आज से हजारों वर्ष पहले सिन्धु नदी के किनारे पहली बार आर्यों ने आंख खोली, हमारे पूर्वजों ने पहली बार अनुभव किया कि ज्ञान भी कुछ चीज होती है, पहली बार उन्होंने एहसास किया कि जीवन में कुछ उद्देश्य भी होता है, कुछ लक्ष्य भी होता है। तब उन्होंने सबसे पहले गुरु मंत्र रचा, गुरु की ऋचाओं को आवाहन किया। और भी देवताओं का कर सकते थे, भगवान रुद्र का कर सकते थे, विष्णु का कर सकते थे, उन ऋषियों के सामने ब्रह्मा थे, इन्द्र थे, वरुण थे, यम थे, कुबेर थे, सैकड़ों भगवान थे। मगर उन्होंने सबसे पहले जिस मंत्र की रचना की या संसार में सबसे पहले जिस मंत्र की रचना हुई, वह गुरु मंत्र था। गुरु शरीर नहीं होता, अगर आप मेरे शरीर को गुरु मानते हैं, तो गलत हैं आप। यदि मुझ में ज्ञान ही नहीं है तो फि़र मैं आपका गुरु हूं ही नहीं।
यदि आप एक-एक पैसा खर्च करते हैं तो मेरे हृदय में भी उस एक-एक पैसे की वैल्यू है। मैं उतने ही ढंग से आपको वह चीज देना चाहता हूं और आप उतनी ही पूर्णता के साथ उसे प्राप्त करें तब तो मेरा कोई अर्थ है। अन्यथा ऐसा लगता है आप मुझे दे रहे हैं और मैं भी फ़ॉरमैलिटी निभा रहा हूं। ऐसा मैं नही करना चाहता।
फ़ॉरमैलिटी बहुत हो चुकी। फ़ूलों के हार बहुत पहन चुका, आपकी जय जयकार बहुत सुन चुका, तांगे, बग्गी, गाड़ी में बहुत चढ़ चुका, हवाई जहाज में यात्रा कर चुका, विदेश में यात्रा कर चुका। यह सब बहुत हो चुका। बेटे, पोते, पोतियां, गृहस्थ और संन्यास जीवन सब देख चुका। संन्यास क्या होता है वह भी उच्च कोटि के साथ देख चुका। अब बस एक बात रह गई है कि जितने शिष्य हैं उन सबको अपने आप में सूर्यमय बनाएं, अद्वितीय बनाएं। अब केवल इतनी इच्छा रह गई है और कुछ इच्छा ही नहीं रह गई है।
सम्राट होते होंगे, मैंने देखा नहीं सम्राट कैसे होते हैं, मगर सम्राटों के सिर भी गुरु के चरणों में झुकते हैं, उनके मुकुट भी गुरु के चरणों में पड़ते हैं यदि वह सही अर्थों में गुरु है, ज्ञान, चेतना युक्त है। हम अपने आप में इस शरीर को उतना उत्थानयुक्त बना दें, उतना चेतनायुक्त बना दें, उस मूल उत्स को जान लें कि हम क्या हैं? और जब हम अपना पिछला जीवन देखना शुरु कर देंगे तो आपको इतने रहस्य स्पष्ट होंगे कि आपको आश्चर्य होगा कि क्या मेरे जीवन में ऐसा था, क्या मैं इतनी ऊंची साधनाएं कर चुका था, फि़र मैं इतना गिर कैसे गया ? क्या हो गया मेरे साथ?
यह कैसा अटेचमेंट था गुरु के साथ? इतना अटेचमेंट था कि मैं गुरु के बिना एक मिनट भी नहीं रह सकता था, अब मैं दो-दो महीने कैसे निकाल देता हूं। जब आपको अपना पिछला जीवन देखने की क्रिया प्रारम्भ होने लगेगी, तब आप एक क्षण भी अलग नहीं रह पाएंगे। तब एहसास होगा कि हम बहुत बड़ा अवसर खो रहे हैं, बहुत बड़े समय से वंचित हो रहे हैं, क्षण एक-एक करके बीतते जा रहे हैं और जो क्षण बीतते जा रहे है वे क्षण लौट कर नहीं आ सकते। जो समय बीत गया, बीत गया। बीत गया तो समय निकल गया, इस शरीर में भी एक सलवट और बढ़ गई, कल एक और सलवट बढ़ जाएगी।
आपने देखा होगा कि सर्प दो साल के बाद अपने ऊपर के खोल को पूरा का पूरा उतार देता है। आपको पता है या नहीं है पर अन्दर से बिल्कुल नवीन सर्प बाहर निकल जाता है। वही सर्प और उसके ऊपर जो झुर्रीदार चमड़ी होती है वह पूरी की पूरी उतार देता है। यह क्या विद्या है ? यह कौन सी विद्या है जो सर्प के पास है और हमारे पास नहीं है। सर्प ऐसा कैसे कर लेता है ? और अगर सर्प ऐसा कर सकता है, कायाकल्प कर सकता है, अपनी पूरी केंचुली को, झुर्रीदार त्वचा को, अपने बुढ़ापे को निकाल कर एक तरफ़ रख देता है, पूरा नवीन ताजगी युक्त वापस शरीर उसका बन सकता है तो हमारा क्यों नहीं बन सकता ?
इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि केवल वासुकी के पास वह ज्ञान रह गया है और हमने उसे समझा नहीं, हमने उनको विषैला समझ लिया, जहरीला समझ लिया। हमने उसके ज्ञान को नहीं समझा। आपने मुझे फ़ूलों के हार पहना दिए, जय जय कार कर दिया मगर आप मेरा ज्ञान नहीं समझ पाए। जब ज्ञान नहीं ग्रहण कर पाएंगे तो फि़र एक बहुत बड़ा अभाव आपके जीवन में भी रहेगा, मेरे जीवन में भी रहेगा या तो पुस्तकों में मिल पाएगी या प्रामाणिक होगी। और मैं ऐसा कोई ग्रंथ लिखना चाहता भी नहीं कि मेरे मरने के पांच सौ साल बाद भी कोई कहे कि इस में गलती है। पांच सौ साल बाद भी लोग कहे कि यह तो बिल्कुल नवीन और प्रामाणिक है एक चेतना युक्त है। वैसा ग्रंथ मैं आपको बनाना चाहता हूं, सजीव ग्रंथ बनाना चाहता हूं, जिन्दा ग्रंथ बनाना चाहता हूं।
आप, अपने आपको कायर या बुजदिल समझते हैं, आप अपने बारे में समझते हैं कि आप कुछ नहीं कर सकते। मैं प्रवचन बोलकर भी जाऊंगा तो मुझे मालूम है कि आप सब कुछ सुनने के बाद भी वहीं के वहीं खडे़ रह जाएंगे कि मैं क्या कर सकता हूं, इस उम्र में होगा भी क्या, अब करने से लाभ भी क्या, अब मैं तो बुढ़ा हो गया, मेरा तो शरीर कमजोर है, अब मैं कुछ नहीं कर सकता। यह आपके जीवन की हीन भावना बोल रही है, आप नहीं बोल रहे हैं। आपके उपर जो समाज ने प्रहार किए, वे बोल रहे हैं, आप नहीं बोल रहे हैं। आपके जीवन में जो दुख हैं, उन दुखों ने आपको इतना बोझिल बना दिया है, वह बोल रहा है आप नहीं बोल रहे हैं। वृद्धावस्था आ ही नहीं सकती, संभव नहीं है। बुढापा तो एक शब्द है, नाम है। हमने एक नाम ले लिया कि बुढापा है, बुढापा शब्द क्या चीज है ?
