जिन्हें भू भुवः मह जन तपः सत्यम। इन समस्त लोकों की सत्ता मनुष्य में निहित है। और शंकराचार्य समझाते हुए कहते हैं कि अगर मनुष्य एक बार कुछ कह देता है, तो वे शब्द युगों-युगों तक अमर हो जाते हैं, समाप्त नहीं होते, टुकड़े नहीं होते, उनको आप विमुक्त नहीं कर सकते। यह एक बहुत बड़ी बात है। इसका मतलब तो यह हुआ कि यदि मैंने आज आपके सामने कुछ बोला तो आज से 500 वर्ष बाद भी यह प्रवचन ज्यों का त्यों सुरक्षित रहेगा। शंकर के शब्दों का तो सार यही है। और शंकर को पाद पद्म और अन्य शिष्य प्रश्न कर रहे हैं कि क्या जो शब्द एक बार उच्चारित हो गए वे शाश्वत हैं।
तो शंकर ने कहा – निश्चित ! निश्चय हो तो आदमी एक बार बोल देता है, उच्चारित कर देता है वह शब्द समाप्त नहीं हो सकता क्योंकि शब्द ही ब्रह्म है। और ब्रह्म को मारा नहीं जा सकता, ब्रह्म को तोड़ा नहीं जा सकता, ब्रह्म के टुकडे भी नही किए जा सकते, ब्रह्म का समाप्तिकरण भी नहीं किया जा सकता।
इसी चिंतन पर शंकराचार्य के शिष्य मंडन मिश्र प्रश्न करते हैं कि मैं उसी परा विद्या को जानने की चेष्टा में हूं गुरुदेव की जिसके माध्यम से मैं संसार के सारे शब्दों और रहस्यों को जान सकू। इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि द्वापर युग में महाभारत युद्ध हुआ और अठठारह दिन तक कौरव और पांडव लड़ते रहे, मंडन मिश्र प्रश्न कर रहे हैं शंकर से ——
महाभारत का युद्ध सबसे बड़ा अभिशाप रहा जीवन का जहां, करोड़ों व्यक्ति समाप्त हो गए और जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य रहा कि उससे श्रीमद् भगवत गीता जैसा ग्रंथ निकल सका। ये दोनों बिल्कुल विपरीत धा्रुव जहां पर युद्ध, जहां पर छल, जहां पर सब कुछ अपने आप में समाप्त होने की क्रिया थी वहां पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पूर्ण ज्ञान दिया। और गीता के प्रथम श्लोक से लगा करके अट्ठारवें अध्याय के अंतिम श्लोक तक भगवान कृष्ण ने एक ही बात अर्जुन को कहीं – तू कायर है, बुजदिल, है, तू जो बैठा-बैठा युद्ध नहीं लड़ने की बात सोच रहा है इससे ज्यादा कायरता कुछ नहीं हो सकती, तुझे केवल एक ही बात करनी है कि तुझे लड़ना है। और अगर तू नहीं लड़ेगा तो भी ये मर जाएंगे। बचेंगे तो ये नहीं और लड़ेगा तो भी मर जाएंगे। तो तू विजय प्राप्त क्यों नहीं कर लेता।
यह मंडन मिश्र का प्रश्न था कि महाभारत की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि थी कि भगवान कृष्ण ने गीता जैसे उत्तम कोटि के ग्रंथ को अपने मुख से उच्चरित किया। क्या भगवतपाद शंकराचार्य हम उन शब्दों को जब वे मरे ही नहीं शब्द, जब वे शब्द जीवित हैं तो क्या हम कृष्ण के ठीक उन्हीं शब्दों को वापस सुन सकते हैं। आप कह रहे हैं कि शब्द नहीं मरे तो शब्द तो हैं ही ब्रह्माण्ड में। और कृष्ण ने जो कुछ भी जिस ध्यान में उच्चारण किया क्या हम श्री कृष्ण की वाणी में ही उस उच्चारण को वापस सुन सकते हैं। शंकराचार्य ने कहा – निश्चित रूप से सुन सकते है। यही नहीं हम तो यह भी सुन सकते है कि प्रारम्भ में जब आर्य आए और सिंधु नदी के किनारे बैठकर उन्होंने जिस वेद की ऋचाओं का अध्ययन किया जिन वेद की ऋचाओं का निर्माण किया, पहली-पहली बार जिस वेद की ऋचाओं को उच्चारित किया, उन व्यास उन अत्री, उन कणाद, उन पुलस्तस्य, उन वशिष्ठ, विश्वामित्र के मुंह से उच्चारित शब्द भी वापस सुन सकते हैं। ऐसी क्रिया को कि ब्रह्माण्ड में फ़ैले हुए जो शब्द हैं उन शब्दों को पूंजीभूत करके वापस सुनने की क्रिया और उच्चारित करने की क्रिया पराविद्या कहलाती है।
