हवा, पानी, भोजन, सूर्य की गरमी, इन सबके समान मनुष्य को जीवित रहने के लिए कतिपय अन्य उपादानों की भी आवश्यकता होती है। परंतु ये उपादान अमूर्त होते हैं। इनका अनुभव किया जा सकता है, किन्तु इन्हें भोजन और पानी के समान हाथ में लेकर स्पर्श नहीं किया जा सकता।
जीवन को स्वस्थ और आनंददायक बनाने वाले पार्थिव उपकरणों को पश्चिमी देशों ने अपने विज्ञान के कौशल से प्राप्त कर लिया है। अधिसंख्यक जनता वहां भूख, बेरोजगारी और गरीबी से पीडि़त नहीं है, यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि इन आपदाओं का वहां अत्यंताभाव हो गया है। अच्छा खाने, अच्छा पहनने और शानदार मोटरगाडि़यों में घूमने के बावजूद, मनुष्य के भीतर कोई आकांक्षा रहती है, जो अपूर्ण रहती है और पूरी होने की मांग करती है। इस आध्यात्मिक आकांक्षा के अपूर्ण रह जाने से समाज में अनेक असंतुलन और विसंगतियां पनपने लगती है और मनुष्य बेचैन हो जाता है।
इस बेचैनी का इलाज खोजने के लिए वह डॉंक्टरों के पास जाता है, अस्पतालों के चक्कर लगाता है, अनेक प्रकार की उत्तेजक अथवा शामक बीमारियों का शिकार हो जाता है। उसे नहीं मालूम कि उसकी यह खोज वास्तव में उसके मूल की, उसके उत्स की खोज है। और यह उत्स उसकी नाभि में कहीं बहुत गहरे, बहुमूल्य कस्तूरी द्रव्य के समान छिपा पड़ा है। उसकी सुगंध उसे मस्त करती है, मतवाला बना देती है, परंतु वह उसे सही दिशा में न खोजकर चारों ओर पागल सा दौड़ लगाता रहता है।
इसके विपरीत हमारे देश का यह स्वभाव और आग्रह रहा है कि मनुष्य का मूल्यांकन केवल उसके पार्थिक उपादानों के आधार पर न करके उसके आभ्यंतर एवं बाह्य व्यक्तित्व के सम्मिलित स्वरूप से किया जाये। कारण, मनुष्य केवल वही नहीं है जो दिखाई देता है- सही अर्थों में मनुष्य वह भी है जो सोचता है, अनुभव करता है, प्रेरणा देता है। सद्गुरूदेव ने इसी दूसरे मनुष्य को सिद्ध किया है।
सद्गुरूदेव का कहना है कि यह संसार ईश्वरमय है। ईश्वर ब्रह्म है और वही सत्य है- ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। ईश्वर को जानना अपने आपको जानना है, और अपने आपको जान लेने पर सांसारिक भय दूर भाग जाते हैं। तब यह ज्ञान हो जाता है कि ये सांसारिक भय और व्याधि, दुःख और पीड़ा शरीर को ग्रसित करते हैं, वह इसलिए कि जरा, व्याधि, सुख, दुःख, जीवन, मरण ये सब शरीर के धर्म है। शरीर पार्थिव है, उसे इन सब दशाओं के बीच जाना ही पड़ता है, इन्हें भोगना ही पड़ता है। अतः जो अनिवार्य है उसे लेकर सुख दुःख मानना कोई अर्थ नहीं रखता, उसे तो सहना ही चाहिये, जैसे मनुष्य जाड़ा, गरमी और बरसात सहता है। परंतु अन्य जानवरों अथवा वनस्पतियों की अपेक्षा मनुष्य इन शारीरिक मौसमी परिवर्तनों के लिए पर्याप्त और अधिक अच्छी तैयारी करता है। जगत मिथ्या है और जो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है, वह सत्य नहीं है, झूठ है- यह सोचकर उससे बेखबर रहना, उसके लिए तैयारी न करना कदापि हमारा ध्येय नहीं हो सकता। जगत को मिथ्या कहने का उद्येश्य केवल और केवल इतना है कि भौतिक जगत की परिवर्तनशीलता हमारे आध्यात्मिक ‘हम’ को प्रभावित नहीं करती। सागर में उठती तरंगों की निरंतर परिवर्तनशीलता के बावजूद, समुद्र का एक दृश्य वह भी है, जो बराबर एकरस, एक समान अपरिवर्तनशील रहता है। बड़े से बड़े चक्रवात और तफ़ूान के बाद भी सागर अपने तट को नहीं तोड़ता, अपने किनारों का अतिक्रमण नहीं करता। उसकी लवणात्मकता में कहीं कमी-बेशी नहीं होती। सद्गुरूदेव कहते हैं कि बड़ी से बड़ी उथल पुथल के बाद भी जैसे सागर का रूप एक समान रहता है, उसी प्रकार बड़े से बड़े सुख और दुःख के झोंकों को सहने के बाद भी, मनुष्य का अभ्यंतर स्फ़टिक के समान स्वच्छ और दृढ़ बना रहता है।
