और शिष्य भी आषाढ़ के पहले दिन से ही गुरू पूर्णिमा की प्रतीक्षा करता रहता है, क्योंकि यह सही अर्थों में शिष्य का अपना स्वयं का पर्व है, यह शिष्य के आत्मीय जीवन का लेखा-जोखा है, पूरे वर्ष का यह सौभाग्यशाली पर्व है आनन्द दायक क्षण है, क्योंकि इसी पर्व के लिये आषाढ़ की छोटी-छोटी बूंदे श्रद्धा बन कर गुरू पूर्णिमा के दिन समुद्र में एकाकार हो जाने के लिये प्रयत्नशील रहती हैं।
यह पर्व सही अर्थों में गुरू का पर्व है ही नहीं, यह तो शिष्य पर्व है, इसे शिष्य पूर्णिमा कहा जाता है, क्योंकि यह शिष्य के जीवन का एक अन्तरंग और महत्वपूर्ण क्षण है, यह उसके लिये उत्सव का आयोजन है, यह मन की प्रसन्नता को व्यक्त करने का त्यौहार है, यह एक ऐसा पर्व है, जो जीवन की प्रफुल्लता मधुरता और समर्पण के पथ पर गुरू के चरण चिन्ह अंकित कर अपने आपको सौभाग्यशाली मानता है।
जब शिष्य अपने हृदय, देह, प्राण, रोम प्रतिरोम में गुरू का स्थापन कर लेता है, तो उसके रक्त के कण-कण में गुरूदेव की ध्वनि उच्चरित होने लगती है। गुरू स्वयं उसके हृदय में आकर स्थापित हो जाते हैं। ऐसा तब होता है जब शिष्य छल, कपट, चालाकी आदि को समाप्त कर देता है और ऐसा तब होता है जब वह अपने हाड़ मांस के शरीर को मल-मूत्र से न भर कर, गुरू के प्रेम से सराबोर कर लेता है। शिष्य को तो प्रारम्भिक अवस्था बनानी पड़ेगी।
दिखाना पड़ेगा, कि उसमें क्षमता है, कि वह विराटता को धारण कर सकता है, उसे अपनी योग्यता सिद्ध करनी ही पड़ेगी, उसे अर्जुन की भांति संधान का अभ्यास करना ही पड़ेगा, कृष्ण की भांति गुरू की सेवा करनी ही पड़ेगी। गुरू के प्रति विश्वास व्यक्त करना ही पड़ेगा, गुरू के लिये समर्पण बनाना ही होगा, क्योंकि इसके बिना वह गुरू के हर कार्य को तोलने लगता है, गुरू के कार्य को अपनी बुद्धि की कसौटी पर रखकर उसे देखता है। वहां वह शिष्य नहीं आलोचक बनने लगता है, वह गुरू की क्रिया को नहीं समझ सकता है, विराटता को समझने के लिये विराटता ही धारण करनी पड़ेगी। जब शिष्य पूर्णतया गुरू के अनुकूल होगा तभी वह उसकी चेतना और चिंतन को समझ सकता है।
इसी अग्नि से शिष्य अपने विकारों को समाप्त करने में सफल होता है और जब वह अपने स्व को समाप्त कर लेता है, तो स्वयं ही उस विराटता को स्थापित कर लेता है। वह स्वयं में ही इतनी क्षमता प्राप्त कर लेता है, कि शनैः शनैः विराटता को ग्रहण करता हुआ वह स्वयं पूर्ण हो जाता है। शिष्य के जीवन को आनन्द, पूर्णता और अनेक प्रकार की अनुकूलताओं से भरने का पर्व है-गुरू पूर्णिमा गुरू शिष्य को तभी कुछ प्रदान करते हैं, जब शिष्य में योग्यता व पात्रता अनुभव करते हैं और कुछ विशेष अवसरों पर ऐसा संयोग बनता हैं, कि वे शिष्य की न्यूनताओं को, उसकी परेशानियों को स्वतः ही समाप्त कर देते हैं और अपना सानिध्य, अपनी तपस्या का अंश तथा साधनात्मक ऊर्जा प्रदान कर उसे स्वर्ण खण्ड बना देते हैं।
यह क्रिया मात्र आध्यात्मिक पक्ष से सम्बन्धित ही नहीं होती, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दृष्टिगोचर होती है। जिस प्रकार मां अपने शिशु की प्रसन्नता व श्रेष्ठता के लिये प्रयत्नशील रहती है, उसी प्रकार गुरू की भी समस्त क्रियायें अपने शिष्यों को प्रसन्नता, श्रेष्ठता, पूर्णता प्रदान करने के लिये ही होती है।
