पूर्णता और दिव्यता की पावन भूमि का ही नामान्तरण है सिद्धाश्रम, जहां पहुंचने की साध हर तपस्वी, ऋषि, मनीषी अपने मन में संजोय रखता है। यह आध्यात्मिक उत्कर्ष की वह दिव्य तपः स्थली है, जहां साधक अपनी साधनाओं में अमृत सिद्धि प्राप्त करने के बाद सशरीर अथवा देहपात के पश्चात् भी पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त करके न केवल स्वयं दिव्याभास से परिपूर्ण बनता है, अपितु विश्व कल्याण के अपूर्व सामर्थ्य को प्राप्त करके अपनी भावी पीढि़यों के जीवन की सर्वतोगामिनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
तुम्हारी इस मृत देह को प्राणों का स्पन्दन चाहिए, और यह तभी हो सकता है, जब मेरे प्राणों से अपने हृदय को एकाकार कर सको, मेरे अन्दर अपने आप को समाहित कर सको, मेरे इस आनन्द के प्रवाह में मस्ती के साथ स्नान कर सको।
जब तुम अपने आप को शक्तिहीन अनुभव करो, जब तुम अपने आप को मृत तुल्य अनुभव करो, तब तुम मेरे साथ प्रकृति की तरह एकाकार हो जाओं, और अपने आप को स्फ़ूर्तिवान तरोताजा बनाकर वापिस अपनी दुनिया में लौट जाओं।
हम योगियों और संन्यासियों को वास्तव में तुम लोगों की बुद्धि पर हंसी आती है, तुम्हारी दशा तो उसी मूर्ख भिखारी की तरह है, जिसे देवयोग से हीरों की थैली मिली और उसने कंचे समझ कर उन्हें रास्ते में बैठे बच्चों में बांट दिया हम जब-जब तुम्हारी स्वार्थपरता, चालाकी और मक्कारी देखते हैं, तो हमें तरस आता है, कि ये कैसे लोग हैं, जो ऐसी देवगंगा के समीप रहकर भी अपवित्र हैं, विकारों से युक्त हैं।
मुझे ऐसे ही शिष्यों की आवश्यकता नहीं है, जिनमें कायरता हों, विरोध सहने की क्षमता न हो, जो जरा सी विपरीत परिस्थिति प्राप्त होते ही विचलित हो जाते हों। मुझे तो वे शिष्य प्रिय हैं, जिनमें बाधाओं को ठोकर मारने का हौंसला होता है, जो विपरीत परिस्थितियों पर छलांग लगाकर भी मेरी आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करने की क्रिया करते हैं, जो समस्त बन्धनों को झटक कर भी मेरी आवाज को सुनते हैं—– और ऐसे शिष्य स्वतः ही मेरी आत्मा का अंश बन जाते हैं, उनका नाम स्वतः ही मेरी होठों से उच्चरित होने लगता है और वे मेरे हृदय की गहराईयों में उतर जाते हैं।
समुद्र तो अपनी जगह स्थिर खड़ा, अपनी बाहें फ़ैलाए प्रत्येक नदी को अपने आप में समेटने के लिए आतुर है, आवश्यकता तुम्हें नदी बनने की है, लहराती हुई, दौड़ती हुई समुद्र की बांहों में अपने आप को विसर्जित कर देने की है, अपना अस्तित्व मिटा देने की है, और जब तुम ऐसा कर सकोगे, तब तुममें से एक नया बुद्ध पैदा होगा, तब तुममें एक नया शंकराचार्य पैदा होगा, तब तुम में एक नया वशिष्ठ या विश्वामित्र पैदा होगा।
गुरू किसी मानव शरीर को नहीं कहते। गुरू तो वह ज्ञान का पुंज है जो कि व्यक्ति के अंधकार युक्त जीवन में आलोक बिखरेता हुआ उसे जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की ओर प्रेरित करता है।
जीवन में श्रेष्ठता, उच्चता एवं पूर्णता तक पहुंचने के लिए आवश्यक है कि पहले व्यक्ति अपनी पुरातन, सड़ी गली मान्यताओं को छोड़कर मुक्त हों, पुरानी परंपराओं की बेडि़यों को तोड़ डाले और स्वतंत्र हो जाए।
परंतु यह तभी संभव होता है जब एक तेजस्वी सद्गुरू का आशीर्वाद व्यक्ति को प्राप्त हो, तभी वह पुरानी मान्यताओं के दलदल से बाहर आ सकता है और फि़र केवल अपना ही नहीं, पूरे समाज का, पूरे समाज का ही नहीं, पूरे राष्ट्र का, पूरे राष्ट्र की ही नहीं, पूरे विश्व का नवनिर्माण करने में सक्षम हो जाता है।
गुरू का अर्थ है – पूर्णता। सिद्ध गुरू का अर्थ है – जीवन में सर्वोच्चता। गुरू तो सही अर्थो में ज्ञान का मानसरोवर है जिसमें डुबकी लगाकर कौआ भी हंस बन जाता है।
गुरू सभी साधनाओं का मूल तत्व है जिसको स्पर्श कर, जिसको आत्मसात् कर शिष्य अपने जीवन को सिद्धि युक्त एवं श्रेष्ठ बना पता है।
गुरू वह परब्रहा तत्व है जिसके सान्निध्य में रहकर शिष्य या एक साधारण व्यक्ति भी ‘शिव’ बन जाता है और सभी सिद्धियों को प्राप्त करता हुआ जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर उच्चता प्राप्त कर लेता है।
परंतु इस सबके लिए आवश्यक है कि पहले शिष्य गुरू के ज्ञान को आत्मसात् कर ले, उनके चरणों में बैठ कर स्वयं को लीन कर दें, अपनी आत्मा को उनके आत्म तत्व से एकाकार कर दे।
यह उस पीढ़ी का स्वर्णिम सौभाग्य होता है कि एक जीवित जाग्रत सद्गुरू उनके मध्य में हों और वह उनके चरणों में अधिक से अधिक समय व्यतीत करता हो।
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