मैंने तो नब्बे साल के लोगों को भी मुस्कुराते हुए, खिलखिलाते हुए और ज्ञान प्राप्त करते देखा है। जब इंग्लैण्ड पर जर्मनी ने बमबारी की और सारा देश धवस्त कर दिया तो 72 साल के चर्चिल ने पूरे इंग्लैण्ड को संभाला, प्रधानमंत्री बन कर के वापस अपने देश को खड़ा कर दिया, ताकतवान बनाकर के। 72 साल की उम्र में! आप पता नहीं 72 साल की उम्र ले भी पाएंगे या नहीं ले पाएंगे। तो क्या गुरुजी हम 72 साल की उम्र ले ही नहीं पाएंगे ? क्या चर्चिल ही ले पाएगा ? आप 92 साल नहीं 72 सौ साल भी ले सकते है, आप ले सकते है यदि आपके पास वह विद्या हो। यदि आपके पास ज्ञान हो कि मैं कायाकल्प कैसे करूं, तो वह चीज आपको प्राप्त हो सकेगी। आपके पास एक विद्या भी रह पाएगी तो आने वाली हजारों पीढियां आपसे शिक्षा ग्रहण कर पाएंगी, आप सही अर्थों में ग्रंथ बन पाएंगे, सही अर्थों में सबसे ज्यादा प्रिय बन पाएंगे। तब मैं गर्व से कहूंगा कि आप मेरे शिष्य हैं।
मैं तो आपके चैलेंज देता हूं, मैं तो दो टूक साफ़ कहता हूं। मुझसे भी बड़े विद्वान होंगे, मगर आप बाजार से जाकर कोई ज्ञान का ग्रंथ लाइए। आप लाइए और मैं बीस किताबें और रख देता हूं देखिए। इन सबमें सब चीजें ज्यों की त्यों है, कुछ लाइनें, इधर कर दी और कुछ लाइनें उधर कर दी हैं और पोथी भरकर आपके सामने रख दी है। वही चीज हर एक में है चाहे मंत्र महोदधि लाइए, चाहे मंत्र महार्णव लाइए, चाहे मंत्र सिंधु लाइए, मंत्र चिंतन लाइए, मंत्र घटक लाइए। वे ग्रंथ तो मंत्रों पर है पर सबमें एक ही चीज हैं। एक ही बात को रिपीट कर दिया है, उनके छः संस्करण बना दिए हैं। क्या नवीनता है उनमें ? क्या किसी ने कहा कि सर्प के पास ज्ञान है हमारे पास क्यों नहीं ? किसी ने इस पर चिंतन किया ? और आप कह रहे हैं कि आप बुजदिल हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि आप किस कोने से बुजदिल हैं जिससे कि मैं उस कोने को निकाल दूं कि इस कोने से हम कायर हैं, इस कोने से कमजोर हैं तो उस हिस्से को काट दूं और वापस नए सिरे से आपको तैयार कर दूं। आप हैं नहीं कमजोर, आपने मान लिया है। और मानना इसलिए पड़ा है क्योंकि आपके जीवन में वास्तव में बाधाएं, अड़चनें, कठिनाईयां आई हैं। मगर ये समस्याएं केवल आप पर ही नहीं आई।
ऐसा नहीं है कि कलियुग में ही साधनाएं नहीं हो पा रही हैं। गुरु जी कलियुग आ गया और कलियुग में साधनाएं नहीं हो पाती। और सैकड़ों लोग ऐसा कहते है कि अब कैसे हो पाएगी चारों तरफ़ आप देख रहे हैं। मैं भी चारों तरफ़ देख रहा हूं कि कभी बम विस्फ़ोट हो रहे हैं कभी पंजाब में हो रहे हैं, कभी दिल्ली में हो रहे है, पूरे भारत वर्ष में हो रहे हैं। यह क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है ? इसलिए हो रहा हैं कि हम कमजोर हैं। हमने अखबार पढ़ा, देखा और फि़र अखबार को छोड़ दिया। हममें क्षमता नहीं है वह कि हम उसको रोक सकें, और अगर विज्ञान रोक पाता तो फि़र ये इतने लड़ाई झगड़े होते ही नहीं, इतने बम विस्फ़ोट नहीं होते। विज्ञान इन समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रहा है। अगर कर पाता तो रोज अखबार में ये समाचार नहीं आ पाते। उस चीज को आप लोगों में से अगर कोई एक बार समझ ले तो वह ज्ञान अगले तीन सौ तक रह सकेगा। उस कायाकल्प को करें तो जैसे नवीन सर्प निकलता है, तो आप निकल सकते है। वह तब हो पाएगा जब बुजदिली आप समाप्त कर देंगे, जब आप ताकतवान बनेंगे, क्षमतावान बनेंगे।
कुचक्र आज ही नहीं रचे गए, लड़ाई-झगड़े आज ही नहीं हो रहे, कलियुग आज ही पैदा नहीं हुआ, वह तो सतयुग में भी यही समस्या भी जिनसे आज तुम जूझ रहे हो। तुम मुझे बार-बार कह रहे हो कि कलियुग में कैसे साधनाएं सम्पन्न करेंगे, तो मैं कह रहा हूं द्वापर युग में, त्रेता में कितने षड़यंत्र हुए महलों में। उस केकैयी के रूप जाल में फ़ंस कर के दशरथ ने जो उनकी नीति थी, धर्म था कि सबसे बड़े को राजगद्दी पर बिठाया जाए, उसको भुलाकर उसे जंगल भेज दिया। एक छोटे बेटे को राजगद्दी पर बिठा दिया। यह षडयंत्र नहीं था क्या ? और उस केकैयी का षड़यंत्र यह कि राम यहां रहेगा तो फि़र लड़ाई झगड़े होंगे। इसको जंगल में ही भेज दिया जाए। क्या षड़यंत्र उस समय नहीं होते थे ? क्या आज ही होते हैं ?क्या उस समय अपहरण नहीं होते थे ? क्या रावण सीता को नहीं ले गया ? क्या द्वापर युग में लड़ाइयाँ नहीं होती थी ? इतनी लड़ाइयाँ होती थी कि आज तो होती ही नहीं है। भरी सभा में उस बहू को नंगा किया जा रहा है, साड़ी खींची जा रही है और उसके पांचों पति मुंह नीचे लटकाए खडे़ है, उनका दादा भीष्म सिर नीचे लटकाए खड़ा है, यह क्या था ?
तो कौन सा युग तुम्हारा द्वापर युग है ? राम राज्य कौन सा होगा ? मुझे बता दीजिए कि राम राज्य में कुछ नहीं हुआ, वहां लड़ाई झगडे हुए ही नहीं। वहां पर कोई षड़यंत्र नहीं हुए, वहां पर कोई किडनैप नहीं हुए। वह उस समय भी होते थे। वे षड़यंत्र द्वापर में भी थे, सतयुग में भी थे। तब भी हुए और कलियुग में भी हो रहे हैं। हो इसलिए रहे हैं कि मनुष्य जब तक बदलेगा नहीं, परिवर्तित नहीं होगा तब तक ये घटनाएं घटित होंगी। आपके मन में है कि आज कलियुग में साधनाएं सफ़ल नहीं हो सकती मैं तो कहता हूं कि कलियुग में फि़र भी हो सकती हैं क्योंकि इस समय सड़क पर किसी स्त्री को एकदम नंगा नहीं कर सकते, एकदम से पचास आदमी लाठी लेकर खड़े हो जाएंगे। उस समय तो भरी सभा में सैकड़ों लोगों के बीच में ऐसा हुआ। कैसे पति थे वो ? कैसे पितामह थे ? क्या थे वो ?