गुरू पूर्णिमा प्रत्येक साधक साधिका के लिये ऐसा महान् उत्तम दिवस है, जिस दिन वह अपने गुरू की पूजा अर्चना साधना कर अपने जीवन में ज्योति आलोकित कर सकते हैं। माता-पिता स्थूल शरीर को जन्म देते हैं, परन्तु गुरूदेव उस स्थूल शरीर में ज्ञान, चेतना, पुरूषार्थ की अग्नि भरते हैं, इसीलिये शास्त्रों में गुरू का स्थान माता-पिता सभी देवताओं से उच्च माना गया है।
गुरू पूर्णिमा के दिन गुरू की पूजा अर्चना कर साधक गुरू के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट करता है, शिष्य का हित इसी में है कि वह अपने गुरू से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखें, अतः जहां तक सम्भव हो सके गुरू पूर्णिमा के शुभ दिवस पर गुरू की साक्षात् पूजा करनी चाहिये क्योंकि गुरू ही परब्रह्म, गुरू ही परम गति है, गुरू ही पराकाष्ठा है, गुरू परम धर्म है, गुरू ही सब कुछ देने में समर्थ होने के कारण श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ है।
परन्तु जो साधक साधिका किसी कारण वश गुरू पूर्णिमा के दिन उपस्थित न हो सके, उन्हें अपने निवास स्थान पर परिवार के साथ पूर्ण विधि से गुरू पूजा करनी ही चाहिये। यह साधना तो ‘स्व’ को समाप्त करने की है और जैसे-जैसे वह इस साधना में अग्रसर होगा, उसी क्रम में गुरू उसके हृदय में स्थापित होने लगेंगे, गुरू का स्थापन तो वहीं हो सकता है, जहां रिक्तता होगी, क्योंकि ब्रह्माण्ड की विराटता को समेटे हुये शिष्य हृदय में स्थापित होते हैं और यही विराटता वे अपने शिष्य को भी प्रदान करते हैं।
गुरू पूर्णिमा के शुभ दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान से निवृत्त होकर पीले वस्त्र धारण करें और सर्वप्रथम गुरू का ध्यान करें, अपने पूजा स्थान में गुरूदेव का सुन्दर चित्र रखें तथा अपने सामने पूजा स्थान में देवी-देवताओं के मध्य में गुरू यंत्र स्थापित करें, पारद गुरू यंत्र साक्षात् गुरू का प्रतीक स्वरूप है। गुरू पूजन साधना में फल, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, सुपारी, वस्त्र, कलश, चन्दन, नारियल, कुंकुंम, केशर आवश्यक है, सर्वप्रथम पीपल के पत्ते से कलश में से जल लेकर सभी दिशाओं में आसन स्थान पर पूजा स्थान पर जल छिड़कें तथा शुद्धिकरण क्रिया करें, तथा दोनों हाथ जोड़ कर गुरूदेव के ध्यान के समय गुरू चित्र के आज्ञा चक्र की ओर देखते हुये और अपने हृदय से इस प्रकार ध्यान करें कि गुरूदेव आपके सामने स्पष्ट हों-
अर्थात शिर स्थित सहस्त्रदल कमल के मध्य में हंस पीठ के ऊपर गौर शरीर, प्रसन्न मुखमण्डल, शांत मूर्ति, सुर शक्ति सहित, शिव स्वरूप गुरूदेव आपको आपका शिष्य ध्यान कर रहा है।
ब्रह्मरंध्र के मध्य में श्वेत वर्ण, द्विभुज, द्विनेत्र गुरू स्थित है उनके वस्त्र श्वेत हैं, श्वेत माला पहने हुये, श्वेत चंदन लगाये हैं, उनके एक हाथ में वर तथा दूसरे हाथ में अभय है, उनकी मूर्ति शांत और करूणामय है, उनकी बायीं और रक्त वर्ण शक्ति है, इस प्रकार ध्यान करें।
