जो अनादि हैं वे ही अनन्त हो सकते हैं और भगवान विष्णु आदि देव हैं तथा अनन्तदेव भी, जिन्हें समय काल की सीमा में बांधा नही जा सकता, जिनके स्वरूप को किसी एक रूप में स्थिर नहीं किया जा सकता, जिनके तेज से उत्पन्न सहस्रों देवी-देवताओं की नित्य-प्रति पूजा होती है, उस अनन्त देव विष्णु के तेज का एक अंश भी प्राप्त हो जाये, तो फिर जीवन में कोई न्यूनता नहीं रहती। श्री विष्णु आकाश तत्व के अधिष्ठाता हैं, आकाश का तात्पर्य है- विशालता, गहनता, महानता, ऊंचाई और ये सब मन की स्थितियां ही तो हैं, कौन अपने जीवन में आगे नहीं बढ़ना चाहता? उसके लिए उस व्यक्ति में विष्णु तत्व का प्रबल होना आवश्यक है। क्यों सभी नेतृत्व नहीं कर पाते? क्योंकि उनमें विष्णु तत्व नही है, उनमें तो केवल आंख मूंदकर एक निश्चित मार्ग पर चलने की भावना ही है, जिससे जीवन घिसटकर व्यतीत करने की प्रक्रिया तक सीमित रह गया।
वेदों को भारतीय संस्कृति का आधारभूत ग्रंथ माना गया है, इसमें ऋगवेद में भगवान विष्णु के सम्बन्ध में पांच सूक्त आये हैं। भगवान विष्णु की देव रूप में व्याख्या करते हुए निम्न बातें कहीं गई है।
इसी के साथ वेदों में भगवान विष्णु के सम्बन्ध में कहा गया है-
अर्थात जगत में भगवान विष्णु अपने सहस्त्र हाथों सहस्त्र सिर के रूप में विराजमान है और अपने भक्तों पर कल्याण करने वाले हैं। उनका नमन है।
सृष्टि का प्रारम्भ भगवान विष्णु से माना गया है, और संसार विष्णु की ही माया लीला का स्वरूप है, भगवान श्री विष्णु का सगुण स्वरूप भी है और निर्गुण स्वरूप भी, माया रूपी स्वरूप में वे लक्ष्मी के साथ अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। मुझे याद है कि बचपन में जिस गुरूकुल में हम जाते थे, वहां आचार्य प्रातः और सायंकालीन संध्या करते थे तो हम सब बालक वहां बैठते थे, संध्या की विशेष विधि का ज्ञान नहीं था, तो हमारे आचार्य श्री ने कहा कि सब बालक नेत्र बन्द कर ‘ऊँ नमो भगवते महादेवाय नमः’ मंत्र का जप करें, यह जीवन की आधार शक्ति का मूल मंत्र है सभी देवी-देवता श्री विष्णु की लीला के अधीन हैं जब भी मन अशांत हो, कार्य में बाधाएं आती हों। कोई मार्ग नहीं मिले तो हाथ मुंह धोकर एक दीपक जला कर शांत भाव से बैठ कर एक माला उपरोक्त मंत्र का जप करें, अपने आप एक मार्ग दिखने लगता है। विष्णु साधना का पुरश्चरण बारह लाख मंत्रों का है, और पुरश्चरण के पश्चात इसके शतांश बारह हजार मंत्रों का हवन विधान है।
यह साधना किसी भी चतुर्दशी को प्रारम्भ की जा सकती है। चतुर्दशी को ज्वालामालिनी दिवस भी कहा जाता है जो कि लक्ष्मी का स्वरूप है। अपने सामने एक बाजोट पर पीला वस्त्र बिछाकर सालिग्राम विग्रह स्वरूप एक बड़ी कच्ची सुपारी व ताम्रपत्र पर अंकित ‘ज्वालामालिनी यंत्र’ स्थापित करें, सर्वप्रथम स्नान शुद्धि के पश्चात् अबीर, कुंकुंम, केसर, चंदन, मोली, सुपारी का पूजन करके धूप, दीप, प्रसाद चढ़ायें। पश्चात् तुलसी पत्र लेकर, जल में डुबो कर विष्णु के बारह स्वरूपों का ध्यान करते हुए सभी दिशाओं में जल छिड़के –
ऊँ अम् केशवाय धात्रे नमः।
ऊँ नम् ओम् नारायणाय अर्यम्णे नमः।
ऊँ अंग इम् माधवाय मित्राय नमः।
