न मुझे मंत्र का ज्ञान है, न तंत्र का, न ध्यान का और न ही कि यज्ञ-अनुष्ठान का, है गुरुदेव। मुझे तो केवल आपका ही नाम स्मरण है, यही ज्ञान है, यही चेतना है।
न तो मेरी कोई माता है, न पिता, न बंधु न सखा, न पुत्र न पुत्री और न ही केाई व्यक्तिगत इच्छा है गुरु देव मुझे तो बस आपका ही नाम स्मरण है बस एक आप ही मेरे अपने हैं।
गुरु से बढ़कर न शास्त्र है, न तपस्या, न मंत्र और न ही स्वर्गादि लोक। गुरु से बढ़कर न देवी है, न देव ही गुरु से बढ़कर है औ न ही मोक्ष या मंत्र जप। एक मात्र गुरुदेव ही सर्वश्रेष्ठ है।
बीज को बोध नहीं होता अपनी पूर्णता का, और इसी तरह शिष्य को भी अपनी पूर्णता का भाव नही होता, गुरु का कार्य मात्र अपनी पूर्णता का भाव वहीं होता, गुरु का कार्य मात्र उसे पूर्णता का बोध कराना ही होता है।
गुरु और गुरु कार्य को त्यागने वाले को कहीं शरण नहीं मिलती, इसलिए अपनी सामर्थ्य अनुसार गुरु कार्यों में भी पूर्ण मनोभाव से सहयोगी बना रहे।
गुरु के पास बैठे रहने मात्र से साधक के हृदय में ज्ञान का प्रकार हो लगता है, जिसको ब्रह्म प्रकाश कहा गया है, जिससे मन के समस्त प्रकार के भ्रम व चिंताएं स्वतः ही भाग जाती हैं। अतः शिष्य को चाहिए दीपक से दूसरा दीपक पास लाने मात्र से ही जल उठता है, उसी प्रकार गुरु के सानिध्य मात्र से ही शिष्य का अंतरलय प्रकाशित हो जाता है, ओर उसका कल्याण हो जाता है।
शिष्य को नित्य एक नियमित समय पर नियमित संख्या में गुरु मंत्र का साधना रूप में जप अवश्य ही करना चाहिए।
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