फिर दाहिना हाथ अपनी नाभि पर रख कर उस पर बायां हाथ रख कर नाभि स्थल में गुरूदेव का ध्यान करें-
शुक्ल वर्ण वाले गुरूदेव, साक्षात् ब्रह्म एवं ज्ञान स्वरूप हैं, वे अपनी साधनात्मक शक्ति सहित सहस्त्रार में स्थित होकर शिष्य को एक हाथ से वर तथा दूसरे हाथ से अभय प्रदान कर रहे हैं।
इसके बाद गुरू का आह्नान करें-
ऊँ ऐं परम गुरवे सशक्तिकम श्री नारायणाय गुरवे आवाहनं समर्पयामि ।
ऊँ स्वरूप निरूपण हेतवे नारायणाय श्री गुरवे नमः
ऊँ स्वच्छ प्रकाश विमर्श हेतवे नारायणाय श्री गुरवे नमः।
ऊँ स्वात्माराम पंजर विलीन तेजसे श्री परमेष्टि
नारायणाय गुरवे नमः आवाहनं समर्पयामि पूजयामि
इसके बाद गन्ध, पूष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और
ताम्बूल (सुपारी) इन छः उपकरणों से गुरूदेव का संक्षिप्त
पूजन करना चाहिये।
1- पृथ्वी को गन्ध स्वरूप मानें, 2- आकाश को पुष्प स्वरूप
मानें, 3- वायु को धूप स्वरूप माने, 4- अग्नि को दीप स्वरूप
मानें, 5- अमृत को नैवेद्य स्वरूप माने, 6- वातावरण को
ताम्बूल (सुपारी) स्वरूप मानें।
पूजा
गन्ध – दोनों हाथों के अंगुष्ठ और कनिष्ठा उंगलियों के योग से गुरूदेव को गन्ध समर्पित करें-
ऐं कनिष्ठिकाभ्यां लं पृथिव्यात्मकं गन्धं स शक्तिकं श्री गुरवे समर्पयामि नमः ।
पुष्प- दोनों हाथों के अंगुष्ठ और तर्जनी के योग से गुरूदेव को पुष्प समर्पित करें-
ऐं तर्जनीभ्यां हं आकाशात्मकं पुष्पं स शक्तिकं श्री गुरवे समर्पयामि नमः।
धूप- दोनों हाथों की तर्जनी और अंगुष्ठ के सहयोग से धूप समर्पित करें-
ऐं तर्जनीभ्यां यं वाय्वात्मकं धूपं स शक्तिकं श्री गुरवे समर्पयामि नमः ।
दीप- दोनों हाथों की मध्यमा और अंगुष्ठ के योग से दीप दिखायें-
ऐं मध्यमाभ्यां रं हृदयात्मकं दीपं स शक्तिकं श्री गुरवे समर्पयामि नमः ।
नैवेद्य – दोनों हाथों की अनामिका और अंगुष्ठ के योग से नैवेद्य समर्पित करें-
ऐं अनामिकाभ्यां अमृतात्मकं नैवेद्यं स शक्तिकं श्री गुरवे समर्पयामि नमः ।
ताम्बूल – दोनों हाथ जोड़कर ताम्बूल (सुपारी) प्रदान करें
ऐं करतलकर पृष्ठाभ्यां सर्वात्मकं ताम्बूलं स शक्तिकं
श्री गुरवे समर्पयामि नमः ।
इस प्रकार छः उपकरणों से गुरूदेव का पूजन करें, यदि ये पदार्थ उपलब्ध हों तो वे पदार्थ ‘पारद गुरू यंत्र’ के आगे समर्पित करें, और न हो तो मानसिक रूप से ऊपर लिखे अनुसार मानसिक उपकरण पूजन समर्पित करें, इसके बाद करन्यास करें-
करन्यास अंगन्यास
ऊँ अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ऊँ तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ऊँ मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ऊँ अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं
ऊँ कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्रत्रयाय वौषट्
ऊँ करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
कर न्यास में सभी उंगलियों को तथा अंगन्यास में सारे शरीर का स्पर्श कना चाहिये।
जप – इसके बाद ‘गुरू चैतन्य माला’ से ‘गुरू मंत्र’ का जप करें।
यदि शिष्य अथवा शिष्या दीक्षित हो तो गुरू मंत्र
मंत्र का जप करें, यह मंत्र जप एक माला अर्थात् 108 बार उच्चारण करें। इसके बाद गुरू पंक्ति नमस्कार करें-
ऊँ गुरूभ्यो नमः ।