यह सत्य है कि हममें से अधिकांश लोगों को अपनी इस शक्ति का ज्ञान नहीं रहता। हम सोचते हैं कि प्रकाश बाहर है, जब कि वह हमारे अंदर छिपा हुआ है। केवल हमें अपनी चक्षुओं को अंदर की ओर मोड़ लेना है। परंतु अज्ञानवश और भ्रमवश यह बात हमारी समझ से बाहर रहती है। यदि कोई हाथ पकड़कर हमारी दृष्टि परिवर्तित कर दे, तो यह बात हमें आसानी से दृष्टिगोचर होने लगती है। सद्गुरूदेव कहते है। हाथ पकड़ कर दृष्टि घुमाने वाला और कोई नहीं, गुरू है। बड़े भाग्य से योग्य गुरू मिलता है। गुरू की यदि कृपा हो गयी, तो वर्षों साधना और अध्ययन के बाद भी जो बात समझ में नहीं आती, वह शीशे के समान स्पष्ट हो जाती है।
कैलाश सिद्धाश्रम दिल्ली एवं जोधपुर में और गुरूदेव जहां भी जाते हैं, प्रातःकाल का आरंभ ही गुरू पूजन, निखिल स्तवन गुरू गीता पाठ से होता है। शिष्य और साधिकाऐं बीच रास्ता छोड़कर पंक्तिबद्ध बैठते हैं और हृदय की धड़कन के समान, श्वास प्रश्वास के समान श्लोकों के पूर्व और उत्तर चरण उच्चरित करते हैं। बिजली के ठंड़े और गरम प्रवाह स्त्री और पुरूष के कंठस्वरों के माध्यम से वायुमंडल में तैरते हुए एक सात्विक शक्तिमयी गुरूमूर्ति की संरचना करते हैं, जो अंतर के कण-कण में प्रवेश कर मनुष्य को चैतन्य कर देती है। वह जान जाता है कि ‘मैं’ हूं, मैं ही ब्रह्म हूं, अनंत शक्ति का स्रोत और कर्ता। जो मैं हूं, वही सत्य है, जो मुझसे बाहर है वह माया है, परिवर्तनशील है। मैं ही वह अपरिवर्तनशील केंद्र हूं, जिस पर आधारित होकर यह जगत घूमता है। यहां तक कि जगत के इस घूमते चक्र का केंद्र बिंदु, उसकी नाभि मैं स्वयं हूं। जैसा कि गुरूगीता में कहा गया है-
अजोहमजरोहं च अनादिनिधानं स्वयं।
अविकारश्चिदानंद अणीयान्महतो महान्।।
जब जब मैं सद्गुरूदेव के पाठ और भजन में बैठता हूं, मुझे अपने भीतर इस अजत्व, अजरत्व और अमरत्व की अनुभूति हुई है। उस समय मैं हिमालय को भी कंधों पर उठा सकता हूं। सद्गुरूदेव मुझे उस समय वराह अवतार में पृथ्वी को अपने एक अगुंली पर ऊपर उठाये प्रतीत होते हैं। और तब मुझे इस पुराण कथा के वास्तविक अर्थ हृदयंगम हो जाते हैं कि घनघोर वृष्टि से बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया था। सबसे पहली बात है कि गुरू की खोज। गुरू मिल जाने पर शिष्य को उस पर आस्था और विश्वास होना चाहिये। संदेह होने पर शिष्य गुरू की परीक्षा भी ले सकता है। स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरू की सम्यक परीक्षा ली थी। और फि़र गुरू कृपा की प्रतीक्षा में उनके बताये हुए रास्ते पर अनथक चलते रहे। संक्षेप में सद्गुरूदेव से मैंने यही सीखा है, और मैं समझता हूं कि यह बहुत है। सद्गुरूदेव के पास बैठे कभी मुझे लगता है, मैं एक सीमाहीन कमल वन के सान्निध्य में हूं, जिसकी रेशमी सुगंध और गुलाबी स्पर्श मुझे अंदर ही अंदर अभिभूत कर रही हैं। कभी लगता है, मैं स्फ़टिक स्वच्छ सरोवर के चिकने सोपानों पर बैठा हूं और वायु में उड़ते उसके सूक्ष्म जल सीकर मेरी आत्मा के अवसाद को शीतल कर रहे हैं। मैं आत्म विभोर हूं, आत्मा से भरी हुई कि आत्मविस्मृत। जब शरीर का पोर पोर आत्मा बन जाये, तो आत्मा और शरीर की भिन्नता टूट जाती है, और उस समय मनुष्य का वराहावतार होता है।
