ब्रह्म द्वारा वेदों की रचना से पहले एक महान ग्रंथ की रचना हुई और उसे ब्रह्मसार कहा गया, और वेदों से भी पहले ब्रह्मोपनिषद की रचना हुई है। इसका एक-एक अक्षर अपने आपमें एक-एक मंत्र है एक-एक ग्रंथ है, और उसके चार हजार श्लोक करोड़ो श्लोंको के बराबर है। मगर उसकी विशेषता यह है कि उसके चालीस अध्यायों में, चालीस परिच्छेदों में प्रत्येक के प्रारम्भ में एक श्लोक है जो कॉमन है, पहले अध्याय में भी वही श्लोक है, बाकी श्लोक दूसरे हैं, फि़र दूसरे अध्याय में भी वही श्लोक है और बाकी श्लोक दूसरे हैं। ऐसी क्या विशेषता है उस श्लोक में कि प्रत्येक अध्याय में उस श्लोक को ब्रह्मा को देना पड़ा ?और वह श्लोक है –
गुरुतं वदेतं भवतं वदैवः
सर्वत्र देव भवतां भवतं वदैवः
ज्ञानोत्थानां सिद्धि सदैव रूप
पूर्ण सदैवः पूर्ण सदैवः।
उस श्लोक में बताया गया है कि मनुष्य अपने आपमें एक अधूरा और अपरिपक्व व्यक्तित्व है, मनुष्य अपने आपको पूर्ण कहता है मगर पूर्ण है नहीं क्योंकि उसके जीवन में कोई न कोई अधूरापन जरूर रहता है। धन है तो प्रतिष्ठा नहीं है प्रतिष्ठा है तो पुत्र नहीं है, पुत्र है तो सौभाग्य नहीं, सौभाग्य है तो रोग रहित नहीं है। और उसके शरीर में भी कोई विशेषता नहीं है उसमें केवल मांस निकलेगा, हड्डियां निकलेगी, रूधिर निकलेगा, पिशाब निकलेगा और मल निकलेगा। इसके अलावा इस शरीर से कोई ऐसी चीज नहीं है जिससे कि हम शरीर पर गर्व कर सके। हम किस बात पर गर्व करें ? इस शरीर में क्या है जिस पर गर्व करे हमारे लिए ऐसी युक्ति भी नहीं है कि हम इस शरीर में कुछ ऐसा प्रभाव कुछ ऐसी आभा पैदा कर सके जिसके माध्यम से हमारा शरीर हमारा चेतना वैदीप्यमान बन सके। हम जो भोजन करते है, जो शुद्ध अन्न है, वह भी आगे जाकर मल बन जाता है और ऐस मल जिसका कोई उपयोग नहीं होता।
हलवा खाएं तो भी उसका अंत मल ही है, घी खाएं तो भी उसका अंत मल ही है, और चाहे रोटी खाएं तो भी उसका अंत मल ही है। शरीर में ऐसी क्रिया ही नहीं है जो शरीर को दिव्यता और चेतना युक्त बना सके क्योंकि शरीर अपने आपमें व्यर्थ में खोखला है। एक चलती फि़रती देह है और उस देह में उच्च कोटि का ज्ञान, उच्च कोटि की चेतना, उच्च कोटि का चिंतन समाहित नहीं हो सकता क्योंकि इस शरीर में कुछ है ही नहीं। और इस शरीर के भीतर झांकर कर भी देखा, इस शरीर को चीर फ़ाड़कर भी देखा, इन आंखो को देखा, हाथ को देखा, टांग को देखा और ऑपरेशन करके भी देखा, उसमें कोई विशेषता मिली ही नहीं और हम यदि कुछ भी ले या खाएं पीएं तो उसके बाद भी शरीर में किसी प्रकार की कोई विशेषता उत्पन्न नहीं होती चेहरे पर तेजस्विता प्राप्त नहीं हो सकती वैदीप्य मानता नहीं आ सकती, एक उच्च व्यक्तित्व नहीं बन सकता एक अपूर्वता नहीं बन सकती चाहे हम कुछ भी खा लें या कर लें।
क्यों नहीं बन सकती ?
फि़र मनुष्य शरीर हमने धारण क्यों किया ?
इसलिए ब्रह्मा पहले श्लोक की आधी पंक्ति में कहते हैं मनुष्य शरीर अपने आप में एक ऐसा व्यर्थ शरीर है कि उसको हम किसी को चढ़ा भी नहीं सकते अर्पण भी नहीं कर सकते। न गुरु के चरणों चढ़ा सकते हैं, न देवताओं के चरणों में चढ़ा सकते हैं। अपवित्र चीज नहीं चढ़ा सकते, मल युक्त चीज नहीं चढ़ा सकते। कोई पुष्प मल में पड़ा हुआ हो तो उसको उठाकर भगवान के चरणों में नही चढ़ा सकते किसी देवता को अर्पित नहीं कर सकते गुरु को समर्पित नहीं कर सकते। यदि एक हिसाब से सड़ा हुआ पुष्प है या फ़ूल है उसे भगवान के चरणों में नहीं चढ़ा सकते। मैं समर्पित हूं तो शरीर तो खुद अपवित्र है जिसमें मल और मूल के अलावा कुछ है ही नहीं। ऐसे गंदे शरीर को भगवान के शरीर में कैसे चढ़ा सकते है और ऐसे शरीर को अपने गुरु के चरणों में भी कैसे चढ़ा सकते हैं?
और उस श्लोक की दूसरी पंक्ति में कहा है कि जीवन का सारभूत और देवताओं का सारभूत तथ्य अगर किसी में है तो वह गुरु रूप में हैं क्योंकि गुरु प्राणमय कोष में होता है आत्ममय कोष में होता है और सप्त कोटि में होता है। उसको गुरु कहते है। वह केवल देह रूप में नहीं होता उसमें ज्ञान होता है, चेतना होती है, उसकी कुण्डलिनी जाग्रत होती है, सहस्त्रार जाग्रत होता है, एक उच्च जीवन का चिंतन होता है और वह बिना खाए पिए, बिना मल मूल विसर्जित किए भी वह सैकड़ों वर्ष व्यतीत कर सकता है।
न उसे भूख लगती है न प्यास लगती है न उसे मूत्र त्याग करने की जरूरत होता है और न मल विसर्जित करने की जरूरत होती है जब भूख प्यास नहीं लगेगी, जब वह कुछ खाएगा पीएगा ही नहीं तो उसे मल मूत्र विसर्जिन की भी जरूरत नहीं होती। इसलिए उच्च कोटि के साधक न भोजन करते है, पानी पीते है, और न मल मूल विसर्जन करते हैं, और जमीन से चार फ़ुट पांच फ़ुट ऊपर आसन लगाकर बैठते हैं और साधना करते हैं। तो ब्रह्मा ने कहा वे भी मनुष्य ही है जो इस प्रकार की क्रिय करते है, और बाकी लोग भी मनुष्य ही है जो इस प्रकार की क्रिया नहीं कर सकते, जो मल युक्त है, जो गदंगी युक्त है। तो इस जगह से उस जगह छलांग लगाने की कौन सी क्रिया है ? कैसे हम उच्च कोटि का जीवन प्राप्त कर सकते हैं ? अगर हम इस जीवन में साधारण मनुष्य ही बनें रहें तो फि़र हमाने जीवन में वह स्थिति कब आएगी जब जमीन से पांच फ़ुट ऊपर बैठकर हम साधना कर सकें। जमीन से ऊपर उठकर साधना करने की क्या आवश्यकता है ?
