क्या मृत्यु से परे भी कोई चीज है? क्या मृत्यु असम्भव है? क्या मृत्यु को हम टाल सकते हैं? और क्या कोई युक्ति या साधना या कोई स्थिति या कोई तरकीब है जिससे हम ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’, उस उपनिषद् की इस पंक्ति को सही कर सकें, चरितार्थ कर सकें। उपनिषद में तो दो टूक शब्दों में इस पंक्ति को स्पष्ट किया गया है। ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’। मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिये कि मृत्यु से अमृत्यु की ओर अग्रसर हो। उसका लक्ष्य, उसका रास्ता, उसका पथ अमृत्यु की ओर हो। इसका मतलब यह है कि उपनिषद् भी इस बात को स्वीकार करता है कि मृत्यु तो असम्भव है ही। तभी उसमें कहा है कि मृत्यु से अमृत्यु की ओर तुम्हें अग्रसरित होना है। क्योंकि यह मृत्यु तुम्हारे जीवन का हिस्सा है, पार्ट है। तुम चाहों या नही चाहों इस मृत्यु का तुम्हें एक न एक बार साथ तो देना ही होगा। परन्तु यदि ऋषि ने उपनिषद्कार ने इस पंक्ति के आधे हिस्से में मृत्यु शब्द का प्रयोग किया है, तो आधे हिस्से मे इस बात का भी प्रयोग किया है कि कोई ऐसी स्थिति तो जरूर है जिससे हम अमृत्यु की ओर अग्रसर हो सके।
कोई ऐसी स्थिति आ सकती है जहां हम अमृत्यु की ओर बढ़ सकें, हमारी मृत्यु न हो, हम पूर्ण रूप से अमर हो सकें, जीवित रह सकें, लम्बे वर्षो तक जीवन जी सकें, स्वस्थ रह सकें। दोनों ही स्थितियां हमारे सामने एक पेचीदा प्रश्न लिये खड़ी रहती हैं और मृत्यु के लिये, भारतीय दर्शन, योग, मीमांसा, शास्त्र, वेद, पुराण इन सभी में मंथन, चिन्तन किया गया है। वैज्ञानिको ने भी अपने तरीके से इस पर चिन्तन और विचार किया है। मनुष्य वृद्ध क्यों होता है? मनुष्य मृत्यु को प्राप्त क्यों होता है? ऐसी क्या चीज है मनुष्य के शरीर में जिसके बने रहने से वो जीवित रहता है और जिसके चले जाने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है? क्योंकि मृत्यु और अमृत्यु के बीच में शरीर के अन्दर गुणात्मक अन्तर तो नही आता, एक सेकण्ड पहले जो जीवित था, उसके हाथ-पांव, आंख, कान-नाक सही सलामत थे और उसके एक सेकण्ड के बाद मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और उसमें भी उसके हाथ-पांव, आंख, नाक-कान सही सलामत होते हैं। प्रश्न उठता है कि लोग ये बात कहते हैं कि हृदय का धड़कना बंद हो जाता है। परन्तु ऐसे कई योगी हैं जो कई-कई घंटो तक हृदय की धड़कन को रोक देते हैं और चार-छः घंटे हृदय की धड़कन होती ही नहीं तो क्या मृत्यु को प्राप्त हो गये? इसलिये यह परिभाषा तो मान्य नहीं हो सकती कि हृदय की धड़कन बंद होने से आदमी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। हृदय की धड़कन तो कई कारणों से बंद हो सकती है। जो हमारे यंत्रों के माध्यम से सुनाई नहीं दे सकती। प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न यह है कि मृत्यु यदि हो जाती है तब तो वापिस पुनः जन्म स्वभाविक है। हमारे शास्त्र इस बारे में दो टूक शब्दों में कहते हैं कि जो पैदा होता है उसकी मृत्यु होती ही है। चाहे वह पशु-पक्षी हो, चाहे वह कीट-पतंग हो, चाहे मनुष्य हो, चाहे वनस्पति हो, पेड़-पौधे हों। जो उत्पन्न होगा, वह युवा भी होगा, वृद्ध भी होगा, मृत्यु को प्राप्त भी होगा। क्योंकि मृत्यु के भुक्ति पर ही, मृत्यु के नींव पर ही, वापिस नये जीव का जन्म होता है।
यदि मृत्यु हो ही नही तो यह देश, यह समाज, यह राष्ट्र अपने आप में कितना दुःखी, परेशान हो जायेगा, संतप्त हो जायेगा, इसकी कल्पना की जा सकती है कि हजारों-हजारों, करोड़ो-करोड़ो वृद्ध घूमते नजर आयेंगे, बीमार नजर आयेंगे, सिसकते, हुए, दुःखी, परेशान, पीडि़त नजर आयेंगे, कफ, खांसी, थूक, से संतप्त नजर आयेंगे और नई पीढ़ी को खड़ा होने के लिये पृथ्वी पर कहीं जमीन नजर नहीं आयेगी। कहां खड़े होंगे? क्या करेंगे? किस प्रकार की स्थिति बनेगी? अगर सारे व्यक्ति ही जीवित रहेंगे तब तो यह राष्ट्र, यह पूरा देश और पूरा विश्व अपने आप में असक्त वृद्ध, कमजोर और दुर्बल सा दिखाई देने लग जायेगा। उसमें कोई नवीनता नहीं होगी। कुछ हलचल नहीं होगी, कुछ तूफान नहीं होगा, कोई जोश नहीं होगा, नव जवानी नहीं होगी, यौवन नहीं होगा यह सब कुछ होगा ही नहीं क्योंकि उन जवानों को पैदा होने के लिये जगह की कमी पड़ जायेगी। कहां से इतनी वनस्पति आयेगी? कहां से इतना खाद्य पदार्थ आयेगा? कहां से उनको जीवित रखने की क्रिया सम्पन्न हो पायेगी? कहां से उनको धूप-पानी भोजन की व्यवस्था हो पायेगी? इसलिए मृत्यु की दीवार पर एक अमृत्यु का पौधा रोपा जा सकता है। मृत्यु की भुक्ति पर जन्म का एक सवेरा होता है, यह प्रश्न अलग है कि क्या मृत्यु के बाद भी हमारा तत्व रहता है कि नहीं। यह मृत्यु के परे क्या चीज है? यह विषय एक अलग विषय है। क्योंकि यदि मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है। दोनों स्थितियों में हम लाचार हैं, बेबस हैं। हम किस समय मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे यह हमारे हाथ में नहीं है। हमारे पास ऐसी कोई साधना सिद्धि या विज्ञान नहीं हैं, जिसके माध्यम से हम दो टूक शब्दों में कह सकेंगे कि हम इतने दिन तक जीवित रहेंगें ही। मृत्यु हमें स्पर्श नहीं कर सकेगी, हां यह अलग बात है कि कुछ विशिष्ट साधनाएं ऐसी हैं जिसके माध्यम से इच्छामृत्यु प्राप्त की सकती है। चाहे जितने समय तक जीवित रहा जा सकता है। परन्तु वह एक रेयर है वह तो एक विशिष्टता है इसलिए मैंने कहा कि मृत्यु पर हमारा बस नहीं है। मृत्यु पर हमारा नियन्त्रण नहीं है और इस मृत्यु पर वशिष्ठ, अत्रि, कणाद, विश्वामित्र, राम और कृष्ण का भी कोई अधिकार नहीं रहा है। उनको भी मृत्यु को वरण करना ही पड़ा, मगर मृत्यु के बाद भी उस प्राणी का अस्तित्व इस भूमडण्ल पर और पितृ लोक में बना रहता है। एक विरल रूप में, एक सांकेतिक रूप में, एक सूक्ष्म रूप में मण्डल और वह प्राणी निरन्तर इस बात के लिये प्रयत्नशील रहता है जिसकी मृत्यु हो चुकी है और जिसका केवल प्राण ही इस वायुमण्डल में व्याप्त है। जिसका प्राण ही सूक्ष्म शरीर धारण किये हुए है, यत्र-तत्र विचरण करता रहता है। इस बात के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है कि वापिस वह कैसा जन्म ले।
