शची की कथा को भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को महाभारत के युद्ध से पहले उनकी पीड़ा, विपरीत परिस्थितियों व आने वाली अड़चनों को कम करने व सांत्वना देने के लिये सुनाया था।
देवराज इन्द्र स्वर्गलोक में अपनी रानी शची के साथ रहते थे वे सम्पूर्ण ऐश्वर्य व राजकार्य के साथ खुशहाल समय व्यतीत करते थे। परन्तु उसी समय उनके शत्रु तवस्था के यहां त्रिशिरा नाम के बेटे का जन्म हुआ जिसके जन्म से ही तीन धड़ थे। तवस्था चाहता था कि उसका पुत्र अपने एक सिर से वेद वादन करे, दूसरे सिर से दिव्य सुरों का नाश करे व तीसरे सिर से इस सृष्टि को देखें।
त्रिशिरा बड़ा होकर एक शक्तिशाली व दृढ़ संकल्प शक्ति वाले व्यक्तित्व के रूप में सामने आया। वह घोर तपस्या कर अपने पिता के परम शत्रु राजा इन्द्र का नाश करता चाहता था। इन्द्र को भय था कि कहीं त्रिशिरा शक्तिशाली हो उनका शासन न हड़प लें, इस हेतु उन्होंने त्रिशिरा की तपस्या को भंग करने के लिये अप्सराओं को भेजा, परन्तु वे अप्सराऐं त्रिशिरा की तपस्या भंग नहीं कर पायीं। इन्द्र त्रिशिरा का वध करने के उपाय सोचने लगें, परन्तु शची इस से चिंतित हो रही थी उन्हें इन्द्र की सुरक्षा का भय था। त्रिशिरा जब तपस्या में लीन था, उसी समय इन्द्र ने अपने वज्रपात से उस पर प्रहार कर उसका वध कर दिया।
परन्तु राजा इन्द्र का हृदय इस घटना से अत्यन्त व्यथित था, उन्हें ब्राह्मण वध की आत्म ग्लानि हो रही थी। इसीलिये उन्होंने सब कुछ त्याग कर घोर साधना की जिससे वे पापमुक्त हो अपने हृदय की इस पीड़ा को दूर कर सके। कड़ी तपस्या के बाद उन्हें दिव्य वाणी का श्रवण हुआ- ‘उठो इन्द्र, तुम इस तपस्या द्वारा अपने पापों से मुक्त हुए’।
इन्द्र प्रसन्न हुये व शीघ्र अपनी रानी शची के पास पहुँचे ओर उन्हें अपने शत्रु पर विजय की सूचना दी व उनके राज्य में सभी ओर खुशी का संचार हुआ। परन्तु त्रिशिरा के पिता तवस्था अपने पुत्र की मृत्यु से बहुत दुखी व क्रोधित थे। उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों से विशाल यज्ञ द्वारा राक्षस वृत्रासुर को उत्पन्न किया और उसे इन्द्र का नाश करने का आदेश दिया। जब इन्द्र को तवस्था की तपस्या द्वारा उत्पन्न वृत्रासुर की सूचना मिली तो उन्होंने भी इस चुनौती का मुकाबला करने की तैयारी शुरू कर दी। इन्द्र और वृत्रासुर के बीच घमासान युद्ध हुआ जिसमें उस राक्षस ने इन्द्र को अपने मुख में दाँतों की बीच दबा लिया, तभी वरूण देव ने ज्रंभका अस्त्र (जिस अस्त्र से जंभाई आती है) से वृत्रासुर पर निशाना साधा, जिससे राक्षस ने अपना मुख खोला, इन्द्र देव ने स्वयं का छोटा कद कर तुरन्त अपना रास्ता बनाया और वहाँ से सुरक्षित बच गये। वृत्रासुर इतना विशालकाय था कि उसका सिर आकाश को छूता था वह अपनी पूँछ से पहाड़ गिरा सकता था, उसके चलने से पृथ्वी लोक व देवलोक में भूचाल आ जाता था, इसीलिये देवताओं द्वारा ऐसे विशालकाय दैत्य का संहार करना असंभव प्रतीत हो रहा था।