ऊँ परम गुरूभ्यो नमः ।
ऊँ परापर गुरूभ्यो नमः ।
ऊँ सर्व गुरूभ्यो नमः ।
इसके बाद ‘ऐं’ मंत्र का 108 बार जप कर गौ योनि मुद्रा (दांये या बाये हाथ की मुट्ठी बांधन से कनिष्ठिका अंगुली के मूल के नीचे के भाग में जो योनि की आकृति बनती है, उसे गौ योनि मुद्रा कहते हैं) से गुरू के चरणों में जप समर्पण करें।
फिर गुरू को प्रणिपात होकर नमस्कार करें-
अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
न गुरोरधिकं तत्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्व ज्ञानं परं नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानांजन शलाकया ।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
नमोऽस्तु गुरवे तस्मै इष्ट देव स्वरूपिणे ।
यस्य वागमृतं हन्ति विषं संसार संज्ञकम ।।
भव पाश विनाशाय ज्ञान दृष्टि प्रदर्शिने ।
नमः सद्गुरवे तस्मै भुक्ति मुक्ति प्रदायिने ।।
नराकृति परब्रह्मरूपायाज्ञान हारिणे ।
कुलधर्म प्रकाशाय तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
इस प्रकार गुरूदेव को नमस्कार कर वाग्भव बीज मंत्र द्वारा ‘ऐं’ तीन बार प्राणायाम करे, गुरू को अपने सामर्थ्य अनुसार दक्षिणा अर्पित करे। साधक को गुरू पूजन के पश्चात् गुरू आरती एवं समर्पण स्तुति सम्पन्न करें।
इस साधना के द्वारा साधक चैतन्य शुद्धमय हो जाता है, उसकी वाणी में सागर के समान गम्भीरता आ जाती है। उसके नेत्रों में असीम करूणा और सम्मोहनी शक्ति व्याप्त हो जाती है। उसके चेहरे पर अद्भूत् शांति विद्यमान हो जाती है। क्योंकि उसे तो साक्षात गुरूदेव की उपस्थिति का भान होता रहता है। क्योंकि बाहर कही नहीं स्वयं उसके भीतर ही सद्गुरूदेव पूर्णता के साथ स्थापित हो चुके होते है। ऐसे साधक पर गुरूदेव कि सीधी दृष्टि होती है।
और जब वे स्वयं अनुभव कर लेते है कि मेरे विशेष साधक का लक्ष्य केवल आत्मोन्नति के माध्यम से जन कल्याण के लिये हितकारी बनाना है तो वे ऐसी विभूतियां स्वयं प्रदान कर देते है। जिसका शिष्य को भान तक नहीं होता। जो साधक गुरू साधना को ही अपने जीवन का आधार बना लेते है उनके सौभाग्य में निरन्तर वृद्धि होती रहती है।
नमस्तुभ्यं महा मंत्र दायिने शिवरूपिणे ।
ब्रह्म ज्ञान प्रकाशाय संसार दुःख तारिणे ।।
अति सौभाग्य विद्याय वीरायाज्ञान हारिणे ।
नमस्ते कुल नाथाय कुल कौलिन्यदायिने ।।
शिव तत्व प्रकाशाय ब्रह्म तत्व प्रकाशिने ।
नमस्ते गुरवे तुभ्यं साधकाभय दायिने ।।
अनाचाराचार भाव बोधाय भाव हेतवे ।
भावाभाव विनिर्मुक्त मुक्ति दात्रे नमो नमः ।।
नमस्ते सम्भवे तुभ्यं दिव्य भाव प्रकाशिने ।
ज्ञानानन्द स्वरूपाय विभवाय नमो नमः ।।
शिवाय शक्ति नाथाय सच्चिदानंद रूपिणे ।
काम रूपाय कामाय काम केलि कलात्मने ।।
कुल पूजोपदेशाय कुलाचार स्वरूपिणे ।
आरक्त निज तच्छक्ति वाम भाग विभूतये ।।
नमस्तेऽस्तु महेशाय नमस्तेऽस्तु नमो नमः ।
इद स्तोत्रं पठेन्नित्यं साधको गुरू दिघ्मुखः ।।
प्रातरूत्थाय देवेशि! ततो विद्या प्रसीदति ।
कुल सम्भव पूजायामादौ यो नः पठेदिदम् ।।
विफला तस्य पूजा स्यादभिचाराय कल्प्यते ।
इति कुब्जिका तंत्रे गुरू स्तोत्रं समाप्तम् ।।
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