तब जुआ खेला जाता था और अपनी पत्नी को दांव पर लगा दिया जाता था। यह तुम्हारा द्वापर युग था। हकीकत और इतिहास तो यह है। मगर हम प्रत्येक मृत को स्वर्गवासी कहते हैं नरकवासी कहते ही नहीं है। कहां गए ? स्वर्गवासी हो गए। अब उन्होंने जिंदगी भर पाप किया तो स्वर्गवासी हुए या नरकवासी हुए हम कह ही नहीं सकते। हम अपने आपमें नहीं कह सकते कि राम राज्य कैसा था, द्वापर युग कैसा था ? हां, कृष्ण अपने आप में सूर्य थे, युग कैसा था वह आपको बता रहा हूं, युग आज भी वैसा ही है। युग नहीं बदल सकता आदमी बदल सकता है। आदमी ज्ञान ले सकता है।
कृष्ण ने, अकेले ने सब करके दिखा दिया। आप कल्पना करें एक तरफ़ कौरवों की अक्षौहिणी सेना खड़ी है, एक तरफ़ पांडव खड़े हैं, बीच में कृष्ण खडे़ हैं और उस अकेले व्यक्ति ने निश्चय कर लिया कि मुझे सफ़लता प्राप्त करनी ही है। उन्होंने कहा कि मैं कोई शस्त्र नहीं उठाऊंगा और उन पांच लोगों के सहारे पर कुरुक्षेत्र की लड़ाई जीत लिया, पूरे महाभारत के युद्ध को जीत लिया। और आपके पास एक गुरु बैठा है और इस पूरे संसार को आप जीत नहीं सकते हैं, फि़र आप कमजोर हैं, मैं कमजोर नहीं हूं, फि़र आपमें न्यूनता है मुझमें न्यूनता नहीं है। यह मेरी बात थोड़ी कड़वी हो सकती है।
मैं भी अपने पिताजी की प्रशंसा करता रहता हूं अपने दादाजी की प्रशंसा करता रहता हूं कि बहुत महान थे, हम ऋषियों के परम्परा की प्रशंसा ही करेंगे क्योंकि जो मर गए उनकी प्रशंसा ही की जाती है, उनके अवगुणों को देखा ही नहीं जाता। मर गए तो मर गए बस, सतयुग चला गया, द्वापर चला गया। मगर यह षड़यंत्र, यह कुचक्र, यह धूर्तता, यह मक्कारी, यह छल, यह झूठ, यह कपट, यह व्याभिचार। यह असत्य उस जमाने में भी उतने ही थे, जितने कि आज हैं। मगर उस जमाने में भी साधनाओं में सिद्धि होती थी क्योंकि उनके पास गुरु थे। गुरुओं का सम्मान था, राजा के पुत्र होते हुए भी दशरथ ने अपने पुत्रों को विश्वामित्र के पास भेज दिया कि तुम जाओ और धनुर्विद्या सीखो, तुम्हें वहां जाना पड़ेगा। कहां ठेठ मथुरा, उत्तरप्रदेश में और कहां ठेठ मध्यप्रदेश वहां कृष्ण को भेजा क्योंकि उच्च कोटि का ब्राह्मण सांदीपन वहां था। बीच में क्या कोई उच्च कोटि का साधु संन्यासी था ही नहीं ? क्यों नहीं उनके पास भेजा ? क्योंकि उन्होंने जाना कि वह व्यक्ति अपने आपमें अद्वितीय ज्ञान युक्त है, उसके पास भेजना ही पड़ेगा। वो ट्यूशन पर गुरु को रख सकते थे। विश्वामित्र राजा की प्रजा है, दशरथ कह सकते थे कि आपको चार किलो धान ज्यादा देंगे आप यहां आकर पढ़ाइए।
ज्ञान ऐसे प्राप्त नहीं हो सकता। ज्ञान के लिए फि़र आपको शिष्य बनना पड़ेगा, आपको गुरु के पास पहुंचना पड़ेगा, आपको गुरु के सामने याचना करनी पड़ेगी और हम साधना में सिद्धि इसलिए नहीं प्राप्त कर रहे हैं, क्योंकि हम कमजोर महसूस करने लग गए हैं, कमजोरी आपके मन में, जीवन में आ गई हैं, कमजोर आप है नहीं। जब दक्ष ने महादेव को यज्ञ में नहीं बुलाया था तो —- महादेव तो अपने आप में बहुत भोले हैं।
महोक्ष खटवांग परशु फ़लिण
कपालं चेति यः ————-
श्मशान में बैठे रहते हैं और कहीं कोई कमाने की चिंता नहीं है, न नौकरी करते है। न व्यापार करते हैं, कुछ करते ही नहीं ड्यूटी पर भी नहीं जाते, कपडे की दुकान खोलते ही नहीं बस सांप लिपटाए बैठे हैं मस्ती के साथ में और उसके बाद भी जगदम्बा, जो लक्ष्मी का अवतार है, उनके घर में है और धन धान्य की कमी है ही नहीं। निश्चितंता है। निश्चिंत है इसलिए देवता नहीं कहलाए वो देवों के देव महादेव कहलाए। उन्होंने साधनाएं की। महादेव ने भी की, ब्रह्मा ने भी की, विष्णु ने भी की। इन्द्र ने भी की। बिना साधनाओं के जीवन में सफ़लता प्राप्त नहीं हो सकती। मगर साधना में सफ़लता तब प्राप्त हो सकती है जब आपकी कमजोरी, आपकी दुर्बलता, आपका भय, आपकी चिंता, आपका तनाव दूर हो और तनाव मेरे कहने से दूर नहीं हो पाएगा। मैं यहां बोल कर चले जाऊं तो उससे आपका तनाव नहीं मिट सकता। मैं कहूं कि अब तकलीफ़ नहीं आए, तो उससे तकलीफ़ नहीं मिट सकती।
मैं बता रहा हूं कि वास्तविकता यह है। आप ज्योंहि जाएंगे घर में तो तनाव तकलीफ़, बाधाएं, कठिनाइयां वे ज्यों की त्यों आपको सामने खड़ी होंगी। उनसे छुटकारा पाएंगे तो साधना में बैठ पाएंगे। तो गुरु की ड्यूटी है, गुरु का धर्म है कि उन साधनाओं को प्राप्त करने के लिए शिष्यों को निर्भय बना दिया जाए। निश्चिंत बना दिया जाए, जो कमजोर उनके जीवन के क्षण है, जो मन में कमजोरी है या दुर्बलता है, उसे दूर कर दिया जाए। और क्षमता के साथ ही उन दुर्बलताओं को दूर किया जा सकता है, उन पर प्रहार करके ही विजय प्राप्त की जा सकती है, गिड़गिड़ा कर, या प्रार्थना करके नहीं। और हमारे तो आराध्य महादेव हैं, जो प्रखर व्यक्तित्व के स्वामी हैं, जो प्रहार करने से, विध्वंस करने से कभी हिचकते ही नहीं।
विध्वंसक बन कर के, क्रोध में उन्मत्त हो करके महादेव दक्ष के यज्ञ में गए, अपने श्वसुर के यज्ञ में गए जहां ब्राह्मण, ऋषि-मुनि, योगी, यति, संन्यासी आहुतियां दे रहे थे, वेद, मंत्र बोल रहे थे। उन्होंने एक लात मारी और यज्ञ को विध्वंस कर दिया, वेदी को तोड़ दिया, अग्नि को बुझा दिया। क्योंकि उससे पहले सती ने सोचा कि सब देवताओं को यज्ञ में बुलाया गया, मेरे पति को नहीं बुलाया गया, इससे बड़ा क्या अपमान हो सकता है। तो वह खुद यज्ञ कुण्ड में कूद गई। आधी जली तो बाहर निकाला गया। और भगवान शिव——–
भगवान वह होता है जिसमें ज्ञान हो। भगवान अपने, आप में कोई अजूबा नहीं है कि जो नई चीज पैदा हुआ वह भगवान है। भगवान तो आप सब है। यह शंकराचार्य स्पष्ट कर चुके है। जिसमें ज्ञान है वह भगवान है, जो ज्ञान युक्त है वह भगवान है। प्रत्येक मनुष्य भगवान है, और प्रत्येक मनुष्य राक्षस है, हम क्या हैं, यह आपको चिंतन करना है। और भगवान शिव सती की अधाजली लाश को अपने कंधो पर ले कर क्रोध की अवस्था में पूरे भारत वर्ष में घूमे क्रोध शांत नहीं हुआ। इतना बड़ा अपमान कि मेरी पत्नी जल गई और मैं कुछ नहीं कर पाया और क्रोध की चरम सीमा और उस चरम सीमा में दक्ष जैसे वरदान प्राप्त और तांत्रिक व्यक्ति का भी वध किया। ऐसे व्यक्ति का वधा किया जाए तो कैसे किया जाए। तो उन्होंने अपनी जटा में से बहुत उत्तेजना युक्त मंत्र के माध्यम से एक रचना की जो कि पूर्ण जगदम्बा से भी सौ गुना ज्यादा क्षमतावान थी, जो साकार प्रतिमा थी जो कि सारी परेशानियों बाधाओं, अड़चन कठिनाईयों और शत्रुओं पर एकदम से प्रहार कर सके, समाप्त कर सके। वह चाहे शत्रु आपकी भूख हो, चाहे परेशानी हो, चाहे बाधा हो, चाहे मुकदमेबाजी हो, चाहे असफ़लताएं हो, चाहे घर में कलह हो – ये सब बाधाएं है। पैसे नहीं आ रहे हों, व्यापार नहीं हो रहा हो, ये सब बाधाएं हैं। ये समस्याएं हैं, परेशानियां है, अड़चने हैं।