आवश्यकता इसलिए है क्योंकि जमीन का कोई ऐसा भाग नहीं है जहां पर रुधिर नहीं बहा हो। सैकड़ों लोग कटे होंगे, मरे होंगे, सैकड़ों शव बिखरे होंगे, सैकड़ों सभ्यताएं नष्ट हो गई होंगी। हड़प्पा बना, मोहनजोदडों बना, नष्ट हुए, सैकड़ो बार प्रलय आया और धरती का एक-एक इंच, धरती का एक-एक कण रूधिर से सना हुआ है। अपवित्र जमीन है, अपवित्र भूमि है और उस भूमि पर बैठ कर साधना कैसे हो सकती है ? और वहां बैठ कर साधनाओं में सिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ? दो कमियां हमारे जीवन में आई, एक कमी तो यह कि पृथ्वी खून से रंगी हुई है—- अगर दिल्ली को ही देखें तो सैकड़ो बार उस पर अत्याचार हुए। सिकन्दर आया तो उसने कत्ले आम किया, अहमद शाह आया तो उसने कत्ले आम किये, अंग्रेज आए तो उन्होंने गोलियां से भून डाला और उस दिल्ली की एक-एक गली एक-एक ईंट खून से सनी हुई है, पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह नहीं जहां पर खून नहीं बहा हो या जो पूर्णतः पवित्र हो। कहीं पर मल विसर्जन हुआ होगा, कहीं पर मूत्र विसर्जन हुआ होगा। धरती कहीं पर भी पवित्र है ही नहीं। और बिना पवित्रता के इतनी उच्च कोटि की साधनाएं सम्पन्न हो ही नहीं सकती। और अगर साधनाएं सम्पन्न नहीं हो सकती तो फि़र जीवन अपने आप में व्यर्थ है। फि़र तो सिर्फ एक-मल मूत्र युक्त जीवन है।
– ऐसा जीवन क्या काम का ?
– इस जीवन के माध्यम से हम सिद्धाश्रम कैसे पहुंच सकते हैं ?
– इसके माध्यम से हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगियों के दर्शन कैसे कर सकते हैं ?
– और अगर ऐसा नहीं कर पाएंगे तो इस जीवन का अर्थ क्या ?
– फि़र जीवन का मतलब क्या है ?
– क्या इसी प्रकार घिसट करके जीवन को समाप्त कर देना जीवन है ?
– ऐसे ही जीवन बरबाद हो जाना है ?
ऐसे तो कई पीढि़यों के जीवन बरबाद हो चुके हैं और आज उनके जीवन का नामों निशान भी देश-सेवा, एक कुर्बानी नहीं, बल्कि सौभाग्य है। नहीं है। आपको अपने दादा, परदादा तक का तो नाम शायद याद हो मगर उससे पहले के नाम आपको मालूम नहीं कि कौन मेरे परदादा के पिता थे, उन्होंने क्या कार्य किए। केवल जीवन घसीटते हुए उन्होंने बिता दिया। अगर आप भी ऐसा ही जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो फि़र आपको जीवन में गुरु की जरूरत है ही नहीं, फि़र जीवन का मतलब ही नहीं है। शरीर पर साबुन लगाने से जीवन स्वच्छ नहीं बन सकता, लक्स लगाने से शरीर पवित्र नहीं बन सकता, यदि आप चार दिन स्नान नहीं करे तो शरीर से बदबू आने लग जाएगी। कोई पास खड़ा होगा तो कहेगा क्या बात है तुम्हारे शरीर से इतनी बदबू आ रही है, स्नान नहीं किया क्या ?
यह शरीर कितना अपवित्र है कि चार दिन भी बाहर के वातावरण को झेल नहीं सकता और हम कल्पना कर सकते हैं कि भगवान कृष्ण के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती थी। सुगंध तब प्रवाहित हो सकती है जब गंध या दुर्गंध मिटती है। राम के शरीर से सुगंध प्रवाहित होती थी, उच्च कोटि के योगियों के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती है, तो हममें क्या कमी है कि हमारे शरीर से अष्टगंध प्रवाहित नहीं होती ? पास में से निकले और दूसरे एहसास करे कि यह पास में से कौन निकला, यह सुगंध कहां से आई है। ऐसी सुगंध जो कस्तूरी की नहीं है, केसर की भी नहीं है, और किसी चीज की नहीं है, हिना की नहीं है, इत्र की नहीं है, गुलाब की नहीं है। यह गंध क्या है यह चीज क्या है, इस व्यक्तित्व में क्यों है ?अगर ऐसा जीवन नहीं बना तो जीवन का मूल्य, मतलब, अर्थ और चिंतन क्या है ?
