मन ही व्यक्ति को स्थूल जगत एवं सूक्ष्म जगत से जोड़ता है। अतः अब मन की सीमाओं, बन्धनों और आदतों को तोड़ना होगा, मन को नये ढंग से संवारना होगा। जो जीवन आप जी रहे हैं, वह आपके जीवन का केन्द्र नहीं। वह तो केवल बाह्य परिधि है। जीवन-केन्द्र तक पहुंचने के लिये और आन्तरिक शांति प्राप्त करने के लिये योग को अपनाना होगा। तभी आप उस स्थान पर पहुंच सकेंगे जहां और कुछ नहीं, केवल उच्च चेतना और सच्ची सजगता का साम्राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ है। यही आज के नये युग का योग है।
योग अब एक अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति भाव बन गया है। विश्व में कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहां के लोग इस प्राचीन विद्या में रूचि न रखते हों। किन्तु अभी इसके बारे में अनेक गलत तथा अस्पष्ट धारणायें विद्यमान हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि यह उनके लिये नहीं है, जो सामान्य जीवन से सम्बन्धित हैं, बल्कि केवल उन लोगों के लिये है, जो आत्म साक्षात्कार तथा उच्च आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं।
संसार में हजारों नव युवक मादक द्रव्यों के निरन्तर सेवन से अपनी आत्म शक्ति की चेतना को ध्वस्त कर रहें हैं। दवा व उपचार के आधुनिक साधन उपलब्ध होने के बावजूद भी अक्सर यह देखने को मिलता है कि वे पुनर्जीवन, योग तथा समस्यायें, जो सभ्यता के साथ तनाव, शिराव्याधि तथा स्नाविक विघटन के रूप में मनुष्य जीवन में व्याप्त हो गयी हैं, योगाभ्यास द्वारा दूर किया जा सकता है। अनेक पागल-खानों, अपराधियों, बिगड़े बच्चों तथा मानसिक व्याधियों से पीडि़त लोगों के सम्पर्क में आने से मेरा यह निश्चित मत है कि यदि नियमित तथा व्यवस्थित रूप से योगाभ्यास किया जाये, तो सम्पूर्ण मानव जीवन का कायाकल्प होकर नवजीवन प्राप्त हो सकता है।
अब प्रश्न यह उठता है- योग क्या चीज है? संक्षेप में योग वह विद्या है, जिसके द्वारा मनुष्य के भीतर निहित शक्तिशाली चेतना का विशेष शारीरिक, मनोवैज्ञानिक मनोदैहिक तथा आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा अनावरण होता है। योग का शाब्दिक योग मिलन तथा मिश्रण की वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति की निम्न चेतना का उसकी उच्च व शक्तिशाली चेतना से संयोग होता है। जैसे नदी समुद्र में मिलकर तदाकार हो जाती है, उसी प्रकार मनुष्य अपनी निम्न, सीमित तथा अल्प चेतना, मस्तिष्क तथा सजगता को योगाभ्यास द्वारा उस अनन्त असीम चेतना में मिलाकर अपने रोग, शोक तथा भय से छुटकारा पा लेता है तथा सुखी शांत एवं ज्ञानालोक सम्पन्न बन सकता है। योग के सभी अभ्यास मनुष्य के मन तथा शरीर को विकसित कर उस दशा में पहुंचा देते हैं, जिससे ध्यान, एकाग्रता तथा चिंतन द्वारा मानवीय सत्ता का, सर्वोच्च सत्ता से सम्पूर्ण एकीकरण एक वास्तविकता बन जाती है।
