जिस प्रकार लहरें, झाग तथा बुलबुले जल से अलग नहीं है इसी प्रकार यह समस्त संसार आत्मा से अलग नहीं है अर्थात उसी में स्थित है (आत्मा) और उसी में लय प्राप्त करने वाले है।
ईश्वर व शरीर (जगत) के बारे में विस्तृत रूप से जनक व्याख्या करते है कि जैसे जल के भिन्न-भिन्न नाम रूप है। लहरे एवं बुलबुले जल में ही उत्पन्न होते है तथा उसी में रमण करते है और उसी में समा जाते है। उसी प्रकार ईश्वर से नाम रूपात्मक जगत उत्पन्न होता है, उसमें स्थिर रहता है और उसी में विलीन हो जाता है। इस सारी क्रियाओं के होने तथा होकर मिट जाने का जैसे जल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता उसी प्रकार ईश्वर भी इन सभी क्रियाओं से अछूता ही रहता है।
कपडे को ध्यान पूर्वक देखने पर जैसे वह धागों का गुथा हुआ समग्र रूप होता है इसी प्रकार विचार करने पर यह संसार ईश्वर से अलग और कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार धागों के बिना कपड़ा नहीं हो सकता, वैसे ही आत्म सत्ता को विश्व में से निकाल लेने पर विश्व अस्तित्वहीन हो जाता है।
जब हम किसी वस्त्र को देखते है तो हमारा ध्यान धागों की ओर नहीं जाता। धागों से गुथा हुआ अलग-अलग नाम वाले वस्त्रें में हम भिन्नता मानते है उन्हें अच्छा-बुरा, बड़ा छोटा आदि कहते है। जब कि सूत की दृष्टि से उनमें कोई भिन्नता नहीं होती। धागों के बिना वस्त्र जैसा कुछ भी नहीं हो सकता अर्थात यदि धागे न हो तो वस्त्र नहीं हो सकता। इसी प्रकार यदि जगत की रचना पर विचार करें, तो वह ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं है। आत्मा ही तो है संसार तो है ही नहीं जैसे धागों में अलग-अलग वस्त्र दिखाई पड़ते है उसी प्रकार ईश्वर में इस सारे संसार का सत्य है।
जैसे गन्ने के रस में शक्कर की प्रतीति होती है, वैसे ही यह जगत मुझ में ही अध्यस्त है और मैं इसमें व्याप्त हूं। गन्ने के रस से शक्कर बनती है। गन्ने के रस की बूंद में शक्कर है। क्या गन्ने के रस से शक्कर को अलग करके देखा जा सकता है? कारण रूप से रस है और कार्य रूप में शक्कर। जिस प्रकार यह दोनों अलग-अलग दिखते हुये भी एक है वैसे ही आत्मा शरीर तथा इस सम्पूर्ण जगत हो एक दूसरे में ओत प्रोत, रचा-बसा मैं अनुभव कर रहा हूं। जनक अपने स्वयं के अनुभवों को भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रहे हैं। यह उदाहरण उसी का है।
अज्ञान के फल स्वरूप यह समस्त विश्व आत्म के बारे में दिखाई देता है परन्तु आत्मा का ज्ञान हो जाने पर दिखाई नहीं देता। जिस प्रकार अज्ञान के कारण रस्सी सर्प की भांति प्रतीत होती है लेकिन यह रस्सी है यह ज्ञान होने पर वह सर्प दिखाई नहीं देता।
जब तक मुझे आत्म स्वरूप का ज्ञान, अनुभव, साक्षात्कार नहीं हुआ था तभी तक संसार दिखता था। जगत के नाम रूप, जगत के परिणाम सुख-दुःख आदि द्वैत से मैं मुक्त नहीं हो पाता था लेकिन जैसे ही मैं आत्म स्वरूप को उपलब्ध हुआ तो यह जगत सहज रूप में विलुप्त हो गया। बाधित हो गया नाम रूपात्मक द्वैत परक ज्ञान। अब इसीलिये मुझे यह विश्व दिखाई नहीं देता अब मुझे सर्वत्र मेरा अपना आपा ही दिखाई देता है।
