अघोरी! शब्द सुनते ही मन में अजीब से भाव जाग्रत होने लगते हैं। आज के समाज में अघोरी का तात्पर्य है महीनों बिना नहाया हुआ, जटा-जूट बढ़ाये हुये, श्मशान में रहने वाला, चिता की अग्नि से रोटी सेंकने वाला, मैले-कुचैले वस्त्र पहने, लाल सुर्ख आंखें, गांजा-चरस-भांग चिलम पीने वाला क्रोधी स्वरूप, मुंह से निरन्तर अपशब्दों की झड़ी, हर एक से झगड़ने वाला-ऐसा ही मिला-जुला बिम्ब आंखों के सामने उभरता है। क्या यह अघोरी का स्वरूप है? ऐसे सैकड़ों व्यक्ति बनारस में देखने को मिलते हैं, जिन्हें अपने तन की परवाह नहीं है।
यह तो अघोरी का आज के जमाने में स्वरूप है। क्या इस प्रकार के व्यक्ति को ही अघोरी, औघड़ या अवधूत कहते हैं? शास्त्रों में तो अघोरी के ऐसे स्वरूप का कहीं वर्णन ही नहीं है, ऐसा रूप तो अधकचरे कम पढ़े तांत्रिक करते हैं, जिनके जीवन का उद्देश्य ही मक्कारी, ठगी और धूर्तता है।
अघोरी तो वह शिव भक्त होता है, जो अपने तन की परवाह नहीं करते हुये भगवान शिव के ध्यान में लीन रहता है। उसकी तंत्र क्रिया का उद्देश्य आत्म उद्धार और आत्म आनन्द प्राप्त करना है। ‘अघोरी’ शब्द बना है अघोर से और अघोर हैं भगवान शिव, उनको ही अघोरेश्वर कहा गया है, जो अपने प्रलयकारी रूप में दसों दिशाओं को आन्दोलित कर सकते हैं, जो अपने नृत्य द्वारा सृष्टि में उथल-पुथल ला सकते हैं। अघोर तंत्र को तो वही समझ सकता है, जो पूर्ण शिव भक्त हो, जिसने अपने जीवन में तंत्र को पूर्ण रूप से समझने का निश्चय कर रखा हो। अघोरियों का भी एक विशुद्ध मत रहता है, उन्होंने अपना सम्प्रदाय ही एक अलग बना रखा है। ऐसे सम्प्रदाय को अघोर सम्प्रदाय कहते हैं। इस सम्प्रदाय द्वारा प्रदत्त आदित्य साधना का विशेष महत्व है, जिसके माध्यम से समस्त इन्द्रियों को वशीभूत कर कुण्डलिनी जागरण के द्वारा शिवत्वमय हुआ जाता है। भगवान शंकर इस पद्धति के प्रथम आचार्य हैं, जनक हैं।
पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार एक विशिष्ट शिव कल्प में जब ब्रह्मा ने सृष्टि रचना आरम्भ की, तो उनके सामने एक बालक प्रकट हुआ, जो अत्यन्त पराक्रमी, साहसी और तेजस्वी था। उस बालक की दिव्यता से ब्रह्मा जी समझ गये, कि ये भगवान शंकर हैं। उन्होंने उनकी स्तुति करने बाद उनकी कृपा से सृष्टि कार्य शुरू किया, यही शिव जी का ‘अघोर अवतार’ था। इस मत की उपासना पद्धति अत्यन्त कठोर एवं कठिन है। सर्व साधारण गम्य नहीं है। इस सम्प्रदाय में दीक्षित साधक अघोर, औघड़ या अवधूत कहे जाते हैं।
वस्तुतः सच्चाई तो यह है, कि जिस व्यक्ति का अन्तः करण ज्ञान और चेतना से पूर्ण प्रकाशवान हो, वही व्यक्ति अघोरी है, क्योंकि वह किसी को भी देह रूप में नहीं वरन् आत्म रूप में देखता और समझता है। अघोरी या अघोर शब्द से घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि स्वयं भगवान शिव का ही एक स्वरूप अघोरेश्वर भी है। भगवान शिव ही एकमात्र ऐसे देव हैं, जिन्होंने काम को जलाकर भस्म कर दिया था। अघोर या अघोरी से घबराने या डरने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है अन्हें समझने की, जिससे सच्चे व ढोंगी अघोरी में भेद किया जा सके।