जन्म लेने के लिए बहुत धक्का-मुक्की है, बहुत जोश-खरोश है क्योंकि करोड़ों-करोड़ों प्राणी इस वायुमण्डल में विचरण करते रहते हैं और जन्म लेने की स्थिति बहुत कम है। कुछ ही गर्भ स्पष्ट होते हैं, जहां जन्म लिया जा सकता है। उन करोड़ो व्यक्तियों में, उन करोड़ों प्राणियों में आपस में रेलम-पेल होती रहती है, धक्का-मुक्की होती रहती है, एक-दूसरे को ठेलते रहते हैं। क्योंकि प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक जीवात्मा इस बात के लिये प्रयत्न करता रहता है कि यह जो गर्भ खुला हुआ है, इस गर्भ में मैं जन्म ले लूं, इसमें प्रवेश कर लूं और इस धक्का-मुक्की में और इस जोर-जबरदस्ती में दुष्ट आत्माएं ज्यादा सुविधाएं प्राप्त कर लेती हैं। ये ज्यादा पहले जन्म ले लेती हैं। जो चैतन्य हैं, सरल हैं, जो निष्प्राण है, जो कपट रहित हैं, जो धक्का-मुक्की से परे हैं वे सब पीछे खड़े रहते हैं। वे इस प्रकार से गुंडा गर्दी नहीं कर सकते, धक्का-मुक्की नही कर सकते। इस प्रकार से जबरदस्ती करके किसी गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकते। वे तो इंतजार करते रहते हैं इसलिए इस पृथ्वी पर दुष्ट और पापी व्यक्तियों का जन्म ज्यादा होने लगा है। क्योंकि उन सरल और निष्प्राण ऋषि तुल्य योगियों, विचारकों और विद्वानों, कपट रहित प्राणियों का जन्म होना कठिन सा होने लगा है।
तो मैंने कहा कि यह हमारे बस में नहीं है, मृत्यु हमारे बस मे नही है और जन्म भी हमारे बस में नहीं है परन्तु जो उच्चकोटि की साधनाएं सम्पन्न करते हैं, जो ‘मृर्त्योमा अमृतं गमय’ साधना को सम्पन्न कर लेते हैं उनके हाथ में होता है कि वह किस क्षण मृत्यु को प्राप्त हों, कहां मृत्यु को प्राप्त हों, किस स्थिति में मृत्यु को वरण करें। क्योंकि मृत्यु तो जीवन का श्रृंगार है। मृत्यु किसी प्रकार से भय नहीं, मृत्यु किसी प्रकार से कष्ट दायक नही है। मृत्यु तो एक प्रकार से निद्रा है जिस प्रकार से रोज रात को हम सोते हैं और नींद के आगोश में होते हैं, उस समय हमें कोई होश नहीं होता है, कोई ज्ञान नहीं होता है, कोई चेतना नहीं रहती है, हम कहां है? किस प्रकार से हैं? हमारे कपड़ों का हमें ध्यान नहीं रहता, हम नंगे है या सही है इसका भी हमें ध्यान नहीं रहता, और यदि हम नींद में होते हैं और कोई दुष्ट व्यक्ति चाकू लेकर हमारे सिहारने खड़ा हो जाता है और वह हमें चाकू घोप देता है तब भी हमें होश नहीं रहता ज्ञान नहीं रहता कि कोई हमें मारने के लिये उदित हुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि हम नित्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
निद्रा अपने आप में मृत्यु है और नित्य वापिस सुबह जन्म लेते हैं, नित्य रात्रि मृत्यु को प्राप्त करते हैं। मृत्यु का मतलब है अपने आप में भूल जाने की क्रिया, अपने प्राणों को भूल जाने की क्रिया, अपनी चैतन्यता को भूल जाने की क्रिया कुछ घण्टों की होती है, जिसको हम नींद कहते हैं और वह भूल जाने की क्रिया काफी लम्बे अरसे तक की होती है। इसलिये उसे मृत्यु कहते हैं। इस निद्रा में और मृत्यु में कोइ विशेष अन्तर नहीं है और इसीलिये मार्कण्डेय पुराण मे स्पष्ट कहा गया है।
क्योंकि निद्रा भी अपने आप में मृत्यु का पूर्वाभ्यास है, मैंने जैसे बताया कि कुछ विशिष्ट साधनाएं है। जिसके माध्यम से हम इस मृत्यु पर नियन्त्रण प्राप्त कर सकते हैं। विजय प्राप्त करना एक अलग चीज है, नियन्त्रण प्राप्त करने का मतलब है कि जहां चाहें, जिस उम्र में चाहें मृत्यु को वरण करें। यदि हम चाहें सौ साल की आयु प्राप्त करें तो निश्चित ही सौ साल की आयु प्राप्त कर सकते हैं। 120 साल, 200 साल, 500 साल, 1000 साल तक हम जीवित रह सकते हैं। इस तरह पूर्ण आयु भी प्राप्त कर सकते हैं। यह हमारे हाथ में है। यदि हम चाहें तो उन साधनाओं के माध्यम से जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर कर सकते हैं और जिस प्रकार से मृत्यु, हमारी साधनाओं के माध्यम से हमारे हाथ में रहती है, हमारी इच्छाओं पर निर्भर रहती है। ठीक उसी प्रकार से मृत्यु के बाद भी हमारे पास हमारा अस्तित्व, हमारी चैतन्यता बनी रहती है कि हम इस ब्रह्माण्ड में कहां हैं, प्राणियों के किस लोक में हैं, भू-लोक में है, पितृ लोक में है, राक्षस लोक में है, गंधर्व लोक में हैं किस लोक में हैं? और इन सारे लोकों में हम एक सूक्ष्म अंगूठे के आकार के प्राणी के रूप में बने रहते है।
इसलिये प्राणियों को अंगुष्ठरूपा कहा गया है। यानि यह पूरा शरीर एक अंगूठे के आकार का बन जाता है और ऐसे अंगूठे के आकार के प्राणी एवं जीवात्माएं करोड़ों-करोड़ों इस आभा मण्डल में विचरण करती रहती हैं। जहां हमारी दृष्टि नहीं जाती और यदि हम इस मृत्यु लोक से थोड़ा सा ऊपर उठ कर देखें तो करोड़ों आत्माएं जो मृत्यु को प्राप्त हो चुकी हैं बराबर भटकती रहती हैं और उन सब का एकमात्र लक्ष्य यही होता है कि वह वापिस जन्म लें। मगर जन्म लेना तो उनके हाथ में है ही नहीं। जैसा कि मैंने बताया कि वहां पर भी उतनी ही जोर-जबरदस्ती है, कोई ऐसा संकेत नहीं है, कोई ऐसी एक नियन्त्रण रेखा नहीं है, कोई ऐसा सिस्टम नहीं है कि एक के बाद एक जन्म लेता रहें, ऐसा कोई सम्भव नहीं है। जिसको जो स्थिति बनती है वो वैसे जन्म ले लेता है। ठीक उसी प्रकार से कि जहां बलवान होते हैं वे किसी भी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं और जो बेचारा जमीन का मालिक होता है वो टुकुर-टुकुर ताकता रहता है। ठीक उसी प्रकार से जो दुष्ट ताकतवर आत्माएं होती हैं वे ठेलम-ठेल करके, धक्का-मुक्की करके, जो गर्भ खुलता है उसमें प्रवेश कर लेती हैं और जन्म ले लेती हैं और जो देवआत्मायें होती हैं, सीधे-सरल ऋषि तुल्य व्यक्तित्व होते हैं वह चुपचाप खड़े रहते हैं, 2 साल, 5 साल, 20 साल उनका जन्म होना जरा कठिन होने लगा है। इसलिये इस पृथ्वी पर दुष्ट आत्माएं ज्यादा जन्म लेने लगी है व पृथ्वी पर अधर्म ज्यादा फैला हुआ है। ये इसलिये हो रहा है क्योंकि इस पृथ्वी पर दुष्ट और पापी आत्माएं ज्यादा प्रमाण में जन्म ले रही हैं। उनका जन्म ज्यादा होने लगा है।