आप शास्त्रों का कहां तक अध्ययन करेंगे, मगर शास्त्र जब भी रचा गया उसका उच्चारण तो हुआ होगा, व्यास ने विभिन्न सूत्रों से बिखरे हुए मंत्रों को एकत्र करके उन चारों वेदों की रचना कर दी पुराणों की रचना कर दी, सिंधु नदी, के किनारे किसी न किसी ऋषि ने उन मंत्रों का सस्वर, संघोष उच्चारण किया होगा और जब उच्चारण किया तो वे शब्द वायु मंडल में फ़ैले और जब वे शब्द वायु मंडल में फ़ैले तो इसका तात्पर्य है कि वे शब्द वायु मण्डल में है क्योंकि शब्द तो ब्रह्म हैं, शब्द मिट नहीं सकता, शब्द मर भी नहीं सकता, आवश्यकता है कि उस शब्द को वापस पकड़ सकें। और उन्हीं शब्दों को पकड़ सके।
और साइंस भी इसी बात को स्वीकार करता है कि यदि मुम्बई में लता मंगेशकर गाना गाती है तो हम रेडियो के माध्यम से उन शब्दों को सुन सकते हैं। यहां तो वायु मण्डल में सैकड़ों आवाजें हैं, यहां पर एक ही आवाज नहीं है, यहां पर लता मंगेशकर का गाना भी चल रहा है, एक भाषण भी चल रहा है ये सारे शब्द है, मेरे सामने हैं मै रेडियो की सुई को घुमाउंगा तो ज्योंही मुम्बई पर लगाउंगा तो वह गाना सुनाई देगा थोड़ी और सूई घुमा दुंगा तो वह रेडियों दूसरे प्रकार की ध्वनियां को पकड़ने लगेगा। कोई भी ध्वनि मरी नहीं है सब ध्वनियां जिंदा है, अगर मर सकती है मुम्बई से यहां आते-आते बिखर जाती ध्वनि। मगर उस यंत्र के माध्यम से हम उन ध्वनियों को पकड़ रहे हैं और सुन रहे है।
मुम्बई तो बहुत दूर है और वहां से यहां तक कोई माध्यम नहीं, कोई तार नहीं लगा हुआ है, और हम वही ध्वनि पकड़ रहे है यद्यपि यहां पर पचास तरह की ध्वनियां वायु मण्डल में हैं। हम देख नहीं पा रहे हैं। वह एक अलग बात है। ध्वनि को देखा नहीं जा सकता ध्वनि तो अनुभव करने की, श्रवण करने की पद्धति है।
अगर, उस ध्वनि को पकड़ सकते हैं तो उन ध्वनियों को भी पकड़ सकते हैं जो आज से दस हजार साल पहले उच्चारित हुई होगी। रूस और अमेरिका में इस पर विशेष परीक्षण हो रहे है, और परीक्षणों के आधार पर उन्होंने इस बात का निश्चय किया है कि आज से दस हजार वर्ष पहले भी कुछ ध्वनियां उच्चारित हुई है तो उनको ज्यों का त्यों हम पकड़ सकते है, सुन सकते है। और यदि ऐसा हो गया तब तो विश्व में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया है, रेडियों और टेलिविजन तो आपके सामने है, इस परिवर्तन को साइंस की भाषा में भी देख सकते है क्योंकि उस यंत्र पकड़ने की और व्यक्ति करने की क्रिया है।
मगर क्या हम प्राणों के माध्यम से भी उस आवाज को पकड़ सकते है वह तो केवल वर्तमान की ध्वनियां को पकड़ रहा है। अभी मैं गाना गाऊगाँ तो वह सुनाई देगा, अभी नहीं गाँऊ तो नहीं सुनाई देगा। तो या तो लता मंगेश्वकर गाना गाए या टेप बजे, वहां टेप बजेगी तो मैं यहां सुन सकूंगा, ऐसा नहीं हो सकता कि लता मंगेश्कर ने दस साल पहले गाया तो और मैं रेडियों लगाऊं और सुन लूं। साइंस केवल वर्तमान की ही ध्वनियों को पकड़ पा रहा है। और यहां विज्ञान कह रहा है कि वर्तमान की ही ध्वनियां नहीं कई हजार वर्ष पहले भी यदि ध्वनियां उच्चातर हुई हैं तो हम पकड़ सकते है। और हम पकड़ सकते है प्राणों के माध्यम से, प्राणों के माध्यम से क्यों? क्योंकि सूर्य को प्राण कहा गया है।
