हमारे मन में यह प्रश्न उठता है कि बुद्ध में ऐसा क्या था जो अन्य किसी में नहीं। और यदि आज बुद्ध होते तो शायद वे इसका जवाब यही देते कि प्रत्येक को अपने प्रश्नों का उत्तर स्वयं में ढूंढना चाहिये। भगवान बुद्ध के जीवन की अद्भुत कहानियां, किंवदंतियां, आदर्शों, नियम, हमारे जीवन के लिये प्रेरणाप्रद एवं शिक्षाप्रद है।
भगवान बुद्ध यानि सिद्धार्थ गौतम जब 29 वर्ष के थे तो उनके जीवन में परिवर्तन का वह क्षण उपस्थित हुआ जिसमें वे सिद्धार्थ गौतम से महात्मा बुद्ध बनने की ओर अग्रसर हुये। इन परिवर्तन के क्षणों में उनके मन में बडा उतार-चढ़ाव हो रहा था तभी वे अपने घर से निकल कर एक सन्यासी के रूप में आ गये, ऐसा क्यों हुआ? इसके बारे में वह स्वयं बाद में कहते है कि- सिद्धार्थ गौतम के पुत्र राहुल के जन्म लेने के पश्चात् उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि जो भी इस धरा पर जन्म लेता है क्या वह जीवन में व्याधि, बुढ़ापा और मृत्यु को सहन करने के लिये ही जन्म लेता है? इन विचारों का गौतम के आत्मचिन्तन में चिंगारी सी उठी, कि क्या इसी को ही जीवन कहते हैं?
इस बारे में कहा जाता है कि राज महल में ऐशो-आराम की जिंदगी व्यतीत करने वाले गौतम एक दिन राज महल से बाहर आये, तब उन्होंने वहां किसी बीमार व्याधिग्रस्त मनुष्य को तथा वृद्धावस्था से कांपते हुये मनुष्य को तथा कहीं पर किसी मृत व्यक्ति की अर्थी को श्मशान घाट की ओर ले जाते हुये देखा तब उन्होंने इन सब के बारे में सवाल किये तो उन्हें पता चला कि प्रत्येक मनुष्य वृद्धावस्था को प्राप्त होता है तथा प्रत्येक मनुष्य एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो ही जाता है।
तब गौतम के मन में विचार आया कि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक कष्ट ही झेलता रहता है। उसके पश्चात् उन्होंने एक गेरुए वस्त्र धारी सन्यासी को देखा जिसका सिर मुडा (केश रहित) हुआ था जो शांत प्रकृति का दिखाई पड़ता था। गौतम के मन में उसे देख कर यह विचार उत्पन्न हुआ कि मुझे भी इस प्रकार रहना चाहिये। उन सुख सुविधाओं से परे, पीड़ाओं से दूर जो इस जीवन में कभी समाप्त नहीं होती।
इन सब स्थितियों पर विचार करें तो हमें पता चलता है कि गौतम के करूणाशील हृदय में यह विचार उत्पन्न हुये थे कि मनुष्य इन दुःखों से किस प्रकार छुटकारा पा सकता है। इसकी खोज में उन्होंने स्वयं की आराम भरे जीवन का त्याग कर विकट परिस्थितियों में रह कर साधनायें सम्पन्न की तथा मृत्यु के मुख में जाने से वे कई बार बाल-बाल बचें और लगातार छः वर्ष तक वे भटकते रहे और 35 वर्ष की आयु में उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ और वह गौतम से बुद्ध बन गये। उन्हें जीवन की प्रथम चैतन्यता का बोधित्व हुआ।
इस 29 से 35 वर्ष तक की अवधि में उन्हे कितना संघर्ष करना पडा। पग-पग पर बाधाओं का सामना करना पडा, उस सब को सहन कर उन्हें क्या-क्या अनुभव हुये? तथा क्या-क्या प्राप्त हुआ? उस सब को उन्होंने मानव कल्याण के लिये अपने उपदेशों के माध्यम से लोगों में बांटा। अपनी तपस्या के समय का उन्होंने एक बार स्वयं वर्णन किया उन्ही के शब्दों में-‘जब मैं जंगल में अकेला रात बिताया करता था तो कई बार मुझे डर घेर लेता था। मैं वहां था तो कभी कोई हिरण मुझ तक आ जाता था या कोई मोर एक टहनी नीचे फेंक देता था या कभी हवा में नीचे गिरी हुयी पत्तियों के सरसराहट से मैं भयभीत होकर यह सोचने लगता था कि बस अब अन्त है। तभी मेरे मन में यह विचार आया कि मेरे अंदर यह भय निरंतर क्यों बना रहता है? उस समय मैं न तो चुपचाप खडा रहता था, न बैठता था, न ही सोता था, मैं यहां से वहां चलता रहता था और मैंने उस आतंक, संत्रास तथा विभीषिका को अपनी इच्छा शक्ति के आगे झुका दिया।