ब्रह्मा कह रहे हैं कि यह आने वाली पीढि़यां नहीं समझ सकेंगी। और अगर ऐसा जीवन नहीं हुआ तो हम ऐसे ही घिसटते हुए हैं जैसे पशु या एक बैल उठता है और एक घाणी के बैल की तरह गोल गोल घूमता रहता है। ऐसे ही मनुष्य नौकरी या व्यापार में घूमता रहेगा और एक दिन मर जाएगा। जो यह मनुष्य शरीर भगवान ने दिया है इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के लिए देवता भी तरसते हैं। वे येन-केन-प्रकारेण मनुष्य रूप में जन्म लेने का प्रयत्न करते हैं। राम के रूप में जन्म लेते हैं, कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं, बुद्ध के रूप में जन्म लेते हैं, महावरी के रूप में जन्म लेते हैं, ईसा मसीह के रूप में जन्म लेते हैं, पैगम्बर के रूप में जन्म लेते हैं और मनुष्य का रूप इसलिए धारण करते हैं ताकि इस शरीर से कुछ ऐसा हो पाए जो अपने आपमें अद्वितीय है।
हमें मनुष्य शरीर मिला है और हम उसका उपयोग नहीं कर सकते, हम इस शरीर को जमीन से ऊपर नहीं उठा सकते, शून्य में आसन नहीं लगा सकते, इस शरीर को ब्रह्म में लीन नहीं कर सकते, इस शरीर को अष्टगंध से युक्त नहीं बना सकते। ऐसी कृष्ण में क्या विशेषता थी ? राम में क्या विशेषता थी ? और हममें क्या न्यूनता है ? ब्रह्मा के दूसरे श्लोक का अर्थ यह है और इस शरीर को पवित्र बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम देह तत्व से प्राण तत्व में जाएं। जब प्राण तत्व में जाएंगे तो देह तत्व का भान रहेगा ही नहीं। फि़र भी हम जीवन के सारे क्रिया कलाप करेंगे मगर फि़र मल मूत्र विसर्जन की जरूरत नहीं रहेगी। फि़र भूख प्यास नहीं लगेगी, फि़र भोजन और पानी की जरूरत नहीं रहेगी, फि़र शून्य में हम आसन लगा सकेंगे, फि़र शरीर से सुगंध प्रवाहित हो सकेगी, फि़र एहसास हो सकेगा कि हम कुछ हैं। फि़र अंदर एक चेतना पैदा हो सकेगी अन्दर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगा, फि़र सारे वेद, सारे उपनिषद अपने आप कंठस्थ हो जाएंगे क्योंकि प्राणमय कोष में होने पर, व्यक्ति को वेद पुराण, उपनिषद पढ़ने की जरूरत नहीं होती।
आप कितना पढ़ पाएंगे, कितना याद कर पाएंगे, आप कितनी साधनाएं करेंगे, कितने मंत्र जपेंगे, कब तक जपेंगे, ज्यादा से ज्यादा साठ साल की उम्र तक पैंसठ साल की उम्र तक या सत्तर साल की उम्र तक। इस जीवन को अद्वितीय कैसे बना सकेंगे ?और फि़र अद्वितीय भी नहीं बनाया तो फि़र जीवन का अर्थ भी क्या रहा ? फि़र तो जैसा जीवन है वैसा जीवन व्यतीत करके चले जाएंगे और फि़र तो जैसे दूसरे लोग हैं वैसे ही आप हैं, जैसे आपके चाचा हैं वैसे ही आप हैं, जैसे आपके पिता हैं वैसे ही आप हैं, जैसे आपके मामा हैं वैसे ही आप है। फि़र आप में और उनमें अंतर क्या है ?और फि़र अंतर नहीं है तो मेरा या गुरु का उपयोग क्या है ?फि़र मैं गुरु बना ही क्यों ?फि़र मेरे जीवन का अर्थ क्या, चिंतन क्या अगर मैं शिष्यों को चेतना और ज्ञान नहीं दे सकूं ? ब्रह्मा कह रहे हैं कि फि़र जीवन में गुरु का अर्थ है ही नहीं। ब्रह्मा को भी गुरु कहा गया, कृष्ण को भी गुरु कहा गया। कृष्णं वंदे जगद्गुरुं। कृष्ण को कृष्ण के रूप में याद नहीं किया गया, कृष्ण को जगद्गुरु के रूप में याद किया गया।
उनको गुरु क्यों कहा गया? इसलिए कि उन्होंने उन साधनाओं को प्राप्त किया, उस चेतना को प्राप्त किया, जिसके माध्यम से उनके शरीर से अष्टगंध प्रवाहित हो सकी। उनके शरीर में चेतना प्रवाहित हुई और प्राण तत्व जाग्रत हुआ। यह जीवन का अर्थ है, यह जीवन का धर्म है, यह जीवन की बहुत बड़ी तपस्या है। हजारों साल के अध्ययन के बाद भी आप इस चीज को प्राप्त नहीं कर सकते, पुस्तकों से प्राप्त नहीं कर सकते, मंत्र जप से भी प्राप्त नहीं कर सकते, रोज गंगा में स्नान करके भी नहीं प्राप्त कर सकते। अगर गंगा में स्नान करने से कुछ उच्चता बनता है तो मछलियां तो हर समय स्नान करती हैं, वे तो अपने आप में कभी की उच्च बन जाती।
उच्च बनने की तो दूसरी ही क्रिया है और ब्रह्मा कह रहे है कि आने वाली पीढि़यां इस चीज को भूल जाएंगी। इसलिए ब्रह्मा ने एक गुरु की भी स्थापना की और स्वयं अपने आपको गुरुदेव के रूप में स्थापित किया। उसने कहा – मुझे ब्रह्मा नहीं कहा जाए मुझे गुरु कहा जाए ताकि मैं अपने अट्ठारह पुत्रों को ज्ञान दे सकूं। और उन्होंने अपने अट्ठारह पुत्रों को वह ज्ञान दिया, जिसके माध्यम से व्यक्ति जमीन से ऊपर उठकर के शून्य साधना कर सके, उनको यह ज्ञान दिया जिससे वे मल मूत्र विसर्जन मुक्त बन सकें, उनकी भूख, प्यास की चिंता नहीं रहे। इसलिए ऐसा किया क्योंकि हिमालय में कहां से भोजन मिलता। जो हिमालय में साधना करते हैं उन्हें भला भोजन और पानी कहां से मिलेगा। मगर फि़र भी वे साधनाओं में उच्च कोटि के हैं। हम गृहस्थ में रहते हुए भी इतने उच्च कोटि के व्यक्तित्व बन सकते हैं।
