जहां जीवन में ज्ञान का प्रश्न आता है, ज्ञान प्रदात्री देवी के रूप में ही नहीं अपितु वाक्पटुता, वाणी कौशल, सौभाग्य एवं आयुष्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में महासरस्वती की उपासना करने का विधान रहा है। महासरस्वती की उपासना प्रकारांतर से सतोगुण की उपासना ही है, अतः जीवन में जो भी स्थितियां सतोगुण से सम्बन्धित हों, वे सभी महासरस्वती के ही अधीन हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना, ध्यान धारण व समाधि में सफल होना भी महासरस्वती की कृपा से ही संभव हो पाता है, एकांगी रूप से उन्हें केवल सतोगुण प्रधान रूप में स्वीकार करना एक त्रुटि होगी। यह सत्य है कि उनमें सत्व की प्रधानता है, किन्तु वे जीवन के अन्य दो आवश्यक गुणों रज और तम से सर्वथा रहित नहीं हैं। शास्त्रें में भगवती महासरस्वती की निम्न स्तुति से यह बात पूर्णता से प्रमाणिक होती है-
जिसके जीवन में लक्ष्मी हो, मेधा अर्थात प्रत्युत्पनमति हो, वरा अर्थात्, वरदायक प्रभाव हो, शिष्टि अर्थात् सर्वरूपेण मंगलमयता हो, शिष्टता हो, तारा अर्थात् शक्ति तत्व हो, तुष्टि अर्थात परिपूर्णता का वातावरण हो, प्रभा अर्थात् शुभ्रता का एक आभामंडल हो तथा मति अर्थात् उचित-अनुचित का भेद करने की सामर्थ्य हो, उसका जीवन किस प्रकार से न्यून रह सकता है! इसी प्रकार का जीवन संतुलित जीवन होता है और जहां संतुलित जीवन होगा, वहां संतुलित मन-मस्तिष्क होगा ही। केवल संतुलित मन-मस्तिष्क से युक्त स्त्री-पुरुष ही अपने जीवन में पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
स्वयं अपने आपको इसी जीवन में ज्ञान के दोनों स्वरूप अर्थात् धन-सम्पदा और श्रेष्ठ मति के साथ शुभ्रता से आलोकित करना है। मनुष्य स्वयं में ही अपना मित्र हो सकता है और स्वयं में ही शत्रु होता है । सरस्वती अपनी अष्ट शक्तियों द्वारा उसके भीतर की विनाशकारी बुद्धि को शान्त कर उसे संरचनात्मक कार्यों की ओर ले जाती हैं।
इस प्रकृति आत्म शक्ति को जब गुरु जाग्रत करने का मानस बनाते हैं, तो वे शिष्य को यह ‘परागमविद्याम् तारा-शक्ति दीक्षा’ प्रदान करते है। यही आत्म शक्ति कुण्डलिनी जागरण का भी आधार बनती है, और एक तरह से व्यक्ति के लिए भौतिक और आध्यात्म जीवन में उन्नति और प्रगति की चेतना पूर्णरूपेण संचार होती है।
पांच पत्रिका सदस्य बनाने पर ‘परागमविद्याम् तारा-शक्ति दीक्षा’ उपहार स्वरूप प्रदान की जायेगी।
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