क्या हम इस स्थिति को अपने-आप से टाल सकते हैं। यह तो अपने आप में पेचीदा और बहुत दुःखदायी स्थिति है कि हमने अपने जीवन को इतने सरल स्तर पर व्यतीत किया और इस पूरे जीवन को व्यतीत करने के बाद भी हमें कई वर्षो तक इस आत्मा में भटकना पड़ता है और वापिस जन्म नहीं ले पाते। जबकि हम चाहते हैं कि हमारा जन्म हो और जन्म लेने के बाद फिर हम सांसारिक भौतिक सुखों का भोग करें ईश्वर चिन्तन करें, जन्म लेने के बाद फिर हम साधनाएं करें, फिर हम आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करें, फिर हम गुरू चरणों में बैठें, हम फिर इस मृत्यु लोक के प्राणियों की सेवा करें, उनको सहयोग करें, उनकी सहायता करें। मगर यह तब हो सकता है जब आप जन्म लें। यदि हम जन्म ही नहीं ले सकते, तब यह आध्यात्मिक चिन्तन, सुख और साधना, ये सब हमारे लिये दुराग्रह बन गये हैं। इसलिये कुछ विशिष्ट आत्माएं, यदि इस जीवन में ही साधनाएं सम्पन्न कर लेती है तो उनको अपनी चेतना का पूरा ज्ञान रहता है। उनको ज्ञान रहता है कि मैं कहां था, किस रूप में था, पहले जीवन में कौन सी साधनाएं सम्पन्न की थी, कहां जन्म लिया था, किस प्रकार से जन्म लिया था? और उसको उस साधना की वजह से ही यह भी चैतन्यता रहती है कि मुझे जल्दी से जल्दी जन्म लेना है। उसे इस बात का भी ध्यान रहता है कि मैं उच्च कोटि के गर्भ को ही चुनूं। अभी तक उन प्राणियों ने या मैं ये कहूं कि मृत्यु लोक के जो नर और नारी है, पति-पत्नी हैं उनके पास ऐसी कोई शक्ति, ऐसा कोई सामर्थ्य नहीं है कि वह उत्तम कुल के प्राणी को ही जन्म दें या किसी विशिष्ट योगी को ही अपने गर्भ में प्रवेश दें। उनके पास कोई साधन नहीं है। उस समय, जिस समय गर्भ खुला रहता है उस समय कोई भी दुष्ट आत्मा या अच्छी आत्मा गर्भ में प्रवेश कर जाती है। उस गर्भ को धारण करना उसकी मजबूरी हो जाती है। ये हमारे जीवन की बड़ी विडम्बना है, यह हमारे जीवन की न्यूनता है, ये हमारे जीवन की कमी है। इसलिये यह बहुत पेचीदा स्थिति है क्योंकि मृत्यु पर हमारा नियन्त्रण नहीं है। हम जिस प्रकार के प्राणियों को हमारे गर्भ में धारण करना चाहते हैं, उस पर भी हमारा नियन्त्रण नहीं है। जो भी दुष्ट और पापी आत्मा हमारे गर्भ मे प्रवेश कर लेती है, उस को हमें गर्भ में प्रवेश देना पड़ता है। उसी को पैदा करना पड़ता है, उसी को बड़ा करना पड़ता है उसी प्रकार से अपने मां-बाप को गालियां देता है, समाज विरोधी कार्य करता है और अपना नाम, अपने मां-बाप का नाम कंलकित कर देता है। इतना कष्ट सहन करने के बाद, दुःख देखने के बाद, गर्भ में नौ महीने धारण करने के बाद, उसको जन्म देने के बाद, उसकी पूरी परिवरिश करने के बाद भी हमें यही दुःख भोगना पड़ता है तो यह हमारे जीवन की विड़म्बना है, यह हमारे जीवन की कमी है और इस पर मनुष्य चिन्तन नहीं करता, विचार नहीं करता, विज्ञान इस प्रश्न को नहीं सुलझा रहा है। विज्ञान इस प्रश्न को सुलझा भी नहीं सकता।
इस प्रश्न को सुलझाने के लिए ज्ञान का सहारा लेना पड़ेगा, साधना का सहारा लेना पड़ेगा, आराधना का सहारा लेना पड़ेगा, यहां ये तीन प्रश्न हमारे सामने खड़े होते हैं। एक प्रश्न तो यह है कि क्या हम जितने समय तक चाहें जीवित रह सकते हैं और जीवित रहने का मतलब यह है कि क्या स्वस्थ जीवित रह सकते है? जीवित रहने का तात्पर्य रोग रहित जीवन हैं और यदि हम जीवित हैं, मरे हुए से हैं, बीमार हैं, अपंग हैं, लाचार हैं, खाट पर पड़े हुए हैं और दूसरों पर आश्रित है तो वह मूल में जीवन नहीं है। वह जीवन मृत्यु के समान है जीवित होने का तात्पर्य, स्वस्थ तन्दरुस्त और कायाकल्प से युत्तफ़ जीवन हो, बलवान हो, पौरूषवान हो, क्षमतावान हो और इसका उत्तर मेरे पास यह है कि हम निश्चय ही स्वस्थ जीवित रह सकते हैं। जितने समय तक चाहें जीवित रह सकते हैं। 50 साल, 60 साल, 80 साल, 100 साल, 200 साल, 300 साल, 500 साल, 1000 साल, 2000 साल हम जीवित रह सकते हैं। स्वस्थ-सुन्दर, तन्दरुस्ती के साथ पूर्ण चैतन्यता के साथ और पूर्ण यौवन स्फूर्ति के साथ, मगर इसके लिये मृर्त्योमा अमृतं गमय साधना सम्पन्न करना आवश्यक है।
यह जो मृर्त्योमा साधना है। उस साधना को सम्पन्न करने से शरीर में एक गुणात्मक रूप में अन्तर आ जाता है। एक परिर्वतन आ जाता है जिस प्रकार से एक बैटरी जो चार्ज की हुई बैटरी है हम यूज करते हैं। कुछ समय बाद उस बैटरी के अन्दर की पॉवर समाप्त हो जाती है और जब समाप्त हो जाती है तो उसे वापिस चार्ज करना पड़ता है। चार्ज करने के बाद वह बैटरी वापिस उसी प्रकार से उपयोगी बन जाती है। ठीक उसी प्रकार से शरीर की शक्ति दिन-प्रतिदिन क्षीण होती रहती है और क्षीण होते-होते एक स्थिति ऐसी आती है कि शरीर की बैटरी समाप्त हो जाती है। जिसको मृत्यु कहते हैं और यदि हम उसके वापिस चार्ज करने की क्षमता प्राप्त कर सकें, कोई ऐसा ज्ञान, कोई ऐसी चेतना कोई ऐसी साधना हो, जिससे हम वापिस अपने आप को चार्ज कर सकें। फिर हम 60-70 साल वापिस जी सकते हैं। जिस प्रकार से बैटरी डिस्चार्ज होती है। ठीक उसी प्रकार से शरीर की शक्ति शनैः शनैः क्षीण होती रहती है और क्षीण होते-होते एक स्टेज ऐसी आती है कि वह बैटरी, शरीर की बैटरी समाप्त हो जाती है। जिसको हम मृत्यु कहते है।