और किसी प्रकार से हम प्राणों को जाग्रत कर सकते है ?यदि हम सूर्य को ही प्राणों में संचरित कर सके तो ऐसा संभव है क्या ?प्राणों को सूर्य से जोड़ सकते है ? प्राण और सूर्य में तो अंतर है ही नहीं। जिस प्रकार चमड़ी में और रक्त में अपने आप में संबंध है, अगर चमड़ी को तोडेंगे तो रक्त निकलेगा ही। उस प्रकार सूर्य और प्राणों का सम्बन्ध है। उन प्राणों को संवेदनक और संवाहक बनाने के लिए एक तो ध्वनि प्रेषण की और एक ध्वनि पकड़ ने की, दो प्रकार के यंत्रें की आवश्यकता होती है। दो शब्द है हमारे दर्शन में, एक को जीवन में प्राण कहा है और एक को अपान कहा है। प्राण शब्द का अर्थ है उन ध्वनियों को पकड़ लेना और जपान का अर्थ है उनको व्यक्त कर देना।
और यदि हम इस परा विद्या की प्राण और अपान दोनों क्रियाओं को सीख ले तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि आज से कई हजार वर्षों पहले जो कुछ भी वेद जो कुछ भी मंत्र, जो कुछ भी, स्वर्ण बनाने की पद्धति नागार्जुन ने, जो कुछ भी, काली दास, मेघदूत के माध्यम से जितने भी काव्य, ग्रंथ, उच्चरित किए उनको हम प्राणों के माध्यम से पकड़ कर अपान के माध्यम से सुन सकते है, व्यक्त कर सकते है।
और जब वे शब्द सुनना और उनको व्यक्त करने की क्रिया आ जाती है तो फि़र व्यक्ति प्रवचन करते समय किसी भी उपनिषद की व्याख्या को, उपनिषद के श्लोक को तुरंत उच्चारित कर सकता है। फि़र उसको याद, करने की जरूरत नहीं कि उस चक्षुषोपनिषद में तीसरे मण्डल में चौथा श्लोक क्या है। इसलिए जरूरत नहीं है कि जब प्राण को जोड़ दिया है, बस सूई घुमानी है, प्राण, को घुमाना है कि चाक्षुषोपनिषद के तीसरे मण्डल का चौथा श्लोक और तुरन्त वह श्लोक उच्चारित होगा। यावे वतं च पवितां परमे सहित—-
कुछ सोचने की जरूरत नहीं पड़ी याद करने की भी जरूरत नहीं पड़ी वह तो ज्योंही सूई को उस पाइंट पर लगाया नहीं कि वही श्लोक उच्चारित होता है जो श्लोक आपने सोचा है। यह मामूली बात नहीं है, इसके माध्यम से तो यह भी पता चल जाएगा कि इतिहास में गोपनीय बातें क्या क्या हुई। इंग्लैण्ड के इतिहास में जार्ज षष्ठम ने अपने प्रेम के लिए ठुकरा दिया इंग्लैण्ड के राज्य को तो आखिर क्या आपस में बाते हुई कि इतना बड़ा त्याग कर दिया। इसका मतलब तो यह हुआ कि हम यह भी जान सकते है कि ऋषियों ने आपस में क्या-क्या बातें की। इस बात को भी सुन सकते है कि राम और सीता पर्ण कुटि में बैठे किस चर्चा में संलग्न थे। फि़र तो कुछ भी असम्भव है ही नहीं। फि़र तो हम उन ध्वनियां को भी जिन्हें वाल्मीकी नहीं बता पाए, सुन सकते हैं और व्यक्त कर सकते हैं।
और इसके लिए उन दोनों क्रियाओं को प्राण और अपान को जाग्रत करने की जरूरत है और कणाद ने कहा है कि मनुष्य वही है जो ब्रह्म का साक्षात्कार करके अपने प्राण और अपान को जाग्रत कर सके और सूर्य को अपने शरीर में समाहित कर सके। सूर्य को किस प्रकार से समाहित करें ?किस जगत में समाहित करें ?किस बिन्दु पर समाहित करें ? इतना बड़ा तेजस्विता युक्त जो इतना बड़ा एक आग का गोला है, जिसको कहते हैं कि इतना प्रखर और तेजस्वी है क्या हम उसे प्राणों में समाहित कर सकते है ? और हम अवश्य ही उस तेजस्विता युक्त सूर्य को प्राणों में ले सकते हैं उस परा विद्या की ही क्रिया आगे चलकर के पंचागुली साधना और छोटी-छोटी अन्य साधनाएं बनी, कर्ण पिशाचिनी साधनाएं बनीं। ये सब जो क्षुद्र साधनाएं बनी ये प्राण अपान क्रिया के बाई प्रोडक्ट है।