वास्तव में ही जो सही मायने में अघोर तंत्र के क्षेत्र में उतरा हो, उसे ज्ञात होगा, कि अघोर का अर्थ ही है- अ+घोर अर्थात् जहां घोर या संसार न हो। अर्थात् जिसने यह जान लिया हो कि यह संसार नश्वर है, यह काया जो आज मेरी है, कल मेरी नहीं रहेगी, मृत्यु का ग्रास बन जायेगी, अतः इस शरीर को जितना साध लिया जाये, जितना उपयोग कर लिया जाये वही उचित है- ‘शरीरं साधयति वा पातयति वा’ यही भावना प्रत्येक साधक के मन में भी होनी चाहिये तभी वह राजा जनक की तरह देह में रहते हुये भी विदेह बन सकेगा। जब साधक अघोर तत्व को आत्मसात कर लेगा, फिर उसके लिये किसी भी देवी-देवता की सिद्धि अप्राप्य नहीं रह जायेगी। फिर वह समस्त भौतिक सुखों का उपभोग करता हुआ भी अध्यात्म के उच्चतम सोपानों पर पहुंच सकेगा।
अघोर मत के विशुद्धतम स्वरूप का साधक शनैः शनैः समस्त विषयों पर विजय प्राप्त करते हुये साधना की उच्च स्थिति में पहुंच कर शिवमय हो जाता है। यह स्वाभाविक है, कि इन्द्रिय निग्रह के बाद आध्यात्मिक चेतना का विकास स्वतः होने लगता है। प्राण वायु के द्वारा मूलाधार में प्रसुप्त कुण्डलिनी स्वतः ही जाग्रत होकर विभिन्न चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में पहुंच जाती है। यही अघोर सम्प्रदाय में जीव को शिवमय बनाने की उदात्त प्रक्रिया कही जाती है। साधना सम्पन्न अघोरी मस्ती के आलम में जीते हैं, उन्हें किसी की चिन्ता नहीं होती, किसी चीज से उन्हें भय नहीं होता, इन्हें किसी वस्तु का अभाव भी नहीं होता, सम्पूर्ण पृथ्वी को ये अपना ही मानते हैं, और एक तरह से अपने आप में निर्द्वन्द्व होकर सम्राट तुल्य जीवन जीते हैं।
अघोर तत्व के इस विशुद्ध स्वरूप की साधना करना ही साधक के जीवन का सौभाग्य है, क्योंकि धन, यश, मान, पद, प्रतिष्ठा तो किसी अन्य साधना से भी प्राप्त हो सकती है, परन्तु यह सब प्राप्त हो, और साथ ही प्राप्त हो एक आन्तरिक आनन्द, एक आन्तरिक मस्ती, एक आन्तरिक खुमारी, हृदय के अन्दर लहराता हुआ शान्ति का समुद्र ऐसा तो केवल अघोर तंत्र साधना के माध्यम से ही सम्भव है। एक तरफ जहां साधक के भौतिक जीवन में किसी प्रकार की कोई अड़चन, कोई न्यूनता नहीं रहती, सभी प्रकार के भौतिक सुख उसे प्राप्त होते हैं, वहीं वह आनन्द का सभी रसास्वादन करता है, जो कि एक आध्यात्मिक उपलब्धि है।
1- शरीर में स्थित दैहिक दोष पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं और शरीर में एक कान्ति छा जाती है।
2- मूल रूप से शिवत्व प्राप्ति की साधना होने से साधक के व्यक्तित्व में एक गजब का सम्मोहन, आकर्षण व्याप्त हो जाता है, और उसके प्रशंसकों की संख्या बढ़ने लगती है।