मृर्त्योमा अमृतं गमय साधना जीवन की श्रेष्ठ, अद्भुत और उन्मत्त साधना है। जिसे योगियों ने, ऋषियों ने स्वीकार किया है। सिद्धाश्रम अपने आप मे अति-दुर्लभ और महत्वपूर्ण संस्थान है जो आध्यात्मिक जीवन का एक केन्द्र बिन्दु है। और जहां से पूर्ण विश्व का आध्यात्मिक जीवन संचालित होता है, क्योंकि विश्व जब तक जीवित है, जब तक भौतिकता और आध्यात्किमता का बराबर सुखद सम्बन्ध रहे, बैलेन्स रहे। ज्योंहि यह बैलेन्स बिगड़ता है तो यह विश्व अपने आप में प्रलय की स्टेज मे चला जाता है। प्रलय हो जाता है, सब कुछ समाप्त हो जाता है। जिस समय भौतिकता बहुत अधिक बढ़ जायेगी। चारों तरफ बम गिरेंगे प्रत्येक देश एक दूसरे पर आक्रमण करेगा, एक देश दूसरे देश पर परमाणु बम गिरायेंगे और कोई भी देश बचेगा नहीं। न बम गिराने वाला और न बम झेलने वाला और इसी को प्रलय कहते हैं। और यदि आध्यात्मिकता का ही बाहुल्य हो जाये और भौतिकता जीवन में रहे ही नही तब प्रलय नहीं होगा। इसलिए दोनों का समन्वय होना जरूरी है। मगर इस भौतिकता के लिए हिंसा के लिये, छल के लिये, कपट के लिये कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वह तो एक सामान्य सी बात है।
मनुष्य की दुःप्रवृत्तियां तो अपने आप में जन्म लेती है उनको बैलेन्स करने के लिए सिद्धाश्रम अपने आप में कुछ विशिष्ट योगियों को, कुछ विशिष्ट महात्माओं को इस मृत्यु लोक में उन प्राणियों के बीच भेजता है। वे चाहे राम हो, वे चाहे कृष्ण हो, वे चाहे बुद्ध हो, वे चाहे महावीर हो, वे चाहे शंकराचार्य हो, चाहे ईसामसीह हो, चाहे सुकरात हो वे अपने ज्ञान के संदेश के माध्यम से, अपनी पवित्रता, अपनी विद्वता के माध्यम से उन लोगों के अन्दर ज्ञान और चेतना पैदा करते हैं यद्यपि इस तरह की चेतना पैदा करने वालों को बहुत सी गालियां मिलती हैं। क्योंकि वे अंधे हैं, वे भौतिकताओं से ग्रस्त हैं और उनके पास झूठ, छल और कपट के अलावा और कोई रास्ता नहीं है और वो जब इस प्रकार की बातें सुनते हैं तब वो सोचते हैं कि उनके अधिकारों पर हनन है। यह व्यक्ति हमारे जीवन की पूरी जमा पूंजी को समाप्त कर रहा है, हमारे स्वार्थो पर चोट कर रहा है। एक प्रकार से उन्हें अपने गरूर का हनन होते हुए दिखाई देता है। इसलिए उनके द्वारा उस व्यक्ति का प्रताड़न होता है। इसलिये उसको गालियां दी जाती है, उसको मार दिया जाता है। मगर उनके समाप्त कर देने से वह समाप्त नही हो जाता, देह टूट जाती है, देह तो गिर जाती है। मगर अंगुष्ठ मात्र के प्राण पुनः नई देह धारण करके उस सिद्धाश्रम में जन्म लेते हैं या सिद्धाश्रम से संचालित करने लग जाते हैं। इसके लिये तो कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। यह तो इसी प्रकार से है जैसे मैंने कुर्ता पहना और यदि कुर्ता घिस गया है या पुराना हो गया है, मैंने उस कुर्ते को उतार दिया और दूसरा कुर्ता धारण कर लिया। इस कपड़े बदलने से कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं आया। ठीक उसी प्रकार से यदि यह शरीर घिस जाता है, यह कमजोर पड़ जाता है, शरीर की नाडि़यां, अंग-प्रत्यंग शिथिल हो जाते हैं, तो इस शरीर को उस कुर्ते की तरह छोड़ देते हैं और दूसरा नया शरीर धारण कर लेते हैं। ऐसा का ऐसा ही शरीर, ऐसी की ऐसी आंख और नाक, हाथ-पांव, लम्बाई-चौड़ाई, ज्यों कि त्यों अपने आप में स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार से अपने शरीर की ऊपर की चमड़ी किसी चोट से छिल जाती है, उसी जगह अपने आप स्वतः दूसरी चमड़ी आ जाती है। उसी प्रकार से यह देह गिरती है, उसी जगह दूसरी देह स्वतः अपने आप में आ जाती है। यह तो साधना के बल पर सम्भव है और इसीलिये उस सिद्धाश्रम मे योंगियों को 100, 200, 300, 400, 500, 1000, 2000, वर्षो की आयु प्राप्त है। वे इस समय भी सिद्धाश्रम मे विद्यमान हैं। कोई भी अपनी आंखों से उस सिद्धाश्रम के योगियों को देख सकता है, अनुभव कर सकता है, उनके पास बैठ सकता है, उनके प्रवचन सुन सकता है, उनके ज्ञान और चेतना को अपने हृदय मे उतार सकता है और कोई भी व्यक्ति आज भी यदि चाहे राम के पास बैठ करके, युद्ध कला के बारे में सीख सकता है, कृष्ण के पास बैठ करके गीता का संदेश सुन सकता है और शंकराचार्य के पास बैठ करके शंकरभाष्य को वापिस उनके मुख से सुन सकता है। यह तो कोई कठिन नहीं है, यह तो कोई असंभव नहीं है, यह तो आपको उस स्टेज पर पहुंचने की जरूरत है, आपकी क्षमता उस स्टेज पर पहुंचने की हो, आपके पास एक समर्थ और योग्य गुरू हो।
समर्थ और योग्य गुरू का मतलब यह है कि उसको ऐसी सिद्धियां प्राप्त हो, ऐसी समर्थता प्राप्त हो और जो ले जा सके आपको अपने साथ सिद्धाश्रम में, दिखा सकें सिद्धाश्रम के योगियों को, उनके पास बैठा सकें। उनका खुद भी सम्मान हो, वह खुद भी अपने आप में ऊंचाई पर पहुंचा हुआ हो। ऐसा नहीं है कि ऐसा गुरू इस पृथ्वी पर है ही नहीं, यह अलग बात है कि हमारी आंखें उनको नहीं देख पाती, यह अलग बात है कि हमारी बुद्धि ऐसे व्यक्ति के पास बैठते हुए भी आलोचना, झूठ और छल-कपट में लिप्त हैं। एक-एक क्षण हम दूसरे कार्यों मे व्यतीत कर देते हैं। मगर उन गुरू को हम न पहचान पाते है, न उनके पास बैठ करके उस आनन्द को प्राप्त कर पाते हैं। हमें जो प्रश्न करने चाहिए, वो तो प्रश्न हम करते ही नहीं, जो कुछ हमें सीखना चाहिए वो तो हम सीखते ही नहीं, जो कुछ सेवा हमें करनी चाहिए वो हम करते ही नहीं, जो कुछ हमें उनके सान्निध्य में अनुभव प्राप्त करना चाहिए, वो आनन्द हम नहीं प्राप्त कर पाते ये हमारे जीवन की विडम्बना है, ये हमारे जीवन की कमी है, ये हमारी दुर्बुद्धि है, ये हमारा दुर्भाग्य है।
प्रत्येक युग में और प्रत्येक परिस्थिति में सिद्धाश्रम के इस प्रकार के योगी, अलग-अलग नामों में, अलग-अलग रूपों में इस पृथ्वी तल पर अवतरित हुए हैं, विचरण किये हैं और आम लोगों की तरह रहे हैं। उन्होंने कुछ विशिष्टता रखी नहीं, इसलिये विशिष्टता नहीं रखी क्योंकि आम आदमी, आम आदमी को समझा सकता है। समाज का एक भाग बनकर के समाज के लोगों को अपनी ज्ञान चेतना दे सकता है। ईसा मसीह एक सामान्य व्यक्ति बनकर के अपने उन अनुयायियों को ज्ञान-चेतना शिक्षा दे सकें। कृष्ण एक सामान्य मानव बनकर के, सारथी बनकर के अर्जुन को और दूसरे लोगों को दीक्षा दे सकें। भीष्म पितामह उन्हें पहचान सकें। वे पहचान सकें कि वे अपने आप में एक अद्वितीय पुरूष है। पर आम आदमी तो उनको नहीं पहचान सकता, गीता जैसा ज्ञान, चिन्तन उच्च कोटि की चेतना देने वाला व्यक्ति एक सामान्य व्यक्ति नहीं हो सकता। मगर उन्हें कितनों ने पहचाना, नहीं पहचाना वो अपने आप में एक मौका चूक गये और जिन्होंने पहचाना वो अपने आप में अद्वितीय बन गये।
