जिस प्रकार दूध को जमाने के लिए खट्टे पदार्थ की आवश्यकता होती है, तब कहीं जाकर दही बनता है। दही में भी मक्खन छुपा होता है लेकिन क्या हम उस मक्खन को सीधे प्राप्त कर सकते हैं? नहीं, इस मक्खन को प्राप्त करने के लिए दही को बिलोना पड़ेगा, उसमें ऊष्मा पैदा करना होगा, तब उसी ऊष्मा के माध्यम से ही उस मक्खन को प्राप्त किया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार हमें गुरु रूपी दुग्ध में अपनी आस्था की खटाई को डालना पड़ेगा, तब जाकर होगा दही रूपी मिलन या गुरु-सामीप्य प्राप्त होगा।
व्यक्ति को किसी भी क्षेत्र में अग्रसर होने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती ही है, बिना शक्ति के उसकी देह में इतनी सामर्थ्य नहीं रहती है, कि वह साधना में जप रहे मंत्रों की आवृत्तियों से उत्पन्न ऊर्जा को धारण कर सके। कई बार साधक की दैहिक क्षमता न्यून होने के कारण वह स्वयं को संभाल नहीं पाता और तेज बुखार या किसी अन्य असन्तुलन का शिकार हो जाता है।
शक्ति सम्पन्न होने पर ही देवों में भी दानवों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता आ सकी अन्यथा शक्ति विहीन होने पर तो वे सदैव ही दानवों द्वारा पराजित हुये हैं। ऐसी ही अवस्था साधक की होती है। जब वह शक्ति साधना को सम्पन्न करता है, तो वह आध्यात्मिक और भौतिक दोनों क्षेत्र में भी विजय तथा सम्पन्नता प्राप्त करता है। शक्ति तत्व से पूर्ण होने के उपरान्त ही वह अपने अन्दर देवत्व की भावभूमि बना सकता है, फिर वह अपने अन्दर के दानवों पर विजय प्राप्त कर सकता है और भौतिक रूप से वह देवों के समान सभी सुखों का उपभोग स्थायी रूप से कर पाने में सक्षम होता है।
अध्यात्म में ‘शक्ति’ को विशेष स्थान दिया गया है, यहां तक कि उसकी अनुपस्थिति में शिव को भी ‘शव’ के समान ही माना गया है। भगवत्पाद शंकराचार्य ने ‘सौन्दर्य लहरी’ में भगवती की स्तुति करते हुये कहा है, कि यदि शिव शक्ति से युक्त न हों, तो उनमें सामान्य रूप से हलचल भी सम्भव नहीं है। शक्ति ही शिव की आत्मा है। बिना आत्मा के प्राण जिस प्रकार निर्जीव पड़ा रहता है, उसी प्रकार से शिव भी शक्ति के बिना निर्जीव रहते हैं।
फिर भी कभी-कभी साधक इस बात को विस्मृत कर बैठते हैं और किसी भी साधना के मूल में न जाकर, उसके तात्त्विक अर्थ को न समझ कर, उथली बातों में ही उलझे रह जाते हैं एवं इस प्रकार वास्तविकता से कोसों दूर रहते हैं। यही उनकी असफलता का कारण भी बन जाता है। यदि सही अर्थों में देखा जाय, तो सृष्टि का प्रत्येक कण ही शक्ति तत्व से आपूरित है। शक्ति तत्त्व की आराधना-उपासना करने का यों तो कोई विशेष काल या क्षण नहीं है, क्योंकि जब भी बालक किसी आपदा में फंसता है, तो वह काल तथा क्षण का निर्णय किये बगैर ही मां का आह्नान कर लेता है और मां को उसके समक्ष प्रस्तुत होना पड़ता ही है। उच्चकोटि के योगियों-संन्यासियों ने भी शक्ति तत्त्व की साधना सम्पन्न की और फिर उस परब्रह्म को प्राप्त कर सकने में समर्थ हुये। स्वयं राम ने भी रावण से युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये ‘शक्ति तत्त्व’ की ही साधना सम्पन्न की थी।