प्रकाश मेरा स्वयं का रूप है, मैं उससे अलग नहीं हूं। अतः जब भी यह जगत प्रकाशित होता है, तो मेरे ही प्रकाश से अर्थात् मेरे ही प्रकाश से प्रकाशित है यह समस्त संसार।
जिस प्रकार प्रकाश के होने पर रस्सी में सर्प दिखाई नहीं देता तथा पूर्ण रूप से अन्धकार होने पर भी रस्सी में सर्प की भ्रांति नहीं होती। उसी प्रकार इस संसार के होने को, भले ही वह भ्रम रूप हो, जो प्रकाशित करता है वह और कोई नहीं प्रकाश स्वरूप मेरा निज स्वरूप है। अर्थात भ्रम रूप संसार के अस्तित्व के मूल में भी मैं ही हूं। मेरे प्रकाश के बिना इस जगत का अस्तित्व नहीं है।
महान आश्चर्य है कि अज्ञान से विकल्पित यह जगत अज्ञान से मुझे ठीक वैसे ही प्रतीत हो रहा है, जैसे सीप में चांदी, रस्सी में सर्प और जल में सूर्य की किरणें प्रतीत होती है।
जनक इस श्लोक में स्वयं को प्राप्त हुये अनुभव के प्रति आश्चर्य प्रकट करते है अब उन्हें अहसास हुआ कि मैं जिन उदाहरणों द्वारा अपने अनुभवों को शब्दों द्वारा देने का प्रयास कर रहा हूं उससे ठीक प्रकार से स्पष्ट रूप से बात नहीं समझायी जा सकती। अतः वह सभी उदाहरणों को एक साथ बताकर स्पष्ट करते है – मैं अधिष्ठान हूं इस जगत का जैसे सीप में चांदी का, रस्सी में सर्प का और रेत पर पड़ने वाली सूर्य किरणों में जल का भ्रम उत्पन्न होता है वैसे ही मुझमें यह संसार भाषित हो रहा है। ज्ञान होने पर, भ्रमों के कारणों का विनाश हो जाता है तथा सीप में दिखने वाली चांदी, रस्सी में दिखाई देने वाला सर्प और सूर्य किरणों के परिणाम स्वरूप रेत पर दिखाई देने वाला जल न जाने कहां गायब हो जाते हैं,ठीक उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान होने पर यह जगत भी न जाने कहा विलुप्त हो जाता है जो नहीं था वह सत्य लग रहा था इससे अधिक आश्चर्य और क्या हो सकता है।1
मुझसे उत्पन्न हुआ यह समस्त संसार मुझमें बिल्कुल उसी तरह लीन हो जाता है, जैसे घड़ा मिट्टी में, लहरें जल में और समस्त आभूषण स्वर्ण में लय को प्राप्त हो जाते हैं। ऊपर जो उदाहरण दिये गये हैं वे कार्य कारण के नहीं हैं। उसमें उसे दूसरा उत्पन्न होता। दूसरा पहले का परिणाम नहीं है। इनमें तो एक ज्ञान किन्हीं कारणों से दूसरे पर आरोपित हो गया है।
किसी स्थान पर स्मृति रूप पहले देखी गयी वस्तु का अध्यास कहलाता है। यह अध्यास की एक परिभाषा है। अब जनक कार्य-कारण के सिद्धान्त द्वारा अपने अनुभव का व्याख्यान करते हैं। यह मान्यता सांख्य-दर्शन को मानने वालों की है। मिट्टी से घट बना, जल से तरंगें उत्पन्न हुयी, स्वर्ण से आभूषण बने, इसी बात को कुछ इस प्रकार भी कहा जा सकता है। मिट्टी घ्ड़ा बनी, जल तरगें बना, स्वर्ण आभूष्ज्ञण बना। तो क्या इस प्रक्रिया से तरंग और आभूषण के कारण में कोई दोष उत्पन्न हुआ? नहीं! क्योंकि जब कार्य नष्ट हो गया, तो कारण जस का तस था। कार्य अपने कारण में ही तो लय हुआ। घड़ा टूटा, पर मिट्टी रही, तरंगें नष्ट हुईं, पर पानी रहा, आभूषण टूटे, पर स्वर्ण रहा। मिट्टी तरंगें और आभूषण आदि कार्य किसमें लय हुये अपने-अपने कारणों में।