वे उच्च कोटि के हैं मगर जरूरी नहीं ऐसे दिखाई दे। कोई करोड़पति हैं तो जरूरी नहीं कि करोड़ रूपये दिखाए–उसका चेहरा, उसकी बोली, उसकी ठसक, उसके बोलने की क्रिया अपने आप बता देती है कि वह करोड़पति है। शेर अपने मुंह से बोलता नहीं कि मैं शेर हूं। वह तो उसकी चाल, उसकी ढाल, उसकी चलने की क्षमता, उसका वक्ष स्थल, उसकी तेजस्विता, उसके बिखरे हुए बाल, उसकी दहाड़ एक दम बता देती है कि वह शेर है, व्याघ्र है। मरी हुई चाल नहीं है, एक रोती हुई चाल नहीं है, वह दहाड़ता है तो जंगल अपने आप में दहल उठता है। और आप जब बोलते हैं तो पास वाले व्यक्ति पर प्रभाव भी नहीं पड़ता, इसलिए कि आपकी वाणी में वह ओज वह क्षमता नहीं है। आपका व्यक्तित्व तेजस्वी नहीं है, इसलिए क्योंकि आपकी शरीर दुर्गंधा युक्त है, इसलिए क्योंकि आपके शरीर में कुछ है ही नहीं। आपके शरीर में कुछ है ही नहीं।
आपके शरीर में केवल मल-मूत्र, खून, हड्डियां और नाडि़या हैं। यह जीवन जिसका आप बहुत बखान कर रहे हैं, तारीफ़ कर रहे हैं, यह जीवन तो बहुत तुच्छ और ओछा है। इसमें कुछ अच्छा है ही नहीं जिसकी आप प्रशंसा कर सके। यह ऐसा है जिसका कोई उपयोग नहीं हो सकता। गाय मरेगी तो उसकी चमड़ी से जूती तो बनेगी, आपकी चमड़ी से तो जूता भी नहीं बन सकता, आपकी हड्डियों से भी कोई चीज नहीं बन सकती। आपके शरीर को केवल राख बन जाना है। मगर इसके साथ-साथ इस शरीर में यह विशेषता है कि यह शरीर अपने आप में दैदीप्यमान बन सकता है, तेजस्विता युक्त बन सकता है। वह नहीं बनेगा तो बाकी सारी साधनाएं बेकार हैं, व्यर्थ हैं, तुच्छ हैं। वे हो ही नहीं सकती, संभव ही नहीं है। मैं आपको हीरे लाकर दे भी दूं और आपको अगर हीरों का ज्ञान ही नहीं है तो आप कांच के टुकड़े समझ कर एक तरफ़ रख देंगे क्योंकि आपको उनका मूल्य मालूम ही नहीं है।
मैं आपको मंत्र दूंगा, साधनाएं भी दूंगा मगर आप उन साधनाओं का मूल्य, अर्थ और महत्ता नहीं समझ पाएंगे, उस योग्य नहीं बन पाएंगे, तो आप उन साधनाओं का उपयोग भी कैसे कर पाएंगे। जीवन में अद्वितीयता हो यह जीवन का धर्म है, हम हैं और हम ही हैं और हमारे जैसा कोई नहीं है, ऐसा हम बने तब जीवन का महत्व है तब आपका चेतना युक्त व्यक्तित्व है। और ब्रह्मा कह रहे हैं कि ऐसा हो और ऐसा शिष्य को बना सके तब वह गुरु है। मगर उससे पहले गुरु अपने आप में पूर्ण प्राणवान हो, तेजस्विता युक्त हो, उसकी वाणी में गंभीरता हो, शेर की तरह दहाड़ हो, एक क्षमता हो, आंख में ताजगी हो, एक तेजी हो, जिसको देख ले वह सम्मोहित हो। अगर अपने आप में क्षमता होगी तो वह दूसरों को, शिष्यों को ज्ञान दे सकता है।
और गुरु की परीक्षा आप कर भी कैसे सकते है, आपके पास कोई कसौटी नहीं, कोई मापदंड नहीं है। उनसे बातचीत से, उनके पास बैठकर, उनकी ज्ञान की चेतना से, उनके प्रवचन से और उनकी सामीप्यता से हम एहसास कर सकते हैं कि यह गुरु हैं। एक एहसास है, एक विश्वास है, अपने आपमें एक गर्व है कि हम उनके शिष्य हैं। यह गर्व छोटी चीज नहीं है, यह बहुत महान चीज है कि एक ऐसे व्यक्तित्व के शिष्य है जिनमें हजारो-हजारों पोथियों का ज्ञान है। आप कितने वेद याद करेंगे, कितने पुराण याद करेंगे, कितने शास्त्र याद करेंगे। और याद करने से क्या हो जाएगा, आप क्रियमाण नहीं बन पाएंगे। इसीलिए ब्रह्मा ने अपने उस श्लोक की चौथी लाइन में कहा है कि यदि व्यक्ति में समझदारी है, यदि उसमें कुछ भी क्षमता है, समझदारी का एक कण भी है तो उसको यह समझना चाहिए कि मुझे ऐसा जीवन जीना ही नहीं है जो कि मल-मूत्र युक्त है। ऐसे जीवन की कोई सार्थकता भी नहीं है। ऐसे जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
हमने चालीस साल बिता दिए ऐसे जीवन को जीते हुए और हम रोग के अलावा कुछ पैदा ही नहीं कर पाए। चार बच्चे पैदा कर पाए और छः रोग पैदा कर पाए। मुट्ठी भर दवाइयां लेते है और जिंदा रहते हैं और हमने जीवन में किया क्या ? हमने स्वयं में ऐसा क्या किया कि हम दैदीप्यमान बन सकें, तेजस्विता युक्त बन सकें, हमारे शरीर से सुगन्ध प्रवाहित हो, हम जीवन से ऊपर उठ सकें, प्राण तत्व में जा सकें? जा नहीं सके तो आप धीरे-धीरे जरा युक्त हो जाएंगे, बूढ़े हो जाएंगे मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे और गुरु आपके पास से निकल जाएगा। आप मुझसे मिलने आए, कल आप अपने घर चले जाएंगे हम बिछड़ जाएंगे। फि़र चार छः महीने बाद मिलेंगे, फि़र बातचीत करेंगे और हम फि़र बिछड़ जाएंगे। फि़र वह क्षण कब आएगा जब मैं आपको दैदीप्यमान बना सकूंगा और आप में भावना आएगी कि मुझे दैदीप्यमान बनना है, अद्वितीय बनना है, श्रेष्ठतम बनना है?फि़र वह भावना आप में आएगी कब ? मैं आपको चैलेंज के साथ कहता हूं कि ऐसा हो तब आपका जीवन है, नहीं तो जीवन आपका बेकार है, तुच्छ है, व्यर्थ है।
और दैदीप्यमान तब हो सकता है, जब इस ट्यूब लाइट के अंदर लाइट होगी तो वह रोशनी देगी अन्यथा इसमें अंधेरा ही रहेगा। अंधेरे में रोशनी नहीं पैदा हो सकती। आपके शरीर के अंदर कोई बटन नहीं है, कोई मशीनरी नहीं है कि मैं बटन दबाऊं और आप तेजस्विता युक्त हो जाएं। तो फि़र कौन सी क्रिया है ? साधनाएं आप दो सौ साल कर नहीं सकते। अगर मैं आपको अट्ठारह घंटे तक आसन पर बैठने के लिए कहूं तो आप बैठ नहीं सकते। संभव नहीं है। और उसके बाद भी आपका मन कितना शुद्ध है यह भी आवश्यक है क्योंकि अशुद्ध शरीर में शुद्ध मन होगा भी कैसे?जब हमारा शरीर दुर्गंध युक्त है तो उसमें सुगंध व्याप्त होगी भी कैसे?
