मनुष्य का मूल स्वभाव ही है शिशुवत रहना। प्यार से कोई उसको बेटा कह देता है, तो कितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो, मन एक बार पुलकित हो ही जाता है। इसके पीछे छुपी होती है, व्यक्ति के अन्दर वात्सल्य और प्रेम को पा लेने की और उसमें अपने आपको सुरक्षित कर लेने की भावना। मां के ममतामयी आंचल के तले शिशु अपने आपको निशि्ंचत महसूस करता है। उसको कोई कर्त्तव्य बोध तो होता नहीं है, तरह-तरह की शैतानियां कर के भी वह मां की गोद में दुबक कर एकदम से निशि्ंचत हो जाता है क्योंकि वह जानता है कि रक्षक के रूप में मां उसके साथ खड़ी है।
कुछ ऐसी ही स्थिति होती है साधक या शिष्य की भी। शिष्य उस विराट सत्ता, जिसे ईश्वर या गुरु कहा गया है को मातृ रूप में देखने का प्रयास करता है। गुरु तत्व का, ब्रह्म का तो कोई रूप होता ही है नहीं, जिसने जिस रूप में देखा उसे उसी प्रकार का अनुभव हुआ। साधक के अन्दर भी एक शिशु छुपा होता है, जिससे वह विराट सत्ता को मातृ रूप में देखने को आतुर होता है। विराट शक्ति को मातृ स्वरूप में देखा गया, तो जगदम्बा का स्वरूप समक्ष आया और महाविद्याओं का नाम आया। समस्त चराचर जिस गुरु तत्व से गतिमान है, उसी गुरु तत्व की शक्तियां ही तो है ये दस महाविद्याएं, जिन्हें काली, बगला, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, कमला, मांतगी आदि के नाम से जाना जाता है।
जीवन में गुरु के महत्व से मैं विशेष रूप से परिचित तो नहीं था, परन्तु उस परम शक्ति के अस्तित्व का मुझे एहसास अवश्य होता था। मैं उस ईश्वर को मां के स्वरूप में ही देखना पसन्द करता था। ऐसा लगता था जैसे इस संसार को बनाने वाली परम सत्ता मातृ रूप में हर पल मेरी रक्षा अदृश्य रूप से करती रहती है। यही कारण था कि देवी स्तुति और महाविद्याओं के क्षेत्र में मेरा रुझान भी था। जंगलों और वनों में भटकते-भटकते कई वर्ष बीत चुके थे, साधनाओं के क्षेत्र में एक स्तर भी प्राप्त किया था, परन्तु मैंने सुन रखा था कि साधनात्मक एवं आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम बिन्दु सिद्धाश्रम प्राप्ति है। परन्तु सिद्धाश्रम पहुंचना इतना सरल नहीं है, यह भी मुझे ज्ञात था। हिमालय में स्थित इस दिव्य पुनीत तपोस्थली से ही समस्त ब्रह्माण्ड की गतिविधियों का सूक्ष्म रूप से संचालन होता है। सिद्धाश्रम संस्पर्शित किसी योगी की कृपा हो जाए, तब सिद्धाश्रम प्रवेश की संभावनाएं बनती है और सिद्धाश्रम प्रवेश के लिए कई महाविद्या साधनाएं तो सिद्ध होनी ही चाहिए।