3- शिव का अघोर रूप सिद्ध होने पर व्यक्ति शत्रुओं का शमन करने में समर्थ हो जाता है या दूसरे अर्थों में शत्रु स्वयं ही उसके सामने आने से कतराने लगते हैं।
4- उसके ऊपर मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि का प्रभाव नहीं पड़ता।
5- भगवान शिव के औघड़दानी अघोर स्वरूप की कृपा प्राप्त होने से उसके जीवन में धन-धान्य की कमी नहीं रहती।
6- भगवान शिव की तरह ही वह भी निरन्तर आनन्द और मस्ती में डूबा रहता है, उसकी चिन्तायें धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं।
इस साधना को 12 सितम्बर या किसी भी सोमवार अथवा प्रदोष के दिन आरम्भ किया जा सकता है। प्रातः काल स्नानादि कर पीले वस्त्र धारण कर गुरू पीताम्बर ओढ़ लें। किसी पात्र में अघोरेश्वर नारायण यंत्र को स्थापित करें, उस पर स्फटिक माला रखें तथा दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प करें
संकल्प
ऊँ विष्णु र्विष्णु र्विष्णुः श्रीमद्भगवतो
महापुरूषस्य विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो
द्वितीय परार्द्धे श्वेत वाराहकल्पे जम्बूदीपे भरत खण्डे
आर्यावर्तैक देशान्तरगर्ते पुण्यक्षेत्रे अमुक गोत्रीयः
(अपना गोत्र बोलें) अमुक शर्माऽहं (नाम बोलें)
अद्य सकल मनोकामना पूर्ति निमित्तं अघोराख्यं
साधनां संपत्स्ये। जल भूमि पर छोड़ दें।
विनियोग
अस्य श्री अघोर मंत्रस्य अग्नि ऋषिः अनुष्टुप
छन्दः अघोर रूद्रो देवता मम इष्टकाम्यार्थ सिद्धयर्थे
विनियोगः।
न्यास
निम्न मंत्र बोलते हुये निर्दिष्ट अंगों को स्पर्श करें-
ऊँ अघोरेभ्यो हृदयाय नमः (हृदय)
अथ घोरेभ्यः शिरसे स्वाहा (सिर)
घोरघोरतरेभ्यः शिखायै वौषट (शिखा)
सर्वेभ्यः कवचाय हुं (पूरा शरीर)
सर्व शर्वेभ्यो नेत्रत्रयाय वषट् (दोनों नेत्र)
नमस्ते अस्तु रूद्ररूपेभ्यः अस्त्रय फट्
(अपने सिर पर हाथ घुमा कर ताली बजायें)
ध्यान
ध्यायेच्च पञ्चमूर्धानं दशबाह्निन्दुमौलिनम्।
भिन्नाञ्जनचयप्रख्यं पिंगभ्रू श्माश्रुलोचनम्।।
गौ नाना शरणं देवं व्यालयज्ञो पवीतिनम्।
हेमकुन्देन्दुदशनं कोटिराजं तु भीषणम्।।
खड्गचर्मधरं देवं शरचाप समन्वितम्।
परशुश्च गदावज्रशूल प्रहरणोद्धतम्।।
दण्डाकड्शधंर देवं प्रणतार्ति विनाशम्।।
दोनों हाथ जोड़कर अघोरेश्वर भगवान शिव को प्रणाम करें तथा पूर्ण श्रद्धायुक्त होकर रूद्राक्ष माला से निम्न मंत्र का जप 11 दिन नित्य 5 माला मंत्र जप करें-
ग्यारहवें दिन मंत्र जप के पश्चात् घृत से उपरोक्त मंत्र बोलते हुये अग्नि में 108 बार आहुति दें। ऐसा करने से यह साधना पूर्ण मानी जाती है। साधना समाप्ति के तीन दिन तक यंत्र व माला को पूजा स्थान में रहने दें, इसके पश्चात् यंत्र व माला को लाल कपड़े में लपेट कर जल में विसर्जित कर दें।
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