आपमें सुगंध कहां से आएगी ? बदबू में सुगंध प्रवाहित नहीं हो सकती, केवल देह तत्व में जिंदा रहने से प्राण तत्व जाग्रत नहीं हो सकते। और अगर वैसा नहीं हो सकता तो जीवन बेकार है। हम रिटायर हो जाएंगे और मर जाएंगे। फि़र ज्ञान कहां से प्राप्त होगा, चेतना कहां से पैदा होगी ? फि़र शुद्ध मन कहां से पैदा होगा ? शुद्ध मंत्र आपको कहां से प्राप्त होगा ? गायत्री मंत्र का उदाहरण है – कहा गया है कि चौबीस अक्षरों की गायत्री पूर्ण गायत्री मानी जाती है। यह गायत्री मंत्र ही आप अधूरा पढ़ रहे हैं। वह पूर्ण मंत्र एक बहुत ही तेजस्वी मंत्र है और उसको आप तभी प्राप्त कर सकते हैं जब आप स्वयं तेजस्विता युक्त बने। और आप योग्य तब बन सकेंगे जब गुरु प्रसन्न हो और आपमें वह चेतना प्रवाहित कर दें।
ब्रह्मा ने उस श्लोक में बहुत महत्वपूर्ण बात कही है। ऋग्वेद से भी पहले ब्रह्मा ने यह बात कही। उसने कहा कि एक ही क्रिया है, यदि गुरु प्रसन्न हो तो यह हो सकता है। गुरु प्रसन्न होता है आपकी सेवा से, प्रसन्न होता है आपके साहचर्य से, प्रसन्न होता है आपके हृदय की सामीप्यता से। जब आपके प्राण मेरे प्राणों से जुड जाएं, जब आप हर क्षण यह चिंतन करें कि इस व्यक्ति को जिंदा रखना है, जब आप हर क्षण यह चिंतन करें कि मेरा जीवन चाहे बरबाद हो जाए मगर इस व्यक्ति को स्वस्थ रखना है। जब आप हर क्षण यह चिंतन करें कि यह व्यक्ति तेजस्विता युक्त है, प्राणस्विता युक्त है, मेरा शरीर तो छोटा सा शरीर है, हजार-हजार शरीर भी इनके आगे समर्पित हो सकते हैं, यह व्यक्तित्व जिंदा रहे, जब ऐसी भावना आपके अंदर आए तब आप मेरे शिष्य हैं, तब मैं आपका गुरु हूं।
अन्यथा, मैंने आपको सब कुछ दिया ही दिया है, मैं आपसे कुछ प्राप्त नहीं कर पाया, आपके धोती कुर्ते से, आपके हीरे के बटनों से, आपकी हीरे की अंगूठियों से मैं प्रसन्न होने वाला नहीं हूं और न ही मुझे इनकी आवश्यकता है। मैं दो टूक आपको कहता हूं कि आप मेरे चरणों में पांच पैसे भी नहीं चढ़ाएं, कुछ भी नहीं चढ़ाएं। मुझे कुछ देने की जरूरत नहीं है। मुझे आपकी किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। इस बात की आवश्यकता है कि आप कुछ बनें। बार-बार मेरा जोर इसी बात पर है। यह शरीर सिद्धाश्रम चला जाएगा तो आप बिल्कुल अंधेरे में भटकते रहेंगे। आपको कोई रोशनी नहीं मिल पाएगी। कोई आपको भटकाएगा और आप भटक जाएंगे। कुछ भी करिए फि़र आप एक जगह से दूसरे जगह भटकेंगे, तीसरी जगह भटकेंगे क्योंकि कुतर्क आपको बराबर भटकाएगा। मगर यह, जीवन कृष्णमय कैसे बन पाएगा। राममय कैसे बन पाएगा, सुगंधमय कैसे बन पाएगा, प्राणमय कैसे बन पाएगा और जो भगवान कृष्ण ने विराट स्वरूप दिखाया अर्जुन को, ऐसा आपके शरीर में विराट कैसे स्थापित हो पाएगा ?
और वह नहीं स्थापित हो पाएगा तो मल मूत्र भरी देह आप मेरे चरणों में चढ़ाएगें भी क्या ? जब आप शरीर में गुलाब का इत्र लगाते हैं तो मैं समझता हूं कि आप क्या भेंट चढ़ा रहे हैं। मल मूत्र भरा हुआ शरीर चढ़ा रहें है। गुरु के चरणों में क्या चढ़ाया जा सकता है ?क्या है कुछ ऐसा जो चढ़ाया जा सकता है ? चढ़ाया जा सकता है सुगंधित मन को, चढ़ाया जा सकता है सुगंधित जीवन को, चढ़ाया जा सकता है प्राणस्विता युक्त जीवन को, ऐसा जीवन जो जमीन से ऊपर उठकर साधना सम्पन्न कर सके। और इसके लिए जो गुरु इतना ज्ञानवान है, उसको ही अपने शरीर में समाहित कर लें तो फि़र शरीर अपने आप ही सुगंधित बन जाएगा। फि़र दूसरी किसी चीज की आवश्यकता है ही नहीं, फि़र किसी मंत्र की भी आवश्यकता नहीं है।
आप कौन-कौन सा मंत्र जप करेंगे। लाखों मंत्र हैं, जगदम्बा का मंत्र अलग है, भैरव का मंत्र अलग है, हनुमान जी की मंत्र अलग है, कात्यायनी का मंत्र अलग है, भैरवी का मंत्र अलग है, कितने मंत्र जप करेंगे, जीवन तो छोटा सा है। और ब्रह्मा ने कहा है कि आगे की पीढि़यों में व्यक्ति इस बात को समझ नहीं पाएगा। और मैं कह रहा हूं कि ब्रह्मा ने यह कहा तो अपने समय में कहा, मेरे शिष्य इस बात को समझ सकते हैं, इस बात को एहसास कर सकते हैं कि हमें ऐसा घिसा-पिटा जीवन जीना ही नहीं है। आज मृत्यु आ जाए तो आप मरने को तैयार हैं या फि़र उच्च कोटि का जीवन जीने कई युद्ध ऐसे भी हैं, जिनमें हारना ही विजय है। के लिए तैयार हैं। दोनों में से एक ही होना चाहिए, घिसा-पिटा जीवन नहीं चाहिए। हजारों की भीड़ में आप भी खड़े हों तो मेरा गुरु बनना ही बेकार है, हजारों की भीड़ में आप अकेले दहाड़ते हुए दिखाई दें, आपका वक्षस्थल, आपकी तेजस्विता, एकदम पैनी आंखे दिखाई दें। लोग आपको देखें तो मुड़-मुड़ कर देखें। तो फि़र गर्व से मेरा सीना फ़ैलेगा कि यह मेरा शिष्य है, और अपने आपमें शेर की तरह, व्याघ्र की तरह है, और मेरे लिए मर मिटने के लिए तैयार है।
