समस्त विश्व को कृष्ण का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है। शायद ही कोई ऐसा व्यक्तित्व होगा जो कृष्ण से परिचित न हो। जन मानस में योगेश्वर जगद्गुरू के रूप में उनकी पूजा होती है। क्योंकि भौतिक जीवन में जिन कलाओं की आवश्यकता है उन समस्त कलाओं के स्वरूप में पूर्ण योगेश्वरमय शक्तियों से युक्त हें।
किन्तु सत्य को न स्वीकार करने की तो जैसे परम्परा ही बन गई इसीलिये तो आज तक यह विश्व किसी महापुरूष अथवा देव पुरूष का सही ढंग से आंकलन ही नहीं कर पाया। जो समाज वर्तमान तक कृष्ण को नहीं समझपाया, वह समाज उनकी उपस्थिति के समय उन्हें कितना जान पाया होगा, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।
कृष्ण के जीवन में राजनीति, संगीत जैसे विषय भी पूर्णरूप से समाहित थे, और जब उन्होंने अपने जीवन में आध्यात्म को उतारा, तो उतारते ही चले गये और चौसठ कला पूर्ण होकर योगमय शक्तियों से युक्त होकर योगेश्वर कहलाये। जहां उन्होंने प्रेम, त्याग और श्रद्धा जेसे दुरूह विषयों को समाज के सामने रखा, वहीं जब समाज में झूठ, असत्य, व्यभिचार और पाखंड का बोलबाला बढ़ गया, तो उस समय वे एक वीर पुरूष को तरह सामने आए। महाभारत युद्ध के दौरान जिस प्रकार से कृष्ण ने युद्धनीति, रणनीति तथा कुशलता का प्रदर्शन किया, वह अपने आप में आश्चर्यजनक ही था।
कृष्ण ने अपने जीवन काल में शुद्धता, पवित्रता एवं सत्यता पर ही अधिक बल दिया, अधर्म, व्यभिचार, असत्य जैसी बुराईयों को वध करने योग्य ठहराया, सम्पूर्ण महाभारत एक प्रकार से पारिवारिक जीवन संग्राम था। उस समय के समाज के नियम, जो कि स्वार्थ को बढावा देने वाले थे, उन पर कृष्ण का सीधा आघात था। समाज की झूठी मर्यादाओं को खंडित करने का साहस कृष्ण के बाद कोई दूसरा पुरूष नहीं कर पाया, क्योंकि जिस मार्ग पर कृष्ण ने चलना सिखाया, उस पर चलने का साहस वर्तमान तक भी कोई नहीं कर पाया। इन्होंने अपने जीवन में सभी क्षेत्रों स्पर्श करते हुए प्रेम, सौन्दर्य, आकर्षण, सम्मोहन, वीरता, कर्मठता, सत्यता को विशिष्ट स्थान प्रदान किया।
कृष्ण ज्ञानार्जन हेतु सांदीपन ऋषि के आश्रम में पहुंचे, तब उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण कर ज्ञानार्जित किया, गुरू सेवा की, साधनायें की और साधना की बारीकियों , व आध्यात्म के नये आयाम को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया। यह तो समय की विडम्बना ओर समाज की अपनी ही एक विचार शेली है, जो कृष्ण की उपस्थिति का सही मूल्यांकन न कर पाया। यह साधकों के जीवन की सार्थकता होगी कि वे उन पद-चिन्हों पर चलें, उन मार्गों पर चलें, जिन पर कृष्ण ने स्वयं चलकर अपने आप को सोलह कला पूर्ण बनाया।
योगेश्वरमय जीवन निर्माण की चेतना को आत्मशात कर साधक निश्चिन्त रूप से जीवन के प्रत्येक रंगों को स्वयं में समाहित करते हुये शी भौतिक सुखों को पूर्णता से भोग सकेगा। साथ ही योगेश्वर कृष्ण की सोलह शक्तियों से जीवन के उन पक्षों को पूर्णाता देने में समर्थ हो सकेंगे।
षोड़श कला सिद्ध कृष्णत्व धन लक्ष्मी दीक्षा से आर्थिक सदृढता, श्रेष्ठ सफलता, सम्पन्नता, सौन्दर्यता, सम्मोहन, आरोग्यता, आध्यात्मिक चैतन्यता प्राप्त हो सकेगी। जिससे साधक योगी व भोगी दोनों पक्षों को पूर्णता से जी सकेगा।
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