तभी से मैं इस धुन में था कि किन्हीं ऐसे महात्मा के दर्शन हो, जो महाविद्याओं के क्षेत्र में सिद्धहस्त हों। संन्यास जीवन के बहाव में मैं काशी भी पहुंचा और गंगा के उस पार तट पर भी कुछ दिन रहा। वहां मेरी मुलाकात एक सौम्य साधु से हुई, जो कि शरीर से बिल्कुल दुबले-पतले थे, परन्तु जिनके चहरे पर एक अपूर्व तेज चमक रहा था। तट के समीप अन्य कुटियां भी थीं जिनमें कुछ संन्यासी, तपस्वी रहते थे। परन्तु इस साधु से मैं भी कुछ अधिक आकर्षित सा हो रहा था, जो दिन भर कुटिया के अन्दर ही रहते थे। केवल प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में गंगा स्नान के लिए ही बाहर आते थे। क्या खाते थे और क्या पीते थे कुछ पता नहीं था, क्योंकि कुटिया तो अन्दर से एकदम खाली ही थी। एक दिन मैं बहुत हिम्मत जुटा कर कुटिया के भीतर पहुंचा, तो वे पप्रासन में समाधिस्थ थे, उनके चेहरे पर असीम शांति झलक रही थी, पिछले कई दिनों से मैं उन पर नजर रखे था, किन्तु फिर भी मुझे उनका नाम ज्ञात न हो सका था। दो घण्टे तक मैं वहीं उनके पास ही बैठा रहा।
आंख खोलते ही उन्होंने मेरी ओर दृष्टि की और बोले ‘आओ बेटा मैं तो तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था’। वे इस तरह बोल रहे थे जैसे मुझसे चिर-परिचित हो जबकि मैं उनसे पहली बार मिल रहा था। बेटा शब्द उन्होंने कहा था और यह सुनकर मैं यंत्रवत सा उठकर उनके चरणों की ओर झुक गया। उन्होंने कहा-‘पगले तू तो मेरा भाई है, शायद तुझे ज्ञात नहीं—’ और फिर उन्होंने बताया, कि पूर्व जन्म में हम दोनों एक ही गुरु के शिष्य रहे हैं और काफी समय तक साथ रहे हैं। एक सुखद रहस्य का भाव प्रकट हो रहा था मेरे सामने, मन में एक सुखद अनुभूति हो रही थी, कि मेरे भी कोई गुरु हैं—-अभी तक तो मैं यों ही भटकता फिर रहा था, कोई पथ स्पष्ट नहीं था। आज ‘पूर्व जन्म के गुरु’ ये शब्द कान में जाते ही मन हिलोरें लेने लगा था और मैं एक अजीब खुमारी में डूब गया।
कुछ दिन और उन साधु महाराज के साथ रहा, जिनका नाम चैतन्यानन्द था और वे काली के उपासक थे। उन्होंने काली तंत्र के क्षेत्र में अनेक आयाम स्थापित किए थे। यह मेरे लिए बड़े हर्ष की बात थी क्योंकि महाविद्या साधनाएं सिद्ध करने के लिए मैं कब से प्रयासरत था, परन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में अभी कुछ ठोस हासिल नहीं कर पाया था। चैतन्यानन्द जी ने बड़ी आत्मीयता से काली से सम्बन्धित गोपनीय रहस्य स्पष्ट किए और बताया कि किस तरह वह मातृरूप में हर पल उनकी रक्षा करती रहती हैं।
कुछ दिन उनके साथ और रहकर मैं गढ़वाल क्षेत्र के वनप्रान्तरों में चला गया। वहां के सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों के मध्य मैं उसी प्रकार शांत हो गया जैसे शिशु अपनी माता के पास पहुंचकर शांत हो जाता है। पहाड़ी वृक्षों के घने झुरमुटों को पार करने पर आगे एक जलाशय था, जिसके पास एक प्राचीन मन्दिर था। मन्दिर के पत्थर बरसाती पानी और मौसम के प्रतिकूल प्रभाव के कारण काले पड़ गए थे। मन्दिर में काले पत्थर की एक तीन फुट की मूर्ति के अलावा और कुछ भी नहीं था। मूर्ति पर इतनी अधिक धूल जमी हुई थी, जिससे पहिचाना मुश्किल हो रहा था, कि मूर्ति किसकी है। गर्द को साफ करने के बाद मैंने गौर किया, तो मूर्ति काली की थी। एक हाथ में मुण्ड और दूसरे हाथ में खप्पर-शव पर आरुढ़ भगवती काली ही थी वे। एकदम से मुझे कुछ दिन पूर्व श्री चैतन्यानन्द जी के साथ बिताए क्षणों का स्मरण हो आया और मैंने काली साधना करने का मानस बना लिया।