इनको समाप्त करने के लिए भगवान शिव ने एक रचना की, जो जगदम्बा से भी ऊंची, क्षमतावान थी। मुझसे भी ऊंचे गुरु है, मुझसे भी ऊंचे विद्वान होंगे। मैं यह कह कर जगदम्बा के प्रति न्यूनता नहीं दिखा रहा हूं। मगर भगवान शिव ने उस जटा में से — और जटा कैसी? भागीरथ ने जब गंगा का प्रवाह किया और उसे भगवान शिव ने अपनी जटा में लिया तो डेढ़ सौ साल तक उन जटाओं में गंगा घूमती रही, उसे बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिला। इतनी घनी जटा ! भागीरथ ने प्रणाम किया – महाराज ! अगर गंगा नदी आपकी जटाओं में घूमती रही तो रास्ता मिलेगा ही नहीं उसको। इतनी घनीभूत जटा है। कृपा करके गंगा को धरती पर उतारे तो उन देवताओं और लोगों का कल्याण होगा। और मंत्रों में माध्यम से उस देव गंगा को पृथ्वी पर उतारा। ऐसे विकराल, विध्वंसक महादेव! हमने उनका सौम्य स्वरूप देखा कि आंखें बंद किए श्मशान में बैठे हुए है, सांप की मालाएं पहने हुए हैं, ऊपर से गंगा प्रवाहित हो रही है और ध्यानस्थ बैठे हैं।
आपने वह रूप देखा है, क्रोधमय रूप नहीं देखा, ज्वालामय रूप नहीं देखा, आंखों से बरसते अंगारे नहीं देखे। देखे इसलिए नहीं क्योंकि किसी ने दिखाये नहीं आपकों। महादेव इसलिए नहीं बने कि शांत बैठे हैं—– अ श प हाइ एस्ट पोस्ट पहुंचगे तो हाथ जोड़-जोड़ कर नहीं पहुंचें, ज्ञान को गिड़गिड़ाते हुए नहीं प्राप्त कर पाऐंगे। आपमें ताकत होगी, क्षमता होगी तो ऐसा कर पाएंगे। और महादेव ने उस जटा से जिसको निकाला उसे कृत्या कहते है। उस कृत्या ने दक्ष का सिर काट दिया वह तंत्र का उच्च कोटि का विद्वान था, दक्ष के समान कोई विद्वान नहीं था उसे सभी तंत्र का ज्ञान था, जिसको यह वरदान था कि तुम मर ही नहीं सकते। उस कृत्या ने एक क्षण में सिर काट कर बकरे का सिर लगा दिया, उसके ऊपर और सारे ऋषि मुनियों को उखाड़-उखाड़ कर फ़ेंक दिया। उस कृत्या ने। एक भी ऋषि योग्य नहीं था। सती जल रही थी और वे चुपचाप बैठे-बैठे देखते रहे।
भगवान शिव उस क्रोध की अवस्था में सती के शरीर को लेकर घूमते रहे। क्रोध में आदमी कुछ भी कर सकता है, और क्रोध होना ही चाहिए, क्रोध नहीं है तो मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। ऐसा नहीं हो कि शत्रु हमारे सामने खड़े हो और हम गिड़गिड़ाएं कि भईया तू मत कर ऐसा। ऐसा हो ही नहीं सकता। वह हाथ ऊंचा करे उससे पहले सात झापड़ उसे पड़ जानी चाहिए। बाद में देखा जाएगा। मैं तुम्हें गिडगिड़ाने वाला नहीं बनाना चाहता, मैं बना ही नहीं सकता, बन भी नहीं सकता, जब मैं खुद बना ही नहीं तो तुम्हें कैसे बनाऊंगा। पहले हाथ उठाऊंगा नहीं, और हाथ उसका उठा और मेरे गाल तक पहुंचे उससे पहले छः थप्पड़ मार कर नीचे गिरा दूंगा, आज भी इतनी ताकत, क्षमता रखता हूं, आज से सौ साल बाद भी इतनी ही ताकत, क्षमता रखूंगा आपके सामने।
उस कृत्या ने समस्त ऋषि मुनियों को लात मारकर फ़ेंक दिया। आज हम उनको ऋषि कहते हैं, उस समय तो वे मनुष्य थे आप जैसे। आप भी ऋषि हैं मगर आप गलत काम करेंगे तो लात मारकर फ़ेकेंगे ही। भगवान शिव ने कहा – यह तुमने क्या किया ? यह यज्ञ कर रहे थे तुम ! एक औरत उसमें जल गई और आप बैठे-बैठे देखते रह गए ? तुमने दक्ष को समझाने की क्षमता नहीं रह गई। और भगवान शिव उस क्रोध अवस्था में उस सती के शव को कधों पर रख जहां-जहां पूरे भारतवर्ष में घूमे, जहां-जहां गल गल कर जो अंग गिरा वह शक्ति पीठ कहलाए। और 52 स्थानों पर वह शरीर गिरा, हाथ कहीं गिरा, कहीं सिर गिरा, कहीं पांव गिरा, कहीं और कोई अंग गिरा। जितने अंग गिरे 52 जगहों पर वे शक्ति पीठ कहलाए।
आज भारतवर्ष में जिन्हें शक्ति पीठ कहते हैं, शक्ति के जो अंग गिरे, वहां जो पीठ बनी, चेतना बनी, मंत्र बने, स्थान बने वे शक्ति पीठ कहलाए। मैं बात यह कह रहा था कि इतने ऋषियों, मुनियों को इतने उच्चकोटि के ज्ञान को, इतने तंत्र के विद्वानों को जो अपनी ठोकरों से मार दे और विध्वंस कर दे। सब कुछ वह क्या चीज थी – वह कृत्या थी और कृत्या से वैताल पैदा हुआ। वैताल जिसने विक्रमादित्य के काल में एक अद्भत, अनिवर्चनीय कथन किया कि कोई भी काम जिंदगी में असफ़ल हो ही नहीं सकता, संभव ही नहीं है। बम तो एक बहुत मामूली चीज है, बम का प्रहार कुछ बिगाड़ नहीं सकता। हमें पहले ही मालूम पड़ जाएगा कि यह आदमी बम फ़ेंकने वाला है, हम पहले ही उसका संहार कर देंगे, समाप्त कर देंगे, अगर कृत्या हमारे पास सिद्ध होगी तो।
और हमारे पास इटैलीजैंसे है, हमारे पास पुलिस है हमारे पास रॉ है, हमारे पास और भी है, फि़र भी बम विस्फ़ोट होते जा रहे है। लाखों लोग मरते जा रहे है, बेकसूर लोग मरते जा रहे हैं। जिन्होंने कोई नुकसान किया ही नहीं बेचारों ने। आप सोचिए कि घर में एक मृत्यु हो जाए तो घर की क्या हालत होती है। एक जवान बेटा मर जाए तो पूरा जीवन दुःखदायी हो जाता है। यहां तो घर के पांच-पांच लोग मर जाते हैं और कानों पर जूं नहीं रेंगती। भारत सरकार कोशिश कर रही है इसमें कोई दो राय नहीं है, पूरा प्रयत्न कर रही है इसमें भी दो राय नहीं है मगर प्रहारक इतने बन गए हैं कि इस समय विज्ञान कुछ नहीं कर पा रहा है। इस समय ज्ञान के माध्यम से, चेतना के माध्यम से फि़र कोई एक व्यक्ति पैदा हो जो आपको वह ज्ञान दे, फि़र आपको वह चेतना दे जिसके माध्यम से बम विस्फ़ोट बंद हो सके। यह लड़ाई बंद हो सके, यह सब कुछ बंद हो सके।
आप इतने लोग है पूरे संसार में इस विध्वंस को इस विनाश को समाप्त कर सकते है। इतनी क्षमता आपमें है। इसलिए मैं कह रहा हूं कि आप कायर नहीं हैं, आपने अपने आप को कायर मान लिया है। आप ने अपने आपको बुजदिल मान लिया है, अपने आपको बूढ़ा मान लिया है। आपने अपने को न्यून मान लिया है। जो पुरुष कर सकता है वह स्त्री भी कर सकती है, तुमने भेद कर लिया। यह भेद मुगलों के समय में आया। स्त्री बिल्कुल अलग, पुरुष बिल्कुल अलग। स्त्री बाहर नहीं निकले, घर से बाहर निकलते ही गड़बड़। पुरुष घर से बाहर काम करे और औरत घूंघट निकाल कर अंदर बैठी रहे।
क्योंकि ज्योंहि चेहरा सुंदर होता नहीं, मुसलमान उठाकर ले जाते थे हिन्दुओं की लड़कियों को। मुसलमानों ने बुरका प्रथा निकाली। उन्होंने घूंघट प्रथा निकाली बेचारों ने। यह मुगलों का समय था , 600 साल पहले यह घटना घटी। अब कब तक वे घूंघट निकाल बैठी रहेंगी, कब तक वे ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाएंगी, कब तक वे घर में चूल्हे चौके में ही फ़ंसी रहेंगी। जो पुरुष में क्षमता है, वही स्त्री में भी क्षमता है। तुम्हारी नजर में भेद है, मगर साधना के क्षेत्र में पुरुष-स्त्री समान हैं, बराबर हैं। कोई अंतर है ही नहीं, वेद मंत्र तो वशिष्ठ की पत्नी ने भी सीखे, ब्रह्म ज्ञान सीखा, चेतना प्राप्त की। कात्यायनी ने सीखा, मैत्रयी ने सीखा, कम से कम सैकड़ो ऐसी विदुषियां बनी। वे पत्नियां थी और स्त्रियां होते हुए भी उन्होंने उच्च कोटि का ज्ञान प्राप्त किया।
क्या वे औरतें नहीं थी, क्या उनके पुत्र पैदा नहीं हुए थे। मगर वे ताकतवान थी, क्षमतावान थी। और पुरुष भी क्षमतावान थे। जो क्षमतावान थे वे जिंदा रहे। देवता तो 33 करोड़ थे वहां, फि़र हमें केवल 20 नाम क्यों याद है ? ऋषियों के अट्ठारह नाम ही क्यों याद है, बाकी ऋषि कहां चले गए ? और उस समय ऋषि पैदा हुए तो अब ऋषि क्यों नहीं पैदा हो रहे ? संतान तो पैदा, उन्होंने भी की हमने भी की। दो हाथ पांव उनके थे तो हमारे भी हैं। फि़र हम ऋषि क्यों नहीं पैदा कर पाए ? मैं आपको ताकतवान क्यों नहीं पाया ? गाजियाबाद में बम विस्फ़ोट हुआ, आपने अखबार पढ़ा और रख दिया मन में कुछ हलचल भी नहीं हुई, तफ़ूान भी पैदा नहीं हुआ। कितने लोग मर गए होंगे अकारण, मगर आपके अंदर कोई आग पैदा नहीं हुई, जलन नहीं पैदा हुई क्योंकि आपने अपने आप को कायर बुजदिल समझ लिया, आपने कहा – हम क्या करें, हमारी ड्यूटी थोड़े ही हैं।
नहीं आपकी ड्यूटी है। आपकी ड्यूटी है कि देश में कोई भी बम नहीं फ़टे, एक भी गोली नहीं चले, एक भी लड़ाई झगड़ा नहीं हो यह आपकी ड्यूटी है, केवल आपकी ड्यूटी है। कृष्ण ने गीता में यही कहा था – यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युथानम धर्मस्य तदात्मान सृजाम्याम्। जब जब भी धर्म की हानि होगी, अधर्म का अर्थ है जहां जहां भी व्यक्ति अपने धर्म को भूल जाएगा, जब भारत की हानि होने लगेगी जब भारत के टुकड़े होने की स्थिति हो जाएगी, आर्यावर्त के टुकड़े होने की स्थिति हो जाएगी, तब तब व्यक्ति पैदा होगा जो अपने शिष्यों को ज्ञान और चेतना देगा।
उनको एहसास कराएगा कि तुम कायर नहीं हो, बूढ़े नहीं हो, तुममें ताकत है, क्षमता है मगर वह ज्ञान नहीं है। कृत्या जब दक्ष को विध्वंस कर सकती है, लाखों ऋषियों को ऊंचा उठाकर धकेल सकती है, वीर वेताल जैसे व्यक्ति को पैदा कर सकती है, जो पूरे पहाड़ के पहाड़ को उठाकर दूसरी जगह रख सकती है, जिस कृत्या के माध्यम से रावण पूरी लंका को सोने की बना सकता है। आप तो पांच रुपये चांदी के इकट्ठे नहीं कर सकते। आपके पास कागज के टुकड़े तो हैं, एल्युमिनियम के सिक्के तो है पर चांदी के सिक्के पच्चीस, पच्चास या सौ मुश्किल से होंगे। क्या क्षमता, क्या ताकत है आपमें ? जब वह सोने की लंका बना सकता है तो हम क्यों नहीं कर पा रहे, हममें न्यूनता क्या है ? न्यूनता यह है कि आपमें अकर्मण्यता आ गई है, आपमें भावना आ गई है कि हम कुछ नहीं कर निंदा तो भगवान की भी होती है, तुम तो क्या हो ? सकते। यह हमारी ड्यूटी हमारा काम है ही नहीं और कृष्ण कह रहे है जब जब भी धर्म की हानि होने लग जाए तो यह हमारी ड्यूटी है कि हम ताकत के साथ खड़े हो सके और खड़े हो कर बता सके कि तुम्हारा विज्ञान फ़ेल हो रहा है और हम ज्ञान के माध्यम से शांति पैदा कर रहे है। यह हमारा धर्म है, हमारा कर्तव्य है।
ऐसा अधर्म बना तब कृष्ण पैदा हुए, ऐसा अधर्म बना तब बुद्ध पैदा हुए, ऐसा अत्याचार बढ़ा तब सुकरात पैदा हुआ, ईसा मसीह पैदा हुआ। सब देशों में पैदा हुए कोई भारत वर्ष में ही पैदा नहीं हुए, सभी देशों में महान पुरुष पैदा हुए जिन्होंने अपने शिष्यों को ज्ञान की चेतना दी। बगलामुखी तो एक बहुत छोटी चीज है, धूमावती तो बहुत छोटी चीज है। दस महाविद्या तो अपने आपमें कुछ है ही नहीं कृत्या के सामने। कृत्या तो यह बैठे-बैठे एकदम से शत्रुओं को नष्ट कर दे, समाप्त कर दे। शत्रु में ताकत ही नहीं रहे, हिम्मत ही नहीं रहे। पंगु बना दे। वह आज के युग की जरूरत है। आज के युग में नोट की भी जरूरत है, बेटों की भी जरूरत है, रोटी की भी जरूरत है, पानी की भी जरूरत है, मगर इससे पहले जरूरी है कि शत्रु समाप्त हों। जो बेचारे कुछ कर नहीं रहे वे मर रहे है, कहीं सदर बाजार में उन बेचारे दुकानदारों ने कुछ किया नहीं उनकी दुकानें उडा दी गई। आप कल्पना करिये उनके परिवार वालों की क्या हालत हुई होगी। कोई दुख दर्द हुआ, आंखों में आंसू आए हमारे? हमारे नहीं आएंगे तो किसके आएंगे ? हमारे अंदर दर्द पैदा होना चाहिए और इस सबको मिटाना होगा। विज्ञान इसको नहीं मिटा सकता, बंदूक की गोलियों को विज्ञान नहीं मिटा सकता देख लिया हमने। और प्रत्येक के पास यह ताकत होनी चाहिए, एक-एक शिष्य के पास यह ताकत होनी चाहिए। दो चार शिष्य तैयार होंगे उससे नहीं हो पाएगा।
एक-एक व्यक्ति, एक-एक पुरुष एक-एक स्त्री को यह ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है। वह उस साधना को सिद्ध करे कि जिसके माध्यम से वह कृत्या पैदा कर सके। भगवान शिव पैदा कर सकते हैं, अगर विक्रमादित्य पैदा कर सकता है, फि़र हम भी कर सकते हैं। सांप जैसा एक मामूली जीव अगर कायाकल्प कर सकता है, पूरी केचुँली उतारकर वापस क्षमतावान बन सकता है तो आप ऐसा क्यों नहीं कर पाते? सांप पूरे दो सौ साल जिंदा रहता है, और एक हजार साल तक जिंदा रह सकता हैं पच्चीस पचास साल में मरता नहीं। आदमी मरता है सांप नहीं मरता। जब भी बुढ़ापा आता है, ऐसा दिखता है कि कमजोरी आ गई, तो वह केचुली को उतार कर फ़ेंक देता है। वह ज्ञान एक था जो सिर्फ उसके पास रह गया।
पहले नाग योनि थी। जैसे वानर योनि थी, गंधर्व योनि थी वैसे नाग भी एक योनि थी। बाद में हमने मान लिया कि सांप ही नाग योनि है। नाग तो अपने आपमें एक जाति थी जिसके पास यह विद्या थी। वह कायाकल्प की विधि जब भी आप कहेंगे कि मैं वृद्ध हो गया हूं तो मैं आपको सिखा दूंगा। मैं तो आपको वृद्ध होने की नहीं देना चाहता हूं। सफ़ेद बालों वाला वृद्ध नहीं होता, वृद्धता तो मन की अवस्था है। अगर सफ़ेदी से ही बुढ़ापा आता है तो हिमालय आपसे पहले ज्यादा बूढ़ा है। उस पर तो सफ़ेद ही सफ़ेद लगा हुआ है। फि़र तो वह बूढा ही बूढा बैठा है, वह है ही नहीं ताकतवान। आपके सिर पर सफ़ेदी है तो उस पर तो ज्यादा सफ़ेदी है। मगर नहीं, वह ताकत के साथ खड़ा हुआ है, अडिग खड़ा हुआ है। आप वृद्ध नहीं है आप जवानों से ज्यादा ताकतवान हैं, क्षमतावान हैं। आपमें हौसला और हिम्मत है और वह चीज वापस कृत्या के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। कृत्या को भगवान शिव ने प्रकट किया, पैदा किया और उस क्षमता के माध्यम से जितना अधर्म, जितनी दुर्नीति, जितना दुष्प्रचार, जितनी दुष्टता, जितनी न्यूनता, जितना घटियापन था वह समाप्त किया, विध्वंस कर दिया और वेद मंत्र उच्चारण कर रहे थे और एक औरत जल रही थी वे स्वाहा बोल रहे थे और एक औरत जल रही थी यह क्या चीज थी ?