बुद्धत्व को उपलब्ध होने के पश्चात् उनके मन में यह संदेह उत्पन्न हुआ कि उनके पास जो ज्ञान है वह मनुष्यों को बताने का प्रयत्न करने पर क्या लाभप्रद और सार्थक होगा। उन्होंने सोचा कि उनका ज्ञान केवल बुद्धिमान लोगों के लिये ही है अर्थात् समाज के उच्च लोगों के लिये ही है और साधारण आदमी तो सभी तरह से शिक्षा देने के उपरान्त भी जैसा का तैसा ही रहेगा अगर मैं उन्हें सत्य का ज्ञान दूं भी तो वे उसे समझ नहीं पायेंगे, जिससे मैं आहत भी हूंगा और मेरा प्रयत्न भी निष्फल हो जायेगा। लेकिन तभी उनके मन में दूसरा विचार उत्पन्न हुआ।
ऐसा नहीं है कि प्रत्येक मनुष्य एवं स्त्री सत्य का साक्षात्कार करना नहीं चाहते हो। वह चाहते तो अवश्य है लेकिन इसके बारे में उन्हें किसी ने नहीं बताया। अगर कोई उन्हें सत्य के बारे में बतायें तो वे अवश्य उसे पाने के मार्ग पर चलेंगे और तब बुद्ध की करूणा एवं संवेदना ने उनके मन में उत्पन्न संदेह को झटक दिया तथा उन्होंने समस्त विश्व को सत्य का उपदेश देने का निर्णय ले लिया।
भगवान बुद्ध ने अपने प्रथम उपदेश में मध्य मार्ग का महत्व समझाया। उन्होंने बताया कि जीवन को भोग विलासिता के हवाले करना व्यर्थ है तथा उसी प्रकार भक्तों द्वारा स्वयं को यातना देना भी गलत है। अति से बचकर ज्ञान की खोज ऐसे उपायों से की जानी चाहिये जिसमें हमारा मस्तिष्क भ्रमित न हो- न शारीरिक पीडा से, न ही शारीरिक सुखों से। इस प्रकार मस्तिष्क को दिशा दी जा सकती है।
वह कौन सा लक्ष्य है? जिस तरफ मस्तिष्क को दिशा देनी चाहिये? इस प्रश्न की ओर कि मानसिक पीड़ा का अन्त किस प्रकार किया जाये। बुद्ध ने मनुष्य की आयु बढ़ने के साथ-साथ शारीरिक क्षमता कम होने, व्याधियां उत्पन्न से और अन्त में मौत से पीडि़त होते हुये देखा। हालांकि शरीर प्रकृति निर्मित एक स्वचालित क्रिया से संचालित है परंतु यदि मस्तिष्क स्वतंत्र रहे तथा आसक्ति का कोई भाव न रहे तो पीडा का अनुभव नहीं होगा। बुद्ध ने इसके लिये इच्छाओं से मुक्ति और त्याग की तत्परता पर जोर दिया। परन्तु उद्दाम इच्छाओं को देखते हुये सरल नहीं होगा। जो कभी यहां और कभी वहां उठती रहेगी, उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये मस्तिष्क को किस प्रकार प्रेरित किया जाय इस सम्बन्ध में उद्दात आठ सूत्री मार्ग दिखाया।
उन्होंने अपने संघ में महिलाओं को भी स्थान दिया तथा जात-पांत, ऊंच-नीच का कोई भेद भाव नहीं रखा। उनके चरणों में बडे-बडे राजाओं के ताज रखें गये तो निर्धन से निर्धन व्यक्ति को संघ में शामिल करने के लिये उत्सवों का आयोजन भी किया गया। उन्होंने एक जगह पर न बैठ कर पूरे भारत वर्ष में भ्रमण कर लोगों में सत्य का उपदेश दिया। अनेकों दुराचारियों को वह सद्मार्ग पर ले आये जो भी उनके सम्पर्क में आये मनुष्य जो क्रोधी, दुराचारी हिंसक वृत्तियों में लिप्त थे, उनको त्याग और अहिंसा का मार्ग दिखलाया।
बुद्ध चाहते थे कि लोग अपने विवेक के आधार पर अपने आन्तरिक प्रकाश और अच्छे बुरे परिणामों के अनुभव का इस्तेमाल करें और इसी आधार पर दर्शन पर अमल करें। इस दृष्टि से बुद्ध का आंकलन करने से यह पता लगता है कि वह अन्य धर्म गुरुओं से अलग थे क्योंकि वे अन्तिम फैसला प्रश्नकर्ता पर ही छोड देते थे। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों के लिये भिक्षुक मार्ग का चयन किया तथा अपने संदेश, ज्ञान और अनुभव का प्रचार-प्रसार जन साधारण में करने की जिम्मेदारी भिक्षुओं को सौंप दी। यह सब भगवान बुद्ध के शिष्यों (भिक्षुकों) के द्वारा संभव हो पाया।
