अमृतत्व को त्याग के द्वारा ही पाया जा सकता है। धन, संतान ऐश्वर्य के द्वारा नहीं। स्वर्ग से ऊपर हृदय की गुफा ब्रह्मलोक में परम तत्व आलोकित है, जिसे निष्ठावान साधक ही प्राप्त कर सकते है।
मानव ने अमृत प्राप्ति के लिये जितने भी प्रयास किये हैं, उन सब में वह असफल रहा है। केवल त्याग के द्वारा ही ब्रह्म ज्ञानीयों ने उसे पाया है। उसे पाने की शर्त एक ही है निष्ठा।
अमृत पाने की तीव्र आकांक्षा इसलिये है कि अमृत कभी मिट नहीं सकता वह अमिट है और आप कुछ भी प्राप्त करें, वह सब तो समाप्त हो जाने वाला है। इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जो शाश्वत हो, इसलिये ब्रह्म ज्ञानियों ने यही खोज की जो शाश्वत है, जो सदैव है, जो समाप्त नहीं हो सकता, वह मरता भी नहीं है, वह अटल है। यदि हमारा सम्बन्ध उससे हो जाये हम भी उस जैसे ही हो जायेगें। हममें कोई भेद ना होगा। हम निर्भय हो जायेंगे क्योंकि अब भय किस बात का जब हम अमृत हो गये है और अमृत तो शाश्वत होता है।
हमारा पूरा जीवन धन, पुत्र व पति-पत्नी पर ही आधारित हो गया है, मनुष्य धन कमाने की होड में, प्रतिस्पर्धा में रात-दिन कोल्हू के बैल की समान लगा रह कर अच्छे-बुरे कर्म करता है। यदि उसे इस बात के लिये मना करे अथवा त्याग करने के लिये कहें तो वह मानेगा नहीं जैसे मैं कहूं कि तुम यह नौकरी छोड दो तो तुम नौकरी का त्याग नहीं करोगे अथवा मैं यह कहूं कि अपने व्यवसाय को त्याग दें तो भी तुम ऐसा नहीं करोगे। व्यक्ति जीवन भर धन इसीलिये एकत्र करता रहता है कि धन से कुछ ऐसा मिल जायेगा, जिससे मैं सुरक्षित रह सकूंगा जो समाप्त नहीं होगा लेकिन धन कमाने वाले भी समाप्त हो जाते हैं तो धन कैसे बच सकता है? अतः धन से उस परम तत्व को पाना असंभव है।
व्यक्ति ऐसा सोचते है कि उनका पुत्र बड़ा होकर पढ़ लिख कर, व्यवस्थित होकर विवाहित हो जाये तथा फिर उसके बच्चे भी इसी प्रकार सेटल हो जाये। लेकिन उस व्यक्ति से यदि यह पूछा जाये इस सब को करने का क्या प्रयोजन है? क्योंकि ऐसा तो तुम पीढी-दर-पीढी करते ही आ रहे हो। तुम ही क्या और भी ऐसा ही कर रहे है, क्या इस प्रकार करने से तुम्हें अमृत्व की प्राप्ति हो जायेगी? ऐसा नहीं हो सकता। अमृत तो केवल त्याग से ही मिल सकता है।
ऐसा भी नहीं है कि निरंतर कर्मशील हो जाये तो अमृत मिल जायेगा। सुबह से शाम तक, शाम से सुबह तक पूरे जन्म भर कुछ न कुछ करने की सनक। वह सोचते हैं, हम कुछ करेंगे तो ही मिल पायेगा परन्तु करने से कुछ नहीं मिल पायेगा। अमृत कर्म करने से पैदा नहीं होता। अमृत तो हमारे हृदय की गुफा में छुपा है वह तो पहले से ही उपस्थित है। उसे तो केवल खोजना है, पाना है केवल, पैदा नहीं करना। हमारे कर्म की किसी भी रूप रेखा से वह पैदा नहीं हो सकता। ध्यान रहें कि हम अज्ञानी है, तो हमारे कर्म करने से ज्ञान कैसे पैदा होगा। अमृत को हम पैदा नहीं कर सकते। वस्तुतः हम अमृत से ही पैदा होते हैं, सभी कर्मों के पीछे वह परम तत्व, वह अमृत छिपा हुआ है। कुछ भी नहीं करेंगे तो भी अमृत की उपस्थिति है, अतः उसे कर्म के द्वारा भी नहीं पाया जा सकता।
त्याग करके ब्रह्म ज्ञानियों ने उस अमृत के स्वाद को चखा है और त्याग वह नहीं है जो तुम सोचते हो कि धन का त्याग कर दिया, राज महल का त्याग कर दिया। सम्पदा राज्य का त्याग कर दिया, जैसे बुद्ध ने साम्राज्य का त्याग कर दिया लेकिन साम्राज्य तो बुद्ध से पहले भी था। बुद्ध के छोडने के बाद भी रहा। लेकिन रहे या न रहें बुद्ध को अब कोई वास्ता नहीं था। कौन राजगद्दी पर है कौन नहीं। कोई आसक्ति बुद्ध की नहीं है अर्थात् किसी चीज को पकड़ना नहीं है। यह है त्याग अर्थात् लोभ नहीं करना, वासना के दल-दल से बाहर, कामनाओं के स्वर्ग से निकलना।