और उसके बाद फिर सिद्धाश्रम से बुद्ध आये, महावीर आये, फिर शंकराचार्य आये। जीवन में इस प्रकार के महापुरूष पृथ्वी तल पर तो अवतरित होते ही रहते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि हमारी पीढ़ी में युगपुरूषों के साथ हमें कुछ दिन रहने का मौका मिला, यह हमारा और हमारी पीढ़ी का सौभाग्य है कि हम उनसे परिचित हैं और यह भी सौभाग्य है कि हम उनके साथ रह सकते हैं। मगर यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम चाहते हुए भी उनके पास नहीं बैठ पाते क्योंकि चारों तरफ की व्यस्तताएं, मजबूरियां, परेशानियां, बाधाओं को तोड़कर के उस जगह पहुंचने की क्षमता नहीं रख पाते, यह हमारे जीवन की कमी है। यह हमारे जीवन की विडम्बना है। यह हमारे जीवन की न्यूनता है और जब तक यह न्यूनता रहेगी तब तक हम उस आनन्द को, उस क्षण को प्राप्त नहीं सकेंगे और हमारे पास पछतावे के अलावा कुछ नहीं रहेगा और फिर तुम अहसास करोगे कि वास्तव में ही तुम्हारे पास एक सुनहरा सा मौका था, एक अद्वितीय अवसर था और तुम चूक गये। इसलिये जो मैं स्पष्ट कर रहा था वो बात यह है कि उस मृर्त्योमा साधना के माध्यम से आज भी हजारों-हजारों योगी, संन्यासी कई-कई वर्षों की आयु प्राप्त विद्यमान हैं और हम अपनी आंखों से उनको देख सकते हैं। उन पांच सौ साल आयु प्राप्त योगियों को भी, उन हजार साल प्राप्त योगियों को भी और पांच सौ साल की आयु प्राप्त करने के बावजूद भी उनके शरीर में कोई अन्तर नहीं आया और उन्हें देखने से ऐसा लगता है कि ये तो केवल पचास और साठ साल के व्यक्ति है। ऐसा लगता है कि अभी तो इनका यौवन बरकरार है, इनमें ताकत है, इनमें क्षमता है, इनमें पौरूषता है, इनमें पूर्णता है और यह सब कुछ मृर्त्योमा अमृतं गमय साधना के माध्यम से ही सम्भव है। जैसा कि मैंने अभी आपके सामने स्पष्ट किया कि मृर्त्योमा अमृतं गमय साधना से मनोवांछित आयु प्राप्त कर सकते हैं। इसके साथ ही साथ एक और तथ्य की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए कि हममें यह क्षमता हो कि हम श्रेष्ठ गर्भ को धारण कर सकें। एक मां तीन-चार पुत्रों या बालकों को जन्म दे सकती है और यदि उनमें से भी दुष्ट और दुर्बुद्धि आत्मा वाले जन्म ले लेते हैं। तो मां-बाप को बहुत दुःख और वेदना होती है कि उन्होंने जितना दुःख और कष्ट उठाया, उसके बावजूद भी उन्हें जो फल मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पाया। उसकी अपेक्षा आप यह कल्पना करें कि एक ही बालक उत्पन्न हो, मगर वह अद्वितीय हो। ज्ञान के क्षेत्र में सिद्धहस्त हो, पूर्ण हो, महान् हो, चाहे विज्ञान के क्षेत्र में हो, चाहे भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में हो, चाहे गणित के क्षेत्र में हो, चाहे रसायन विज्ञान के क्षेत्र में हो। जिस भी क्षेत्र में हो विश्व विख्यात हो, अद्वितीय हो, श्रेष्ठतम् हो ऐसा बालक जन्म दें। यह तो प्रत्येक मां-बाप कल्पना करते हैं। प्रत्येक मां बाप चाहते हैं कि एक ही उत्पन्न हो मगर सूर्य के समान हो, एक ही उत्पन्न हो मगर चन्द्रमा के समान तेजस्वी हो। हजार-हजार तारों को जन्म देने से उस अन्धियारे को हम दूर नहीं कर सकते हैं। मगर जैसा मैंने यह बताया कि यह आपके बस की बात नहीं है।
आप तो गर्भ को खोल सकते हैं, गर्भ में कौन सी दुष्ट आत्मा प्रवेश कर जायेगी यह आपके अधिकार क्षेत्र के बाहर की बात है और आपके अधिकार क्षेत्र से यह बाहर है यह आपकी सबसे बड़ी विड़म्बना है और जैसा कि मैंने अभी बताया कि उन आत्माओं में भी होड़ मची रहती है, एक दूसरे को ठेलते हुए, आगे बढ़ते हुए जो ताकतवान है, जो क्षमतावान है, जो दुष्ट है वे आगे बढ़कर के और दूसरों को पीछे ढकेल कर के उस समय खुले हुए गर्भ में प्रवेश कर जाते हैं और जो योगी है, जो श्रेष्ठ है, जो संत है, जो विद्वान है, जो सरल है, जो निस्पृह है वे पीछे खड़े रहते हैं और टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं कि कभी हमारा अवसर आये और हम किसी गर्भ में प्रवेश करें। इसीलिये मां-बाप के पास में ऐसी कोई स्थिति नहीं है जिसकी वजह से श्रेष्ठ बालक को या श्रेष्ठ आत्मा को अपने गर्भ में प्रवेश दे सकें। मगर उसके लिये भी एक साधना है, एक अद्वितीय साधना है जिसको गमय साधना कहा गया है, जिसको पूर्णत्व साधना कहा गया है। और इस गमय साधना के माध्यम से यदि मां गर्भ धारण करने से पूर्व, इस गमय साधना को पूर्णता के साथ सम्पन्न कर लेती है तो उसके गर्भ में एक विशिष्टता प्राप्त हो जाती है कि दुष्ट आत्मा उसके गर्भ में प्रवेश कर ही नही पाती। वह उच्च कोटि की आत्माओं को ही अपने गर्भ में निमंत्रण देती है और वहां चाहे कितने ही झेलम-झेल हो, धक्के हो या एक दूसरे को धकियाते हो मगर ज्योंहि एक शुद्ध और पवित्र आत्मा पास में से गुजरती है, गर्भ खुल जाता है और वह आत्मा उस गर्भ में प्रवेश कर जाती है। इस प्रकार से उस मां-बाप के हाथ में यह होता है कि साधना के माध्यम से अपने गर्भ में एक श्रेष्ठ आत्मा को ही स्थान दें और श्रेष्ठ आत्मा जब गर्भ में प्रवेश करती है तो मां के चेहरे पर अपूर्व आभा और तेजस्विता आ जाती है। एक ललाई आ जाती है, एक अहसास होने लग जाता है कि वास्तव में ही किसी श्रेष्ठ आत्मा ने इस गर्भ में प्रवेश किया है, चेहरे पर तेजस्विता आ जाती है और प्रसन्नता से हृदय झूम उठता है और उसके नौ महीनें किस प्रकार से व्यतीत होते उसको पता ही नहीं चलता और वह जब जन्म देती है तो श्रेष्ठ आत्मा को जन्म देती है जो कि आगे चलकर के अपने क्षेत्र में उच्चकोटि का बनकर के मां-बाप के नाम को रोशन