दो माह से ऊपर हो गया था और इन दो महीनों में चार बार असफलता मुझे प्राप्त हो चुकी थी और इस बार मैंने सोच लिया था कि या तो साधना सफल होगी और नहीं तो अब में यहां से प्रस्थान कर जाऊंगा। आज साधना का अन्तिम दिवस था और मैं हताश था, मन में कभी चैतन्यानन्द जी के प्रति आक्रोश आ रहा था, कि पता नहीं उनकी विधि प्रामाणिक है भी या नहीं और कभी स्वयं पर क्रोध आ रहा था, कि किस धुन में मैंने इस उपक्रम को आरम्भ करने का निश्चय किया था। अन्तिम आहुति तक भी मन में कुछ आशा थी, कि शायद कुछ घटित हो जाए लेकिन इस बार भी पहले जैसा ही हुआ। निराश होकर मैं मन्दिर के बाहर चला गया और तारों को निहारता रहा।
मनो-मस्तिष्क में चैतन्यानन्द जी के कहे वाक्य भी कौंध रहे थे, कि ‘तुम्हारे गुरु’ और यदि वे गुरु हैं, और जन्म-जन्म के गुरु हैं, तो क्यों नहीं सम्मुख आ रहे हैं और मार्गदर्शन कर रहे हैं। मैं मन ही मन बड़-बड़ा रहा था। जिस प्रकार भूख लगने पर बालक शोर मचाता है और मां कभी कभी मजा लेने के लिए उसकी ओर ध्यान नहीं देती तो बालक क्रोधित हो जाता है, उसी प्रकार मुझे भी क्रोध आ रहा था। मुझे क्रोध न तो चैतन्यानन्द जी पर आ रहा था और न ही देवी काली पर बल्कि मुझे क्रोध आ रहा था अपने पूर्व जन्म के गुरु पर— जो मुझे निर्देश नहीं दे रहे थे।
रात्रि के उस गहन पहर में जहां चारों ओर निःस्तब्धता छाई थी, हवा बिल्कुल रूकी हुई थी, शान्ति इतनी अधिक थी, कि दूर से झिंगुरों की आवाज भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। परन्तु मेरे अन्तसः में जो तुफान मचा हुआ था, उससे मैं बिल्कुल उद्वेलित हो गया था। क्रोध और खीझ के मिले-जुले आवेश में आकर मैं उस काली की मूर्ति को जलाशय में फेंक देने को उद्वत हुआ। मूर्ति जैसे ही जल में गिरी, एक तीव्र प्रकाश सा हुआ, जैसे सैकड़ों बम एक साथ फट पड़े हों। उस प्रकाश में से एक नारी बिम्ब बाहर निकली, हूबहू वही काली की उस मूर्ति का साकार रूप था, हाथ में खप्पर व मुण्ड, गले में मुण्ड माला धारण किए माता काली सौम्य मुखमुद्रा में मेरे सामने करीब पचास फुट की दूरी पर जलाशय के मध्य, जल सतह से कुछ ऊपर हवा में स्थिर थी।