साथ, ही आसन-प्राणायाम से केवल शारीरिक लाभ ही नहीं होता, अपितु अब डॉक्टर तथा वैज्ञानिक भी यह मानने लगे हैं कि इनका प्रभाव शरीर के साथ मन, मस्तिष्क तथा मानसिक रोगों पर भी पड़ता है। मानसिक गड़बडि़यां, चिंता, शिराव्याधि, अनिद्रा का सफल उपचार आसनों द्वारा होता है, क्योंकि आसन अन्तः स्रावी ग्रंथियों, अधिवृक्क, चुल्लिका, क्लोम आदि ग्रंथियों को सक्रिय तथा प्रभावित करते हैं। इस प्रकार आसन न केवल शारीरिक दोषों तथा व्याधियों को दूर करते हैं, बल्कि मानव मस्तिष्क की असन्तुलित अवस्था में भी सुधार लाते हैं।
योग शब्द का मतलब एकाकार एवं मिलन होता है। इसका अर्थ व्यक्ति के भीतर परस्पर दो विरोधी व्यक्तियों की एकरूपता तथा सामंजस्यता है। हम दो व्यक्तित्वों में विभक्त हैं। ये दोनों व्यक्तित्व हमारे भीतर सक्रिय रहते हैं। हमारे भीतर सतत् अहं चलता रहता है। हमारा यह दोहरा व्यक्तित्व इतना क्लिष्ट तथा व्यापक हो गया है कि अपने असली व्यक्तित्व के केन्द्र बिन्दु का, जहां इन संघर्षरत शक्तियों का मिलन होता है, पता लगाना कठिन हो गया है।
प्रजापति ब्रह्मा ने योग का सर्वप्रथम उपदेश हिरण्यगर्भ को दिया था। ब्रह्मा सृजनात्मक तथा ब्रह्माण्ड में सृजन शक्ति के प्रतीक हैं। प्रत्येक व्यक्ति में वह सृजन शक्ति विद्यमान है। इसी ब्रह्माण्ड सृजन शक्ति को वेदों में ब्रह्मा नाम दिया गया है जिसने लोगों को योग का प्रथम उपदेश दिया है।
हमारे ऋषि महर्षियों को ध्यान के उच्च प्रयोगों में प्रकाश, अचेतनता, विस्तृत विश्व चेतना के अनुभव हुये थे। इन्हीं अनुभवों ने उन्हें योग विषयक खोजों में अग्रसर होने की प्रेरणा दी। ऋग्वेद काल से उन्होंने मानव मस्तिष्क रहस्यात्मक विपुल शक्ति तथा महान् आश्चर्य, जिन्हें वह जाने-अनजाने अथवा अतिचेतना के क्षणों में व्यक्त करता रहता है, अथक शोध जारी रखी। तत्पश्चात् उपनिषदों नें योग की व्याख्या की। अन्त में महर्षि पतंजलि द्वारा अपने योगसूत्र में इस योग विज्ञान की अधिकाधिक भाष्यों साहित्य उपलब्ध है। योग सूत्र में प्रारम्भ में पतंजलि कहते हैं कि ‘योग’ चेतना के आयामों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करता है। पतंजलि का अनुसरण करते हुये हम कह सकते हैं कि योग वह पद्धति है, जिसके द्वारा हम चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त कर उन पर अपना पूर्ण नियन्त्रण स्थापित कर सकते हैं। योग हमें वह क्षमता प्रदान करता है जिसके द्वारा हम चेतना के विभिन्न आयामों में प्रविष्ट हों।
योग के ये आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनका सतत् अभ्यास करने से साधक शनैः शनैः अंतः करण को निरूद्ध करता हुआ आधिभौतिकता को हटाकर अंतःवाहकता को पा जाने पर कैवल्य, पूर्णता से युक्त होता है। यही योगाभ्यास करने का परमोद्देश्य है।
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रदत्त योग सूत्र सर्वाधिक प्राचीन हैं, पतंजलि से पूर्व हिरण्यगर्भयोग सुप्रचलित था। ‘विष्णु पुराण’ के अनुसार हिरण्यगर्भ ने अर्थात् ब्रह्मा ने स्वाध्याय शील ऋषियों को योग विद्या का उपदेश दिया। योग विद्या के प्रथम प्रचारक हिरण्यगर्भ ही थे, वे चाहे ब्रह्मा हों, कपिल हों या स्वयं नारायण हों, उस काल में योग विद्या ग्रंथ लिखित नही था। गुरु शिष्य परम्परा द्वारा ही उसका ग्रहण, धारण एवं पठन-पाठन होता था। मानव समाज में योग विद्या का प्रवर्तन महर्षि कपिल द्वारा ही हुआ। बाद में अनेकानेक योग विद्या पर ग्रंथों का संवाद होने पर योग विद्या अत्यंत विस्तृत और जटिल हो गई। तब इस विद्या के संरक्षण हेतु पतंजलि ने इसे योग सूत्रें के रूप में ग्रंथ बद्ध किया।
