भगवान गणपति का नाम एक ऐसा पावन उच्चारण है। जिससे स्वतः ही सर्वत्र मंगलता प्रतीत होने लग जाती है। उनका स्वरूप इतना तेजस्वी है, कि उनके स्मरण मात्र से जीवन के विविध अंधकार समाप्त होने लग जाते हैं तथा उनकी साधना से तो किसी अशुभ का स्थिर रहना असंभव ही है, किन्तु यदि किसी भी व्यक्ति से पूछा जाये, तो वह दो कथाओं के अतिरिक्त शायद ही तीसरी कथा उनके विषय में बता सके। प्रथम तो वह कथा, जिसमें उनकी उत्पत्ति एवं उनके गजानन होने का रहस्य निहित है तथा द्वितीय वह, जिसमें उन्हें माता-पिता की परिक्रमा करने वाला वर्णित किया गया है।
मंगल मूर्ति श्री गणेश का केवल इतना ही परिचय नहीं है, वरन् इससे कहीं अधिक विस्तार से उनका पावन चरित्र विद्यमान है। उनके लीला स्वरूपों का वर्णन तो यद्यपि विस्तार से प्राप्त नहीं होता है, किन्तु साधकों के मध्य उनके अनेक रूपों की साधना पद्धतियों से ज्ञात होता है, कि किस प्रकार से वे साक्षात् ज्ञान स्वरूप होने के साथ ही प्रचंड तांत्रोक्त रूप में भी विद्यमान हैं। बाह्य स्वरूप से सर्वथा शांत होने के साथ ही साथ उनके भीतर जिस प्रकार का अग्नि प्रकाश छिपा है, उसका साक्षात् तो केवल साधक ही साधना के माध्यम से कर सकता है।
यदि लोक परंपराओं में विद्यमान कथाओं को एक बार हम विस्मृत कर दें, तब ज्ञात होता है, कि प्राचीन साहित्य में उन्हें केवल शिव-पार्वती का पुत्र ही नहीं, साक्षात् ब्रह्म स्वरूप ही माना गया है। जिस प्रकार शक्ति में सत, रज एवं तम तीनों गुणों की धारणा की गई है, ठीक उसी प्रकार से मात्र प्रथम स्मरणीय देव के रूप में भी तीनों ही गुणों की धारणा की गई है और जनमानस में प्रथम स्मरणीय देव के रूप में विद्यमान है।
भगवान श्री गणपति की साधना, साधना जगत में अत्यन्त सौम्य, श्रेष्ठ एवं सर्वोच्च मानी गई है, यद्यपि ऐसे साधकों की संख्या अधिक है, जिन्होंने गणपति साधना को ही अपने जीवन का आधार बनाया हो। विशेषकर पश्चिम भारत में भगवान श्री गणपति की उपासना सर्वाधिक प्रबल रूप से होती है, लेकिन उपासना एवं साधना में पर्याप्त भेद होता है, इस तथ्य से कोई भी विद्वान असहमत नहीं हो सकता।
उपासना का सीधा सा अर्थ- देव विशेष को अपने सुख-दुःख का साक्षी स्वीकार कर लेना एवं उसके समक्ष सब कुछ निवेदित कर देना, उसे अपने जीवन का आधार बना लेना। जबकि साधना में अंतर यह होता है, कि साधना उस देव-विशेष के गुणों, तत्वों से परिचय प्राप्त कर तदनुकूल अपने आपमें ही पात्रता बनाने की क्रिया होती है। इस प्रकार से उसे अधिकृत किया जाता है, कि वह साधक की इच्छानुसार स्वरूप में आकर उसके शरीर में समाहित हो जाये तथा उसे उसका अभीष्ट प्रदान करें।
भगवान गणपति का स्वरूप सर्व प्रकारेण विघ्नहर्ता ही है, इससे किसी को भी असहमति नहीं हो सकती, किन्तु उनके किस स्वरूप का किस अवसर पर ध्यान करें, इसमें मतभेद है। उदाहरण के लिये उनके जिस स्वरूप का ध्यान विवाह आदि मंगल कार्यों में किया जाता है, कोई आवश्यक नहीं, कि उसी स्वरूप का ध्यान शत्रु संहार एवं अरिष्ट निवारण में भी किया जाये, क्योंकि विवाह आदि मंगल कार्यों में वे देवत्व की गरिमा से आपूरित स्वरूप में एक प्रकार से अत्यन्त आह्लाद एवं अभिभावकत्व के भावों से भरे हुये उपस्थित होते हैं, जबकि शत्रु संहार में वे अत्यन्त विकट एवं भयानक स्वरूप में प्रकट होते हैं। उच्चकोटि के गणपति साधक जानते हैं, कि किस प्रकार से भगवान गणपति का तीव्र स्वरूप भी होता है। वस्तुतः उच्चकोटि के साधक भगवान गणपति के उसी तीव्र एवं उन्मत्त स्वरूप का ही आह्नान अपने जीवन में करते हैं। जो विघ्न विनाशक हो। जिससे सभी प्रकार की विपत्तियों का शमन हो जाये।