इसीलिये सहायता हेतु सभी देव भगवान विष्णु के पास गये और भगवान विष्णु ने देवों को वृत्रासुर के साथ शांति स्थापित कर, सही समय की प्रतीक्षा कर उसका संहार कर देने व उनकी सहायता का रास्ता सुझाया। भगवान विष्णु की आज्ञा का पालन करते हुये इन्द्र देव ने वृत्रासुर के समक्ष मित्रता का प्रस्ताव रखा जिसे दैत्य वृत्रासुर ने अपनी कुछ शर्तों के साथ स्वीकार किया। उसकी शर्त थी कि देव उसे न तो किसी अस्त्र जो न तो नम हो न ही सख्त, न लकड़ी का अस्त्र हो न ही शिला या पत्थर, न दिन हो और न ही रात में उसका वध कर सके। इन्द्र ने सभी शर्तें स्वीकार कर ली। एक बार संध्या के समय देवराज इन्द्र राक्षस वृत्रासुर को नदी के किनारे ले गये और समुद्र के फेन (झाग) जो न नम होता है न सख्त, से राक्षस पर प्रहार कर दिया और अपने वचनानुसार भगवान विष्णु समुद्र के फेन में समा गये और शीघ्र ही उनकी शक्ति से वृत्रासुर का संहार हो गया। इन्द्र ने वृत्रासुर का वध छल की सहायता से किया था इसी ग्लानि से चिंतित थे कि वे अपनी प्रजा को क्या मुँह दिखायेंगे कि उनके राजा ने एक दुष्ट को छल से वध किया और इसी कारणवश अपना राजपद छोड़ अचानक विलुप्त हो गये।
उनके पीछे धरती एवं स्वर्गलोक दोनों में अंधकार व विनाश व्याप्त हो गया, चोरी, लूट-पाट, असुरक्षा, राक्षसवृत्ति का विस्तार होने लगा। सभी देवगण इन्द्र को खोजने का बहुत प्रयत्न करते हैं परन्तु निराशा ही हाथ लगती है। एक सभा आयोजित होती है जिसमें सभी देवता राजा नहुष को इन्द्र देव के रिक्त पद पर अपने राजा बनाने का निर्णय लेते है। नहुष आयु के पुत्र व चंद्र वंश के राजा थे।
वे ऋषि वशिष्ठ के शिष्य थे और उन्होंने बहुत ही कम उम्र में वेद व पुराणों को कंठस्थ कर लिया था। राजा नहुष ने सौ अवश्मेध यज्ञ किये थे। उनकी प्रसिद्धि समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त थी, इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख सभी देवता राजा नहुष को स्वर्गलोक का राज्यपद देने का निश्चय करते हैं।
अगले ही दिन सभी देवता गुरु वृहस्पति की आज्ञा ले नहुष से मिलने के लिये पृथ्वी लोक पर प्रस्थान करते हैं। समस्त देवों को अपने महल में देख राजा नहुष अत्यन्त प्रसन्न होते हैं व उनका आदर सत्कार के साथ स्वागत करते है, देवता प्रसन्न होते हैं। वे नहुष के समक्ष उनके राज्यपद को ग्रहण करने का प्रस्ताव रखते हैं। राजा नहुष आश्चर्य चकित व प्रसन्न होते हैं कि सभी देवताओं ने उन्हें इस पद के योग्य समझा वे नहुष को बताते है कि उन्हें ऐसे राजा की आवश्यकता है जो देवों के साथ निर्णय लेने में सहायता करें व साथ ही पृथ्वी के प्राकृतिक तत्वों पर नियंत्रण भी कर सके। बहुत विचार- विमर्श के बाद नहुष देवताओं का निर्णय स्वीकार करते हैं।