विस्फोटों की श्रृंखला चलती रही और क्रमशः एक के बाद एक दसों देवियां सम्मुख उपस्थित होती गयी, उन सभी के वरद हस्त आशीर्वाद मुद्रा में उठे हुए थे। यह अलौकिक दृश्य देखकर विस्मय से मेरी आंखे फटी जा रही थी। पिछले दो माह से मैं ध्यान लगाकर कोई बिम्ब सामने लाने की कोशिश कर रहा था, परन्तु ध्यान में स्थिरता नहीं आ पाती थी और आज संयोग था, कि जब मैं खीझ कर मूर्ति को जल में फेंक चुका था, तब वह अलौकिक दृश्य मेरे सामने उपस्थित हो गया। कहां एक महाकाली की साधना के लिए मैं उद्वत हुआ था और कहां दसों महाविद्याएं मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दे रही थीं। गुरुदेव पर आया क्रोध (शिशुवत) अब उनके प्रति प्रेम और समर्पण में परिवर्तित हो चुका था। अश्रु मेरे नेत्रों से धारा प्रवाह बह निकले, अब मन में बस यही इच्छा शेष रह गई थी, कि मेरे गुरुदेव कैसे होंगे, कैसा होगा उनका स्वरूप और बस रूदन ही करता रहा मैं, एक शिशु की भांति।
जलाशय में पुनः एक विस्फोट हुआ, जिससे मेरा ध्यान उधर गया, अन्यथा मैं तो गुरुदेव के ख्यालों में महाविद्याओं को एकदम भूल ही गया था। एक-एक कर दसों देवियां उस प्रकाश पुंज में ही विलीन हो गयीं। तब पुंज एक पुरूषाकृति में परिवर्तित हो गया- दिप-दिप करते नेत्र, उन्नत, ललाट, विशाल अनावृत्त वक्षस्थल, सुदृढ़ बाहु, सिर पर घनी जटाएं और ऊंचा गौर वर्णीय शरीर मानो पुरूषत्व का अन्तिम स्वरूप धारण कर कोई योगी इस जलाशय की सतह पर उतर आया हो। उन्हें देख कर मेरे अन्दर एक विद्युत तरंग सी दौड़ गई। मुझे जैसे अन्दर से कोई कह रहा हो, कि यही तेरे गुरु हैं, जन्म-जन्म से गुरुदेव, सिद्धाश्रम के प्राणाधार परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी, जिनके दर्शन को देवता भी तरसते हैं। शायद मेरे मन की बात को वे समझ चुके थे और मुस्कुराते हुए जलराशि पर सामान्य रूप से चलते हुए किनारे पर आ गए। बिना एक क्षण गंवाए मैंने साष्टांग मुद्रा में उन्हें प्रणाम किया और लिपट कर उनके चरणों में फफक कर रोने लगा।
अभी तक न उन्होंने मुझसे कुछ कहा था और न मैंने कहा था, ऐसा लग रहा था जैसे जन्मों-जन्मों से जो मेरे गुरु रहे हैं, आज मुझे मिल गए हैं और अब मैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहता था। तभी पूज्य गुरुदेव की हथेली का मुझे पीठ पर स्पर्श हुआ, वे बड़े प्यार से मेरी पीठ सहलाते रहे। उनका वात्सल्य भाव पूरी तरह मेरे ऊपर बरस रहा था। पुचकारते हुए उन्होंने मुझे उठाया और कहा, पगले! क्यों इतना विचलित हो रहा है, तुझे महाविद्या सिद्ध करनी थी न, बोल अब तो प्रसन्न है न?
प्रारम्भ में मैं जिस ईश्वरीय सत्ता को मातृ रूप में स्मरण करता था, अप्रत्यक्ष रूप में निकट अनुभव करता था, उन्हीं का स्नेहित स्पर्श आज पूज्यपाद गुरुदेव के रूप में मुझे प्राप्त हो रहा था। मैं समझ चुका था, कि समस्त महाविद्याएं इन्हीं में समाहित हैं और ये दृश्य तो कुछ क्षणों पूर्व मैं देख चुका था, कि कैसे एक-एक कर दसों देवियां गुरुदेव के भव्य शरीर में अदृश्य हो गई। मेरे नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित होती ही जा रही थी। गुरुदेव ने संयत होकर पप्रासन में बैठने का आदेश दिया, नेत्रों को अर्द्ध निमीलित कर मैं बैठ गया, दो क्षण उपरान्त पूज्य गुरुदेव के अंगुष्ठ का स्पर्श मुझे मस्तक पर अनुभव हुआ। शरीर मुझे एकदम हल्का सा लगने लगा और मैं बिल्कुल ध्यानस्थ हो गया।