सद्गुरूदेव ने अपनी असीम कृपा से ये अनुभव मुझे दिये हैं, मेरे भीतर छिपी यह आंख खोली है- इसके लिए मैं उनकी चिर आभारी हूं। मेरी आकांक्षा है कि ऐसी ही पूर्णता उनके सहस्त्रों देशी विदेशी साधकों को प्राप्त हो। अंत में एक बात और कहना है। विज्ञान की सिद्धियों और पश्चिम की नकली मानसिकता के कारण हम आत्मा और गुरू पर अविश्वास करने लगे हैं। हमारी आस्थाएं टूटती जा रही है, हम भौतिकता के बहाव में बहे जा रहे हैं, अविश्वास और छल हमारे जीवन के अंग बनते जा रहे हैं। संसार से ठोकर खाकर, निराश होने के बाद ही हम आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होते हैं। सद्गुरूदेव के जीवन और शिक्षाओं ने सहस्त्रों, लाखों व्यक्तियों के मन में विश्वास उत्पन्न कर आशा की नयी किरण उगायी है।
दुनियां भर के देशों से शिष्य उनके पास आध्यात्मिक शांति की खोज में आते हैं और उसे पाते हैं। सद्गुरूदेव की सभाओं में चाहे हजारों आदमी बैठे हों, परंतु जब भजन, कीर्तन या पाठ होता है तो लगता है, अनेक महाद्वीपों की शक्ति एकत्र होकर एक स्वर में बोल रही है, वह भी देववाणी में। और यह सम्मिलित उच्चारण इतना शुद्ध, इतना साफ़ सुथरा, इतना सम्मोहक कि जिसे हम भारतवासी भूल चुके हैं। शायद विश्व के इन काले, गोरे, भूरे विविध वर्णों के लोगों के आस्थाभाव को देखकर हमारी प्रसुप्त श्रद्धा और विश्वास पुनः जागरित हो सकें।
रामायण, महाभारत, गीता, कुछ उपनिषद, आंशिक रूप से वेद, भागवत, अन्य अनेक धार्मिक ग्रथ, कुछ संतों की जीवनियां आदि पढ़ चूकने के बाद भी मैं अपने को भ्रमित अशांत और अतृप्त पाता आया था। किंतु सद्गुरूदेव के संपर्क में आने के बाद से मैं देखता हूं कि मुझ में, गहरे में कहीं सूक्ष्म परिवर्तन होता चला जा रहा है। बेकार के आध्यात्मिक तर्क वितर्कों में उलझा हुआ मन अब मानों अंतर्मुख होकर लक्ष्य की ओर खिंचा जा रहा है। हृदय में हौले हौले साक्षीभाव उत्पन्न होने लगा है। मन का असंतोष मिटा जा रहा है। संशय गिरे जा रहे हैं। संसार और संसार के लोगों को देखने का मेरा दृष्टिकोण बदलता जा रहा है। मेरी मनोवृत्तियों में बड़ा अंतर आ गया है। अब मुझे कोई व्यक्ति बहुत बुरा नहीं लगता, न किसी की कोई बात बहुत बुरी लगती है, न कोई दुर्घटना बहुत दुःख देती है। कर्मों में निष्कामता सहज ही उतरी जा रही है और मैं कुछ अलिप्त सा हुआ जा रहा हूं। होई हैं सोई जो राम रचि राखा। फि़र व्यर्थ की हाय हाय और चिंता क्यों ? मनोवृत्तियों का यह परिवर्तन मुझे तो विश्वस्त रूप से सद्गुरूदेव का चमत्कार ही लगता है।
किंतु सद्गुरूदेव का सबसे बड़ा चमत्कार तो यह है कि वे आपके अंतःकरण पर जमी हुई अज्ञान की धूल झाड़ पोंछकर आपको आपका अपना पता ठिकाना और जीवन का मर्म और उद्देश्य बता देते हैं। फि़र आपकी अपनी साधना पर निर्भर है कि आप अपने तक पहुंचकर अपना वास्तविक रूप देख लें। आपकी साधना में गुरूकृपा सदा साथ देगी।
– चन्द्रा किरण, राजनगर
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