और अगर ऐसे समय क्रोध नहीं आए, क्षमता नहीं आए, व्यक्ति जूझे नहीं तो हम मर्द क्या बने। फि़र तो हम एक बहुत घटिया श्रेणी के मनुष्य हुए। और अगर गुरु शिष्य को क्षमतावान नहीं बना सके तो फि़र गुरु को यहां बैठने का अधिकार नहीं है, फ़ूलों का हार पहनने का अधिकार नहीं है, बेकार है सब। मैंने आपको बताया कि आप के युग में क्या आवश्यक है, कोई घिसापिटा प्रवचन नहीं दिया आपको। मैं बता सकता था कि बगलामुखी क्या होती है, धूमावती क्या होती है, जगदम्बा क्या होती है। मैंने कृत्या के बारे में बताया जिसके दस हाथों में दस चीजें है और दस में एक भी फ़ूल नहीं है। उसके तो हाथों में कहीं खडग है, कहीं चक्र है, कहीं कृपाण है, कहीं त्रिशूल है। अपने आपमें वह अकेली ही क्षमतावान है ताकतवान है। उसने शुंभ, निशुंभ, महिषासुर, रक्तबीज को समाप्त कर दिया एक अकेली औरत ने कर दिया, इसलिए आज भी उसे पूजा जाता है। आपको भी पूजा जाएगा, यदि आपमें वह साधना होगी तो पूजा जाएगा। नहीं तो आप भी मर कर समाप्त हो जाएंगे, कोई पूछेगा नहीं आपको, याद भी नहीं करेगा आपको।
इसलिए आपमें वह क्षमता आनी चाहिए। इनके दस हाथ हैं इसका मतलब है कि, दस चीजें चलाने की क्षमता है। अगर आप सोचते है कि रावण के बीस हाथ और दस सिर थे तो वह कपोल कल्पना है। रावन के न कोई दस सिर थे न बीस भुजाएं थी। यह एक कल्पना है, इसका अर्थ यह है कि उसके पास जितनी बीस भुजाओं में ताकत होती है उतनी ताकत थी, दस सिरों में जितनी बुद्धि होनी चाहिए उतनी बुद्धि थी। उतनी साधनाएं थी। उसके पास ज्ञान था कि चांदी के सौ पचास सिक्के नहीं पूरे शहर को सोने का बना दिया और उस समय किया जब दशरथ जैसा राजा भी कुछ कर नहीं पा रहा था। वही लड़ाई, वही झगडे़, वही बेटों को बाहर निकाल देना वही मर जाना। और बेटा अपने पिता का अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाया। वहीं एक स्त्री सीता को उठा कर ले जाना। चीजें तो वहीं की वहीं थी, मगर एक विद्या उनके पास थी। और कृत्या प्रयोग, कृत्या साधना को आज तक किसी ने छुआ तक नहीं, इसलिए कि उनके पास ज्ञान ही नहीं था। अगर ज्ञान ही नहीं होगा तो कोई सीखेगा कहां से, कोई बताएगा कहां से ?अगर मुझे उर्दू नहीं आती तो मैं उर्दू बोलूंगा कहां से। मुझे मराठी नहीं आती तो मराठी बोलूंगा कहां से। अगर मुझे ज्ञान है कि कृत्या सिद्ध कैसे हो सकती है तो मैं आपको कात्यायनी और ये छोटी-छोटी साधनाएं क्यों दूंगा ? दूंगा तो एक बहुत बड़ी साधना दूंगा कि आप बैठे-बैठे शत्रु को समाप्त कर सके, और पूरे देश को एहसास करा सके कि एक गुरु के कई शिष्य हैं ऐसा शिष्य मैं आपको बनाना चाहता हूं।
शायद मेरी बात आपको तीखी लगे, शायद मेरी बात क्रोधमय हो गई है। मगर जो क्रोध नहीं करता है उससे घटिया कोई आदमी नहीं होता। सबसे मरा हुआ जीव वह होता है। सबसे मरा हुआ जीव वह होता है जिसे क्रोध आता ही नहीं। और हमारा देश बर्बाद इसलिए हो गया कि अहिंसा परमो धर्म, कोई थप्पड़ मारे तो दो चार थप्पड़ और खा लीजिए। मैं कहता हूं कि थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठे उससे पहले चालीस थप्पड़ मार दीजिए। मैं आपको यह कह रहा हूं, काहे को हम थप्पड़ खाएं। जो पहले लात मारता है वह जीतता है, यह धयान रखिए। कोई लात देगा तो दूसरा गिर जाएगा, दूसरी लात लगेगी तो वह उठेगा नहीं। उसके दो चार थप्पड और पडे़ंगे तो वह कहेगा गलती हो गई। और तुम हाथ जोड़ो तो तुम्हारी हार निश्चित है। गांधीजी ने कह दिया अहिंसा परमो धर्मः उस जमाने में जरूरी होगा, यह उनकी धारणा थी, विचार था। उस जमाने में बुद्ध ने जो कहा सत्य कहा होगा। मगर वह उस जमाने में था आज वह चीज नहीं है। उस समय बम विस्फ़ोट नहीं हो रहे थे। उस समय गोलियां नहीं चल रही थी, ए-के- 49 राइफ़ल उस समय नही थी। और आप अगर कहते हैं कि हम क्यों करें ?