साधक जब नव निधि शक्ति को प्राप्त करने का मानस बनाता है, तब कुछ ऐसी बाधायें आती हैं, जिनसे धैर्य समाप्त होने लगता है तथा साधना से मन उच्चाट् होने लगता है। किसी भी साधक के लिये यह स्थिति अत्यन्त शोकदायक होती है, किन्तु ऐसी परिस्थितियों से संभल कर साधना में प्रवृत्त होना ही सफलता की ओर अग्रसर करता है। इसलिये इस साधना को सम्पन्न करने से पूर्व दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है ही। क्योंकि जो साधक नव निधियों में से किसी भी एक की सिद्धि कर लेगा, तो वह जीवन के सभी सुखों से युक्त हो जाता है। और यह भी सत्य है कि जो साधक इन सिद्धियों में से किसी भी एक सिद्धि को भी प्राप्त कर लेता है, वह अत्यन्त शीघ्र शेष सभी सिद्धियों को भी प्राप्त कर लेता है।
पद्म निधि- सात्विक तथा स्वर्ण, चांदी आभूषणों से परिपूर्ण होता है।
महापद्म निधि- धन का अजस्त्र संग्रह होता है।
नील निधि- सात्विक तेज से संयुक्त होता है, और उसकी संपत्ति तीन पीढ़ी तक रहती है।
मुकुंद निधि- रजोगुण संपन्न होता है, राजयोग की प्राप्ति होती है।
नन्द निधि- राजस और तामस गुणों से युक्त होता है, तथा वही कुल का आधार होता है।
मकर निधि- बल, बुद्धि, विजय भाव से युक्त होता है।
कच्छप निधि- जीवन में सभी सुखों से युक्त होते हैं, अर्थात् सभी प्रकार से उपभोग करते हैं।
शंख निधि- सम्पूर्ण जीवन आनन्दमय होता है।
खर्व निधि- सभी प्रकार के मिश्रित फल प्राप्त होते हैं।
इस महत्वपूर्ण साधना को पूर्ण विधि-विधान से सम्पन्न करना होता है। यह साधना गणेश सिद्धि महादिवस 05 सितम्बर अथवा किसी भी बुधवार को सम्पन्न की जा सकती है। यह साधना रात्रिकालीन साधना है।
भगवान गणपति का सीधा सा तात्पर्य है, कि वे समस्त ‘गणों’ के स्वामी हैं। उनके इसी स्वरूप में उनकी चारों भुजाओं में क्रमशः परशु, त्रिशूल, गजदन्त एवं चक्र की धारणा की गई है अर्थात् वे पूर्णतया संहार मुद्रा में हैं। यही रहस्य उनके पीत वर्णीय नेत्रों का भी है। पीत वर्ण का सम्बन्ध साधनाओं में विष से माना गया है और यह पीत वर्ण उज्ज्वल आभायुक्त नहीं, वरन् मलिनता से युक्त रक्ताभ पीत वर्ण है, जिसका तात्पर्य है, कि भगवान श्री गणपति ने उन समस्त अशुभ वस्तुओं को अपने में समाहित कर लिया है, जो कि अन्यथा साधक के जीवन में अनिष्ट घटित करती हैं।
भगवान गणपति अपने साधक के लिये कल्पवृक्ष के समान फलप्रदायक हैं, उसे समस्त भौतिक सुख, सम्पत्ति समस्त नौ निधियां प्राप्त होती हैं। गणपति विद्या के आगार हैं, अतः वे अपने साधक को कुशाग्र बुद्धि प्रदान करते हैं और इसके साथ ओंकारवत् होने के कारण अपने साधक को अष्टपाशों से मुक्त कर आध्यात्म्कि रूप से परिपूर्ण करते हैं।
गणपति उपनिषद् के अनुसार गणपति का सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रिय मंत्र निम्न है –
साधक या गृहस्थ व्यक्ति को चाहिये कि वह इस मंत्र का जप निरन्तर करता रहे, सोते समय भी इस मंत्र का सतत् जप किया जा सकता है, यह मंत्र अपूर्व सिद्धि एवं फलदायक है।
साधक पीले वस्त्र धारण कर पीले आसन पर पूर्व की ओर मुंह कर बैठ जायें तथा अपने सामने किसी बाजोट पर ताम्रपात्र में स्वस्तिक बनाकर सर्व विघ्न विनाशक गणपति विग्रह को स्थापित करें तथा नवनिधि गुटिका को यंत्र के ऊपर रखें। दीपक प्रज्जवलित कर तत्पश्चात पूजन प्रारम्भ करें।
दोनों हाथ जोड़कर भगवान गणपति का स्मरण करें-
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
द्वादशै तानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ।।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
संग्रामें संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ।।
शुक्लाम्बर धरं देवं शशिवर्ण चतुर्भुजं ।
प्रसन्न वदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशान्तये ।।
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः ।
येषा मिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ।।