जब व्यक्ति कान में उंगली डाल कर कर्ण पिशाचिनी के माध्यम से पूछता है कि क्या बात हुई तो उसे तुरंत जवाब मिल जाता है कि क्या हुआ। वह बात आज से छः साल पहले हुई होगी। घटना तो छः साल पहले हुई होगी और व्यक्ति पूछता है क्या हुआ तो वह कहती है ऐसा हुआ। यह सब क्या है ?छः साल पहले की घटना हुई उसकी ध्वनियां कानों से टकरा रही है यह उस पिशाचिनी की सिद्ध किए हुए व्यक्ति मिल जाएंगे आपको हर गली कूचे में जो पहले की घटी हुई घटना को सुन सकते है। पंचागुली साधना के माध्यम से या कच्चे गल्ले के माध्यम से, या छोटे मोटे टोने टोटकों के माध्यम से इन चीजों को सीखा जा सका है। और आप प्राण अपान क्रिया को सीखें या न सीखें पर इन सबसे माध्यम से आप तथाकथित सिद्ध योगी बन सकते है। मगर शंकराचार्य कह रहे है दो चार छः या दस साल पहले ही नहीं दस हजार साल पहले की भी घटनाओं को भी देख सकते है। संजय मेरे पुत्र कुरुक्षेत्र में खडे-खडे क्या कर रहे है और संजय पूरी बात बताता जाता है कि अब अर्जुन आगे बढ़ा, अब उसने गांडीव से तीर चलाया, अब वह तीर भीष्म को लगा है। संजय सब बैठा-बैठा देख रहा है जबकि तीन सौ मील का डिस्टेंस है।
परा और अपरा विद्या का तात्पर्य यही है कि उन घटनाओं को सुन सकते है देख सकते है, और उन्हें व्यक्त कर सकते है। मैं समझता हूं कि मैंने प्राण और अपान क्रिया को स्पष्टता से व्यक्त करने की कोशिश की है, कि उसका तात्पर्य क्या है। अब प्रश्न यह है कि उस प्राण अपान क्रिया को सीखे कैसे ?क्या करें ? किस प्रकार प्राण अपान क्रिया को आत्मसात करें ? कणाद कहते हैं सूर्य के मण्डल को, सूर्य को नहीं क्योंकि सूर्य के सात मण्डल है जिन्हें सात घोड़े कहा है, सप्त अश्व। उस सूर्य के मण्डल को अपने शरीर में समाहित करने का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि मनुष्य का शरीर तो विराट है।
जब अर्जुन मान ही नहीं रहा था, अर्जुन बार-बार फि़सल रहा था, वह कह रहा था कृष्ण मैं सब तुम्हारी बात मान सकता हूं। मगर मैं अपने दादा को नहीं मार सकता ये भीष्म मेरे दादा हैं। ये जो द्रोण आप देख रहे हैं ये मेरे गुरु हैं, मैने इनके साथ बैठकर ज्ञान प्राप्त किया है, राजनीति सीखी है, आप कहते हैं द्रोण को मार दूं गुरु को कैसे मार सकता हूं ?ये भीष्म मेरे पितामह है, दादा है इनकी गोदी में मैं बड़ा हुआ हूं, इनको में तीर, कैसे मार दूं ? कृष्ण कहते है – तुम अबोध हो, शायद तुमने मनुष्य के विराट स्वरूप को नहीं देखा। और गीता के उस दसवें अध्याय में कृष्ण अपने विराट स्वरूप को उसके सामने कर देते हैं और कहते है तू देख तू क्या कर रहा हैं। और अर्जुन देखता है कि सब कौरव अपने आप मर रहे है समाप्त हो रहे हैं महाभारत युद्ध उनके शरीर में सिमट रहा है। अर्जुन कहता है यह क्या हो रहा है ? कृष्ण कहते है – यही सब होने वाला है, तू मार या नहीं मार, अगर तू नहीं मारता तो पराजय का कारण तू बन जाएगा, जीवन भर अपराध बोध से ग्रस्त रहेगा, ये मरेंगे तो जरूर और अगर तू इन्हें मारेगा तो विजयी कहलाएगा।
ऐसा कैसे, कर पाए कृष्ण, कैसे दिखा पाए, विराट स्वरूप को कैसे महाभारत युद्ध दिखा सके ?इसीलिए दिखा सके कि उन्होंने प्राण अपान क्रिया को आत्मसात किया पूरे सूर्य के मण्डल को अपने भीतर स्थापित किया, इसलिए वे कृष्ण कहलाए, सद्गुरु कहलाए, जगद्गुरु कहलाए। आप भी सद्गुरु को पहचान सके, पूरे सूर्य मण्डल को अपनी भीतर स्थापित कर सकें सूर्य को प्राणों के साथ जोड़ सकें, ऐसा ही मैं आपको आशीर्वाद देता हूं कल्याण कामना करता हूं।
– सद्गुरुदेव परमहंस निखिलेश्वरानन्द।
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