तो मैं कह रहा हूं – कौन करेगा फि़र अगर मैं आपको ज्ञान नहीं दे पाऊंगा, आप अगर नहीं कर पाएंगे, आप इस देश को, भारत वर्ष को आर्यावर्त को तैयार नहीं कर पाएंगे। लोग जीवित जाग्रत नहीं हो पाएंगे, और लोग इस पर आक्रमण करते रहेंगे और आप चुपचाप देखते रहेंगे तो कौन आगे आएगा, कहां से आएगा ? फि़र शिष्य बनने का, मनुष्य बनने का, क्या धर्म रह जाएगा ? यह धर्म हमारा है क्योंकि हम जीवन में अभावग्रस्त नहीं होना चाहते, हम दरिद्री नहीं रहना चाहते, हम जीवन में तकलीफ़ नहीं देखना चाहते, हम दुखी नहीं होना चाहते, हम घर में लड़ाई झगड़ा नहीं चाहते, हम जीवन में कायर बुजदिल नहीं होना चाहते, बुढ़ापा नहीं चाहते। हम यह सब नहीं चाहते मगर ऐसा तब हो पाएगा जब हम ऐसी साधना सिद्ध कर सकेंगे कि आपका विशाल रूप देख कर मौत भी आपके द्वार के बाहर खड़ी रहे, अन्दर आने की हिम्मत नहीं कर सके। तब वह चीज हो पाएगी, मौत आपके पास आकर बैठ जाए तो मर्द ही क्या हुए आप ? भगवान शिव ने एक उच्च कोटि की साधना के रूप में कृत्या प्रकट की। उस कृत्या को सिद्ध किया विक्रमादित्य ने। बीच में कर ही नहीं पाए कोई। या तो ज्ञान लुप्त हो गया, या वे ऋषि मुनि समाप्त हो गए। कुछ को भगवान शिव ने समाप्त कर दिया, कुछ मर गए, कुछ को ज्ञान रहा नहीं और कुछ ऐसे ऋषि हो गए जो अपने शिष्यों को ज्ञान दे नहीं पाए। पहले मुख से देते थे ज्ञान, किताबों में होता ही नहीं था। आज मैंने आठ किताबें तैयार की तो आप दो, पांच किताब लेगे कि चलो कम से कम मेरे पास यह ज्ञान की थाली रह पाएगी।
उनके पास किताबें थी नहीं। और उस समय ऐसे भी गुरु थे जो मरते दम तक कहते रहते थे कि बिल्कुल अंत में सिखाउंगा यह चीज। अरे महाराज। सिखा दो, न जाने आप कब समाप्त हो जाओगे। वे कहते नहीं बच्चे! अंत समय में सिखाउंगा। उनको लालच यह कि सेवा कौन करेगा, सीखा तो चला जाएगा। और शिष्य सोचता यह सिखाता कुछ नहीं है रोज लंगोट धुलवाता है पर कुछ देता नहीं है। जब दोनों में आपस में द्वन्द्व चल रहा है। वह उसको बोल नहीं पा रहा है, और मरते समय कहता है राम राम जपना बेटा और गर्दन टेढ़ी! और शिष्य उस राम नाम सत्य है आगे गया गत है। अब यहां तो गति हुई नहीं आगे होगी या नहीं यह आपने देखा नहीं। मैं कह रहा हूं कि गति कुछ होती नहीं है, गति हम उसकी करेंगे जो हमारे घर में गड़बड़ करेंगे, जो हमारे घर में हिंसा लाएगा, कमजोरी लाएगा। कारखाने में कोई गोली बननी ही नहीं चाहिए जो आपको लग जाए। जब बनेगी नहीं तो लगेगी कहां से वो। मैं आपको ऐसा क्षमतावान बनाना चाहता हूं, जो पचास हजार वर्षों में समाप्त हो गया उस ज्ञान को आपको देना चाहता हूं, उस कृत्या को आपको प्रदान कर देना चाहता है आप तेजस्विता युक्त बनें। सूर्य तो बहुत कम चमक वाला है आप उससे हजार गुना चमक वाले बनें, ऐसा ज्ञान मैं आपको प्रदान करना चाहता हूं।
मैंने आपको समझाया कि हम कमजोर और अशक्त क्यों है, मानसिक रूप से परेशान और रुग्ण क्यों है, और ऐसी कौन सी विद्या है, कौन सी ताकत है जिसके माध्यम से जो हमारे विकार हैं वे समाप्त हो सकें। हमारे मन में कुल 32 संचारी भाव होते हैं सोलह अनुकूल, सोलह प्रतिकूल। घृणा, क्रोध, प्रतिशोध, दुर्भावना, लोभ, मोह, अहंकार ये सब संचारी भाव हैं। और कुछ अच्छें संचारी भाव भी होते है जैसे प्रेम, स्नेह, परोपकार। जीवन का सार बलशाली होना है, जब तक आदमी निर्बल रहेगा तब तक आदमी सफ़ल नहीं हो सकता। और बलशाली होने के लिए उसे सोलह जो प्रतिकूल संचारी भाव हैं उन्हें समाप्त करना होगा। प्रकृति भी निर्बल को सताती है। दीपक निर्बल होता है, थोडी सी हवा चलती है और उसे बुझा देती हैं और वही दिया अगर आग बन जाए तो हवा उसे बढ़ा देती है, हवा भी सहायक बन जाती है। ताकतवान का साथ देती है हवा निर्बल की नहीं बनती। दोनों ही आग है और हवा एक ही है मगर जो ताकतवान है जो क्षमतावान है उसकी वह सहायक बनती है।
आप ताकतवान हैं तो आप पूर्ण सफ़लतायुक्त होते ही हैं और वह ताकतवान होना मन से संबंधित है, विचारों से संबंधित है। और कृत्या का अर्थ यही है कि आप ताकतवान, और क्षमतावान बनें। मगर मंत्र जप आप करते रहें, एक महीना, दो महीने, छः महीने, पांच साल, दस साल ऐसी विद्या में आपको नहीं देना चाहता। मंत्र तो दूंगा ही मगर इतना लंबा मंत्र नहीं कि पांच साल जप करो तब सफ़लता मिले। ऐसा नहीं पहली बार में ही सफ़लता मिलनी चाहिए, पूर्ण सफ़लता मिलनी चाहिए। जो भी मंत्र आपको दूंगा वह महत्वपूर्ण दूंगा, मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि आप एक साल मंत्र जप करें, पांच दिन करे मगर पूरी धारणा शक्ति के साथ करें, गुरु को हृदय में धारण करके करिए। यह सोचिए कि गुरु के अलावा मेरे जीवन में कुछ है ही नहीं। मैं यह नहीं कह रहा कि मैं आपका गुरु हूं तो आप मेरी प्रशंसा करिए, आपके जो भी गुरु हों। गुरु हैं तो हैं ही, उनके बिना फि़र सांस लेने की भी क्षमता नहीं होनी चाहिए। और एक बार गुरु को धारण किया तो कर लिया, जो उसने कहा वह किया। फि़र अपनी बुद्धि, अपनी होशियारी, अपनी अक्ल आप लड़ाएंगे तो आप ही गुरु बन जाएंगे, फि़र कोई और गुरु बनाने की जरूरत ही नहीं क्योंकि फि़र आप ही गुरु है, क्येांकि आप मुझझे ज्यादा गाली बोल सकते हैं, मुझसे ज्यादा झूठ बोल सकते हैं और मुझसे ज्यादा लड़ाई कर सकते हैं, तो मुझसे योग्य हैं ही आप। मैं आपके जितना क्रोध कर नहीं सकता, आपके जितना लड़ाई झगड़ा कर नहीं सकता। जितनी शानदार 2000 गालियां आप दे सकते हैं, मैं दे ही नहीं सकता।
मगर साधनाओं में आपसे ज्यादा क्षमता है, आपसे ज्यादा पौरुष है, आपसे ज्यादा साहस, आपसे ज्यादा धारणा शक्ति है। कृत्या का तात्पर्य यह भी है कि हममें साहस हो, पौरुष हो, धारणा शक्ति हो। कृत्या अपने आपमें एक प्रचण्ड शक्ति है जो भगवान शिव के द्वारा निर्मित हुई, जिसके कोई तफ़ूान का अंत नहीं था। जब हुंकार करती थी तो दसों दिशाएं अपने आपमें कांपती थी और उससे जो पैदा हुए उस कृत्या से वे वैताल जैसे पैदा हुए, धुर्जटा जैसे पैदा हुए, विकटा जैसे, अघोरा जैसे पैदा हुए। जो ग्यारह गण कहलाते हैं भगवान शिव के वे कृत्या से पैदा हुए। आपके जीवन में क्षमता साहस, जवानी पौरुष कृत्या साधना के माध्यम से ही आ सकती है। कृपणता, दुर्बलता, निराशा, आपके जीवन में नहीं है, अपने ऊपर जबरदस्ती लाद लेते हैं। हर बार लाद लेते है कि अब मैं कुछ नहीं कर सकता, मेरे जीवन में कुछ है ही नहीं।
