शुभाशीर्वाद !
कोई भी सामान्य मनुष्य शिष्य इसलिये बनता है कि वह सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो सकें। और यहीं प्रार्थना शिष्य अपने गुरु या इष्ट से करता है। इसलिए वह गुरु को धारण करता है।
यह देह सद्गुरुदेव की दी हुई है, तन-मन ज्ञान रूपी धन सब सद्गुरुदेव का दिया हुआ है इसे अपने शिष्यों को पूर्ण समर्पित करना है जिससे प्रत्येक शिष्य सद्गुरुदेवमय बन सके। सद्गुरुदेव ने एक बार गंगोत्री में गौ मुख के पास ऊंची चोटी पर ले जाकर मुझसे कहा था कि इस जलते हुए संसार को देखो इनके आंसुओं को देखो तुम्हें संसार की पीड़ा को आंसुओं को खुशी और आनन्द में बदलना है। मैंने कहा कि मैं एक छोटी सी बूंद इस संसार की जलन को आग को कैसे बुझा सकता हूँ।
तब सद्गुरुदेव ने कहा कि यह आग बुझे ना बुझे परन्तु तुम्हें अपना अनवरत प्रयास जारी रखना है। अपने आप को संसार के लिए मिटा देना है। उन्हीं की आज्ञा को शिरोधार्य रखते हुए ऐसी ही क्रिया की कड़ी में आपके साथ चारों धामों में श्रेष्ठतम धाम बद्रीनाथ यात्रा को सम्पन्न कर सका। सही अर्थों में यह मेरे जीवन के अमूल्य और अविस्मरणीय क्षण थे जो सद्गुरुदेव के आशीर्वाद से और आपके सहयोग से यह यात्रा पूर्ण सफ़ल और साधनात्मक दृष्टि से उच्चतम सोपानोंयुक्त रही। मेरा तो हर प्रयास, हर क्रिया आपमें ही रचना पचना और आपको ही अपने भीतर समाहित करने का रहता है और यह क्रिया निरन्तर निरन्तर अविरल रूप से चलती रहेगी। अविरल इस यात्रा में ईर्ष्यावश अथवा अपनी अहम तुष्टी के लिए आलोचक विषय-वस्तु थोथी वर्जनाओं की वजह से कोई जबरदस्ती संकल्प दिला दे कसमें दिला दें। आपको बन्धनों में बांधने की कोशिश हेतु कसमें दिलायें। परन्तु आप इन संकल्पों और कसमों के प्रपंच में नहीं पड़ते क्योंकि हमेशा से ही सद्गुरुदेव का ध्येय अपने शिष्यों को मुक्त आकाश में विचरण के लिए ज्ञान रूपी पंख देना है, चेतना रूपी शक्ति देना है, इसलिए तो सद्गुरुदेव हमेशा कहते है कि ‘‘हंसा उडहूं गगन की ओर’’।
थोथी कसमों और संकल्पों से जीवन के सांसारिक बन्धनों से मुक्त नहीं हुआ जाता और न ही शिष्य कोई बैल या भेड़ है। कोई भी यदि शिष्यों को भेड़ों या बैलों की तरह हांकता है तो वह सच्चा मार्गदशर्क नहीं, सही गुरु की चेतना का भाव शिष्यों को हंस बनाने की क्रिया करना है। अनगढ़ और अन्धा गुरु ही अपने शिष्य को खण्ड-खण्ड में बांटता है और यह धारणा बनाने की क्रिया के फ़लस्वरूप चिकनी चुपडी बाते कहानियां, मजाक आदि करते रहते है। जहां गुरु भी अंधा और शिष्य भी अन्धा हो वहां क्या जीवन की स्थिति होती है। यह आप स्वयं समझ सकते है।
शिष्यत्व भाव ग्रहण करने का मंतव्य भी यही है कि सांसारिक वर्जनाओं को तोड़ने की क्रिया प्रारम्भ करें। न कि अनेक-अनेक वर्जनाओं को अपने ऊपर लादने के लिए। विचार आपकों करना है। चेतना और शक्ति सद्गुरुदेव की है आप कितना चेतना और शक्ति को आत्मसात कर सकते है। छोडो यह थोथे संकल्प और थोथी कसमें।
बद्रीनाथ धाम में साक्षी भूत रूप में अनेक-अनेक साधनाऐं और क्रियाऐं सम्पन्न की और सैकड़ों साधकों ने यह एहसास किया कि इस तरह की यात्रा और साधना का आयोजन कोई श्रेष्ठतम गुरु के सान्निध्य में ही में सब कुछ सम्भव है और विशेष रूप से सभी ने यह महसूस किया कि गुरुदेव जो कहते है वे क्रियाऐं अवश््य ही पूर्ण करते हैं। और सही अर्थों में मेरा उद्देश्य साधनाओं में गतिशीलता और पूर्णता प्रदान कराना है। उन्हें पूर्ण चेतना के साथ शिष्यों में आत्मसात किया जाये। मैं थोथी बातों में चीखने चिल्लाने, लाग-लपेट में निरर्थक, संकल्प, कसमों में अपने शिष्यों को नहीं उलझाता हूं। वरन शिष्यों के जीवन की अनेक-अनेक उलझनों को समाप्त करने की क्रिया और चेतना देता हूं।
बद्रीनाथ यात्रा के तीन सप्ताह के भीतर ही अमरकंटक में गुरु पूर्णिमा महोत्सव बहुत ही दिव्यतम और श्रेष्ठतम रूप में सम्पन्न हुआ। दिव्यता और श्रेष्ठता इस बात में रही कि इस बार की गुरु पूर्णिमा कैलाश सिद्धाश्रम द्वारा अपने शिष्यों के लिए नर्मदा उद्गम स्थल के पास आश्रम के लिए नियोजित भूमि पर सम्पन्न की गई। हजारो-हजारों साधकों ने आश्रम की पूर्णता के लिए सहज भाव से और आगे बढ़ कर सहयोग हेतु कार सेवा का निर्णय लिया। ऐसे साधक सही अर्थों में साधुवाद के पात्र है।
कैलाश सिद्धाश्रम दिल्ली में सैकड़ो-सैकड़ो शिष्यों के प्यार और निष्ठा के फ़लस्वरूप सात जुलाई को गुरुदेव और माताजी के सुखमय गृहस्थ जीवन के पर्व का जो आयोजन किया उससे विशेष रूप से दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू, हिमाचल और उत्तर प्रदेश के साधकों और शिष्यों ने आनन्द और हर्ष का अनुभव किया।
आपका अपना
कैलाश चन्द्र श्रीमाली
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