मैं जो कुछ हूं वह तो मेरे गुरु की देन है। मुझे भी क्रिया करनी पड़ती है आपके बीच में, माया करनी पड़ती है और प्राण तत्व में भी रहना पड़ता है। मुझे दोनों प्रकार का जीवन जीना पड़ता है और दो जीवन एक साथ जीना बड़ा कठिन है। मगर यह एक दूसरा ही प्रसंग है। जब संन्यास जीवन था तब कोई चिंता थी ही नहीं, बस देखा जाएगा, शिष्य है और हम हैं, बाकी कोई परवाह ही नहीं थी। अब गृहस्थ जीवन में हैं तो गृहस्थ जीवन में सामंजस्यता लाने में अंदर कितना विलोड़न होगा। आप शायद इसकी कल्पना नहीं कर सकते। ब्रह्मा ने कहा कि ये शिष्य नहीं समझ पाएंगे, ये लोग नहीं समझ पाएंगे। उनको यह ज्ञान देना ही नहीं है। और मैं कह रहा हूं कि वह ज्ञान काम का भी क्या कि वे योगी कंदराओं में बैठे हैं, साधु संन्यासी मंत्र जपकर रहे हैं, बेकार, तुच्छ और घटिया है जो कंदराओं में छिप कर बैठे हैं। यहां बीच में आकर ज्ञान देना चाहिए, यह उनका धर्म है यह उनका कर्तव्य है। ऐसे कंदराओं में छिपकर बैठने की जरूरत नहीं है। वे नहीं समझ पाएं यह उनका दुर्भाग्य है, वे समझ पाएं यह उनका सौभाग्य है।
ब्रह्मा ने कहा हम उन मंत्रों के माध्यम से चेतना के माध्यम से, तेजस्विता के माध्यम से, अपने शरीर को एकदम सुगंध युक्त, दैदीप्यमान, सूर्य के समान प्रखर और तेजस्वी, हजारों-हजारों सूर्य के समान तेजस्विता वाला बना सकते है। एक सूर्य नहीं हजारा सूर्यों के समान बना सकते हैं। सारे शरीर से एक सुगंध प्रवाहित हो। हम चलें और एक मील दूर तक सुगंध प्रवाहित हो, एहसास हो सके परिवार को, समाज को और हमको खुद को। और उसके लिए क्रिया है अपने आप में, शरीर में पूर्णता के साथ गुरु को स्थापित कर देना, अंदर उतार देना और अंदर गुरु तभी उतर सकेगा जब मल मूत्र युक्त नहीं होगा जीवन। पवित्र होने पर ही अंदर उतर सकेगा वह, गदंगी में वह नहीं बैठ सकेगा।
और अंदर उतरना गुरु का कर्तव्य है, गुरु का धर्म है। ऐसा होने पर ही जीवन में सिद्धि और सफ़लता प्राप्त हो सकती है। ऐसा होने पर ही भूमि से ऊपर उठकर साधनाएं सम्पन्न हो सकती हैं। ऐसा होने पर ही अपने आपमें सौन्दर्य निखरता है। ऐसा होने पर ही सारे देवी देवता हाथ जोड़कर खडे़ होते हैं तो यह कोई गलती नहीं है क्योंकि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मैं स्वयं ब्रह्म हूं। ऐसा शंकराचार्य ने कहा है, ब्रह्मा ने कहा है। मैं स्वयं देवता हूं। मै। देवताओं को प्रणाम करता हूं, इसका मतलब यह नहीं कि मैं एक घटिया व्यक्तित्व हूं, मैं ओछा व्यक्तित्व नहीं हूं। उन देवताओं के समक्ष खड़ा होने वाला व्यक्तित्व हूं। और मैं हूं यह बहुत बड़ी बात नहीं है, आपको भी वैसा उच्च कोटि का व्यक्तित्व बना दूं यह बड़ी बात है। और मैं ऐसा ही बनाना चाहता हूं आपको। और यह हो सकता है गुरु रक्त रूपेण स्थापन क्रिया द्वारा। शरीर का कोई भाग नहीं है जहां रूधिर नहीं है, आंख के छोर में भी अट्ठारह नाडियां है और उन अट्ठारह नाडि़यो से पुतली बनती है और उनमें खून बहता है।
मैंने गुरु हृदस्य धारण प्रयोग कराए हैं, गुरु रूधिर स्थापन क्रिया हो कि रक्त के एक-एक कण में गुरु समाहित हो और सारा शरीर अपने आपमें गुरुमय बन जाए, दैदीप्यमान बन जाए, तेजस्विता युक्त बन जाए। एक ही बार में, एक ही झटके में सब कुछ प्राप्त हो जाए, यह जीवन की श्रेष्ठता है, जीवन की पूर्णता है, जीवन की उच्चता है। और जो मंत्र इस गुरु रक्त स्थापन क्रिया में गुरु बोलता है या उच्चारण करता है वह फ़ल रुप में चौदह पन्द्रह पृष्ठों में एक मंत्र लिपि बद्ध हो पाता है और वह कहीं पुस्तकों में वर्णित नहीं है क्योंकि वह केवल मंत्र ही नहीं है, पूर्ण स्वामी सच्चिदानन्द और समस्त योगी, यति, संन्यासियों के साथ हृदय में गुरुत्व स्थापन की एक उच्च क्रिया है। और यदि आप देखना चाहें कि कोई शिष्य है जिन्होंने पूर्णता के साथ इस क्रिया को आत्मसात किया है तो यदि आप मनाली जाएं तो व्यास नदी का जहां उद्गम है, व्यास नही के उदगम से नीचे की ओर निकलती है एक पगडंडी, वहां पर अभी भी दो साधक, दो शिष्य झोपड़ी में बैठे हुए बिल्कुल जमीन से पांच छः फ़ुट ऊपर उठकर साधना करते हैं। और वे आपमें से ही निकले हुए साधक है। आप वहां नहीं जा सकते तो हरिद्वार चले जाएं और लक्ष्मण झूले से गीता आश्रम की तरफ़ नहीं दूसरी ओर एक किलो मीटर जाएं तो वहां पर भी ऐसे ही दो शिष्य बैठे हैं और डेढ़ साल से साधना कर रहे हैं जमीन से ऊपर उठकर। और हरिद्वार कोई भी जाकर देख सकता है, परख सकता है। आप उनसे किसी भी विषय पर बात करें वे आपको अपने ज्ञान से विस्मय में डाल देंगे, वे गीता पूरी मौखिक सुना देंगे, कोई भी भागवत या ग्रंथ मौखिक सुना देंगे, क्योंकि यह क्रिया मैंने उनके ऊपर सम्पन्न की है, यह मंत्र उन्होंने आत्मसात किया है। उनमें जीवा शक्ति थी, उनमें ऊपर उठने की एक तीव्र इच्छा थी,आकांक्षा थी।
और यह क्रिया हो जाने पर यदि आप केवल महीने भर या सवा महीने अभ्यास करेंगे तो पहले केवल उंगलियां उठेंगी, फि़र एक सूत पांव उठेंगे, फि़र धीरे-धीरे एक इंच पावं उठेंगे, फि़र पांच इंच पाव उठेंगे और धीरे-धीरे आप शून्य में आसन लगाने की क्रिया सम्पन्न कर सकेंगे। तब आप समझ पाएंगे कि यह मंत्र और यह क्रिया कितनी तेजस्वी है। इसके लिए तीस दिन बहुत होते है। इक्कीस बाईस दिन बाद ही लगता है जैसे आप ऊपर उठ रहे हैं और तीसवें दिन लगता है कि आप उठ गए है। और फि़र आप अपने किसी परिवार के सदस्य को कहें कि मेरे नीचे से स्केल निकालो कि क्या मेरे पांवो और जमीन के बीच से स्केल निकल जाती है। और निकल जाए तो समझें कि आप जमीन से ऊपर उठे। आज के युग में यह सब असंभव लग सकता है आपको परन्तु यह एक प्रमाणिक क्रिया है जिसे आप गुरु के माध्यम से सम्पन्न कर सकते