इन्द्र का पदभार संभालने पर राजा नहुष को देवताओं की दिव्य शक्तियाँ भी प्राप्त होती है। उनके शासन में देवता खुश रहते हैं और राजा नहुष अच्छे शासक के रूप में अपना कार्यभार सम्पूर्ण निष्ठा के साथ संभालते हैं। परन्तु समय के साथ नहुष का व्यवहार भी परिवर्तित होता रहा दिव्य शक्तियों व देवलोक के ऐश्वर्य व चकाचौंध ने उसे दंभी, गुस्सैल व अभिमानी बना दिया। नहुष को ज्यादा और ज्यादा शक्तियों की लालसा होने लगी। नहुष अपने महल में सभी को बंधुआमय स्थिति में रखता व निरन्तर अपमानित करता रहता था। वह अपनी प्रशंसा व महानता में काव्य व गायन करवाता था। सभी देवता राजा नहुष में आए परिवर्तन से अत्यन्त व्यथित व अचंभित थे, वे असहाय थे क्योंकि वे अपने राजा का विरोध भी नहीं कर सकते थे। देवता अब इन्द्र के लौट आने की अपेक्षा करने लगे।
एक दिन नहुष देवलोक में अपने महल में विचरण कर रहे थे तभी उनकी दृष्टि शची पर पड़ी, पूछने पर ज्ञात हुआ यह उनके पूर्व राजा इन्द्र की अर्धांगिनी है। राजा नहुष के मन में शची से विवाह करने की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने देवी शची को कहा ‘क्योंकि अब मैं देवराज हूँ और तुम्हारे पति तुम्हें छोड़ गये है, इसीलिये अब तुम्हें मेरी अर्धांगिनी बनना स्वीकार करना होगा। शची ने पूर्ण तटस्थता के साथ नहुष को उत्तर दिया, ‘नहुष! आप भले ही देवराज हैं, परन्तु मैं सिर्फ एक ही इन्द्र जो मेरे परमेश्वर हैं, उन्हीं की अर्धांगिनी हूँ और चाहे कुछ भी हो जाए मैं उनका त्याग कदापि नहीं करूँगी।’ राजा नहुष ने जब कहा कि यह उनका राज्य है, उनके आदेश की अवहेलना संभव नहीं है तो वे तुरन्त ही महल त्याग कर गुरु बृहस्पति के यहाँ प्रस्थान कर देती हैं। राजा नहुष जो अभिमान में अंधे हो गये थे उन्हें कदापि यह स्वीकार नहीं था कि कोई उनके आदेश की अवहेलना करें। वे शची द्वारा प्रस्ताव ठुकरा देने से अत्यधिक क्रोधित थे, उन्हें कोई भी उपाय कर शची से विवाह करना था।
गुरु बृहस्पति ने शची (जो बेहद दृढ निश्चयी व बृद्धिमान थी) को सुझाव दिया कि ‘‘इन्द्र देव को वापस लाना सिर्फ उनके हाथ में है, अपने बुद्धिचातुर्य से तुम नहुष का घमंड तोड़ सकती हो’’ यह सुन शची ने कोई समय न व्यर्थ करते हुये अग्नि देव को उनका संदेश शीघ्र ही राजा नहुष तक पहुँचाने को कहा कि वे नहुष से एक बार वार्तालाप चाहती है। वायुदेव को उन्होंने इन्द्र देव की तलाश में लग जाने को कहा। शची ने राजा नहुष से क्षमा माँगी और विवाह के रखे प्रस्ताव हेतु बताया कि वे पन्द्रह दिवस के लिये यज्ञ का आयोजन कर रहीं हैं और जिसके बाद राजा नहुष पालकी में पूरे ठाठ-बाट के साथ उन्हें लेने गुरु बृहस्पति के यहाँ आ सकते हैं। शची ने एक और शर्त रखी कि जिस पालकी में वे आयें वह पालकी महान ऋषि उठायें, नहुष को शची देवी के द्वारा रचे जाल की भनक भी न लगी और नहुष ने यह स्वीकार कर लिया।
अब तक इन्द्रदेव को कोई भी ढूँढ नहीं पाया था, इसीलिये शची ने माँ उपश्रुति की आराधना की, उपश्रुति ने शची की प्रार्थना सुन उनकी इन्द्र देव को ढूँढ लाने में सहायता की। इन्द्र मानसरोवर में एक कमल में अपना कद छोटा कर जहाँ वे अपने द्वारा किये वृत्रासुर के वध के पाप से मुक्ति पाने के लिये साधना कर रहे थे। शची ने समस्त घटनाओं की इन्द्र को जानकारी दी, और उन्हें विश्वास दिलाया कि इन्द्र अब अपना पूर्व पद संभालने के लिये तैयार है। शची ने नहुष को परास्त करने के लिये जो रणनीति बनाई थी उसके बारे में भी इन्द्र को बताया। अपनी अर्धांगिनी की चतुरता व कर्त्तव्यनिष्ठा देख इन्द्र गद-गद हो गये। उन्होंने निर्णय लिया कि वे अपना देवराज पद पुनः ग्रहण कर लें।