ऊँ मम् इम् गोविन्दाय वरूणाय नमः।
ऊँ गम् उम् मधुसूदनाय भगाय नमः।
ऊँ तेम् एम् वामनाय इन्द्राय नमः।
ऊँ सुम्ओम श्री धराय पूष्णे नमः।
ऊँ देम् औम हृषीकेशाय पर्जन्याय नमः।
ऊँ वाम् अं पद्मनाभाय त्वष्टे नमः।
ऊँ यम् अः दामोदराय विष्णवे नमः।
श्री विष्णु की साधना में विनियोग, पंचावरण पूजा का विशेष विधान है, सभी दिशाओं में स्थित विष्णु स्वरूपों का पूजन किया जाता है। साधना क्रम में दाहिने हाथ से शरीर के अंगों को स्पर्श करना है साथ ही अर्पण भी दाहिने हाथ से किया जाता है।
विनियोग
अस्य श्री द्वादशाक्षरमंत्रस्य
प्रजापतिऋषिः गायत्री छन्दः वासुदेवः
परमात्मा देवता, सर्वेष्ट सिद्धये जपे विनयोगः।
इसे पढ़कर जल भूमि पर गिरा दें।
ऋष्यादिन्यास
ऊँ प्रजापति ऋषये नमः शिरसि।
गायत्री छन्दसे नमः मुखे। वासुदेव परमात्मा
देवतायै नमः हृदि। विनियोगाय नमः सर्वांगे।
करन्यास
ऊँ अंगुष्ठाभ्यां नमः ऊँ तर्जनीभ्यां नमः ऊँ
भगवते मध्यमाभ्यां नमः ऊँ भगवते अनामिका
नमः ऊँ वासुदेवाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास
नमः शिरसे स्वाहा। भगवते
शिखायै वषट्। वासुदेवाय कवचाय हुं।
ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय अस्त्राय फट्।
ध्यान
विष्णु शारद चन्द्रकोटि सद्यशं शंखं रथांग्डं गदाम्।
अम्भोजं दधतं सिताब्जनिलयं कान्त्या जगन्मोहनम।।
आबद्धांगद हारकुण्डल महामौलि स्फुरत्कंकणम्।
श्रीवत्सांकमु दारकौस्तुभधारं वन्दे मनीन्द्रैः स्तुतम्।।
बीज मंत्र की एक माला जप ‘वैजयन्ती माला’ से करें, प्रत्येक मंत्र जप पर एक ‘चावल का दाना’ ‘ज्वालामालिनी यंत्र’ पर अर्पित करें।
फिर वैजन्यती माला से 5 माला 7 दिन तक जाप करें।
सम्पूर्ण पूजन पश्चात् साधक दोनों हाथों में सुगंधित पुष्प को अंजलि में लेकर भगवान् को अर्पित करें, कि अपने अभीष्ट सिद्धि हेतु अपनी सम्पूर्ण पूजा समर्पित करता हूं। साधना समापन पर ज्वालामालिनी यंत्र को पूजा स्थान में रखें, शेष सामग्री को किसी पवित्र जलाशय में प्रवाहित कर दें। जिससे विष्णु स्वरूप में मनोवांछित फल प्राप्ति कर साधक के सभी पाप दोष दूर होते ही हैं। यह साधना तो निश्चय ही सर्वोतम साधना है।
जगत के पालन कर्ता भगवान विष्णु और उनकी माया स्वरूप भगवती लक्ष्मी से ही सृष्टि चलायमान है। नारायण-लक्ष्मी की शक्ति से ही सांसारिक मोहमाया, भौतिकता की प्राप्ति संभव है। जिससे उसके जीवन में सौन्दर्य, भाग्य, श्रेष्ठ वैवाहिक जीवन, माधुर्य, प्रेम, उन्न्ति, संगीत की पूर्णता बनती है और जीवन में अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है। क्योंकि भगवान नारायण के द्वारा जीवन सही दिशा में गतिशील होता है। वहीं भगवती लक्ष्मी धन और सांसारिक सम्पत्ति प्रदान करती हैं। लक्ष्मी तो धन के साथ-साथ शुद्ध ज्ञान वृद्धि, आत्मिक चेतना के साथ ही तुष्टि पुष्टि विद्या लक्ष्मी के रूप में जगत्पिता विष्णु से साधक को जोडकर पूर्णता और पुरूष से पुरूषोत्तम बनने की क्रिया सम्पन्न् हो सके इसी हेतु नारायण-लक्ष्मी पूर्णत्व प्राप्ति दीक्षा प्राप्त करने से जीवन सहज, सरल और निर्मल स्वरूप में श्रेष्ठ गति से अग्रसर होता है।
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