है, जिसे आप गुरु से प्राप्त कर अपने जीवन को उच्चता और श्रेष्ठता की ओर अग्रसर कर सकते हैं और गुरु वह है जो आपके हर प्रकार का ज्ञान दे सके, हर क्षेत्र का चिंतन दे सके, हर प्रकार की साधना हो, भैरव साधना हो या श्मशान जागरण साधना हो। गुरु तो हर चीज देने में सक्षम है, आवश्यकता इस बात की है कि आप प्राप्त करने के योग्य बन सकें। यह गुरु का धर्म है कि वह दे, कुछ भी छिपाएं नहीं, परन्तु यह भी आवश्यक है कि शिष्य उसे प्राप्त कर सकें, आत्मसात कर सके। करीब पन्द्रह साल पहले में हरिद्वार गया था, एक महीने भर हरिद्वार रहा था। पत्नी ने कहा कि कल्पवास करते है। कल्पवास का अर्थ है कि महीने भर तक गंगाजी के तट पर रहना, गंगाजी के पानी से आटा गूंथना, खुद के हाथ से रोटी बनाना और खाना या पत्नी के हाथ से रोटी बनाना और खाना और वहीं कुटिया बनाकर के रहना तो हमने कहा चलिए कल्पवास कर लेते है। वहां पर एक संन्यासी था। संन्यासी साथू वहां बहुत भटकते रहते हैं।
मगर वह लड़का बहुत समझदार था, हट्टा-कट्टा और मजबूत था और वह रोज सेवा करता। परिचय हो गया पांच सात दिन में और सेवा यह करता कि कभी सब्जी लेकर आ जाता, कभी आलू लेकर आ जाता, मुझे पैर दबवाने की आदत है तो कभी पैर दबा देता, कभी गरम पानी कर देता और निःस्वार्थ भाव से ऐसा करता रहा। हम महीने भर वहां रहे और महीने भर के बाद मैंने ही कहा कि तुम शायद मुझे पहचानते नहीं हो। उसने कहा – गुरुजी मैंने आपको पहचानने के बाद ही सेवा शुरू की है, पहले से मुझे मालूम था आप कौन है, इसलिए मैं पागल नहीं हूं गया-बीता नहीं हूं। मैं घुटा हुआ हूं। वह बिहार का था, कहीं का । मैंने कहा – तुम बिहारी हो। उसने कहा – हंड्रेड परसेंट बिहारी हूं। तो मैं समझ गया कि ऐसी बात कोई कह ही नहीं सकता। मैंने कहा – चलो कोई बात नहीं होशियार हो तुम। तुमने सेवा की है, क्या सिखाऊं तुम्हें? तुम जो भी कहो, मगर एक ही विद्या सिखाऊंगा तुम्हें।
उसने कहा – मैंने तीस दिन सेवा की, आप एक ही विद्या सिखाओंगे ? मैंने कहा – एक ही सिखाऊंगा। उसने कहा – मैं महीने भर बाद आपके घर आकर सीख लूं तो। मैंने कहा – महीने भर बाद आ जाना। उसके बाद तीन चार महीने तक वह आया ही नहीं। मैं भी भूल गया, मैं भी दूसरे कामों में लग गया। एक दिन वो जोधपुर पहुंच गया। मैंने सोचा इसे कहीं देखा है, मैं उसे कुछ भूल सा गया था। मैंने कहा – मैंने तुम्हें कहीं देखा है, साधू हो तुम ? उसने कहा – गुरु जी महीने भर तक मैंने आपकी सेवा की है। आपने कल्पवास किया था। मैंने कहां – हां, हां ठीक बिल्कुल सही बात है, बोलो क्या चाहते हो तुम ? उसने कहा – गुरुजी कुछ नहीं चाहता हूं, बहुत मर्द हूं, ताकतवान हूं, मगर मैं श्मशान जागरण करना चाहता हूं कि भूत कैसे नाचते है, प्रेत कैसे नाचते हैं पिशाच कैसे नाचते हैं। बस एक बार पिशाच किसी के पीछे लगा दिया तो रोएगा। जिंदगी भर किसी को भूत लगा दिया तो मरेगा। पहले भूत लगा दूंगा, फि़र पांच हजार रुपये लेकर उतार दूंगा। मैंने कहा – तू मुझसे भी बहुत ऊंचा है, मगर यह विद्या तो मुझे ही नहीं आती। उसने कहा – नहीं गुरुजी आपको आती है। आती है और मुझे सिखानी पड़ेगी। बस भूत लगाऊंगा और पैसे कमाउंगा और वापस भूत उतार दूंगा, ठीक कर दूंगा चमत्कार भी हो जाएगा और कमा भी लूंगा।
अब मैं वचनबद्ध अलग। हां भरूं तो खोटा, न कहूं तो खोटा। मैंने कहा कल बताऊंगा। उसने कहा – गुरु जी कल आप मना कर देंगे। आप बस बता दीजिए कि कल सिखाऊंगा या महीन भर बाद सिखाऊंगा आप बता दीजिए मैं यहां बैठा हूं। बैठा रहा, रात भर बैठा रहा, दूसरे दिन सुबह भी बैठा रहा, शाम को भी बैठा रहा। अगले दिन पत्नी ने कहा – यह ब्राह्मण है, संन्यासी है भूखा मर रहा है, कितना पाप लगेगा हमको, सेवा की है, आपने अपने मुंह से बोला है कि सिखाऊंगा तो सिखा दीजिए इसे। मैंने कहा – सिखाना तो ठीक है, मगर इसने दूसरा पाइंट एक अलग बताया है कि पहले भूत लगा दूंगा, फि़र वह नाचेगा, कूदेगा और पैसे लेकर मैं उतार दूंगा। मंत्र से उतार दूंगा और दो हजार रुपया खर्चा बता दूंगा। यह गड़बड़ है। मैंने उसे बताया कि तू यह नहीं करेगा। पर वह कहता है कि फि़र तो सीखना ही बेकार है। फि़र वह पीछे पड़ा रहा तो मैंने उससे कहा – मैं तुझे यह भूत लगाना भगाना नहीं सिखाउंगा। बस तूझे जो भूतों का नृत्य देखना है, श्मशान जागरण देखना है वह दिखा दूंगा।
वह बोला – गुरुजी बस महीने में दो तीन केस मुझे करने दीजिए उससे मेरा काम चल जाएगा, दो तीन केस में मैं पार हो जाऊंगा। मैंने कहा – ऐसा कुछ नहीं मैं सिखाता हूं, मगर तू आया है तो तुझे श्मशान जागरण दिखा अवश्य दूंगा। जोधपुर में श्मशान है, घर से, करीब सात आठ किलो मीटर दूर। पहले मैंने सोचा भी कि इसे श्मशान ले जाऊं या नहीं ले जाऊं मगर उसका शरीर बहुत मजबूत था, बहुत ताकतवान था। एम्बेस्डर गाड़ी थी मेरे पास तो गाड़ी में ले गया उसे श्मशान। वहां जो डोम था वह परिचित था कि गुरुजी कभी कभी श्मशान साधना करने आते हैं। पहले करता था, अब तो छोड़ दिया, पन्द्रह साल हो गए। गाड़ी मैंने पार्क की श्मशान के बाहर और उसे कहा चलो अंदर चलो। चले अंदर। वहां मैने एक घेरा बनाया, बीच में उसे बिठा दिया और कहा – देख यहां श्मशान जागरण में बहुत भयंकर दृश्य दिखाई देंगे पहले बता देता हूं। पर डरने की बात नहीं है। भूत होंगे, प्रेत होंगे, कोई अटट्ठाहृास करेंगे, किसी के सींग होंगे और तुम डर जाओगे तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। मैं मंत्र दे रहा हूं, उसका जप करना मगर यह याद रखना कि जो यह घेरा है, इसके अंदर कोई नहीं आ पाएगा, बाहर चाहे कुछ भी झपट्टा मारे, तुम घबराना नहीं, न मेरा कुछ बिगडे़गा, न तेरा कुछ बिगड़ेगा।