आज के युग में यदि हम स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी के क्रिया कलापों तथा उनके जीवन चरित्र पर गौर करें तो 2500 वर्ष बाद वह महात्मा बुद्ध के समान समाधिस्थ व्यक्तित्व है। जिन्होने अपना घर-बार त्याग कर मानव मात्र की पीडाओं, दुखों का अन्त करने के लिये तथा अपनी खोजी प्रवृत्ति के कारण वनों में भटक कर, अनेकों कष्ट सहकर साधनाओं में निष्णात हुये तथा अलौकिक सिद्धियों के भण्डार बन गये उन्होंने अपनी सभी सिद्धियों को स्वयं के लिये प्रयोग न करके समाज के सभी वर्गों के लिये साधनाओं का मार्ग खोल दिया तथा दुःखी, पीडि़त, कुण्ठित, मानसिक रोगियों को साधना का अर्थ समझाया तथा विश्वास दिलाकर उसका महत्व समझाया। उन्होंने महात्मा बुद्ध के समान संसार भर में साधना शिविरों की श्रृंखला लगा कर प्राचीन विद्याओं को पुनर्स्थापित किया। जो आज के समय की अनिवार्यता है कि हम साधनाओं के मार्ग पर चल कर सफलता के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।
अब यह बुद्धिज्म युक्त निखिल शिष्यों का भी कर्त्तव्य है कि वह उनके ज्ञान का विस्तार हेतु, निखिल धर्म की पताका को विश्व भर में फैला दें। गुरु परम्परा में उन्होंने शक्तिपात दीक्षा का मार्ग साधकों के लिये सुगम कराया जिसे प्राप्त कर इस युग में मनुष्यों को सौ प्रतिशत सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है।
आज के युग की आवश्यकता के अनुरूप गुरु श्रृंखला में सद्गुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली जी अपनी तपस्यांश, अपनी सिद्धियों का बल गृहस्थ आश्रम के व्यक्तियों पर करके उन्हें सत्य का ज्ञान दे रहें हैं न कि भिक्षुक बना कर। वह कोई मौखिक प्रवंचना मात्र करने वाले गुरु नहीं है, वह तो आम मनुष्यों को भी साधनाओं की सिद्धि का अनुभव कराकर उन्हें कष्ट पीडा से मुक्ति दिलाने वाले गुरु है। वह केवल उपाय बताने, साधनायें समझाने तक ही सीमित नहीं वह तो जो कोई उनके पास एक बार कौतुहलवश भी जा पहुंचा वह स्वतः ही उनके चरणों में नत हो जाता है। तथा वह भी उसे साधना का अनुभव कराकर आनन्द के मार्ग पर अग्रसर कर देते हैं। वे निखिल धर्म तथा उनके दिये गये ज्ञान का विस्तार मानव मात्र के कल्याण के लिये ही कर रहे है।
इस जीवन की आपा-धापी में, संघर्षशील वातावरण में मनुष्य के लिये सफलता प्राप्त करना एक दुर्लभ सी क्रिया हो गई है। फिर वह ऐसे में लम्बी चौडी साधना पद्धतियों अथवा पूजा पाठ आदि क्रिया को सम्पन्न करके भौतिक क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त कर उस आत्म-तत्व को प्राप्त कर सकें। उसी हेतु दीक्षा आवश्यक है।
आज मानव रेडिमेड चीजों को अधिक पसंद करता है उदाहरणतः वह घर में खाना खाने की अपेक्षा, बाहर होटल में खाने में ज्यादा रूचि रखता है क्योंकि उसे घर में भोजन को प्राप्त करने के लिये एक लम्बी प्रक्रिया जो पूर्ण करनी पडती है। जब कि वह परिश्रम करना ही नहीं चाहता न उसके पास समय ही है ठीक उसी प्रकार व्यक्ति अपनी भौतिक और आध्यात्मिक पूर्ति के लिये विभिन्न साधनाओं को सम्पन्न करने के अपेक्षा दीक्षा लेना अधिक उचित समझता है क्योंकि साधना की एक लम्बी प्रक्रिया में समय देना संभव नहीं है।
दीक्षा का तात्पर्य है जो तुम नहीं प्राप्त कर सकते, गुरु तुम्हें दे। जीवन में सभी प्रकार के दुःख, दैन्य, भय, परेशानियां, बाधाओं, अडचनों को दूर कर शारीरिक मानसिक और आर्थिक लाभ हेतु मनुष्यों को दीक्षा की आवश्यकता पडती ही है।
इन सब परिस्थितियों को देख कर सद्गुरुदेव जी ने सभी के लिये दीक्षा देने का मार्ग सुगम किया है।
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