आत्मरूप मुझसे यह जगत् उत्पन्न होता, मुझ ही में स्थित रहता है और फिर मुझमें ही समा जाता है। कार्य दृष्टि से तो न आरंभ है। न ही परिणाम । यह तो एक खेल-सा लगता है। जिस प्रकार एक व्यक्ति कभी नायक होता है, कभी खलनायक, कभी राजा होता है, तो कभी रंक, कभी पिता होता है, तो कभी पुत्र, लेकिन जैसे ही नाटक खत्म होता है वह उनमें कुछ भी नहीं रहता। वह तो एक ऐसा व्यक्ति होता है जो विभिन्न नाम रूपों में सदा रहा है। और उनके न होने पर भी अस्तित्ववान है। जनक बताते हैं ऐसा ही मैं हूं, मेरा स्वरूप है। मुझसे यह संसार पैदा होता है, स्थित रहता है, अन्त में मुझमें ही लय होता है।
ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जगत् का नाश हो जाने पर भी जिस मेरा, मेरे स्वरूप का विनाश नहीं होता, जो स्थिर और स्थित रहता है, ऐसे आश्चर्यरूप आत्मारूप को मैं स्वयं नमस्कार करता हूं।
पहली बार बार उन लोगों के लिये यह संकेत है, जो आत्मतत्व के परम अनुभव को अपने जीवन का लक्ष्य नहीं मानते, यज्ञादि अनुष्ठानों द्वारा विभिन्न लोकों में निवास के लिये प्रयत्नशील हैं। उन लोकों को प्राप्त करके भी जीव पुनः कर्मानुसार विभिन्न योनियों में गमन करता है। आ ब्रह्म भुवनाल्लो- कान्पुनरावर्तिनोऽर्जुनः- हे अर्जुन! ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी लोकों में जाकर जीव को पुनः वापस इस मृत्यु लोक में आना पड़ता है। कर्म द्वारा जो प्राप्त किया जाता है। वह स्थायी नहीं है। यहां इससे भी आगे संकेत है राजर्षि जनक का। वे कहते हैं कि ये ब्रह्मादि लोक भी स्थिर नहीं है। ये लोक को प्राप्त होते हैं।
लेकिन यहां सहज रूप से एक प्रश्न उठता है। ब्रह्मलोक पर्यन्त लोकों का लय किसमें होता है? लय का अर्थ है बीजरूप में रहना। इसका लय महज चेतना में होता है। और फिर वह बीज समय आने पर वृक्ष बन जाता है सृष्टि हो जाती है। जो था बीज रूप में, अदृश्य रूप में वह प्रकट हो जाता है। जब लय होता है, तो स्थूल से सूक्ष्म होने की प्रक्रिया घटती है। इस तरह नष्ट कुछ होता। जो है, वह नष्ट नहीं होता। सत् कभी असत् नहीं होता। और यह भी कि असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं होती, न ही सत् से असत् जन्मता है और यह असत् से असत् का प्रादुर्भाव ऐसा कहना ही गलत है।
यह ऊपर जो लय-उत्पत्ति की बात कही गयी, यह जगत का सत्य मान कर है। महाराज जनक को जो अनुभव हुआ, वह तो है जगत् के नाश का अर्थात् जगत् था ही नहीं। जो था ही नहीं, वह हो कैसे सकता है और ऐसे तत्व के भविष्य में भी होने का प्रश्न नहीं उठता। अज्ञान के नष्ट होते ही जगत् नष्ट हो जाता है, जगत् ही नहीं तो ब्रह्मादि लोक कैसे। इस प्रकार पारमार्थिक रूप से जो था, जो है और जो रहेगा। वह और कोई नहीं है, मैं ही हूं। मेरा कभी नाश नहीं होता! ऐसा जो मेरा अविनाशी रूप है, वह ब्रह्मादि लोकों से श्रेष्ठ है। मैं उस अपने स्वरूप को नमस्कार करता हूं मैं अन्य देवी-देवताओ को नमस्कार करता रहा कि वे प्रसन्न होकर मुझे अपने लोकों में वास दें, लेकिन आश्चर्य है कि सभी विनाशी हैं। मुझे अब ज्ञात हुआ कि मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूं। मैं ही नमन के योग्य हूं। इसलिये मैं स्वयं को नमन करता हूं।
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