जब मेरी समाधि टूटी तो सूर्य नारायण उदित होने जा रहे थे। मैं पुलकित हो रहा था, रात्रि की बीती घटनाओं को स्मरण कर। समस्त महाविद्याओं के पूंजीभूत परमहंस निखिलेश्वरानन्द जी को गुरुदेव रूप में प्राप्त कर मैं धन्य-धन्य हो गया था।
।। ब्रह्माण्ड स्वरूपोऽयं निखिलः निखिलेश्वरः।।
।। तेनैव समनुप्रीताः दशविद्या सुकीर्तिता।।
इस साधना को महाविद्या सिद्धि दिवस और चैत्रीय दसामाता दिवस 26 मार्च को या किसी भी बुधवार को रात्रि के समय प्रारम्भ किया जा सकता है। यह रात्रि के समय ही सम्पन्न की जाने वाली साधना है। यदि रात्रि में इसे सम्पन्न न करें, तो ब्रह्म मुहूर्त में सूर्योदय के पूर्व भी सम्पन्न किया जा सकता है।
पूर्व की ओर मुख कर बैठें। सामने चौकी पर गुरु चित्र स्थापित करें, अगरबत्ती, धूप-दीप जलाकर अपनी दाई ओर रखें। साधना हेतु ‘विजय सिद्धि माला’, ‘दस महाविद्या यंत्र’ एवं ‘गुरु सहगामी गुटिका’ आवश्यक है। गुरु चित्र का पूजन करें।
दोनों हाथ जोड़कर पूज्य गुरुदेव का ध्यान करें।
प्रात र्भजामि तं मंगल सर्व मंगलं,
सृष्टि स्थितौ परम कारण मूल रूपं।
संसार बन्धन विमोचन हेतु भूतं,
श्री मद्गुरुं च निखिलेश्वर देवदेवम्।।
न्यास
निम्न मंत्र पढ़ते हुए दाहिने हाथ से अंगों का स्पर्श करें।
ऊँ अं आं कं खं गं घं डं इं ईं हृदय नमः
ऊँ परम उु ऊं चं छं जं झं त्रं ऋं शिरसे स्वाहा।
ऊँ तत्वाय टं ठं डं णं लृं लृं शिखायै वषट्
ऊँ नारायणाय एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुम्
ऊँ गुरुभ्यो आं पं फं बं भं मं ओं नेत्र नत्राय वौषट्
ऊँ नमः अं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं अः अस्त्राय फट्
पूजन
श्रीमद् गुरुं निखिलेश्वरम् आवाहयामि पूजयामि नमः।
पुष्पासनं दद्यात् पाद्यं, अर्घ्यं, स्नानं समर्पयामि नमः।
तिलकं समर्पयामि नमः धूपं, दीपं, नैवेद्य, च समर्पयामि नमः
सर्वप्रथम गुरु आवाहन करें। गुरु चित्र के नीचे पुष्प आसन दें, जल अर्पण करें तथा अगरबत्ती दीपक स्थापित कर नैवेद्य अर्पित करें।
फिर एक माला गुरु मंत्र का जप सम्पन्न करें। तत्पश्चात गुरु चित्र के सामने किसी प्लेट पर ‘दस महाविद्या यंत्र’ को जो कि दिव्य मंत्रों से प्राण प्रतिष्ठित हो स्थापित करें।
निम्न मंत्र बोलते हुए सभी दिशाओं में अक्षत फेंकें-
ऊँ गुरुभ्यो महाकाली मां पूर्वतो पातु
ऊँ गुरुभ्यो भगवती तारा आग्नेये मां पातु।
ऊँ गुरुभ्यो षोडशी दक्षिणे मां पातु।
ऊँ गुरुभ्यो भैरवी नैऋत्ये मां पातु।
ऊँ गुरुभ्यो भुवनेश्वरी पश्चिमे मां पातु।