और धीरे-धीरे आप नष्ट होते जा रहे हैं। देश में जो चल रहा है, जो हो रहा है उसके लिए विज्ञान कर क्या रहा है, हमारी उपयेागिता फि़र क्या है, हम फि़र क्यों पैदा हुए है ? ज्ञान क्या चीज है ? पहले ज्ञान सही था तो अब ज्ञान सही क्यों नहीं हो रहा है ? मैं यह सिद्ध करना चाहता हूं। मैं बताना चाहता हूं कि आयुर्वेद में वह क्षमता है कि प्रत्येक रोग का निवारण कर सके। पहले किसी पौधो के पास खड़े होते थे तो पौधा खुद खड़ा हो जाता था कि यह मेरा नाम है, यह मेरा गुण है, यह मेरा उपयोग है और मनुष्य जीवन के लिए मैं इस प्रकार उपयोगी हूं। पेड़ पौधे पहले इतना बोलते थे तो आज भी बोलते होंगे जरूर। उस समय वनस्पति खुद बोलती थी। आज भी बोलती है मगर हममें क्षमता नहीं कि हम समझ पाएं।
आपमें क्षमता हो, साहस हो पौरुष हो ऐसा मैं आपको बनाना चाहता हूं। आप बोले और सामने वाला थर्रा नहीं जाए तो फि़र आप हुए ही क्या। मैंने यह समझाया कि कृत्या क्या है और हमारे जीवन में क्यों आवश्यक है। कृत्या कोई लड़ाई झगड़ा नहीं है, कृत्या मतभेद नहीं है। कृत्या आपको प्रचण्ड पौरुष देने वाली एक जगदम्बा है, देवी हैं। कृत्या किसी को नष्ट करने के लिए नहीं है परन्तु आपके पौरुष को ललकारने वाली जरूर है, हिम्मत, और हौंसला देने वाली जरूर है, वृद्धावस्था को मिटाने वाली जरूर है। परन्तु आवश्यकता है कि पूर्ण क्षमता के साथ इस कृत्या को धारण किया जाए और पूर्ण पौरुष के साथ, जवानी के साथ बैठकर इसे सिद्ध किया जा सकता है। मरे हुए मुर्दो की तरह बैठकर नहीं प्राप्त किया ज श सकता। और अगर मेरे शिष्य मरे हुए बैठेंगे तो मेरा सब कुछ देना ही व्यर्थ है। मैं स्वयं अभी पच्चीस साल बूढा नहीं होना चाहता और यदि आपमें से कोई मुझे बूढ़ा कहता है तो उठकर, आकर मुझसे पंजा लड़ा ले, मालूम पड जाएगा। आपकी हड्डी को कैसे तोड़ जाता है मुझे मालूम है। मेरे पास हथियार भी नहीं होगा तो भी मैं कर दूंगा। यह कोई बड़ी चीज नहीं है और न ही वृद्धावस्था जैसी कोई चीज है।
वृद्धावस्था तो आएगी मगर जब आएगी, तो देखा जाएगा। पूछ लेंगे मेरे पास आने की क्या जरूरत थी, बहुत बैठे हैं शिष्य उनके पास चली जाओ। मेरे पास तो हलवा पूरी मिलेगी नहीं तुम्हें। बुढ़ापे जैसी कोई अवस्था होती नहीं है, यह केवल एक मन का विचार है कि हम बूढ़े हो गए हैं और आप जीवन भर पौरुषवान और यौवनवान हो सकते हैं कृत्या सिद्धि के द्वारा। मगर सिद्धि तब प्राप्त होगी जब गुरु जो ज्ञान दे उसे आप क्षमता के साथ धारण करे। शुकदेव ने तो केवल एक बार सुना और उसे सिद्धि, सफ़लता मिल गई। जब पार्वती ने यह हठ कर ली कि भगवान शिव उन्हें बताए कि आदमी जिंदा कैसे रह सकता है, वह मरे ही नहीं, क्या विद्या है जिसे संजीवनी विद्या कहते है तो महादेव बताना नहीं चाहते थे, वह गोपनीय रहस्य था। मगर पार्वती ने हठ किया तो उन्हें कहना पड़ा।
अमरनाथ के स्थान पर शिव ने बताना शुरु किया। भगवान शिव ने डमरू बजाया तो जितने वहां पर पशु, पक्षी, कीट, पतंग थे वे सब भाग गए। लेकिन एक तोते ने अंडा दिया था वह रह गया। बाकी बारह कोस तक कोई कीट-पंतग भी नहीं रहा। वह अंडा फ़ूट गया और बच्चा बाहर आ गया। भगवान शिव पार्वती को कथा सुनाते जा रहे थे और वह बच्चा सुनता जा रहा था। पार्वती को नींद आ गई और वह बच्चा हुंकार भरता रहा। कथा समाप्त हुई तो भगवान शिव ने देखा कि पार्वती तो सो गई। उन्होंने सोचा कि फि़र यह हुंकार कौन भर रहा था। उन्होंने पार्वती को उठाया और पूछा तुमने कहां तक सुना ? पार्वती ने कहा मैंने वहां तक सुना और फि़र मुझे नींद आ गई। तो भगवान शिव ने कहा – यह हुंकार कौन भर रहा था फि़र। पार्वती ने कहा – मुझे तो मालूम नहीं।
उन्होंने देखा तो एक तोते का बच्चा बैठा था। महादेव ने अपना त्रिशूल फ़ेंका। तो उस बच्चे ने कहा – आप मुझे मार नहीं सकते क्योंकि मैने अमर विद्या सीख ली है आपसे। जो आपने कहा वह मैं समझ गया। मुझे कोई मंत्र उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं। तो वह बच्चा उड़ा और वेद व्यास की पत्नी अर्घ्य दे रही थी भगवान सूर्य को और उसके मुंह के माध्यम से वह अन्दर उतर गया और 12 वर्ष तक अंदर रहा। पहले माताएं 21 महीने पर संतान पैदा करती थी। 21 महीने उनके गर्भ में बालक रहता था। फि़र 11 महीने तक रहने लगा। फि़र बच्चा दस महीने रहने लगा। सत्यनारायण की कथा में आता है कि दस महीने के बाद में पुलस्त्य की पत्नी ने सुंदर कन्या को जन्म दिया। फि़र नौ महीने बाद जन्म होने लगा और अब आठ महीने बाद जन्म होने लग गए। तो ये सब अपरिपक्व मस्तिष्क वाले बालक पैदा हो रहे हैं।
जो धारणा शक्ति थी महिलाओं की वह खत्म हो गई। और 12 साल बाद इसने कहा कि तुम्हें तकलीफ़ हो रही है तो मैं निकल जाउंगा, महादेव मेरा कुछ नहीं कर सकते। और महादेव बैठे थे दरवाजे के ऊपर कि निकलेगा तो मार दूंगा। उसने कहा महादेव मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते क्योंकि मैं वह संजीवनी विद्या समझ चुका हूं। अब महादेव का त्रिशूल मेरा क्या बिगाड़ेगा। हां तुम्हें तकलीफ़ हो तो बता दो। व्यास की पत्नी ने कहा – मुझे पता ही नहीं लगा कि तुम अन्दर हो। तुम तो हवा की तरह हल्के हो। तुम्हारी इच्छा हो तो बैठे रहो, नहीं इच्छा हो तो निकल जाओ। वह शुक्रदेव ऋषि बने। शुक याने तोता। यह बात बताने का अर्थ है कि जो मैं बोलूं उसे धारण करने की शक्ति होनी चाहिए आपमें। जैसे शुकदेव ने सुना शिव को और एक ही बार में सारा ज्ञान आत्मसात कर लिया। अगर धारण कर लेंगे, समझ लेंगे तो जीवन में बहुत थोड़ा सा मंत्र जप करना पड़ेगा। धारण करेंगे ही नहीं, मानस अलग होगा तो नहीं हो पाएगा।
तो कहूं वह करना ही है आपको। शास्त्रों ने कहा है – जैसा गुरु करे वैसा आप मत करिए, जो गुरु कहे वह करिए। अब गुरु वहां जाकर चाय पीने लगे तो हम भी चाय पीएंगे, जो गुरु जी करेंगे हम भी करेंगे अब गुरुजी मंच पर बैठे हैं तो हम भी बैठेंगे। नहीं ऐसा नहीं करना है आपको। जो गुरु कहे, वह करिए। आपको कहे यह करना है, तो करना है।
आप गुरु के बताए मार्ग पर चलेंगे, गतिशील होंगे, तो अवश्य आपको सफ़लता मिलेगी, गारन्टी के साथ मिलेगी। और साधना आप पूर्ण धारणा शक्ति के साथ करेंगे तो अवश्य ही पौरुषवान, हिम्मतवान, क्षमतावान बन सकते हैं। आप अपने जीवन में उच्च से उच्च साधनाएं, मंत्र और तंत्र का ज्ञान गुरु से प्राप्त कर सकें और प्राप्त ही नहीं करे, उसे धारण कर सकें, आत्मसात कर सके ऐसा मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं। –
सद्गुरुदेव परमहंस निखिलेश्वरानन्द।
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