मैंने कहा – बस तू अपना ध्यान रखना। उसने कहा – गुरु जी आप चिंता मत करिए, आप चिंता बहुत करते हैं, थोड़ा टेंशन फ्री रहिए गुरु जी। मैंने सोचा चलो ठीक है। उसके चारों तरफ़ घेरा बना दिया, घेरे में मैं भी बैठ गया और उसे भी बैठा दिया दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके। उसके बाद मैंने श्मशान जागरण आरम्भ किया, उसके बाद मैंने श्मशान जागरण किया ही नहीं, बस वही था लास्ट। तो ज्योंहि श्मशान जागरण प्रारम्भ किया तो श्मशान में जितने भी भूत, पिशाच, राक्षस थे वे उठ-उठ कर आने लगे और कोई नाच रहा है, कोई कूद रहा है, कोई खून पी रहा है, कोई हल्ला कर रहा है, कोई मल्ल युद्ध कर रहा है, किसी के सींग निकले हैं, किसी के दांत निकले हुए है। मेरा तो रोज का अभ्यास था, संन्यास जीवन में मैं था ही, तो मेरे लिए बड़ी बात नहीं थी।
पर उसने तो दो-चार मिनट देखा फि़र आंखे बंद कर ली। मैंने उधर ध्यान ही नहीं दिया कि मजबूत आदमी है, हट्टा-कट्टा है, मुझे कोई चिंता की बात ही नहीं कि खट्ट-खट्ट, खट्ट-खट्ट, आवाज होने लगी। मैंने सोचा यह आवाज कहां से आ रही है ? उधर देखा तो थर-थर कांप रहा है, दांत बज रहे हैं और हा हा हा हा कर रहा है। मैंने सोचा – मर जाएगा यह, एक संन्यासी की हत्या हो जाएगी और बहुत गड़बड़ हो जाएगी। मैंने फ़टाफ़ट श्मशान को बंद किया, उसे जगाया। मैंने कहा क्या हुआ अब तो उठ जा। वह चिल्लाया – अरे भूतर, अरे भूरत, अरे भूत—- मैंने कहा – अरे भाई! यहां भूत कुछ नहीं है, हो गया सब।
वह बस कांपता रहा और बोलता रहा – हर्र, हर्र, हर्र, हर्र—- मैंने उसे उठाया, कंधो पर डाला और पीछे कार में डाला। डाल कर के घर पर लाया, रास्ते भर चिल्लाता रहा – भूत आया, आया, आया हुर्र हुर्र—-। मैंने सोचा यह तो हट्टा-कट्टा था, यह क्या गड़बड़ हो गई ?माता जी ने कहा यह क्या कर लाए। मैंने सिखाया। दो मिनट ही हुए थे, श्मशान जागरण आरम्भ ही हुआ था, उससे पहले इसके दांत ही टूट गए कांपते हुए। अब उसको हिलाऊं, डुलाऊं, पानी उसके ऊपर डाला, जूता सुंघाया, मिर्ची की धूनी दी। वह उठा और बोला – भूत, भूत, हुर्र हुर्र —- मैंने कहा – यह मर जाएगा, मुश्किल हो जाएगी। मैंने कहा – भूत वूत कुछ नहीं है। यह श्मशान नहीं है मेरा घर है, अब चिंता मत कर तेरे लिए दूध लाया हूं, केसर डाल कर लाया हूं, अब गुरु जी तुझे अपने हाथों से पिलाएंगे, अपना सौभाग्य देख। कितना तू महान शिष्य मुझे मिला, बहुत कृपा की तूने।
करीब आधे घंटे, पौने घंटे के बाद उसने आंख खोली – मैं कहां हूं ?कहां हूं? मैंने कहा तू मेरे घर में हैं। तू मेरे पास बैठा है। वह बोला – भूत आया, भूत आया। मैनें कहा – भूत वूत कुछ नहीं आया, तू देख ले, यह मेरी पत्नी बैठी है, तू देख ले। पन्द्रह बीस मिनट आंखे फ़ाड़-फ़ाड़ कर देखता रहा, बड़ी देर के बाद वह संभला, उसे दूध पिलाया, कंबल ओढ़ाया। वह बोला – यह क्या हुआ? मैंने कहा – कुछ नहीं हुआ। यह तो शुरुआत हुई थी, अब जब शुरुआत में यह खेल है तो अंत कहां होगा। उसके बाद छोड़ ही दिया मैंने श्मशान जागरण करना या दिखाना। जैसा कि मैंने कहा कि गुरु तो हर चीज देने को तैयार बैठा है, आवश्यकता इस बात की है कि आप लेने के लिए तैयार है या नहीं है। अगर गुरु दे और आप ले नहीं पाएं, आत्मसात नहीं कर पाएं तो सब बेकार है, नगण्य है। आप लें और पूरी क्षमता के साथ लें यह आवश्यक है।
गुरु तो साधनाओं का भण्डार है, साधनाओं का सागर है, आप कितना ले पाएं यह आप पर निर्भर है। और गुरु रक्त स्थापन क्रिया एक ऐसी क्रिया है, एक ऐसा चिंतन है, एक ऐसी साधना है जिसके द्वारा शिष्य अपने भीतर का सब मल, मैल, ओछापन, न्यूनता समाप्त करता हुआ पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है और अगर वह इस तेजस्वी क्रिया को पूर्णता के साथ आत्मसात कर लेता है तो निश्चय ही वह जमीन से पांच छः फ़ुट ऊपर उठकर शून्य में आसन लगा सकता है और ऐसी उच्च स्थिति में सभी साधनाओं में सफ़लता प्राप्त कर सकता है, क्योंकि मैंने बताया कि जमीन पर बैठ कर साधनाओं में पूर्णता प्राप्त हो ही नहीं सकती। जमीन से ऊपर उठकर ही सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। गुरु तो हर क्षण आपके साथ है अगर आपकी श्रद्धा है तो। वह तो हर क्षण आपको सही मार्ग पर गतिशील करने को तत्पर हैं और मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं कि मैं प्रतिक्षण आपके साथ हूं, हर सैकेण्ड आपके साथ हूं, जीवन के प्रत्येक क्षण का मैं रखवाला हूं, मैं आपके जीवन की रक्षा करूंगा, उन्नति करूंगा। और आप भी जीवन में उच्चता प्राप्त कर पाएं, सफ़लता प्राप्त कर पाएं, ऐसा ही मैं आपको आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
– सद्गुरुदेव परमहंस निखिलेश्वरानन्द।
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