सामवेद में भक्ति मार्ग का विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है। नारद, शाण्डिल्य आदि भक्ति-आचार्य सामवेद के प्रवक्ता रूप में स्मरण किये जाते हैं। पतंजलि योग सूत्र में ईश्वर प्रणिधान प्रकरण में भक्तियोग को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। अतः योग सूत्र और भक्तियोग में (सामवेद) में घनिष्ठ सम्बन्ध है। पतंजलि का योग सूत्र अत्यंत स्वच्छ तर्क-सम्मत, गूढ़ार्थ एवं ज्ञान का अद्वितीय ग्रंथ है, इसमें अत्यंत अल्प शब्दों में प्रवीणता पूर्वक यौगिक प्रक्रियाओं के निरूपण के साथ-साथ आत्म कल्याण का मार्ग प्रदर्शित किया गया है।
प्रथम- समाधि पाद में योग के स्वरूप, भेद, उद्देश्य, चित्त वृत्तियों एवं उनके निरोध के उपाय वर्णित हैं। यह भाग समाहित चित्त युक्त से उत्तम अधिकारियों के लिये है। इसमें मुख्यतः योग अर्थात् समाधि के स्वरूपों का वर्णन है।
द्वितीय- साधना पाद में भ्रम से चित्त युक्त व्यक्तियों के लिये समाधि की साधना हेतु साधन बतलाये गये हैं। इसमें क्लेश, कर्म, विपाक के अनुसार आयु, भोगादि की व्यवस्था, क्लेश निवृत्ति आदि के साधन, हेय आदि के त्याग हेतु अष्टांग योग के पांच बहिरंग साधन आदि विषय वर्णित हैं।
तृतीय- विभूतिपाद में सबीज समाधि के अंतरंग साधन-धारणा, ध्यान और समाधि हैं। इसमें भ्रमित चित्त वालों की चित्त स्थिति हेतु योगाभ्यासजन्य सिद्धियों और उनमें अनासक्ति के साधनों का वर्णन है।
चतुर्थ- कैवल्यपाद में पंचविधसिद्धिजन्य निर्माण चित्त, समाधि सिद्धि और कैवल्य स्वरूप का वर्णन किया गया है।
योग दर्शन में आत्म ज्ञान को अपनाने के लिये योगाभ्यास का मार्ग दिया गया है। योग का अर्थ है ‘चित्तवृत्ति का निरोध’ मन, अहंकार और बुद्धि को चित्त कहा जाता है। ये अत्यंत ही चंचल हैं, अतः इनका निरोध परम आवश्यक है।
योग के मतानुसार तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती है, जब तक मनुष्य का चित्त विकारों से परिपूर्ण है। अतः योग-दर्शन में चित्त की स्थिरता को प्राप्त करने के लिये तथा चित्तवृत्ति का निरोध (योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ पा-यो-सू-_ करने के लिये योग मार्ग की व्याख्या हुई है।
1- यम- यम योग का प्रथम अंग है। बाह्य और आभ्यन्तर इन्द्रियों के संयम की क्रिया को ‘यम’ कहा जाता है। यम पांच प्रकार के होते हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अर्थात् चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। योग दर्शन में मन को सबल बनाने के लिये इन पांच प्रकार के यम का पालन करना आवश्यक समझा गया है इनके पालन से मनुष्य बुरी प्रवृत्तियों को वश में कर योगमार्ग की ओर प्रशस्त होता हैं।