कर सकता है और वह मां-बाप के नाम को रोशन कर सकता है और वह मां हजारों-हजारों वर्षो तक के लिये धन्य हो जाते हैं। आने वाली पीढियां उसकी कृतज्ञ हो जाती है। वह मां-बाप अपने आप में एक सौभाग्य अनुभव करने लग जाते हैं। यदि इस गमय साधना को सम्पन्न करके इस तरह का श्रेष्ठ गर्भ प्राप्त कर सकें और यह साधना अपने आप में कोई पेचीदा नहीं है, कोई कठिन नहीं है। आवश्यकता यह है कि हमें इस साधना को सम्पन्न करना चाहिये। आवश्यकता इस बात की है कि इस तरह की साधना सम्पन्न कर देने की क्षमता वाला कोई गुरू आपके सामने हो। आवश्यकता यह है कि पति और पत्नी इस बात का दृढ़ निश्चय करें कि हमें गुरू के पास जा करके इस तरह की साधनाओं को सम्पन्न करना ही है और उसके बाद ही गर्भ धारण करना है और गुरू उस गमय साधना को सम्पन्न करवाता है तो यह बता देता है कि इस साधना को सम्पन्न करने के बाद किस तारीख को कितने बज कर कितने मिनट पर समागम करने से उच्च कोटि की आत्मा का प्रवेश तुम्हारे गर्भ में हो सकता है। ठीक उस समय तुम्हारा गर्भ खुला होना चाहिए, ठीक उसी समय उस आत्मा का प्रवेश होगा। गमय साधना का तात्पर्य यही है। और यह अपने आप में महत्वपूर्ण विचार है, चिन्तन है।
वसुदेव-देवकी को जब नारद मिलें। तब उन्होंने उनसे एक ही बात कही थी कि मेरे गर्भ से एक उच्च कोटि का बालक जन्म ले। तो नारद ने स्पष्ट रूप से कहा कि तुम्हें गमय साधना सम्पन्न करनी है, चाहे तुम जेल में ही हो। इस साधना को सम्पन्न कर के, इस तिथि को इतने बज कर इतने मिनट पर तुम्हें समागम करना है, गर्भ खोलना है और एक उच्च कोटि का महा मानव तुम्हारे गर्भ में जन्म ले सकेगा और जन्म लेगा तो अपने आप तुम्हें स्वप्न में स्पष्ट होगा कि कौन जन्म ले रहा है, वह स्वयं तुम्हें इस बात का संकेत दे देगा। तुम्हारे चेहरे पर एक आभा आ जायेगी, चेहरे पर मुस्कुराहट आ जायेगी, तुम्हारे सारे शरीर में एक अपूर्व तेजस्विता प्रवाहित होने लगेगी और ठीक ऐसा ही हुआ। यदि उस समय गमय साधना जीवित थी, तो गमय साधना आज भी जीवित है। आवश्यकता इस बात की है कि हम गमय साधना को समझें। आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार की साधनाओं पर विश्वास करें। आवश्यकता इस बात की है कि गुरू हमें मिले, जिसे इस प्रकार की साधना ज्ञात हो। वह चाहे हरिद्धार में हो, चाहे मथुरा में हो, चाहे काशी में हो, चाहे कांची में हो और हम उस गुरू के सान्निध्य में जायें। अत्यन्त विनम्रता पूर्वक अपनी इच्छा व्यक्त करें। उनसे प्रार्थना करें कि वह गमय साधना पूर्ण गमय साधना सम्पन्न होने के बाद वे उन क्षणों को स्पष्ट करें, दो या छः क्षणों को कि उन-उन क्षणों में समागम करने से, गर्भ खोलने से तुम्हारे जीवन में, तुम्हारे गर्भ में उच्चकोटि का महामानव जन्म ले सकेगा।
इसीलिये जीवन की यह महत्वपूर्ण स्थिति है, यदि हमें उच्च कोटि के बालकों को जन्म देना है, यदि इस पृथ्वी को बचाना है, यदि इसमें असत्य के ऊपर सत्य की विजय देनी है, यदि अधर्म पर धर्म को स्थान देना है, यदि इस पूरी पृथ्वी को सुन्दर, आकर्षक और मनमोहक बनाना है, ज्यादा सुखी, ज्यादा सफल और सम्पन्न करना है तो यह जरूरी है और ऐसा होने से उन बालकों का जन्म हो सकेगा जो कि वास्तव में अद्वितीय है। हम कल्पना करें कि एक समय ऐसा था जब वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, कणाद, पुलस्त्य, गौतम सैंकड़ो-सैंकड़ो ऋषि जन्म लिये हुए थे। अब क्या समय हो गया है? एक भी वशिष्ठ पैदा नहीं हो रहा है, एक भी विश्वामित्र पैदा नहीं हो रहा है, एक भी वासुदेव पैदा नहीं हो रहा है, एक भी शंकराचार्य पैदा नहीं हो रहा है, एक भी ईसा-मसीह पैदा नहीं हो रहा है। इसका कारण क्या है? कारण यह है कि हम अपनी परम्पराओं से टूट गये। पूर्वजों के ज्ञान से वंचित हो गये। हमें इस बात का ज्ञान नहीं रहा कि हम किस प्रकार से विश्वामित्र, वशिष्ठ जैसे पैदा कर सकते हैं, अत्रि-कणाद को जन्म दे सकते हैं, राम और कृष्ण को अपने गर्भ में स्थान दे सकते हैं। क्योंकि हमारे पास गमय साधना का ज्ञान नहीं और ऐसे गुरू नहीं जो गमय साधना सम्पन्न करा सकें। उन क्षणों का, उस ज्योतिष का उनको एहसास नहीं कि वे किस क्षण विशेष में उच्च कोटि की आत्मा को गर्भ में जन्म दिला सकें। यह आज के युग में प्रत्येक स्त्री और पुरूष के लिये आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है और यदि आप वृद्ध हो गये हैं तो आपके पुत्र है, पुत्र वधू है उनके गर्भ से उच्च कोटि का बालक जन्म लेने की क्रिया सम्पन्न करवा सकते हैं। आपके पुत्र-पौत्र वधू है उनको इस प्रकार से शिक्षा, चेतना, ज्ञान दे सकते हैं कि इस प्रकार की योग्यतम बालक को जन्म दें। ऐसा सम्भव हो सकता है और मेरा तीसरा प्रश्न आपके सामने रखा था कि हमने जन्म लिया, हम बड़े हुए, हमने जीवन में जो कुछ भी कार्य करना था कि वो किया और हम मृत्यु को प्राप्त हुए।
सैंकड़ो-हजारों लोग मृत्यु को प्राप्त हुए, मगर मृत्यु के परे और मृत्यु के बाद उनका अस्तित्व, उनके प्राणों का अस्तित्व तो विद्यमान रहता ही है। जैसा कि मैंने बताया अंगुष्ठ रूप के आकार की आत्मा इस पितृ लोक में बराबर विचरण करती रहती है और उन लाखों करोड़ों आत्माओं में तुम्हारी एक आत्मा होती है। उन लाखों-करोड़ों की भीड़ में तुम भी गुमनाम सी आत्मा लिये खड़े होते हो। कोशिश करते रहते हो कि कोई गर्भ मिले और जन्म लें, मगर आप सरल हैं आप सीधे हैं, आप भले हैं। आपने अपने जीवन को शुद्धता के साथ व्यतीत किया है, आप में छल नहीं है, कपट नहीं है, झूठ नहीं है, धक्का-मुक्की नहीं है, दुष्टता नहीं है इसलिये आप वहां पर भी इस प्रकार की स्थिति पैदा नहीं कर सकते। धक्के नहीं मार सकते, जबरदस्ती किसी गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकते, प्रश्न उठता है कि क्या कोई ऐसी विधि, कोई ऐसी तरकीब है, कोई स्थिति है जिसकी वजह से श्रेष्ठ गर्भ में हम जन्म ले सकें। यहां मैंने एक श्रेष्ठ गर्भ शब्द का प्रयोग किया, श्रेष्ठ गर्भ तो बहुत कम होते हैं, दुष्ट गर्भ बहुत हैं, हजारों हैं, जो झूठ बोलने वाले पिता हैं, जो कपट करने वाला पिता हैं, दुष्ट आत्माएं हैं, व्यभिचारणी माताएं हैं, जिनका जीवन अपने आप में दुष्टता के साथ व्यतीत होता है ऐसे गर्भ तो हजारों है, लाखों है मगर जो सदाचारी हैं, पवित्र है, दिव्य हैं, शुद्ध हैं, देवताओं का पूजन करने वाले हैं, जो आध्यात्मिक चिंतन में सतत्रत रहने वाले हैं। ऐसे स्त्री पुरूष तो बहुत कम हैं पृथ्वी पर, गिने-चुने हैं। बहुत कम हैं जो पति-पत्नी दोनों साधनाओं में रत रहते हैं। ऐसे पति-पत्नी बहुत कम है जो नित्य अपना समय भगवान की चर्चाओं मे व्यतीत करते हों। जो झूठ और असत्य से, छल और कपट से परे रहते हो। जो अपने आप में सात्विक हो, जो अपने आप में देवात्मा हो, जो अपने आप में पवित्र हों, दिव्य हों, ऐसे स्त्री और पुरूष श्रेष्ठ युगल कहें जाते हैं और यदि ऐसे स्त्री और पुरूष श्रेष्ठ युगल कहें जाते हैं और यदि ऐसे स्त्री और पुरूष के गर्भ में हम जन्म लें, तो अपने आप में अद्वितीयता होती है, क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि देवकी के अलावा श्रीकृष्ण भगवान किसी और के गर्भ में जन्म ले सकते थे? क्या हम सोच सकते हैं कौशल्या के अलावा किसी के गर्भ में इतनी क्षमता थी कि भगवान राम को उनके गर्भ में स्थान दे सकें? नहीं। इसके लिये पवित्रता, दिव्यता, श्रेष्ठता, उच्चता जरूरी है। मगर प्रश्न यह उठता है कि क्या हम मृत्यु को प्राप्त होने के बाद, क्या हमारी चेतना बनी रह सकती है और क्या मृत्यु को प्राप्त होने के बाद ऐसी स्थिति, कोई ऐसी तरकीब, कोई ऐसी विशिष्टता है कि हम श्रेष्ठ गर्भ का चुनाव कर सकें? वह चाहे किसी शहर में हो, वह चाहे किसी प्रांत मे हो, वह चाहे किसी राष्ट्र में हो, वह चाहे जिस राष्ट्र में हो, वह चाहे जिस शहर में हो, जिस स्त्री के गर्भ से जन्म लेना चाहे, हम जन्म ले सकें कोई ऐसी स्थिति है? यह प्रश्न हमारे सामने सीधा, दो टूक शब्दों में स्पष्ट खड़ा रहता है और इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान के पास नहीं है।
हमारे पास नहीं है मृत्यु को प्राप्त होने के बाद, हम विवश हो जाते हैं, मजबूर हो जाते हैं, लाचार हो जाते हैं, यह कोई स्पष्ट नहीं है कि हम दो साल बाद, पांच साल बाद, दस साल बाद, पन्द्रह साल या बीस साल बाद, पचास साल बाद उस पितृ लोक में भटकते हुए कहीं जन्म ले लें। हो सकता है हम किसी गरीब घराने मे जन्म ले लें, कसाई के घर में जन्म ले लें, हम किसी दुष्ट आत्मा के घर जन्म ले लें। हम किसी व्यभिचारी के घर में जन्म ले लें, हम किसी ऐसी मां के गर्भ में जन्म ले लें कि भ्रूण हत्या हो जाये, गर्भपात हो जाये, हम पूरा जन्म ही नहीं ले सकें। आप कल्पना करें कि कितनी विवशता हो जायेगी हमारे जीवन की और हम इस जीवन में ही उस स्थिति को भी प्राप्त कर सकते हैं कि हम मृत्यु के बाद में भी उस प्राणी लोक में, जहां करोड़ों प्राणी हैं, करोड़ो आत्माएं हैं उन आत्माओं में भी हम खड़े हो सकें और हमें इस बात का ज्ञान हो सके कि हम कौन थे कहां थे किस प्रकार की साधनाएं सम्पन्न की और क्या करना है, और साथ ही साथ इतनी ताकत, इतनी क्षमता, इतनी तेजस्विता आ सके कि सही गर्भ का चुनाव कर सकें और फिर ऐसी स्थिति बन सके कि तुरन्त हम उस श्रेष्ठ गर्भ में प्रवेश कर सकें और जन्म ले सकें। चाहे उसमें कितनी भीड़, चाहे कितनी ही दुष्ट आत्माएं हमारे पीछे हो। हम उसके बीच में से रास्ता निकाल कर के उस श्रेष्ठ गर्भ का चयन कर सकें और ज्योंहि गर्भ खुले उसमें हम प्रवेश कर सकें। इसको अमृत साधना कहा गया है और यह अपने आप में अद्वितीय साधना है, यह विशिष्ट साधना। इसका मतलब है कि इस साधना को सम्पन्न करने के बाद हमारा यह जीवन हमारे नियन्त्रण में रहता है, मृत्यु के बाद हम प्राणी बनकर के भी, जीवात्मा बनकर के भी हमारा नियन्त्रण उस पर रहता है और उस जीवात्मा के बाद गर्भ में जन्म लेते हैं, गर्भ में प्रवेश करते हैं तब भी हमारा नियन्त्रण बना रहता है। यह पूरा हमारा सर्कल बन जाता है कि हम हैं, हम बढे़, हम मृत्यु को प्राप्त हुए, जीवात्मा बनें फिर गर्भ में प्रवेश किया। गर्भ में प्रवेश करने के बाद जन्म लिया और जन्म लेने के बाद खड़े हुए, जीवात्मा बनें फिर गर्भ में प्रवेश किया। गर्भ में प्रवेश करने के बाद जन्म लिया और जन्म लेने का भान रहता है, ज्ञान रहता है कि प्रत्येक जीवन में हम कहां थे। किस प्रकार से हमने जन्म लिया? ऐसे कई अलौकिक घटनाएं समाज में फैलती हैं जिसको पूर्व जन्म का ज्ञान रहता है। मगर कुछ समय तक रहता है।
प्रश्न तो यह है कि हम ऐसी साधनाओं को सम्पन्न करें जो कि हमारे इस जीवन के लिये उपयोगी हो और मृत्यु के बाद हमारी प्राणात्मा इस वायुमण्डल में विचरण करती रहती है तो प्राणात्मा पर भी हमारा नियन्त्रण बना रहे। साधना के माध्यम से वह डोर टूटे नहीं, डोर अपने आप जुड़ी रहे और जल्दी से जल्दी उच्चकोटि के गर्भ में हम प्रवेश कर सकें। ऐसा नहीं हो कि हम जन्म लेने के लिये 50 वर्षो तक इन्तजार करते रहें। हम चाहते हैं कि हम वापिस जल्दी से जल्दी जन्म लें, हम चाहते हैं कि इस जीवन में जो की गई साधनाएं हैं वह सम्पूर्ण रहें और जितना ज्ञान हमने प्राप्त कर लिया उसके आगे का ज्ञान हम प्राप्त करें क्योंकि ज्ञान का तो एक अथाह सागर हैं, अनन्त हैं, अनन्त पथ हैं। इस जीवन में हम पूर्ण साधनाएं सम्पन्न नहीं कर सकें, तो अगले जीवन में हमनें जहां छोड़ा है उससे आगे बढ़ सकें, क्योंकि ये जो इस जीवन का ज्ञान है वह उस जीवन में स्मरण रहता है। यदि उस प्राणात्मा या जीवात्मा पर हमारा नियन्त्रण रहता है, गर्भ पर हमारा नियन्त्रण रहता है, गर्भ में जन्म लेने पर हमारा नियन्त्रण रहता है। जन्म लेने के बाद गर्भ से बाहर आने की क्रिया पर हमारा नियन्त्रण रहता है इसलिये इस अमृत साधना का भी हमारे जीवन मे अत्यंत महत्व है क्योंकि अमृत साधना के माध्यम से हम जीवन को छोड़ नहीं पाते, जीवन पर हमारा पूर्ण अधिकार रहता है। जिस प्रकार की सिद्धि को चाहे उस सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं।
