शंकराचार्य ने जब अपनी माता की मुक्ति के लिये भगवान कृष्ण से प्रार्थना की, तो वे शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा सभी कलाओं से युक्त हो श्री सम्पन्न रूप में उनके सामने प्रकट हुये और उन्हें कृतार्थ किया। यह उनकी महान कृपा है, जो पूर्ण पुरूषोत्तम, योगेश्वर भगवान कृष्ण अपने समस्त अंशों सहित सारस्वत कल्प में अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ इस भूमण्डल को सौभाग्यशाली व पुण्य प्रदायक बनाने हेतु अपने पूर्ण रूप में अवतरित हुये।
अर्थात् ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य इन छः का नाम भग है, और ये भगवान के स्वरूप हैं। ऐश्वर्य- उस सर्व वशीकारिता शक्ति को कहते हैं, जो सभी पर निर्बाध रूप से अपना प्रभाव स्थापित कर सके। धर्म- उसका नाम है, जिससे सभी का मंगल और उद्धार होता है। यश- अनन्त ब्रह्माण्ड व्यापिनी मंगल कीर्ति है। श्री- ब्रह्माण्ड की समस्त सम्पत्तियों का जो एकमात्र मूल स्वरूप महान शक्ति है। वैराग्य- साम्राज्य, शक्ति, यश आदि में जो स्वभाविक अनासक्ति है। ज्ञान- ज्ञान तो स्वयं भगवान का दिव्य स्वरूप ही है। सर्वकाल की समस्त वस्तुओं के साक्षात्कार को ज्ञान कहते हैं।
श्री कृष्ण प्रकारान्तर से चौसठ कला सम्पन्न बताये गये हैं। इनमें से पचास तो उच्चभूमि पर आधारित जीवों में उन्हीं की कृपा से जागृत होते हैं, किन्तु इसके अतिरिक्त पांच गुण ऐसे हैं, जो श्री रूद्र में होते हैं, पांच गुण श्रीपति में प्रकट हैं। किन्तु चार ऐसे गुण हैं, जिनका पूर्ण प्राकट्य केवल मात्र कृष्ण में ही है। वे गुण हैं- लीला माधुरी, प्रेम माधुरी, रूप माधुरी और वेणु माधुरी इन चारों दिव्य गुणों के कारण ही वे मधुरातिमधुर हैं।
योगेश्वर कृष्णमय चौसठ कला पूर्ण चैतन्य दीक्षा धारण कर निश्चित रूप से जीवन के प्रत्येक रंगों को स्वयं में समाहित करते हुये भौतिक सुखों को पूर्ण रूप से भोग सकेंगे। साथ ही कृष्णमय कला से जीवन शौर्य, प्रेम, मित्रता, सम्मोहन, आकर्षण, जीवन संग्राम वीरता, राजनीति, कला प्रवीण, वाक्पटु व मनोहर छवि से युक्त होकर महाभारत रूपी जीवन महासंग्राम में विजय प्राप्त कर सकेंगे। साथ ही आर्थिक सुदृढ़ता, श्रेष्ठ सफलता, सम्पन्नता, सौन्दर्य, आरोग्यता, पूर्ण पौरूष, भौतिक और आध्यात्मिक जीवन की चेतना प्राप्त हो सकेगी। जिससे योगी व भोगी दोनों पक्षों को पूर्णता से ग्रहण कर सकेंगे।
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