ऊँ गुरुभ्यो छिन्नमस्ता वायव्ये मां पातु।
ऊँ गुरुभ्यो मांतगी उतरे मां पातु।
ऊँ गुरुभ्यो धूमावती ऐशान्ये मां पातु।
ऊँ गुरुभ्यो बगलामुखी ऊर्ध्वे मां पातु।
ऊँ गुरुभ्यो कमलात्मिका भूमौ मां पातु।
फिर यंत्र को शुद्ध जल से स्नान करावें, तिलक, अक्षत, धूप, दीप, पुष्प से पूजन करें, फिर अक्षत को कुंकुंम में मिलाकर निम्न मंत्र को बोलते हुए यंत्र पर चढ़ावें।
ऊँ महाकाल्यै नमः महाकालीं स्थापयामि नमः
ऊँ तरायै नमः तारां स्थापयामि नमः
ऊँ षोडश्यै नमः षोडशीं स्थापयामि नमः
ऊँ त्रिपुर भैरवै नमः भैरवीं स्थापयामि नमः
ऊँ भुवनेश्वर्यै नमः भुवनेश्वरीं स्थापयामि नमः
ऊँ छिन्नशिरायै नमः- छिन्नमस्तकां स्थापयामि नमः
ऊँ मातंग्यै नमः मांतगीं स्थापयामि नमः
ऊँ धूमावत्यै नमः धूमावतीं स्थापयामि नमः
ऊँ बगलायै नमः बगलां स्थापयामि नमः
ऊँ कमलायै नमः स्थापयामि नमः
अब गुरु गुटिका को यंत्र के बायीं ओर चावल की ढेरी बनाकर स्थापित करें। फिर पंचोपचार पूजन करें। अब दोनों हाथ में पुष्प लेकर यंत्र पर निम्न मंत्र बोलकर चढ़ावें।
माया कुण्डलिनी क्रिया मधुमती काली कलामालिनी,
मातंगी विजया जया भगवती देवी शिवा शाम्भवी।
शक्तिः शंकरवल्लभा त्रिनयना वाग्वादिनी भैरवी,
हींकारी त्रिपुरा परात्परमयी माता कुमारीत्यसि।।
फिर ‘विजय सिद्धि माला’ से निम्न मंत्र का 7
माला जप नित्य 11 दिन तक सम्पन्न करें।
11 दिन बाद यंत्र को जल में प्रवाहित कर दें, गुटिका को लाल कपड़े में बांध कर पूजा स्थान में रखें तथा माला को धारण कर लें। चालीस दिन बाद गुटिका व माला को भी जल में विसर्जित कर दें। चालीस दिन की अवधि में नित्य मात्र एक बार इस साधना के मंत्र का उच्चारण कर लिया करें।
इस साधना को सम्पन्न करते समय कई प्रकार के बिम्ब नेत्रों के समक्ष दिखाई देते हैं, इस स्थिति में विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। गुरु सायुज्य महाविद्या साधना मातृ स्वरूपा साधना है और जिस प्रकार मां अपने बालक का हर प्रकार से ध्यान रखती है, उसी प्रकार उस साधना में गुरु अपने शिष्य का हर प्रकार से ध्यान रखते हैं।
नव वर्ष सवत् 2071 के प्रारम्भ से पूर्व ही दस महाविद्याओं रूपी शक्तियों को आत्मसात करने से भुवनेश्वरी तारा, कमला सौम्य रूप में और धूमावती, बगलामुखी, छिन्नमस्ता उग्र स्वरूप में हम धारण करते है उससे जीवन में निर्मलता, शुचिता, सरलता तथा पूर्णता के साथ ही देह के भीतर अग्नि तत्व का भाव जाग्रत रहे जिससे जीवन निर्बाथ गति से विस्तरित हो सके। इस हेतु पांच पत्रिका सदस्य बनाने पर दस महाविद्या शक्तिपात दीक्षा आप फ़ोटो के माध्यम से आत्मसात कर सकेंगे और साधना सामग्री उपहार स्वरूप प्रदान की जायेगी है। जिससे आने वाला नूतन वर्ष पूर्ण फ़लदायी और श्रेष्ठमय बनने की ओर अग्रसर हो सके।
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