धर्म-दर्शन और उपासना की दृष्टि से तीन विचार धाराएं प्रधान रही हैं- शैव, वैष्णव ओर शाक्त। शैव और शाक्त मत में शक्ति सिद्धान्त स्पष्ट है, जबकि वैष्णव मत में शक्ति को सर्वोपरि ब्रह्म का अंग निर्दिष्ट किया गया है। सृष्टि में -‘शक्ति पूजा’ कब से प्रारम्भ हुई, कुछ भी नहीं कहा जा सकता तथापि वैदिक सूक्तों में आत्मादि के रूप में शक्ति सिद्धान्त को जिस रूप में स्थापित किया गया है, उससे प्रतीत होता है, कि वैदिक काल में परम तत्व की कल्पना पुरूष रूप में करने के साथ ही नारी रूप में भी की जाने लगी थी।
महामाया रूपी भगवती अपने भक्तों को जीवन की अनेक विपत्तियों से उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है। पूर्ण आरोग्यमय, मंगलमय शक्तियुक्त बनाने और ब्रह्मा विष्णु महेश के भाव को पूर्णतः भौतिक जीवन में प्राप्ति के लिये जो व्यक्ति को शक्तिहीन से शक्तिवान बना देता है। अपने जीवन की मलिनता और जीवन की विविध चिंताओं तथा जीवन की प्रगति में आने वाले अवरोधों को समाप्त करने के लिए किसी विशिष्ट शक्ति की आराधना, वंदना, संकल्प शक्ति की क्रिया साक्षीभूत गुरु के सानिध्य में और उनके निर्देशन तथा आशीर्वाद के साथ पूजा अर्चना सम्पन्न की जाती है तो वही वास्तव में साधना कहलाती है।
जीवन की विविध चिंताओं से मुक्त होना और मुक्त होकर नागपाश रूपी व्यथाओं से स्वयं को तार सके जिससे जीवन सभी भौतिक सुखों से युक्त हो सके और सांसारिक शक्तिरूप में गुरु का आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त हो सके और आध्यात्मिक स्वरूप में दैवीय शक्ति का सानिध्य प्राप्त होने से जीवन निश्छल और निर्विघ्न और निष्कंटक व्यतीत होता है।
जीवन को एक नया मोड़ देने के लिए कहीं भटकने की भी जरूरत नहीं है। मात्र गुरु में आस्था एवं विश्वास बनाये रखें। त्याग का अर्थ यह नहीं है, कि आप घर-बार छोड़ दें, अपना व्यापार या गृहस्थी छोड़ दें। गुरु तो यह छुड़ाना चाहता भी नहीं है, वह तो चिर सुख देने वाला होता है, वह आपको दुःखी कैसे कर सकता है, त्याग का अर्थ है, कि सब कुछ करते हुये, भोगते हुए, उसमें लिप्त न होना। इसी हेतु पूज्य गुरुदेव ने महामाया की तेजमय तपोभूमि पर महामाया त्रि-शक्ति धनदा साधना शिविर 09-10 मई को पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्टेडियम ग्राउण्ड, सक्ती (छ-ग) में सम्पन्न होगा।
आपके जीवन में सभी पाप-ताप-दोष, कष्ट बाधा, रोग शोक का शमन हो सके और भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में निरन्तर उन्नति की और गतिशील रहते हुये श्रेष्ठता प्राप्त कर सकें इस हेतु धूम्र लोचनी शक्ति चैतन्य दीक्षा, शिव गौरी सौभाग्य राजराजेश्वरी दीक्षा, जानकी मेनका शक्ति दीक्षा प्रदान की जायेगी। जिसे आत्मसात कर साधक बाधाओं से मुक्त हो सकेगा और मनोकामना की पूर्ति हो सकेंगी।
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