2- नियम- नियम योग का दूसरा अंग है। नियम का अर्थ है सदाचार को प्राश्रय देना। नियम के सभी पांच अंग हैं- शौच (शुद्धता), संतोष, तपस्, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान (अर्थात् ईश्वर के प्रति हृदय से अनुग्रह)। यम और नियम में अंतर यह है कि यम निषेधात्मक गुण है और नियम भावात्मक सद्गुण है।
3- आसन- आसन का अर्थ है शरीर को विशेष मुद्रा में रखना। पतंजलि योग सूत्र में आता है- ‘स्थिर सुखासनम्’ अर्थात् स्थिर भाव से सुख पूर्वक बैठने का नाम आसन है। आसन की अवस्था में शरीर का हिलना और मन की चंचलता इत्यादि का लोप हो जाता है, तन और मन दोनों को ही स्थिर रखना होता है। योग द्वारा शरीर स्वस्थ भी रहता है, जो कि योगाभ्यास के लिये आवश्यक है।
4- प्राणायाम- इसमें ‘श्वास प्रश्वास योगतिविच्छेदः प्राणायामः’ अर्थात् श्वास प्रश्वास दोनों की गति को संयत करना प्राणायाम कहलाता है। जब तक व्यक्ति की श्वास असंयत चलती रहती है तब तक उसका मन चंचल रहता है। श्वास वायु के स्थगित होने से चित्त में स्थिरता का उदय होता है। कुंभक, रेचक, पूरक आदि इसके अंग हैं। प्राणायाम से शरीर और मन को दृढ़ता प्रदान करता है।
5- प्रत्याहार- प्रत्याहार का अर्थ है- अपनी पांचों ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखना, उन्हें रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द के लोभ मोह में न फंसने देना। इन्द्रियां स्वभावतः अपने विषयों की ओर दौड़ती हैं, जबकि योगाभ्यासी के ध्यान के लिये इन्द्रियों को वशीवर्ती करना अनिवार्य होता है। अनवरत अभ्यास, दृढ़ संकल्प और इन्द्रिय निग्रह के द्वारा ही प्रत्याहार सम्भव है।
6- धारणा- धारणा का अर्थ है- चित्त को अभीष्ट विषय पर जमाना। धारणा आंतरिक अनुशासन की पहली सीढ़ी है। धारणा में चित्त को किसी एक वस्तु पर केन्द्रित कर देना होता है, वह वस्तु बाह्य या आंतरिक दोनों हो सकती है, जैसे कोई देव प्रतिमा, गुरु या इष्ट का बिम्ब, स्वरूप आदि। इस अवस्था के बाद साधक ध्यान क्रिया की ओर अग्रसर होता है।
7- ध्यान- ध्यान का अर्थ है- अभीष्ट विषय पर निरन्तर अनुशीलन। ध्यान की वस्तु का ज्ञान अविच्छिन्न रूप से होता है, जिसके फलस्वरूप विषय का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। मन की एकाग्रता के उपरांत ईश्वर प्राप्ति अथवा बोध ज्ञान के लिये ध्यान किया जाता है।
8- समाधि – इस अवस्था में ध्यान की वस्तु अर्थात् ध्येय की ही चेतना रहती है। यह एक उन्मनी अवस्था होती है, जिसमें मन अपने ध्येय-विषय में पूर्णतः लीन हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उसे अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। ध्यान की अवस्था में वस्तु की ध्यान क्रिया और आत्म चेतना रहती है, परन्तु समाधि में यह चेतना भी लुप्त हो जाती है। इस अवस्था की प्राप्ति हो जाने पर ‘चित्त वृत्ति का निरोध’ हो जाता है, जो कि पतंजलि योग दर्शन का उद्देश्य है। यही आत्मा का मोक्ष मार्ग भी है।
विनीत श्रीमाली
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,