प्रत्येक स्त्री और पुरूष को अपने जीवन काल में जब भी अवसर मिले, समय मिले अपने गुरू के पास जाना चाहिये। मैं गुरू शब्द का प्रयोग इसलिये कर रहा हूं, जिसको इस साधना का ज्ञान हो वह गुरू। हो सकता है ऐसा गुरू आपका भाई हो, आपकी पत्नी हो, आपका पुत्र हो सकता है यदि उनको इस बात का ज्ञान है और यदि नहीं ज्ञान है जिस किसी गुरू के पास इस प्रकार का ज्ञान हो उसके पास हम जायें। उनके चरणों मे बैठें, विनम्रता के साथ निवेदन करें कि हम उस अमृत साधना को प्राप्त करना चाहते हैं। क्योंकि इस जीवन को तो हम अपने नियन्त्रण में रखें ही, इसके बाद हम जब भी जन्म लें तो उस प्राणात्मा या जीवात्मा पर भी हमारा नियन्त्रण बना रहे और हम जल्दी से जल्दी उच्चकोटि के गर्भ को चुनें, श्रेष्ठतम गर्भ को चुनें, अद्वितीय उच्चकोटि की मां को चुनें, उस परिवार को चुने जहां हम जन्म लेना चाहते है। उस गर्भ में जन्म ले सकें हम एक उच्चकोटि के बालक बनें क्योंकि साधना से उच्च कोटि के मां-बाप का चयन भी कर सकते हैं। और यदि हम चाहे अमुक मां-बाप के गर्भ से ही जन्म लेना है, तब भी ऐसा हो सकता है। यदि हम चाहे उस शहर के उस मां-बाप के यहां हमें जन्म लेना है यदि वह गर्भ धारण करने की क्षमता रखते हैं तो वापिस उसमें प्रवेश करके जन्म ले सकते हैं। ऐसे कई उदाहरण बने हैं। जिस मां के गर्भ से जन्म लिया और किसी कारणवश मृत्यु को प्राप्त हो गये, तो उस मां के गर्भ से वापिस भी जन्म लेने की स्थिति भी बन सकती है। खैर ये तो आगे की स्थिति है, इस समय तो यह स्थिति है कि हम इस अमृत साधना के माध्यम से अपने वर्तमान जीवन को अपने नियन्त्रण में रखें। हम जो गर्भ चाहे, श्रेष्ठतम गर्भ में प्रवेश कर सकें, पूर्णता के साथ कर सकें और जन्म लेने के बाद विगत जन्म का स्मरण हमें पूर्ण तरह से रहे। उस गुरू के चरणों में वापिस जल्दी से जल्दी जा सकें, आगे की साधना को सम्पन्न कर सकें। मैंने अपने इस प्रवचन में तीन साधनाओं का उल्लेख किया।
मृर्त्योमा अमृतं गमय शब्द विभूषित किया गया है। इसलिये ईशावास्योपनिषद् में और जिस उपनिषद् में इस बात की चर्चा है वह केवल एक पंक्ति नहीं है। मृत्यु से अमृत्यु की ओर चले जायें, हम किस प्रकार से जाये, किस तरकीब से जायें इसलिये उन तीनों साधनाओं के नामकरण इसमें दिये हैं, इसको स्पष्ट किया। इन तीनों साधनाओं को सामन्जस्य से करना, इन तीनों साधनाओं को समझना हम अपने जीवन काल में ही इन तीनों साधनाओं को सम्पन्न करें, यह हमारे लिये जरूरी है, उतना ही आवश्यक है और जितना जल्दी हो सके अपने गुरू के चरणों में बैठें, जितना जल्दी हो सके उनके चरणों में अपने आप को निवेदित करें। अपनी बात को कहें। उनको स्पष्ट करें कि हम क्या चाहते हैं और वो जो समय दें, वह जो परीक्षा लें, वह परीक्षा हम दें। वह जिस प्रकार से हमारा उपयोग करना चाहें, हम उपयोग होने दें। मगर हम उनके चरणों में लिपटे रहें क्योंकि हमें उनसे प्राप्त करना है। अदभुत ज्ञान, अद्वितीय ज्ञान, श्रेष्ठतम् ज्ञान। बहुत कुछ खोने के बाद भी बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है। यदि आप कुछ खोना नहीं चाहे और बहुत कुछ प्राप्त करना चाहें तो ऐसा जीवन में संभव नही हो सकता। अपने जीवन को दांव पर लगा करके प्राप्त किया जा सकता है। यदि आप जीवन को बचा रहे हैं, तो जीवन को बचाते रहें और बहुत कुछ प्राप्त करना चाहे तो ऐसा संभव नहीं हो सकता। इसीलिये इस उपनिषद्कार ने इस मृर्त्योमा अमृतं गमय से सम्बन्धित कुछ विशिष्ट मंत्रों का प्रयोग सम्पन्न किया है। यद्यपि इसकी साधना पद्धति अपने आप में बहुत सरल है, सही है कोई भी स्त्री या पुरूष इस साधना को सम्पन्न कर सकता है। यद्यपि इस साधना के लिये गुरू के चरणों में पहुंचना अनिवार्य है, क्योंकि इसकी पेचीदगी गुरू के द्वारा ही समझी जा सकती है। उनके साथ, उनके द्वारा ही मंत्रों को प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु मैं उन मंत्रों का उल्लेख आपके सामने कर रहा हूं जो मृर्त्योमा अमृतं और गमय तीनों साधनाओं से सम्बन्धित है। यदि नित्य इन मंत्रों को हम एक बार श्रवण करते हैं तब भी हमारे जीवन की चैतन्यता बनती है, तब भी हम जीवन के उत्थान की ओर अग्रसर होते हैं, तब भी हम पूर्णता की ओर अग्रसर होते हैं, तब भी हम मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की साहस और क्षमता प्राप्त कर सकते हैं और तभी हम मृत्यु से अमृत्यु से ओर अग्रसर होते हैं, जहां मृत्यु हम पर झपट्टा नहीं मार सकती, जहां मृत्यु हमको दबोच नहीं सकती, जहां मृत्यु हमें मार नहीं सकती, समाप्त नहीं कर सकती और हम जितने वर्ष चाहें जितने युग चाहें जीवित रह सकते हैं। उन मंत्रों को मैं आपके सामने उच्चारण कर रहा हूं, उन मंत्रों का आपको बार-बार सुनना ही चाहिए, नित्य सुनना चाहिए। एक बार, पांच बार, ग्यारह बार, इक्कीस बार, एक सौ बार जितना आपको समय मिलें मगर नित्य इसको श्रवण करने से ही अपने आप में सफलता मिल जाती है।
सद्गुरूदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस
चौरासी वर्षों बाद ऐसा सुयोग बना है कि अक्षय तृतीया के चैतन्य दिवस पर सद्गुरूदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस के अवतरण महापर्व पर हर हर महादेव की मृत्युजंय ज्योर्तिमय पावन भूमि काशी विश्वनाथ में मृत्युजंय स्थितियों को प्राप्त करने के लिये महामृत्युजंय दीक्षा से साधक सांसारिक जीवन सभी सुखों से युक्त होता है। जीवन में रस, आनन्द, वीर्य, ओज की प्राप्ति अक्षय स्वरूप में हो सके इस हेतु अमृत सिद्धि दीक्षा और अपनी संतान को श्रेष्ठ सुसंस्कारों से युक्त करने और पुरूषोत्तमय स्थितियों को प्राप्त करने के लिये गमय दीक्षा प्रदान की जायेगी। जिससे की जीवन पूर्णतः सद्गुरुमय की चैतन्यता से युक्त हो सके।
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