दूसरी और पन्द्रह दिन की अवधि की समाप्ति के बाद राजा नहुष गाजों-बाजों के साथ व अष्ट ऋषियों द्वारा उठायी पालकी में जिनमें महानतम ऋषि अगस्त्य भी शामिल थे पालकी में बैठ शची को लेने निकल गये। नहुष बार-बार सर्प-सर्प (जल्दी-जल्दी) चलने को ऋषियों को कह रहे थे समस्त ऋषि भी परेशान थे परन्तु वे भी राजा की आज्ञा का पालन करने को विवश थे। ऋषि अगस्त्य जिनके कद में छोटे होने के कारण नहुष की पालकी एक ओर से झुक रही थी, नहुष जो पहले से ही क्रोध में अंधे हो चुके थे, उन्होंने अपना आपा खोकर ऋषि अगस्त्य को लात मार दी, इससे ऋषि अगस्त्य अत्यधिक क्रोधित हुए, उन्होंने उसी समय नहुष को ‘सर्पो भवः’ का श्राप दिया, कुछ ही क्षणों में नहुष सर्प बन गये। नहुष ने ऋषि से क्षमा याचना की परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी, नहुष को अपने घमंड का नतीजा मिल गया।
ऋषि अगस्त्य ने नहुष से कहा ‘तुम तब तक सर्प बने रहोगे जब तक तुम अच्छे शासक के गुण नहीं सीख लेते, अब जाओ।’’ ऐसा कह सभी ऋषि चले गये और महान राजा नहुष सर्प (अजगर) बन पृथ्वी पर गिर गये। अनेक वर्षो बाद जिस जंगल में सर्प बन नहुष रह रहा था, पाण्डव वहाँ से गुजर रहे थे तभी सर्प ने भीम को जकड़ लिया था तो अपने भाई को सर्प से छुड़ाने के लिये युधिष्ठिर ने सर्प (नहुष) को एक अच्छे राजा होने के गुण बताये। यह जानने के बाद नहुष पुनः अपने मानव रूप में आ गए। शची अपने पति देवराज इन्द्र को वापस पा खुश हुई। और इस प्रकार उन्हें अपना पद पुनः प्राप्त हुआ केवल अपनी पत्नी शची की कर्त्तव्यनिष्ठता व बुद्धिमता के कारण।
भौतिक जीवन में राजा नहुष के चरित्र से मानव समाज को यह सीख मिलती है कि अत्यधिक सफलता, उच्च पद की प्राप्ति हो जाने पर भी अहंकार से सदैव सावधान रहें, अहंकार में सद्चिंतन की शक्ति क्षीण हो जाती है, इससे जीवन में अत्यधिक ह्रास होता है। व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुये सभी श्रेष्ठजनों का सम्मान व अनुजों पर प्रेम प्रतिपादित करना चाहिये। अन्यथा शीघ्र ही बुरे कर्मो का फल हमारे अहित के रूप में प्राप्त होता है। जिसकी भरपायी करने में जीवन का अधिकांश समय लग जाता है।
देवी शची का गुणवान चरित्र नारी समाज के लिये प्रेरणादायक है, जिन्होंने जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सद्चिंतन व साहस से अपने पत्नी धर्म व राज धर्म का पालन किया। इसी तरह हमें भी अपने जीवन की विपरीत परिस्थतियों में साहस के साथ संघर्ष करना चाहिये, हमें अपने नैतिक धर्म के प्रति निष्ठावान व समर्पित रहना चाहिये।
निधि श्रीमाली
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