अभीप्सितार्थ सिद्धयर्थ पूजितो यः सुरासुरैः ।
सर्व विघ्न हरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ।।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते ।।
सर्वदा सर्व कार्येषु नास्ति तेषाममंगलम् ।
येषां दिस्थो भगवान् मंगलायतनो हरिः ।।
तदेव लग्नं सुदिनं तदैव तारा बलं चन्द्र बलं तदैव ।
विद्या बलं दैव बलं तदैव लक्ष्मीपतेस्तेघ्रियुगस्मरामि ।।
यत्र योगेश्वर कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्री विजयो मूर्ति र्धुवानीति मतिर्मम् ।
सर्वेष्वारंभ कार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः ।
देवाः दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशान महेश्वराः ।।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभः ।
निर्विघ्नं कुरू में देव सर्वकार्येषु सिद्धिदा ।।
ऋद्धि, सिद्धि नवनिधि सहितं महागणपतिं आवाहयामि
स्थापयामि नमः ।
भगवान गणपति को जल से स्नान करायें-
ऊँ वरूणस्योस्तम्भनमसि वरूणस्यकुम्भ सर्जनीस्थो
वरूणस्य ऋत सदन्यसि वरूणस्य ऋत सदनमसि वरूणस्य
ऋतसदनमासीत्।
तीन बार आचमनी से पुनः जल चढ़ायें-
तत्रदौ एतोऽस्मानं पंचामृत स्नानं कुर्यात् ।
दूध, दही, घी, शक्कर, शहद मिलाकर पंचामृत बनायें तथा उससे स्नान करायें-
पयो दधि घृतं मधु च शर्करा युतं पंचामृत देव्यो
स्नानार्थम् ऊँ पंचामृतं सरस्वती घट वरो सरस्वती च
धारार्थ देवं च भव सहितं दुग्ध, दधि, घृतं, मधु शर्करां तां
पंचामृत रूपेण पंचामृत स्नानं समर्पयामि नमः ।
तत्रदौ पुनः शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि नमः ।
पुनः शुद्ध जल से स्नान करायें
ऊँ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनः श्वेतः
श्वेताक्षोऽरूणस्ते रूद्राय पशुपतये कर्णयामा अवलिप्ता
रौद्रा नभोरूपा पार्जन्याः पुष्पेण प्रक्षालयामि नमः।
गणपति विग्रह को पुष्प से पोंछ कर उन्हें दूसरी प्लेट में स्वस्तिक बनाकर स्थापित करें तथा नवनिधि गुटिका को यंत्र के ऊपर स्थापित कर कुंकुम, अक्षत व पुष्प एक साथ अर्पित करें।
प्रसाद व ऋतु फल अर्पित करें-
इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव।
तेन मे सफलावाप्तिः भवेज्जन्मनि जन्मनि।।
फलानि समर्पयामि नमः।
रिद्धि-सिद्धि माला से निम्न मंत्र का 3 माला मंत्र जप करें-
जप के पश्चात् गणपति विग्रह पूजा स्थान में स्थापित रहने दें, नवनिधि गुटिका को लाल कपड़े में बांधकर तिजोरी में रख दें। और रिद्धि-सिद्धि माला को प्रतिदिन 20 मिनट तक धारण कर 21 बार मंत्र जप करते रहें। जिससे हर स्वरूप में नवनिधि की चेतना प्राप्त होती रहेगी। अन्त में गणपति आरती सम्पन्न करें।
प्रत्येक मनुष्य यही चाहता है कि वह विष्णु के समान अपने जीवन का पालनकर्त्ता स्वयं हो, उसे किसी के आगे हाथ ना फ़ैलाना पड़े, वह किसी के अधीन ना हो तथा लक्ष्मी रूपी शक्ति सदैव उसके साथ रहे, जिससे वह भगवान विष्णु के समान सभी कलाओं से पूर्ण हो सकें।
05 सितम्बर गणेश चतुर्थी भगवान विघ्नहर्ता गणपति का अवतरण दिवस से 15 सितम्बर अनंत चतुर्दशी जो पूर्ण रूपेण अनन्त-अनन्त रूप में श्रेष्ठता प्रदान करती है। ऐसे श्रेष्ठतम अवसर में रिद्धि-सिद्धि को अनन्त स्वरूप में ग्रहण कर जीवन की अभिलाषाओं को पूर्ण किया जा सकता है। अनन्त का तात्पर्य ही यही है जो कभी क्षय ना हों और अनन्त रूप में प्राप्त होता रहें। गणपति विनायक अनन्त दीक्षा प्राप्त करने से जीवन में सुख, समृद्धि, धन, ऐश्वर्य, शुभ-लाभ, प्रेम, बुद्धि, वाहन, भू, भवन की प्राप्ति होती है। साथ विघ्नहर्ता गणपति जीवन की सभी बाधाओं का शमन करते ही हैं, जिससे साधक अपने जीवन का पालनकर्ता स्वयं बन जाता है और शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी सदा उसके साथ विद्यमान रहती हैं।
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