और ऐसा ही साधनाओं में भी होता है। साधनाओं में सफलता निष्ठावान साधक ही प्राप्त कर पाता है। साधना कोई एक दिन में ही नहीं सफल हो जाती है। अनेक बार असफलता मिलती है, बहुत बार ऐसा होगा सब कुछ बेकार है, कुछ भी प्राप्त नहीं होता और साधना बन्द करने को मन करता है। लेकिन प्रत्येक असफलता के पश्चात भी जो प्रयास करता रहे वहीं निष्ठावान है। जो साधना श्रद्धा से शुरू होती है और निष्ठा पर समाप्त होती है, वही सफलता का, अमृत प्राप्ति का, परम तत्व का अधिकारी बन पाता है।
आप किसी भी साधना को सच्चाई पूर्वक नहीं करते। यदि गुरु कहता है, ‘उपनिषद का अध्ययन कर मनन तथा निदिध्यासन करो’ तो आप कहते हैं, ‘इसके लिये मेरे पास समय नहीं। मुझे आफिस में बहुत काम करना है। मैं इन सत्यों को समझ नहीं पाता। मेरी बुद्धि तीखी नहीं है।’ यदि गुरु कहता है, ‘तब राजयोग का अभ्यास करो तथा एक आसन पर एक या दो घंटे के लिये बैठ कर धीरे-धीरे वृत्तियों का त्याग करो।’ तब आप कहते हैं, ‘मैं तो पन्द्रह मिनट से अधिक बैठ ही नहीं पाता। यदि मैं दीर्घ काल तक बैठूं तो मेरा शरीर दुखने लगता है।’ यदि गुरु कहता है, ‘तो उपासना करो। भगवान कृष्ण की पूजा करो अपने सामने एक चित्र रखो।’ आप कहेंगे, ‘उपासना में क्या रखा है। मूर्ति पूजा व्यर्थ है। मैं चित्र पर ध्यान नहीं कर सकता। यह तो कलाकार की कल्पना मात्र हैं। मैं तो निराकार सर्वव्यापक ब्रह्म पर ध्यान करना चाहता हूं। चित्र पर ध्यान करना तो बच्चों का खेल है। यह मेरे लायक नहीं।’ तो गुरु कहता है, ‘तब नित्य प्रति दो घंटे कीर्तन तथा जप करो।’ आप कहते हैं, ‘जप तथा कीर्तन में कुछ रखा नहीं। यह तो मन्द अधिकारियों के लिये है। मैं तो विज्ञान जानता हूं। मैं इन चीजों को नहीं कर सकता। मैं जप तथा कीर्तन से ऊपर उठ गया हूं। मैं आधुनिक व्यक्ति हूं।’ यदि पुरोहित विधिवत हवन करता है तो आप कहेंगे, ‘हे पुरोहित जी! आप यह सब क्या कर रहे हैं? शीघ्रता कीजिये। मुझे भूख लगी हुई है। मुझे दस बजे आफिस जाना है।’ यदि पुरोहित जल्दबाजी करता है तो आप कहेंगे, ‘यह क्या? इस पुरोहित ने कुछ समय के लिये कुछ मन्त्र उच्चारण किया और अब कहता है कि हवन पूरा हो गया। यह केवल समय रूपये तथा शक्ति की बरबादी है। मुझे हवन में श्रद्धा नहीं। इससे कुछ भी भलाई नहीं।’ यदि गुरु कहता है, ‘तो प्राणायाम करो, शीर्षासन का अभ्यास करो। तुम्हारी कुण्डलिनी शीघ्र ही जाग्रत हो जायेगी।’ आप कहेंगे, ‘मैंने छः महीने तक प्राणायाम का अभ्यास किया है। शरीर बहुत ही गर्म हो जाता है। मैंने अभ्यास छोड़ दिया। शीर्षासन करते समय मैं गिर पड़ता था। मैंने उसे भी त्याग दिया।’ यही आपकी हालत है, फिर भी आप पल मात्र में निर्विकल्प समाधि चाहते हैं।
गुफा का अर्थ समझो तो पहाड़ी गुफा तुमने देखी होगी कि कहीं से संकीर्ण रास्ता होता है, अन्दर जाने का। लेकिन दूर से पहाड़ ही नजर आता है, मार्ग कही नहीं दिखाई पड़ता, यह भी कल्पना नहीं कर सकते कि इस पहाड़ के अन्दर कोई गुफा है भी या नहीं, अन्दर ही जाकर पता कर सकते हैं। बाहर से तोड़ भी देंगे तो गुफा होगी भी तो तोड़ने पर समाप्त हो जायेगी क्योंकि दीवार टूटने पर गुफा का औचित्य ही नहीं रहेगा। समीप जाने पर ही कभी रास्ता दिखाई दे जाता है। लेकिन हमें अन्दर घुसने में भी भय लगता है कि पता नहीं अन्दर क्या होगा। उस अमृत को पाने के लिये ही ऐसी ही परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है।
किसी-किसी को पहली बार में ही साधना सिद्ध हो जाती है, तो किसी को अनेक बार प्रयास करके भी नहीं तो यह बात यहां पर सिद्ध होती है कि जिसको सफलता मिली है उसने पूर्व में अनेक प्रयास किये होंगे। जिनमें वह असफल रहा होगा और यह उसकी निरन्तरा का परिणाम है, कि वह सफल हुआ। निश्चित ही वह निष्ठावान साधक रहा है। अतः किसी दूसरे की सफलता तुम्हारी सफलता नहीं होगी। तुम्हारी सफलता, तुम्हारा सम्बन्ध ही केवल तुम्हारा होगा। तुम भी एक वैज्ञानिक की तरह बार-बार प्रयोग करो, प्रयास करो पूर्ण विश्वास से निष्ठा से तो एक दिन अवश्य ही सफल हो जाओगे।
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